कलाकर्म की नकारात्मक स्वायत्ता


 

आधुनिक साहित्यिक या कलात्मक उत्पादन अन्य सभी मानव संवेदनात्मक क्रिया-कलाप की तरह होकर भी अपनी एक विशिष्टता रखता है. यह विशिष्टता न केवल हमारे भाव-जगत को बनाने वाली संवेदनात्मक-अनुभावात्मक प्रक्रियाओं की कच्ची सामग्री और उत्पादन के औजारों की भिन्नता के चलते है वरन् अपनी पूरी रचना-प्रक्रिया में ही यह विशिष्ट है. रचनाप्रक्रिया की यह विशिष्टता समाज के सौन्दर्यपरक सम्बन्धों को वि-जड़ीभूत करते जाने या दूसरे शब्दों में जड़ीभूत सौन्दर्यभिरुचियों के निर्माण को असंभव बनाने में अपनी स्वायत्ता के कारण है. स्थिति सामंजस्य के सौन्दर्यपरक संबंधों या जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचियों का निर्माण कलात्मक उत्पादन नहीं है. यह निर्माण/उत्पादन कला के अपने स्वाभाविक उद्भव और विकास अर्थात् अपरिचित, अचीन्हे की तरह उपस्थित कला की अनुपस्थिति से (अ-कला से) मुठभेड़ और उस मुठभेड़ में अंतर्भूत संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुरूप कलात्मक निर्माण की प्रक्रिया का अपने स्वरूप-ग्रहण तक की परिपूर्ण यात्रा और फिर रचना के रूप में पाठकों/दर्शकों की मुठभेड़ से पुनर्निर्मित होते जाने वाला उत्तरजीवन जिस सामूहिकता (सौन्दर्यपरक) को संभव करता है, उसका हर स्तर पर निषेध है. यह उत्पादन कला को अस्मिता प्रदान करता है और उसके उद्भव में अन्तर्निहित अ-कला या अन-अस्मिता को कलात्मक अस्मिता के अपने ही विकास के आरम्भिक क्षण में बाँध देता है. अर्थात् अस्मिता/पहचान के नकार या अजनबियत से उद्भूत रचनाप्रक्रिया पलटकर कला के पहचान का नया आर्डर बनाने में खप जाती है, अ-कला को कला में परिभाषित किया जाता है, कला के आत्म-सत्य की पहचान बनती है, अनस्मिता अस्मिता के पहलू में खो जाती है, अंतर्वस्तु/अ-रूप रूप के मातहत होता है. इसे ही कई बार ‘कला कला के लिए’ कहा जाता है और जो ‘उत्पादन उत्पादन के लिए’ के पूंजीवादी नारे को ही अनुगूंजित करता है. इस तरह कलात्मक उत्पादन उंच-नीच वाले श्रेणीबद्ध सामाजिक श्रम-विभाजन और उससे बनने वाले ख़ास काट की सौन्दर्यभिरुचियों या सौन्दर्यपरक सामाजिक सम्बन्धों में कलाकार या कलात्मक उत्पाद की किसी विशिष्ट पहचान को कायम करना नहीं बल्कि ऐसे किसी भी सामाजिक विभाजन को असंभव बनाने में है. कलात्मक उत्पादन अनुभव-संवेदनात्मक जगत के सौन्दर्यपरक सामाजिक सम्बन्धों में दबा दिए गए आगामी की संभावना को उन्मोचित करता है, अपनी अस्मिता-मूलक सीमाओं के सतत नकार के क्रम में.     

  

कला की इस स्वायत्त रचनाप्रक्रिया को- इसकी नकारात्मक द्वंद्वात्मक पद्धति को कला के तीन ्षणों’  में मुक्तिबोध सामने रखने की कोशिश करते हैं.  सौन्दर्यानुभूति का प्रथम क्षण जैसा है अर्थात् रियल्टी प्रिसिपल के नकार की संवेदना का अनुभव-जगत में अचानक उदित होना है. सत्-चित्-वेदना का उद्भव है. दूसरा क्षण फैंटेसी के रूप में अनुभव-प्रसूत होकर, नितांत निजी से पैदा होकर ही, अनुभव की कन्या होकर ही प्रथम क्षण से परे अपनी खुद की एक निजता पाती है. कल्पना की सार्वभौमिक ताकत के सहारे विकसित फैंटेसी की निजता न केवल समकालीन संबंधों वरन उसके निर्माण के सम्पूर्ण अतीत को अपने में शामिल करती चलती है. यह निर्वैयक्तिक का उद्भव और फैंटेसी के व्यक्तित्व में उसका प्रकटीकरण है. फैंटेसी कार्य-कारण बद्ध बिम्बों की माला के बिखर जाने और एक नयी अभिव्यक्ति, कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए बेचैन है. वह आँखों के सामने मूर्त है. प्रवहमान मूर्तता है पर यह प्रवाह सामान्य समय के खोखले प्रवाह के स्थगन से उत्पन्न है. इसकी प्रकृति मोनाडिक है. तारादल जैसी पूंजीभूत है. यह पूँजी की निर्वैयक्तिक फैंटेसी  के संकट में उत्पन्न गतिरोध से फूटती है. इस बेचैनी में प्रथम क्षण का अनुभवात्मक सार रक्षित है बिलकुल नया होकर. रचना का तीसरा क्षण, फैंटेसी प्रसूत हो कर ही, उसकी पुत्री हो कर ही उससे स्वतंत्र है. भाषाई अभिव्यक्ति के क्रम में बनती-बिगड़ती विश्वात्मक फैंटेसी एक नयी निजता में ढलती जाती है. भाषा की सामाजिक निधि से फैंटेसी की मुठभेड़ रचना के रूप में एक नयी वैयक्तिकता हासिल करती है. कलात्मक निर्माण की यह नयी वैयक्तिकता पाठकों से मुठभेड़ के साथ पुनः नए रूपों में ढलने लगती है. इस तरह रचना प्रक्रिया का ऐसा सामाजिक प्रवाह है जो कालक्रमानुसरी नहीं बल्कि एकान्तिक सार्वभौमिक है. इसकी गति-शक्ति उस संवेदनात्मक उद्देश्य में है जो कला के आरंभिक क्षण में ही अंतर्भूत है. रचना का समय एक जैसी दुहराव वाली घडी की सुइयों जैसा नहीं बल्कि अभी से भरा है. ऐतिहासिक समय के अन्दर और उसके विरुद्ध और उससे परे के निर्माण का काल रचना-प्रक्रिया की समकालीनता है. अपने ऐतिहासिक भौतिकवादी अन्वेषण को जब रचनाकार की तरफ से मुक्तिबोध प्रस्तुत करते हैं तो वह निषेध की अनवरत गतिशीलता को सामने रखते हैं जहाँ निषेध का निषेध कोई संश्लेष नहीं, पूर्णता नहीं. यह नकारात्मक द्वंद्व की भौतिकता और उसके अंतर्भूत चरित्र का सिद्धांत की तरह प्रस्तुतिकरण है. विछिन्न प्रवाह की नैसर्गिकता को पाने की वेदना से आरक्त सिद्धांत. यहाँ अंतर्वस्तु रूप के भीतर होकर ही उसके खिलाफ और उससे परे है. जॉन होल्वे अंतर्वस्तु और रूप के ऐसे द्वंद्वात्मक सम्बन्ध को ek-stasis कहते हैं जैसे जन्म के ठीक पहले बच्ची माँ के गर्भ में होकर ही माँ के विरुद्ध और उससे बाहर अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है. 

रचना-प्रक्रिया के दोनों सिरे खुले हैं. किसी भी सिरे के बंद होने का मतलब है कि पाठक और रचना-प्रक्रिया का अलगाव होगा और रचना एक पण्य में रूपांतरित हो जायेगी. और इस खुलेपन के प्रति रचनाप्रक्रिया आत्मचेतस कैसे होगी? आत्मिक संवेदनात्मक उद्देश्यों में और वस्तुनिष्ठ प्रवृत्ति के रूप में? नए की जन्मकुंडली की केन्द्रीय समस्या यही है कि मार्क्सवाद एक सिद्धांत की तरह धर्म और दर्शन की जगह क्यों नहीं ले पाया? नया मनुष्य क्यों आकारहीन रह गया. और इस आकारहीनता में ‘प्रगतिशील’ और परम्परागत मार्क्सवादी परिणतियों के योग देने की आलोचना क्या स्वयं को उस चेतस प्रयास से जिसे ब्लोख कहते हैं not yet चेतस, ‘अब तक न पायी गयी अभिव्यक्ति’, नोवम को रूप देने के काम से बरी करना है? भय की अनन्त व्याख्याएँ, उसके कारणों और स्वरूपों की वैश्विकता और सर्वग्रस्तता के विमर्श क्या हमें इस समाज के अस्वीकार से रोक सकते हैं? इसके परे सोचने की चुनौती, इसके मूलभूत रूपांतरण के संवेदनात्मक उद्देश्यों की वास्तविकता से मुँह मोड़ सकते हैं ? भय को केंद्र में रख कर अस्तित्व की खोज जो है को स्वीकृत कर शुरू होती है और शून्यता-बोध में उसका विसर्जन होता है. बंद घेरों वाले वर्तुल में घूमना और घुमते जाना, सनातन की सनातन वापसी के, अनादि और अनन्त स्थैर्य के मिथकीय लोक की कल्पना जो है और जो हो गया है की तरह वर्तमान की बर्बरता को कहीं न कहीं हृदय में स्वीकार चुका है. इसलिए अपनी-अपनी परित्यक्त सूनी बावड़ी में मुक्ति की आशाहीन और गहन निजत्व में डूबी आत्म-शोधन की क्रियाओं में लिप्त है. उसकी ट्रेजिडी आत्मिक और वस्तुगत के द्वैत को चिंतन में न पा सकने की ट्रेजिडी है. सही व्याख्या न कर पाने की ट्रेजिडी है. चूँकि जो भी सामने है वह है नहीं हो रहा है , और इस होने का ख़ास ऐतिहासिक स्वरुप है- होना यहाँ है के खंडों में- स्टैसिस के, जो हो गया है, फिनिश्ड माल –रूप में बद्ध है. इस लिए भविष्य की आशा इस समाज में बैंक से मिलने सकने वाले लोन के अटकल के मातहत है.

पूँजी जैसी फैंटेसी के निर्माण के मूल में वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक का अंतर्विरोधी द्वंद्व है जो काल के एक-रेखीय, खोखले देशवत् चरित्र का निर्माण करती है . पूँजी एक निर्वैयक्तिक सत्ता है, जो स्वयं में मृत है और अपने जीवन के लिए वह जिन्दा रक्त के आधीन है. पूँजी की निर्वैयक्तिकता व्यक्तियों के माध्यम से ही स्वयं को सत्तावान कर सकती है. रचनाकार के लिए चरित्रांकन की समस्या इसलिए और भी कठिन है कि वहां लगातार वह समाज की निर्वैक्तिक सत्ता और चरित्रों की अपनी वैयक्तिकता के द्वन्द और उस द्वंद्व के संघर्ष, समाहार या सामंजस्य को स्थगित करने की कोशिश में बनती सामूहिकता की अभिव्यक्ति कैसे करे क्योंकि फैंटेसी केवल रचनाकार की इच्छा-शक्ति का परिणाम न होकर पूँजी की निर्वैयक्तिक सत्ता की इच्छा के अधीन हो उठती है. ऐसा लगता है कि यह निर्वैयक्तिक सत्ता रचनाकार के पीठ पीछे काम करने वाली एक अवचेतन सत्ता है. रचनाकार उसके अधीन है. वह रचनाप्रक्रिया की अलगावग्रस्तता और स्वयं-शत्रुता से जूझता रहता है. प्रसाद के कामायनी का वर्ग-चेतस पाठ करते हुए मुक्तिबोध ने आधुनिक व्यक्ति के अंतरतम संकट से आकार ग्रहण करती प्रतिक्रियावादी फैंटेसी और उसकी निर्वैयक्तिक सत्ता को उद्घाटित किया था. इतिहास व्यक्तियों को शासित करता है. व्यक्ति और उनके समूह महज इतिहास की कठपुतली बन जाते हैं. ‘पूंजीपति पूँजी का मानवीकरण है और मजदूर श्रम का’ (मार्क्स). इस समाज में अस्मिता महज एक चारित्रिक मुखौटा है. लेकिन इस मुखौटे को वास्तविक होने या सत्तावान होने के लिए जिंदा- हाड़- माँस वाली देह चाहिए. सचमुच के नए नए चरित्र और चरित्रों को चरितार्थ करने वाले कलाकार चाहिए. हमारा वैयक्तिक जीवन कई तरह के सामूहिक सम्बन्धों और उन सम्बन्द्धों के अनुरूप सामाजिक रूप से मान्य चरित्रों जैसे व्यवहार की बाध्यता से बनता चलता है. ऐसी स्थिति में हमारा अंतर्मन दमित इच्छाओं का प्रतिक्रियात्मक/ रिएक्टिव अधिशेष बनता जाता है. यह अधिशेष, पूंजीवादी मानस को हमारे अन्तरंग के और गहरे और घृणित शोषण के योग्य बनाता है. इसलिए अगर हम अपने चरित्रगत मुखौटों को जबरन उतार भी दें तो हमारे अन्दर कोई शुद्ध व्यक्ति- कोई अपनी वास्तविक पहचान नहीं, बल्कि एक विरूपित- विकृत चरित्र ही हासिल होगा. इस तरह पूंजीवादी समाज के भीतर(दीगर बात है कि कुछ लोगों ने अपने ‘मानस’ में पूँजी का एक बाहरी खड़ा कर लिया है!) हमारी सच्ची वैयक्तिकता स्थगित होती चलती है. इसका अर्थ यह नहीं कि सच्ची वैयक्तिकता बिलकुल अनुपस्थित है. वह वहां है केवल चारित्रिक मुखौटे को धारण करने वाले भौतिक आधार की तरह और उसका मुखौटों के धारण करने से अलग कोई अर्थ नहीं. उसकी अन्य कोई सामाजिक उपयोगिता नहीं है. सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम-काल के विशिष्ट मूर्तन के सिवा कोई और चारा नहीं है.

रचना में चरित्रांकन चाहे कितना भी वैज्ञानिक हो, हू-ब-हू यथार्थ नहीं होता. उसकी निर्मिति आत्मगत होने के कारण प्रतिबिम्बन या अनुकरणात्मक- जैसा है- के अतिरिक्त है.  चरित्रांकन का यह अतिरेकी चरित्र कई सारे चरित्रों की क्रिया-प्रतिक्रिया में अभिव्यक्त होता है और अपनी देश-काल आबद्धता के कारण हमेशा ही विकृत रूप अख्तियार कर लेता है. विकृति ही आधुनिकता की प्रकृति है. प्रकृत यहाँ विकृत के अलावा कहीं नहीं है. एक दूसरे की वैश्विक संलग्नता में, परस्पर संलग्नता से बनते सामाजिक रिश्तों और उन रिश्तों की अपनी-अपनी ख़ास-ख़ास उलझनों के बाहर, उनकी अपनी मर्यादाओं, उनकी अपनी मौलिकताओं के बाहर कोई शुद्ध व्यक्तित्व या चरित्र की खोज व्यर्थ है. हमारी अपनी दुनिया हमसे ही बनती है और देश-काल बद्ध होकर ही वह अतिरिक्त हो सकती है. अपनी ख़ास-ख़ास स्थितयों में धंस कर ही चरित्रांकन संभव है. परन्तु जैसा कि प्रेमचंद कहते हैं वह हू-ब-हू- ऐतिहासिक तथ्यों की तरह नहीं हैं. वह कल्पित है. चरित्रांकन चाहे देश का हो या काल का. शहर का नाम काशी है लेकिन वह काशी ऐतिहासिक दस्तावेजों की काशी नहीं है. जैसी है ठीक वैसी नहीं है. काशी कैसी हो सकती है लेखक इसे कल्पित करता है. विकृति के ख़ास पूंजीवादी तरीके में नकारे जाने की तरह उपस्थित होना इस समाज की प्रकृति है. इसलिए उसकी कल्पना हमेशा दो धारी तलवार है. चरित्रांकन के अतिरेकी चरित्र को कल्पित करने की दृष्टियों का भेद एक सीमा के बाद जो शत्रुतापूर्ण हो उठता है, वह विमर्श के तथाकथित ‘उत्तराधुनिक’ लोकतंत्र के आदर्शों में आपत् संकट नहीं बल्कि समकाल बनते हमारे आपसी संबंधों की विशिष्टता में, कला-साहित्य आदि रूपों में अभिव्यक्त इस समाज की अपनी मौलिक प्रकृति है. समस्या यह नहीं कि मानस में भेदों के लोकतंत्र को शत्रुतापूर्ण अभिव्यक्तियों के तर्क से कैसे बचाए रखा जाय और उसके लिए जरूरी क्या और कैसे कार्यभार लेखक या रचनाकार खुद के लिए तय करे, बल्कि यह है कि भेदों और इस तरह पहचान बहुलताओं में अभिव्यक्त इस समाज के मौलिक शत्रुतापूर्ण द्वंद्वात्मक स्वरुप की ऐतिहासिक मौलिकता में बंधी मनुष्यता की अनपहचानी अभिव्यक्ति को कैसे प्रस्तुत किया जाए. इस अनपहचाने की स्वायत्ता ‘एक’ के नकार में एकान्तिक अर्थात् एक मित्र के शब्दों में, एक के वास्तविक अंत की अनंतता में है. जपतिस्ता विद्रोही कहते हैं- एक नहीं, कई हाँ. एक नहीं की, एकांत की वैश्विकता और कई-कई सृजनात्मक रूपों का नव-निर्माण अभिन्न है. यह वैश्विक एकांतिकता कई-कई हाँ में निहित एक की प्राक्-कल्पना को सतत आलोचित करते जाने की प्रक्रिया की तरह विशिष्ट चरित्रांकन की स्वायत्ता है.

कलात्मक चरित्रांकन रोज़मर्रा के जीवन में संघर्षरत चरित्रों की परस्परता की आलोचना करता है. अपनी-अपनी विशिष्ट पारिस्थितिकी बद्धताओं को परे ठेलने, उसके साथ संघर्ष, समाहार या सामंजस्य प्रयत्नों में लगे विभिन्न चरित्र अपने सुख-दुखात्मक जीवन व्यापारों में बनते सामाजिक पहचानों की आलोचना करते हैं. इस आलोचना से ही चरित्रांकन संभव हो पाता है. यह आलोचना चरित्रांकन के अपने वास्तविक देश-काल के भीतर और उसके विरुद्ध एक आत्मगत प्रयास है. चरित्रांकन अपना एक भिन्न देशकाल रचता है. कफ़न कहानी कैसे चरित्रांकित होती है अगर इस पर थोड़ा विचार करें तो शायद बात और स्पष्ट होगी. कहानी की शुरुआत एक संकट और आपात के बीच होती है. सामान्य समय स्थगित है और कहानी का अपना समय शुरू है. वह यथार्थ जैसा लगता है पर यथार्थ है नहीं. वह जैसा है वैसा नहीं रहना चाहिए के संवेदनात्मक उद्देश्य से संगठित हो रही है. यह सोद्देश्यता हमारे काल-बोध में ठिठक पैदा करती है. यथार्थ जगत की हमारी खोज अपने सारे संवेदनात्मक-ज्ञानात्मक सीमाओं के साथ वहाँ प्रकट होती है. एक सर्वथा भिन्न काल-बोध की आकांक्षा का जहाँ जन्म होता है. कहानी अपने देश काल के चरित्रांकन के क्रम में गाँव और गाँव से जुड़ी सारी पहचानों की आत्मा-लोचना करती चलती है. परिवार होने की पहचान, जाति की पहचान, किसानी की पहचान, बेरोजगार-कामगार की पहचान, हिन्दू-धर्म और हिन्दू राष्ट्र की पहचान- और अंततः व्यक्ति और समाज की पहचान, सभी प्रश्नांकित हैं. यहाँ पहचानों की व्यवस्था न केवल प्रश्नांकित होती है बल्कि उसका बने रहना बर्बरता है इसका दृश्य उपस्थित होता है. यह दृश्य एक दृश्य-प्रवाह है. दृश्य-प्रभाव के केंद्र में घीसू और माधव का सतत आलोचनारत चरित्रांकन है. बुधिया की लाश का अंतिम संस्कार स्थगित है और इसके स्थगन के जिम्मेदार घीसू और माधव हैं जो कहानी की शुरुआत से ही सामाज के तर्कों-मान्यताओं और व्यवहारों को, जिनसे समाज और समाज की तरह महाजनी सभ्यता पुनर्जीवित होती है और जिसके पुनर्जीवन में ही जाति-धर्म-लिंग आदि के सारे शक्ति-सम्बन्ध खुद को बचाए रख सकते हैं, अग्रिम ही निरस्त करते चलते हैं. यह आगे ही निरस्त या निषेध की प्रक्रिया कहानी के अंत की तरह समाप्त नहीं होती है बल्कि ठिठक गयी है. दोनों नाचते नाचते गिर पड़े हैं. माया मुस्कुरा रही है कि आज तो ठीक है लेकिन कल तुम्हारा खेल जरूर खत्म होगा! धर्म की स्थापना होगी और तुमलोग और ज्यादा बहिष्कृत होगे. गाँव में रहना कठिन होगा. मजूरी को विवश होगे या मारे जाओगे. भूख ही माया बन भरमाती रहेगी. परन्तु एक दूसरी चीज़ अनायास ही उभर आती है. निर्गुण उद्भूत होता है. स्थगन सम्पूर्ण रूपांतरण की उत्तरोतर संभावना के साथ पाठक को घीसू माधव के अगले कदम की बेचैनी में शरीक कर लेता है. कहानी आज हमारे सामने निषेध के उस अग्रिम को, जो ठिठका है कहानी-समय में, अपने पढ़े-सुने जाने के दरमियान ही, पुनः उन्मुक्त करने का चैलेन्ज पेश करती है. रचना हमें अपनी बेचैनी में शरीक कर लेती है. इस तरह रचना एक प्रक्रियात्मक भौतिक शक्ति की संयोजक हो उठती है.           

ध्यान देना चाहिए कि रचनाकार की अपनी विश्वदृष्टि वहां नौकरशाही रुख अख्तियार कर लेती है जहाँ वह चरित्रों के वास्तविक जीवन संघर्षों के अपने अनुभवों में अन्तर्निहित नकारात्मक संवेगों को, अपने ‘संवेदनात्मक उद्देश्यों’ और प्रयोजनों को पूर्ण के अभिज्ञान से विवेकशून्य करार देता हुआ चरित्रांकन की एक वैकल्पिक पूर्णता के अनुकरण में उन्हें ढालने लगता है. रचनाकार अगर चरित्रों की प्रातिनिधिकता को बाहर से आयत्त विश्वदृष्टि की पूर्णता के अनुसार ढालने लगे (या यह ढालना ही तो प्रातिनिधिकता है!) तो वह चाहे अनचाहे वर्गीकरण करने लगता है और इस क्रम में वर्गीकृत होने के खिलाफ रोज़मर्रा के जीवन की आलोचनात्मक सामूहिकता के स्वभाव को स्थगित करता है. उसकी विश्वदृष्टि विचारधारा बन जाती है. वह जड़ीभूत, परिभाषित, वर्गीकृत करती है और इस तरह चरित्रांकन की स्वाभाविक नकारात्मकता अन्दर कहीं दबती जाती है और कई बार विकृत और बर्बर सौन्दर्य का रचनात्मक उपादान बनती है. चरित्रांकन अपना भिन्न देश-काल- अपनी सच्ची फैंटेसी- जीवन के भौतिक रिश्तों से कट कर हासिल नहीं कर सकता. इसलिए वह रचनाकार की ‘आत्मगत हो कर ही वस्तुगत है’. चरित्रांकन के इस देश-काल का स्वरुप इतिहास से भिन्न है. लुकाच जब आलोचनात्मक और समाजवादी यथार्थवाद में भेद करते हैं तो चाहे अनचाहे समाजवादी स्वप्नों को आलोचना से अलग कर निर्माण या रचना का एक नया आलोचनोत्तर (पोस्ट क्रिटिकल) घेरा बनाते हैं जिसकी कुछ आधारभूत मान्यताएं इस बात में निहित है कि क्रान्ति के बाद विकसित रूस में और ख़ास तौर पर स्टालिन और नौकरशाही वाले पार्टी-स्टेट की समस्या केवल विचारधारात्मक संघर्ष की समस्या है क्योंकि आधारभूत सामाजिक संबंध वहां बुर्जुआ नहीं रहे. अर्थात् पूँजीवादी उत्पादन से भिन्न समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों की समस्याएं समाजवादी सपनों को जन्म देती है और इसलिए पश्चिमी रचनाकार के लिए उन सपनों की ठीक-ठीक प्रकृति हमेशा पहुँच से बाहर है क्योंकि वे रोज़मर्रा में एक भिन्न और पतनशील बुर्जुआ सम्बन्धों में अवस्थित हैं. इसलिए आलोचनात्मक होना उनकी अनिवार्यता है. लुकाच ने राज्यकृत पूँजीवाद या ‘समाजवादी’ आदिम संचय की तरह पूँजी की अपनी ही अंतर्विरोधी गति के वैश्विक चरित्र और इस तरह ‘समाजवादी’ यथार्थवाद की आत्मालोचनात्मक भौतिकता को- मूलतः पूँजी के खिलाफ और उससे परे चरित्रांकन की ‘यूटोपिया’ को, उन्नीसवीं सदी तक प्रचलित दूर देश और भिन्न काल वाले किसी अनजान द्वीप की खोज और उसपर सर्वथा भिन्न जीवन प्रक्रियाओं वाली यूटोपिया में सीमित कर दिया. देश-काल की यह देशाबद्ध भिन्नता दरअसल देश-काल की जीवन्तता को दबा कर होने वाले अमूर्तन का तरीका है- देश-काल की भौतिक नैसर्गिकता- कंक्रीटनेस- अमूर्त समय की संख्यात्मक अभिव्यक्ति मात्र रह जाती है. शुद्ध रूप से मात्रात्मक होना- होमोजेनस -खोखला होना- बुर्जुआ समाज का विशिष्ट उत्पाद है. काल का यह नया गुणात्मक परिवर्तन- जीवंत कालों से हमारी क्रियाओं को अलग कर उसे महज श्रम-काल या अमूर्त श्रम काल में सार्थक करने की प्रक्रिया में हमारी सारी जीवन क्रियाएँ महज अमूर्त श्रम के खर्च की अपनी इकाई के अलावा कुछ नहीं रह जाती. इसे ‘वास्तविक अमूर्तन’ कहते हैं. पूंजीवादी समाज ने महान अमूर्तनों पर एकाधिकार की क्षमता से मानस को वंचित किया और इस तरह ‘वास्तविक अमूर्तन’ वाला समाज या वास्तविक अमूर्तन जैसे सामाजिक सम्बन्ध की बुनावट अस्तित्व में आई. यहाँ देश, अमूर्त काल की विशिष्टता मात्र है. या कहें कि ‘काल का देश जैसा रूपांतरण’ होता है. इसलिए यूटोपिया की विशेषता उसके नए काल-बोध से है. हमारे रोजमर्रा के खाली, रैकृत और समांगी काल के अन्दर दबा दिए जाने वाले कंक्रीट, नैसर्गिक, देह-काल, देश-काल की अपनी अनभिव्यक्त यूटोपिया दैनिक काल-बोध में हस्तक्षेप की तरह है. एर्न्स्ट ब्लौख ऐसी ही यूटोपिया को कंक्रीट कहते हैं क्योंकि यह कहीं बाहर से आयत्त नहीं बल्कि चीजों की अपनी गति में अंतर्भूत है. वह कहते हैं कि यथार्थ यथार्थ है इसलिए क्योंकि not-yet उसका संघटक तत्त्व है. कंक्रीट यूटोपिया not-yet, yet-not के प्रति स्वयं चेतस होने में आकार ग्रहण करती है. यह लेखक के संवेदनात्मक उद्देश्यों में संयोजित है.  इसलिए ब्लौख का घर- Heimat- कोई लौट कर वापस आने की जगह नहीं है- कोई घर-वापसी नहीं है और न ही कोई खोया हुआ वैसा घर बचा ही है जिसकी शास्त्रीय और अभिजनवादी परिकल्पना ‘घर-आँगन वाली भारतीयता’ की तरह अशोक वाजपेयी और उनके सहकर्मी करते रहते हैं. बल्कि यह घर अभी से भरे समय में निर्माणाधीन है. not- yet yet-not है. ब्लौख लिखते हैं:    

“ मनुष्य हर जगह अभी भी प्राक-इतिहास में जी रहा है, और सभी और हरेक चीज़ संसार के सृजन के सम्मुख खड़ी हैं, सही हैं. सच्चा जनन शुरुआत में नहीं है, अंत में है, और यह होना शुरू केवल तभी होता है जब समाज और अस्तित्व मौलिक हो उठता है, अर्थात् स्वयं को अपने मूलों से ग्रहण करता है.  लेकिन इतिहास का मूल रचनारत, सृजनरत मनुष्य है जो यथातथ्यों का पुनर्गठन और मरम्मत करता है. एक बार जब वह स्वयं को और अपने को ग्रहण कर लेता है, शोषण और अलगाव के बिना, वास्तविक लोकतंत्र में, तब इस दुनिया में कुछ ऐसा उद्भूत होता है जो सबके बचपन में झलकता है, और जिसमे कोई भी अभी तक नहीं गया है: घर.

इस घर के संघर्ष को और उसकी मौलिकता को न सह पाने और उसके न होने की वास्तविकता से घबरा कर हम मानस में कृत्रिम रूप से बना लिए गए अपने शून्य को ‘भारतीय घर-आँगन’ की खो गयी वास्तविकता की तरह पेश करते हैं और उसी में खोये रहते हैं. यह हमारे संवेदनात्मक जगत में उपस्थित नए के अतिरेक अनुभवों को वर्तमान की सार्थक आलोचना में विकसित नहीं होने देता और हमारे सौन्दर्यपरक श्रम को जड़ीभूत करता है. मानस में कृत्रिम रूप से बना लेने वाले, बन जाने वाले इस शून्य की भौतिकता का उद्घाटन मुक्तिबोध के चरित्रांकन की विशेषता रही है. एक उदाहरण ले सकते हैं. वीरकर ‘एक साहित्यिक की डायरी’ का एक चरित्र भी है और एक अध्याय भी. वह लेखक की रचना का सहयात्री है. दोस्त है. अन्य मित्रों की तरह वह भी लेखक की रचनाओं को ध्यान से पढ़ता और अपनी आलोचना स्पष्ट शब्दों में उसके सामने रखता है. वह एक आलोचनाशील पाठक है और जीवन जगत के मूल प्रश्नों पर चिंतन मनन करता रहा है. अपनी वर्ग-श्रेणी से गिरा हुआ , निर्वासित और बाहरी की तरह समाज में जीने को बाध्य है. इस तरह वह उन तमाम रचनाकारों का सहयात्री है जो समकालीन वस्तुस्थितियों की इस अभिशप्त ऐतिहासिकता के साथ सृजन के संघर्ष में रत हैं. अपने वर्ग द्वारा निष्काषित. उनकी आँखों में किरकिरी पैदा करने वाले. वीरकर के अनुसार “ अब बताइये हम सरीखों पर क्या-क्या नहीं गुजरती. जिस वर्ग से हम गिरे हैं, वह वर्ग हमें फाटे कपड़ों में भी संतुष्ट रहने नहीं देता. वह हमारे पीछे पड़ा रहता है. अब बताइए उसे कैसे झकझोरें. उसके मानदंडों की पूर्ति के लिए (गन्दी गाली देकर वीरकर ने कहा था, मैं यहाँ भद्र गाली का उपयोग कर रहा हूँ) हम अपनी ‘ऐसी-तैसी’ करते फिरें!”

अपने वर्ग में मिसफिट रचनाकारों की जीवन स्थितियाँ काफी अस्थिर है. उन्हें निरंतर घोर प्रतिस्पर्धा वाली- ठेलमठेल स्पर्धा वाली-  चक्करदार सीढ़ियों पर चढ़ने और टिकने या टिके रहने के लिए जीवन से घृणित सामंजस्य स्थापन करना होता है. यह सामंजस्य स्थापन का प्रयत्न उसमें और गहरी रिक्तता पैदा करता है. यह रिक्तता कैसी है- “वह जीवन जो जिया या भोग जाता है, उसमें इतने अधिक तत्त्व हैं- सुबह से लेकर शाम तक मन पर उन तत्त्वों का इतना अधिक संवेदनात्मक प्रहार होता रहता है कि उत्तेजित हो- होकर मस्तिष्क की रगें, मस्तिष्क के तंतु, अपने आराम के लिए उन तत्त्वों को टाल देते हैं, भूल जाने की कोशिश करते हैं, और मन जान-बूझ कर अपने में शून्य का निर्माण कर लेता है.” आराम या अवकाश इतना भी नहीं है कि वह उन संवेदनात्मक वस्तुतत्त्वों के अपने कलात्मक रूपांतरण को संभव कर पाए. सम्पूर्ण जीवन प्रक्रिया का श्रम-काल में रूपांतरण वह सामाजिक स्थिति है जिसमें लेखक, वीरकर और उनके सहयात्री संघर्षरत हैं. मन के द्वारा निर्मित शून्य अवकाश को काम-काजी दिवसों की सुचारिता में शामिल करने का या कहें कि जिन्दा रहने के लिए सामाजिक स्थिति से सामंजस्य स्थापन का एक तरीका बन जाता है. रचनाकार अपने इस शून्य में खोया रहना चाहता है. खो जाता है. अपने को भूलाये रहता है. इस तरह यह शून्य किसी शाश्वत कलात्मक वस्तुतत्त्व का प्रतीक नहीं वरन द्वितीय विश्युद्धोत्तर/ उत्तर-औपनिवेशिक पूंजीवादी समाजों की अपनी विशिष्ट प्रकृति से पैदा हुई शून्यता है. इस कृत्रिम शून्य में पर्यवसित करने की अपनी चेष्टा के वावजूद रचनाकार-कामगार के जीवन-संघर्ष में अतिरिक्त संवेदनाघात के वस्तुतत्त्व मर नहीं जाते वरन् ‘अंडर-ग्राउंड’ हो जाते हैं. वीरकर इस अंडर-ग्राउंड की महत्ता (सिग्निफिकेंस) को पहचानने और उसको आत्माभिव्यक्ति का आधार बनाने की बात कहता है. बनिस्पत कि रचनाकार एक कृत्रिम शून्य का निर्माण कर उसमें खो जाय “ मैं यह समझता हूँ कि लेखक को आज इस स्थिति से उबरने की आवश्यकता है.” अपने मन में एक शून्य बनाकर दरअस्ल रचनाकार अपने मन के ‘अंडर-ग्राउंड’ वस्तुतत्त्वों की महत्ता को नहीं पहचानने की आदत डालता जाता है. वे भाव-अनुभव जो अवकाश के अभाव में- सुबह,दोपहर,शाम और रात के नित्य दुहराव में- दबाये जाते रहते हैं, उन्हें अपनी विशिष्ट रूपभिव्यक्ति का मौका ही नहीं मिलता और इस तरह उनकी अपनी स्वायत्ता ‘अंडर-ग्राउंड’ हो जाती है, उनकी महत्ता को रेखांकित करने का तात्पर्य यह है कि श्रम-प्रक्रिया या जीवन प्रक्रिया में दबा दिए जाने वाले, भुला दिए जाने वाले सृजनात्मक-कलात्मक क्षणों की आत्माभिव्यक्ति को उन्मुक्त किया जाय. परन्तु यह आसान काम नहीं है. रोजमर्रा के उलझनों में डूबे कलाकार को ‘अंडर-ग्राउंड’ सत्यों और तथ्यों की “अनेक नमूनों में पुनर्रचना करने के लिए, बहुत गहरी चिंतन-शक्ति चाहिए. उसे इसकी फुरसत ही नहीं है. और फुरसत यदि है भी तो बहुत थोड़ी सी.” अकारण नहीं कि फुरसत निकालना भी स्वयं एक कलात्मक कार्यवाई में बदल जाता है. फुरसत की तलाश न केवल कृत्रिम शून्य का आविष्कार करती है वरन् काम और फुरसत का पूंजीवादी विभाजन, जीवन-प्रक्रिया और सृजन प्रक्रिया के द्वैत में पुनुर्त्पादित होता रहता है. यह सही है कि ‘अनुभव संवेदन और अनुभव प्रक्षेपण दोनों साथ-साथ नहीं चलते’ परन्तु रचनाकार की कल्पना-प्रवणता, उसकी कल्पना-शक्ति जो उसके ‘जीवन का एक धर्म है’ और जिसका वह ठीक पालन नहीं कर पाता क्योंकि ठीक पालन करने का अर्थ है कि भूख का संकट. इसलिए वह स्वयं को एक चारित्रिक मुखौटे में नाट्यरत देखता है. वह देखता है कि “वह म केवल एक झूठ निर्माण कर रहा है, करता जा रहा है. उसमें एक डबल पर्सनैलिटी, एक द्वित्व है.”

पूंजीवादी समाज में अलगाव-ग्रस्त रचनाप्रक्रिया अनिवार्यतः इस ‘द्वित्व’ से बिंधी हुई है. मजदूरों के सामने उसके उत्पादन के साधन पराई शक्ति की तरह उनके ऊपर खड़े हैं. वह जो कुछ करता है वह उसका नहीं बल्कि पराया है. वह एक पराई सत्ता का महज मानवीकरण है. उसकी रचना प्रक्रिया में आतंरिक विच्छेद पैदा हो गया है. यह आतंरिक विच्छेद शत्रुतापूर्ण है. मार्क्स पूँजी में इस आतंरिक विच्छेद को ज्यादा ठोस और वैज्ञानिक रूप से ‘श्रम का दुहरा चरित्र’ कहते हैं जो कि इस सभ्यता की आलोचना की धुरी है और वह पैदा करने के इस समाज की रीति में ही अंतर्भूत है. श्रम का दुहरा चरित्र इस समाज की अंतर्भूत आलोचना में सक्षम है. अलगावग्रस्त श्रम-प्रक्रिया को ही अब मार्क्स ‘अमूर्त श्रम’ कहते हैं. इस तरह पूंजीवादी समाज में कल्पना-प्रवण सृजनात्मक शक्ति या जिसे मार्क्स रूप-दायी अग्नि (फॉर्म गिविंग फायर) कहते हैं वह जब प्रकट होती है मूर्त होती है तो आतंरिक रूप से द्विधा-विभक्त हो जाती है. (उपयोगी और अमूर्त दो श्रम नहीं बल्कि अमूर्त श्रम का ही दुहरा चरित्र अख्तियार करना है. उपयोगी श्रम अमूर्त श्रम के भीतर उसके निषेध की तरह है. उपयोगी श्रम है ‘अपने नकारे जाने की तरह’ (रिचर्ड गुन)).  इस द्विधा विभक्ति को चुनौती दिए बिना सृजन असंभव है. ‘अमूर्त श्रम’ ठोस, नैसर्गिक और कलात्मक रचने का निषेध है. रचनाकार का आत्मान्वेषण अपने इस द्वित्व के ‘इस डबल पर्सनैलिटी के जीवन दृश्य’ प्रस्तुत करने को बाध्य है. वीरकर सौन्दर्य परक श्रम की उस आलोचनात्मक पद्धति को रचनाकार का धर्म बताता है जो अपनी जीवन-प्रक्रिया के दुहरे चरित्र को उद्घाटित करता हुआ अपनी विशिष्ट जीवन स्थितियों में उसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति कर सके. “विवशतापूर्वक ही क्यूँ न सही, तुम्हें डबल पर्सनैलिटी न सही डबल स्टैण्डर्ड रखना ही पड़ता है. मुझको भी रखना पड़ता है. तुम्हारी बुद्धि एक पण्य वस्तु है- एक ‘कमोडिटी’ है. ... लेकिन सोचो, कि जिस अनुभव संवेदन में तुम लगातार लीन रहते हो, यदि उस संवेदन को तुम प्रकट न करोगे, तुम न बताओगे, तो किसको क्या पड़ी है कि वह बतावे! अपने अनुभवों का तुम सिग्निफिकेंस (महत्व) पहचानो. सामाजिक दृष्टि से तुम्हारा स्थान कुछ नहीं, इसलिए तुम अपने को हेठा या छोटा मत समझो... अपने ही ईमानदार अनुभव-संवेदनो को तथा अपने जीवन के स्थायी भावों को प्रॉपर पर्सपेक्टिव (सही परिप्रेक्ष्य) में पहचानो.” रचनाकार का आत्मानुसंधान, अपनी जीवन-प्रक्रियाओं में उत्पन्न इस दुहरे चरित्र के प्रति आलोचनशील होने में ही अपने भाव-संवेदनो को सही परिप्रेक्ष्य में पहचान और अभिव्यक्त कर सकती है. सौन्दर्यपरक श्रम की आत्मालोचना करते हुए, अपने दबा दिए गए भाव-अनुभवों को उसके सही परिप्रेक्ष्य में रखते हुए जब समकालीन रचनाकार अपनी ईमानदार अभिव्यक्ति कर्ता है तो “ उस वर्ग के आलोचक तुम जैसों को कहते हैं कि तुम ‘ओब्सक्योर’ हो. जो लिखते हो उसका ठीक-ठीक अर्थ समझ में नहीं आता. या फलाँ हो, फलाँ हो. असल में तुम्हारी दुनिया ही अलग है. तुम्हारे डिजिट्स (गणित) ही अलग हैं. तुम्हारा वातावरण ही अलग है. तुम्हारी प्रेरणा ही भिन्न है. वह भला उनके लिए अनुकूल क्यों होगी? वह उन्हें समझ में कैसे आ सकती है? क्यों, वह उन्हें सुन्दर क्यों लगेगी?” 

शून्यता की स्थिति से उबरने का अर्थ है उसे सही परिप्रेक्ष्य प्रदान करना. ‘अरूप शून्य के प्रति’ कविता में जब कहा जाता है कि ‘नहीं, मुझे तेरी बिलकुल जरूरत नहीं’ तो क्या यह शून्य की निःसारिता का महज अभिज्ञान है या अरूप शून्य को बार-बार जन्म देने वाली अनिवार्यता का, उसके भौतिक अंतर्विरोधों का और सबसे बढ़ कर हमारी ही सृजनात्मक पर टिकी और हमारे ही ऊपर शासन करने के शास्वत लगने वाले चरित्र का वास्तविक निषेध है? जगत समीक्षा और आत्म-समीक्षा के आलोक में , अरूप शून्य की विश्वात्मक फैंटेसी के वर्ग-चरित्र मूलक वास्तविकता की आलोचना करते हुए- दर्शन के वर्गीय चरित्र का उदघाटन करते हुए- नकार का संकल्प संगठित होता है.   

ओ रे निराकार शून्य!
महान् विशेषताएँ मेरे सब जनों की
तूने उधार लीं
निज को सँवार लिया,
निज को अवशेष किया
यशस्काय बन गया सर्वत्र आविर्भूत!   

‘मेरे ही जनों’ की सम्मलित शक्ति को हमसे छीन कर ही तुम्हारा निर्माण हो रहा है, तुम्हारा तर्क दर्शन बन रहा है. यश की काया- हमारी सृजनात्मकता को मार कर महज कला का बाज़ार बनाए रखने में बनती है. और निराकार शून्य ही यश का देह धर सृजन के वास्तविक घर को बनने नहीं देती. अरूप शून्य अलगाव-ग्रस्त श्रम की वास्तविकता है. अमूर्त-श्रम की विश्वात्मक फैंटेसी जो वास्तव है. इस फैंटेसी को बनाये रखना एक हिंसक कार्य –व्यापार है और इसकी हिंसा हमारे अंतर्मन के बहुत गहरे शून्य की ‘नैतिकता’ बनकर स्व-अनुशासित है. परन्तु वह हिंसा बताती है कि उसका निर्माण वर्ग-संघर्ष से ही संभव है. उत्पीड़ितों की परम्परा का धर्म-द्रोही चरित्र कहीं सामूहिक सृजनात्मकता की भौतिकता न हासिल कर ले, नास्तिक कर्म अपना सहज और प्राकृतिक विछिन्नता मूलक चरित्र न अख्तियार कर ले इसके लिए ‘राज्य’ की तरह निराकार शून्य स्वयं को समाज और राज्य के वास्तविक अलगाव की तरह प्रस्तुत करता है. हमारी सृजनात्मकता और आत्मनिर्धारण की ताकत हमसे छीनी जाती है और हम महज यश-काय की विशिष्ट अभिव्यक्ति मात्र बन जाते हैं. देह पर हिंसा के चिन्ह आशीर्वाद होते हैं.

ओ नट-नायक सारे जगत् पर रौब तुम्हारा है !!

तुमसे जो इनकार करेगा

वह मार खाएगा

और, उस मूंछ के

हवाई बाल जब

बलखाते, धरती पर लहराते,

मंडराते चेहरों पर हमारे

तो उनके चुभते हुए खुरदुरे परस से

खरोंच उभरती है लाल-लाल

और, हम कहते हैं कि

नैतिक अनुभूति

हमें कष्ट देती है।

और, हम कहते हैं कि

नैतिक अनुभूति

हमें कष्ट देती है।

 

परन्तु ‘खुदा के बन्दों का बंदा हूँ बावला’ कहने वाला यह काव्य नायक कविता के अंत तक आते आते वेदना-प्रसूत सत्य को बताने में- कविता के आखिरी हिस्से में, कविता के भीतर अपने अनुसंधान की काव्यात्मक प्रस्तुति में ‘रहस्यात्मक’ बिम्बों का प्रयोग क्यों कर रहा है? क्या ऐसा कर वह अरूप शून्य को रहस्यात्मक अनुभूतियों वाले बिम्बों-प्रतीकों में ही पुनः सृजित नहीं कर रहा?

मेरे इस साँवले चेहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं,
दाग हैं,
और इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई आग है,
अग्नि-विवेक की।
नहीं, नहीं, वह-वह तो है ज्वलन्त सरसिज!!
ज़िन्दगी के दलदल-कीचड़ में धंस कर
वक्ष तक पानी में फंस कर
मैं वह कमल तोड़ लाया हूँ -
भीतर से इसीलिए, गीला हूँ
पंक से आवृत,
स्वयं में घनीभूत,
मुझे तेरी बिलकुल ज़रूरत नहीं है। 

और केवल इसी कविता में नहीं कई जगह मुक्तिबोध की कविताओं में धर्म-द्रोही परम्पराओं के, ख़ास कर नाथों, सिद्धों और संतों के काव्यात्मक-साधनात्मक प्रतीकों की उपस्थिति है. इन्हीं प्रतीकों और बिम्बों को सामने रख राम विलास शर्मा प्रकट रूप से और कई आलोचक छुपे रूप से मुक्तिबोध को रहस्यवादी या ओबस्क्योर कहते हैं. यह ओब्स्क्योरिटी या दूसरे शब्दों में कहें तो रहस्यात्मकता ‘नए’ के अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति के कठिन प्रयासों में अन्तःस्यूत है जिसे अक्सरहां ‘उस वर्ग के आलोचक/आचार्य’ पसंद नहीं करते. उन्हें इसके संक्रामक होने से भय लगता है. इसलिए उन्हें तत्काल ‘इल्हामी’, विदेशी, सामी, बाहरी आदि बताकर सौन्दर्यपरक संबंधो की वैष्णव शुद्धता बचाने का कार्यभार वे अपने कन्धों पर ले लेते हैं. आचार्य शुक्ल के लिए कबीर आदि संतों की रहस्यात्मक संवेदना खलल पैदा करती थी क्योंकि संतों के अनुभव सच के ‘डिजिट्स’ ही अलग हैं और न केवल अलग हैं बल्कि आचार्य की व्यवस्था में शत्रुतापूर्ण हो उठते थे. असमंजित रह जाते थे. एक ‘भारतीय आत्मा’/ ‘संस्कृतात्मा’ को परिभाषित करने में सबसे बड़े संकट की तरह उपस्थित हैं. आत्मा के भीतरी शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध, ‘अन्तरंग अन्यता’ की किसी भी वैष्णव परिभाषा को संकटग्रस्त बनाता है. इस वास्तविकता को छुपाने के लिए ही संतों की रह्स्यानुभूतियों और उनको अभिव्यक्त करने की कोशिश में बनते बिगड़ते काव्यात्मक बिम्बों और प्रतीकों को- जो कि आचार्य की ज्ञान-व्यवस्था को भंग करते थे- बाहरी, अभारतीय, सामी और विशेषकर इल्हामी धर्म परम्पराओं की अनन्य विशेषता बताना और इस तरह पलट कर स्वयं को भारतीय/वैष्णव आत्म की तरह संयोजित करना या दूसरे शब्दों में अन्तरंग-शत्रुता से बचने के लिए उसका बाह्यकरण करना आचार्य होने की शर्त बन गया. कहना न होगा कि अन्तरंग-शत्रुता को दबाने के लिए उसका बाह्य प्रक्षेपण साम्राज्यवादी तर्क है जो प्रथम विश्वयुद्ध के साथ ही विकसित होती हिंदी आलोचना की प्रभुत्वशाली धारा बन रही थी और वह भी देश-भक्ति के साथ घुल-मिल कर आ रही थी. रामविलास जी ने चाहे अनचाहे मुक्तिबोध को रहस्यवादी और पतनशील बुर्जुआ संवेदनाओं के प्रचारक की तरह प्रस्तुत कर आचार्य शुक्ल की साम्राज्यवादी/पूंजीवादी आलोचना दृष्टि को ही पुनराविष्कृत किया. .... (जारी)

 

        


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