दो एक संवाद




एक-                      अरे भाई प्यारेचंद देख रहा हूँ तू बहुत बड़ा लिक्खाड़ हो गया है. किसी भी विषय पर ऐसा लिख मारता है कि लाइक पे लाइक मिलते ही चले जाते हैं.

 दो-             और नहीं तो क्या, जन चेतना और लाइक की संख्या में सीधे अनुपात का नियम है. और भाई न्यारेचंद, ये भी पता करो कि कौन लोग हमारा लिखा पसंद करते हैं? मैं मूर्खों के लिए नहीं लिखता.





 एक-                 सही कहते हो दोस्त. मैं तो तुम्हारी प्रसिद्धि से नहीं जलता, दूसरे जलते हों तो हो जाएँ राख, अपनी बला से. वह जो कॉलेज में पढाने लगा है ...अरे क्या नाम है उसका ..अजी हाँ वही अपना टेकचंद. उस दिन कह रहा था भाई कि तू जो नए कला माध्यमों का हीरो बना फिरता है कभी आमने सामने हो जाए तो हड्डी पसली एक कर देगा. मैंने भी खूब मिर्ची लगायी. भाई माफ़ करना. इतना तो दोस्तों के बीच बनता है न.

दोनों हसते हुए सड़क किनारे की चाय दूकान पर खड़े हो गए. चाय दूकान के सामने जगमगाती दुनिया अपार्टमेन्ट और दुनिया सोसाइटी की एक पीआऊ है. बगल में है लोहे की बड़ी सी गेट और गेट के अन्दर सुरक्षित दुनिया और दुनिया के बच्चे खेल रहे हैं. शाम होने को है पर स्ट्रीट लाईट को छोड़ कर कहीं और बत्तियां अभी जलाई नहीं गयी है. गरमी के दिन हैं और प्यास बहुत लगती है. चाय दूकान में रखे प्लास्टिक के मग को गले में गटा-गट ढालने के बाद एक बोला.

दो-                           अजी टेकचंद ज्ञान का चोंगा ओढ़ता है. उसके मन में एक cc tv कैमरा है. उसी से वह हर वक़्त पीछा छुडाने यहाँ वहां भागता फिरता है. चोंगा न हो तो नंगा हो जाए. लाइक तो उसे मिलते हैं जिनमें आत्मविश्वास हो. जिसकी बातों में गूढ़ से गूढ़ बातें, राजनीति के क्रांतिकारी सिद्धांत और लोकप्रिय वैज्ञानिक चेतना इतनी सहज हो उठे कि हर किसी का दिल कहे वन्स मोर! वन्स मोर! नए कला माध्यमों को साधना क्या कोई गुड्डों का खेल है. उसे मालूम नहीं कितना समय त्यागने के बाद हम हुनरदस्त हुए हैं.

    एक-             सही कह रहे हो भाई. मैं तो जानता हूँ तुम्हारे हुनर को. कवि, लेखक-लेखिका , सम्पादक,   आलोचक, राजनीतिज्ञ कोई तो नहीं बचा है. हर आधे पौने घंटे में नया कुछ सोच लेना...बहुत बड़ी बात है. और तो और बात को घुमा कर ऐसी जगह चोट करते हो कि... भाई वाह. और भाषा कैसी निखर गयी है तुम्हारी. मैं तो तुम्हारे स्टेटस अपडेट का फैन हो गया हूँ. मन करता है कि तुम जैसे चाक चौबंद सिपाही के पैर छू लूँ.

एक ने झट अपना फोन निकाला और किसी दैवीय प्रेरणा से वशीभूत दो एक के नजदीक आ गया. एक ने एक और दो दोनों की सेल्फी ली और अपडेट किया- “चाय और चर्चा नीयर दुनिया अपार्टमेंट”. अँधेरा चमकीला हो गया था. आसमान में चाँद किसी पॉप अप की तरह उग आया था. दुनिया के बच्चे दुनिया के डब्बों में लौट गए थे. सड़क किनारे किसी बारात की तैयारी में झाड़-फानूस वाले व्यस्त थे. एक ऊँचे अरबी घोड़े को सजाया जा रहा था. चाय दूकान के बगल में साईकिल लगाये छोले कुलचे वाला अपना सामान समेट कर चलने की तैयारी में था और दूकान के पीछे ग्लास और प्लेट धोते लड़के से कुछ बाते करता जाता और अपार्टमेंट के गेट की तरफ देख देख दोनों हंसते भी जाते थे.

दो-             दरअसल टेकचंद आलसी है. कुछ करना धरना नहीं. बैठे-बैठे किसी के सामने ज्ञान बघारने से आसान कोई काम है क्या! भाई देखो . केवल यह कहने से कि टेक्नोलोजी में संभावना है वह संभावना फलीभूत नहीं हो जाती. ज्ञान चर्चा एक बात है और सचमुच में किसी का मन बदलना बिलकुल दूसरी बात. और तुम तो जानते हो मैं भक्त नहीं बनाता.

एक-                       अजी आलसी ही नहीं वह एक नम्बर का पाजी भी है. भाईई... दूसरों की बातों को अपने नाम से चलाता है. तुम्हारी तरह मौलिक कल्पना का स्वामी तो बिरले ही हैं. मुझे ही देखो मैं तो हर जगह तुम्हारी बात कहने से पहले तुम्हारा सन्दर्भ बकायदा देता हूँ. सम्पादक जनचंद को परसों मैंने उसके दफ्तर में घेर लिया.अजी किसी नयी कवयित्री के सामने तुम्हारी लिखी-कही बातों को अपनी आत्मप्रशंसात्मक धीरता से सुनाता जाता था. पहले पहल तो मुझे मामला कुछ ठीक-ठाक समझ नहीं आया. जब तक मैं पहुंचा सामने वाला उसके पूरे प्रभाव में था भाई! ... अरे तुमने स्त्रीवादी कविताओं के जो मानदंड बनाये हैं और जिसे निरंतर बनाये जा रहे हो, वह इतना नया और मौलिक है कि ओह! मैंने भी खूब सुनाया उसे. और तुम उस वक़्त छुप कर देखते होते तो देखते कैसी शालीनता आ गयी है आजकल मुझमें.

दोनों ने चाय खत्म की, पैसे चुकाए और दो एक बार अपनी फेसबुक स्क्रॉल करते करते सड़क पर आगे निकल गए. सड़क के किनारे दिन भर की धूल-धक्कड़ थोड़ी बैठ गयी थी. पर कैसी तो सड़ी सी गर्मी थी. एक ने दो बीड़ी निकाली और दोनों सुलगा कर एक एक को बढ़ा दी. सड़क किनारे एस.बी.आई ए.टी.एम. से एक बहुत ही खूबसूरत, जिमधारी, सजा-धजा नौजवान अपना पर्स संभालते निकल रहा था. बड़ी क्षिप्रता से वह इन दोनों को लांघ कर बस स्टॉप पर चलने चलने को रुकी हरी बस में घुस गया. उस हरी बस को दूर तक देखता हुआ दो कहने लगा, कहते कहते चलने लगा.

दो-                       जिनके अनुभव क्षेत्र विशाल और समृद्ध नहीं होते उनके सिद्धांत और निष्कर्ष पोपले होते हैं. भाई देखो.. स्त्री और पुरुष दोनों पक्षों को समझना होगा. हमारी पारिवारिक परम्परा में सब कचरा नहीं है. बहुत कुछ अच्छा और शाश्वत है. आपसदारी है. रचनाओं में इसे पकड़ना ज़रूरी है. बहस को लोकतांत्रिक होना चाहिए. आप कुछ और कहिये. मैंने तो रोक नहीं रखा है आपको. हमारा अपना अनुभव है आपका अपना. पर आप मेरी बात क्यों कहते हैं. दूसरी तरह से कहूँ? मैं तो चाहता हूँ कि जैसे मेरी ही बात हो. अच्छा कह क्या रहा था जनचंद ?

एक-            कह रहा था कि आचार्य शुक्ल स्त्री विरोधी थे.

दो-               मजाक मत करो न्यारेचंद ! मैं गंभीर हूँ.


और फिर दोनों देर तक हंसते रहे. हंस कर चुप हो गए और थोड़ी देर तक दोनों चुप-चाप हँसते रहे. दोनों ने चुपचाप अपनी सेल्फी उतारी और अपडेट हुए- “देर शाम की दिल्लगी” @ IPS मॉल, साकेत. मोबाईल में दिखा रहा था कि एक और दो एक दूसरे के आस-पास है ‘इन साकेत, IPS मॉल’.

एक-                       वह कह रहा था कि समकालीन कविता में स्त्री स्वर स्वभावतः एक रोमैंटिक मूड में है. यह गहरी रूमानियत प्रेम का नया अर्थ ढूंढ रही है. जीवन और कविता की एकता के लिए युवा लेखिकाएं रिस्क ले रही हैं. यह रिस्क बिना गहरी रूमानियत के संभव नहीं. ... सामने बैठी लेखिका स्वानुभूति के स्वर में डूब गयी थी. मैंने तत्क्षण उसे टोका – ‘ भाई जनचंद! बात तो आपकी सौ फीसदी सही है.’  दरअस्ल मेरी आवाज़ से विद्वान् और सहृदय दोनों का साधारणीकरण भंग हुआ. शुरू में जनचंद थोड़ा हडबडा गया. लेखिका को उतना बुरा नहीं लगा. वह मेरी ओर मुड़ गयी. मैं भी कम थोड़े ही था. धीर शालीन स्वर में बोलने लगा- “ जी हाँ जनाब, बात तो सौ फीसदी सही है. पर इस बात के साथ मेरी कुछ और बातों पर गौर करना अनुचित न होगा. सो सुनिए. ठीक ऐसी ही बहस पिछले हफ्ते श्रीमति नवचंद्रिका जी की फेसबुक वाल पे चली थी. अगर आप फेसबुक पर थोड़ी भी एक्टिव हैं तो आपने इसे अवश्य फौल्लो किया होगा.” मैं रुक कर लेखिका का मुंह स्वीकृति-अस्वीकृति के संकेत के लिए ताकने लगा. उसने निरपेक्ष अनजानेपन से एक बार सम्पादक को देखा दूसरी बार मुझे और कन्धों को हलके से सिकोड कर ढीला छोड़ दिया. चेहरे पर सम्पूर्ण अनभिज्ञता की स्माईली के साथ गर्दन दायें-बाएं हो गयी. मैंने जान बूझ कर जनचंद पर निगाह नहीं डाली और बात को माहौल में धंस कर रखने लगा.

दोनों अब लाल बत्ती पर खड़े थे. ठीक बायीं ओर एक बड़ा सा हॉस्पिटल है. हॉस्पिटल क्या है शीशे का बड़ा सा प्रिज्म है. इसके अगल-बगल दो फ्लाईओवर इन्द्रधनुष की तरह झिलमिला रहे हैं. सारा दृश्य लाल-पीले-सफ़ेद धुआंसे के बड़े अकाशाकार अंडे में तैर रहा था. लाल-चौकोर-टाइल्स वाले कॉमनवेल्थ फुटपाथों के किनारे छोटी-छोटी जंगली झाड़ियों की कतारें थीं जिसके बीचो-बीच पान-बीडी-सिगरेट-चाय-मैगी-ऑमलेट के खोमचे थोड़ी-थोड़ी दूर पर लाइन साधे हलकी मद्धिम चाइनीज़ बत्तियों से रौशन थे. दोनों खड़े होकर हॉस्पिटल के अहाते की ठंडी हरी रौशनी में नहाए घास की फर्शों को देखने लगे. शाम में पानी की बौछारों से धुले घास की नोकों पर आकाशाकार अंडा सिमट कर झिलमिला रहा था. झिलमिलाहट में धंस कर एक कहता गया.

एक-                       ‘श्रीमति नवचंद्रिका जी ने अपनी एक परिचित युवा कवि की कविता शेयर की और साथ में अपनी टिपण्णी भी. जनचंद तो उन्हें अच्छी तरह जानते हैं’.जनचंद ने लेखिका को देखा और घुटी हुई मुस्कराहट बिखेर दी. ‘ कविता की काव्य नायिका अपने पुरुष पिता में पिता की तलाश करती है और अपने पुरुष-प्रेमी में उसे पा लेती है. श्रीमति चन्द्रिका इसे पुरुष दृष्टि की प्रेम कविता कहती हैं जिसमें स्त्री स्वर सर्वथा अनुपस्थित है. उनके अनुसार यह पुरुष प्रेम का एकालाप है. स्त्री को अपने प्रेम के प्रति आस्था के लिए एक पुरुष चाहिए और वह भी पिता रूप में. चंद्रिका जी का आग्रह था कि ‘पुरुष सत्तात्मक समाज के भीतर प्रेमी के रूप में पिता की तस्वीर गढ़ने में या प्रेमी के भीतर पिता की छाया पाने में बारगेनिंग पॉवर हमेशा पुरुष के पक्ष में ऐतिहासिक रूप से निर्मित हो गयी है. आज की प्रेमिकाएं अपनी इस ऐतिहासिक नियंत्रण से मुक्ति चाहतीं हैं. ये प्रेमी-प्रेमिकाओं की नयी छवियाँ गढ़ना चाहती हैं, प्रेम में रिस्क लेती हैं और कविता में शरीरी-अशरीरी बन्धनों को अस्वीकार करती हैं. यह रिस्क फैक्टर उन्हें अपनी ऐतिहासिक निर्मितिओं, अपने परम्परागत रूपों के प्रति विद्रोह करने और विद्रोह को उत्सव में बदलने की प्रेरणा देता है. उन्हें सहचरी बोध देता है. एक सच्ची कविता में अगर इस रिस्क का बोध न हो, उसके स्वीकार-अस्वीकार का द्वंद्व न हो और एक उन्मुक्त दृष्टि का परिचय न हो तो वह हम स्त्रियों से कटु आलोचना की ही उम्मीद रखें. वैसे मेरे युवा कवि-मित्र ने प्रेम की कई ईमानदार और निश्छल कवितायें लिखी हैं.’ इतना कह कर मैं रुक गया था. सामने बैठी संवाद-नायिका की अनभिज्ञता- स्माईली शनैः-शनैः गहरी जिज्ञासा और रूचि में शिफ्ट होती गयी. मुझे लग गया कि बात निकल पड़ी है. और इसी सम्मोहिनी क्षण में मैंने तुम्हारा ज़िक्र शुरू किया.

दो-                           अच्छा छोड़ो भी... मुझे पता है तुमने क्या-क्या कहा होगा. और हाँ तुम्हारे आत्म-चित्रण के आख्यान में मुझे रूचि नहीं अभी.

एक-            पर तुमने ही तो कहा था भाई सुनाने को...


दोनों चुप हो गए. एक थोड़ा अन्यमनस्क हो उठा. दो सर झुकाए नज़रें नीची किये दोनों हाथ जींस की जेब में उंकडू डाले चल रहा था. लाल बत्ती पार कर दोनों ने दाहिनी ओर की सड़क पकड़ ली. सड़क धीरे-धीरे गलियों के जाल में गुम हो गयी थी. दोनों अब महानगर के एक गाँव में थे. गलियों में रात होने की रौशनी थी. मकान-मालिकों की दूकानों में किरायेदारों की भीड़ थी. मोमो की टेबिलों के पास लड़कियों का जमघट था. स्कूल और कोचिंग से लौटते बैग ढोते बच्चे आपस में हंसी-ठिठोली कर रहे थे. सुई के जोर से चमकती फूली सब्जियों की हरियाली आँखों में उतर कर सड़क किनारे के खुरदुरे दीवारों पर थक्के-थक्के में फ़ैल गयी थी. घरों और दूकानों की अंदरूनी ठंढक बाहर आकर टुकड़ों-टुकड़ों में लू बहा रही थी. सामने कोने पर एक छोटा सा शनिचर मंदिर था जिसके पीछे थोड़ी दूर दायीं ओर कंटीली झाड़ियों और रेत से भरा एक पार्क था और मकानमालिकों की अधेड़ी देहों की छाया उस ओर से अट्टहास करती सरक रही थी. दोनों ने पार्क के गेट के पास बैठेने वाली चाय दूकान के साथ वाली सीमेंट की पोल नुमा बेंच पर आसन जमा लिया था. चाय की पहली घूँट पीने से पहले ही दो कहने लगा.

दो -                  देखो भाई ! नवचंद्रिका जी की बातों में एक सच्चाई तो है. उस वक़्त फेसबुक पोस्ट पर कमेंट में मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया था. प्रेम करने वाले पहले भी रिस्क ले रहे थे. घर, परिवार, समाज हर व्यवस्थित सामाजिक ढाँचे के खिलाफ विद्रोह करना अपने अपने जीवन में रिस्क लेना था. स्त्री के लिए यह रिस्क कभी भी मनोरंजन का विषय नहीं रहा. कुलीन रीतिवाद में भी स्त्री यौनिकता का उत्सव- नगरवधुओं का स्वातंत्र्य, उनका कला धर्म-  सभी परिवार व्यवस्था के संकट को दूर करने का भ्रम फैलाते थे. कुलीनता के संरक्षण के लिए आवश्यक था कि कुल और परिवार की मर्यादा अक्षुण्ण रहे. उन्होंने वेश्यावृति को सौंदर्यशास्त्र का प्रश्न बना दिया. केवल इसीलिए क्योंकि परिवार की विचारधारा को शक्ति मिलाती रहे. यह रीतिवाद ही आज पोर्नोग्राफी है. एक विश्वबाजार. ऐसी कलाएं इस व्यवस्था के रक्षकों के हाथों हथियार बनती आई हैं. इन कलाओं में स्त्री मुक्ति और यौन मुक्ति की राजनीति को सौंदर्यशास्त्र का प्रश्न बना दिया जाता है. कला की यह प्रवृत्ति स्त्री अस्मिता का प्रश्न बड़े जोर शोर से उछालती है. इस अस्मिता के निर्धारण के प्रयास में यह समाजशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र का अद्भुत घाल मेल तैयार करती है. जीवन की अलग-अलग स्थितियों में स्त्रिओं की अलग-अलग, एक दूसरे से भिन्न मूर्तियाँ. हर मूर्ति के अपने अपने समर्थक और शास्त्र. यह बहुदेवी उपासना की कला है भाई. पर आज की स्त्रियाँ अपने पूज्या/रेक्टिफाइड की हर छवि को किसी भी स्तर से स्वीकार नहीं करती. और इसलिए समाज में घूम रही अपनी हर छवि को तोड़ना चाहती हैं. उन्हें अपनी स्वयं की छवि खुद बनाते रहनी है. इसलिए वे हर कीमत पर भिन्न गढ़ना चाहती है. वह मानने लगी है कि और-और स्त्री होते जाने से वह एक दिन स्त्रीत्व की अस्मिता के भी पार चली जायेंगी. इसी प्रक्रिया में स्त्री मुक्ति संभव है.

                                                    आगे जारी....                                                                                          आगे जारी...

Comments

  1. शुक्रिया! बहुत खूब इंतजार रहेगा। एक निवेदन है कि ब्लॉग का बैकग्राउंड बदल देते तो अच्छा रहता सीधे आंख पर पड़ता है।

    ReplyDelete

Post a Comment