सूर से कबीर तक: द्विवेदी जी की खोज
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की खोज
वर्तमान में जिंदा अतीत और अतीत में बनते वर्तमान की खोज थी। उनके यहाँ ‘भारतीय
आत्म’ की कोई शुद्ध और नियत प्रकृति नहीं थी। यह निरंतर नवीन होती आई है। नामवर जी
ने अपनी ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में इस प्रक्रिया का सबसे विचारोत्तेजक वर्णन किया
है। तीस और चालीस के दशक में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के भीतर एक वैयक्तिक रूमान
का आदर्श हर जगह दिख रहा था। हिंदी में उसकी परंपरा छायावाद और छायावाद विरोध
दोनों के भीतर दिखती है। राजनीतिक और सांस्कृतिक आन्दोलनों के बीच संवाद की एक
संतुलित दृष्टि की तलाश भी जारी थी। नामवर जी ने इस ‘संतुलन’ को ‘सामंजस्य’ से न
केवल अलग बल्कि एक विरोधी दृष्टि के रूप में सामने रखा है। राजनीतिक आन्दोलन में
विरोध और संघर्ष अगर भावजगत के विद्रोह के साथ नहीं है तो सांस्कृतिक आन्दोलन की ज़रूरत
उसको साथ-साथ लाने में है। यहाँ साथ-साथ लाना समन्वय नहीं ‘संतुलन’ या ‘बैलेंस’ की
मांग करता है। यह संतुलन तलवार की धार पर चलने के लिए ज़रूरी बैलेंस की तरह है। या
द्विवेदी जी जिसे रस्सी पर चलने वाले नट का संतुलन कहते हैं। नामवर जी ने लिखा कि
शुक्ल जी की परंपरा मुख्यतः ‘समन्वयवादी’ परंपरा है, जबकि द्विवेदी जी की परंपरा
‘संतुलन’ की परंपरा है। इस बात को कहने के लिए भला खुद द्विवेदी जी से बेहतर कौन
हो सकता था। वैसे भी किताब की भूमिका में नामवर जी ने बेंजामिन के हवाले से लिखा
था कि महज उद्धरणों की एक किताब बनाई जा सकती है। प्रश्न है उस दृष्टि का जो उनके
भीतर से आकार ग्रहण करती है। उनके द्वारा प्रस्तुत नई अंतर्दृष्टि का प्रश्न
महत्वपूर्ण है। प्रश्न खंडों में झांकती अखंड दृष्टि का है। ‘दूसरी परंपरा’ की खोज
में नामवर जी ने जगह-जगह महज उद्धरणों को सन्दर्भ दे कर उस अंतर्दृष्टि की झलक
दिखलाई थी जिसे हम बैलेंस दृष्टि कह सकते हैं। संतुलन की धारणा के लिए भी वह
द्विवेदी जी को उद्धृत करते हुए लिखते हैं: “ इस सन्दर्भ में द्विवेदी जी के
‘समीक्षा में संतुलन का प्रश्न’ शीर्षक लेख का यह अंश प्रासंगिक है : “ मेरा मत है
कि संतुलित दृष्टि वह नहीं है जो अतिवादियों के बीच एक मध्यम मार्ग खोजती फिरती
है, बल्कि वह है जो अतिवादियों की आवेग तरल विचारधारा का शिकार नहीं हो जाती और
किसी पक्ष के उस मूल सत्य को पकड़ सकती है जिस पर बहुत बल देने और अन्य पक्षों की
उपेक्षा करने के कारण उक्त अतिवादी दृष्टि का प्रभाव बढ़ा है। संतुलित दृष्टि
सत्यान्वेषी दृष्टि है। एक बार जहाँ वह सत्य की समग्र मूर्ति को देखने का प्रयास
करती है, वहीं दूसरी ओर वह सदा अपने को सुधारने और शुद्ध करने के लिए प्रस्तुत
रहती है। वही सभी तरह के दुराग्रह और पूर्वाग्रह से मुक्त रहने और सब तरह के सही
विचारों को ग्रहण करने की दृष्टि है।””[1] नामवर
जी ने कहा कि संतुलित होकर भी कोई पक्षधर हो सकता है। इस प्रकार पक्षधरता का
प्रश्न केवल किसी मत को खुल कर अपना पक्ष बताने में ही नहीं, उसकी घोषणा में ही
नहीं वरन् ‘संतुलन’ में भी संभव है। यह संतुलन संपूर्णता में देखने का पक्षधर है।
इस मामले में वह किसी प्रकार का समझौता नहीं करता। नामवर जी ‘पक्षधरता’ के इस पक्ष
को सामने रख वस्तुतः यथार्थवाद की परंपरा में द्विवेदी जी की विशिष्टता को
रेखांकित कर रहे हैं। इस संतुलन को और स्पष्ट करते हुए नामवर जी ने लिखा: “संतुलित
होकर भी कोई पक्षधर हो सकता है, यह बात वही पक्षधर समझ सकता है, जिसमें
आत्मविश्वास हो और सत्यनिष्ठा! जिस पक्षधरता में आत्मविश्वास की कमी होती है वही
दूसरे पक्ष के प्रति असहिष्णु होता है और सहिष्णुता को संदेह की दृष्टि से देखता
है। उल्लेखनीय है कि द्विवेदी जी ने अपने क्रांतिकारी कबीर की प्रशंसा भी उनके
अद्भुत संतुलन (बैलेंस) के लिए की है। वैसे ‘बैलेंस’ के लिए कहीं उन्होंने
‘एकसमता’ शब्द का प्रयोग किया है और कहीं ‘भारसाम्य’।”[2]
कहने का तात्पर्य यह कि विरुद्धों की
गतिशीलता को एक संपूर्णता में देखने की कोशिश करते रहना एक पक्षधरता है और यह
यथार्थवाद की पक्षधरता है। दूसरे शब्दों में कहें तो द्वंद्वात्मकता की विकसित
होती पूर्णता, उसकी विकसित होती संपूर्ण मूर्ति को देखते रहने की प्रतिज्ञा में
खुद को लगातार सुधारते चलने और शुद्ध होने को प्रस्तुत रहना, यही वह संतुलित
दृष्टि है। व्यक्तिगत साधना की भारतीय परंपरा के अन्वेषण के द्वारा दरअस्ल
द्विवेदी जी ने ‘हिंदी साहित्य की लोकोन्मुख प्रगतिशील परंपरा का विकास’ किया है।
नामवर जी ने इस ‘लोकोन्मुखता’ में द्विवेदी जी की भौतिकवादी दृष्टि का उन्मेष देखा
था। वैयक्तिक अस्वीकार की लोकोन्मुखी व्याख्या मूलतः उसकी भौतिकवादी व्याख्या की कोशिश
थी और इस अर्थ में यह द्वंद्वात्मकता के भौतिक आधारों की खोज करती है। इस प्रकार
द्विवेदी जी भौतिकवादी परंपरा को विकसित करने में भी अपना योगदान दे रहे थे।
प्रेमचंद, प्रगतिशील लेखक संघ और द्विवेदी जी यह सब उस परंपरा को पुष्ट करने और
बनाने वाले व्यक्ति और संगठन थे जिनके भीतर से आगामी मार्क्सवादी
प्रगतिशील-यथार्थवादी परंपरा का विकास संभव हुआ था। इस प्रकार नामवर जी दूसरी परंपरा
के भीतर से खुद अपनी मार्क्सवादी परंपरा के विकास को भी समझने की कोशिश कर रहे थे।
यह परंपरा निश्चित रूप से रामविलास जी की परंपरा नहीं थी। मार्क्सवादी आलोचना में
सक्रिय भौतिकवाद के यांत्रिक रूझान की विरोधी परंपरा या कहें कि नए को लेकर एक
उन्मुक्त और संतुलित भौतिकवादी दृष्टि की परंपरा के अन्वेषण का प्रश्न नामवर जी की
‘दूसरी परंपरा की खोज’ का एक महत्वपूर्ण आयाम था। यह अन्वेषण भाववाद और भौतिकवाद
दोनों की परंपराओं के बीच ‘अद्भुत बैलेंस’ की परंपरा थी जिसे नामवर जी
‘मार्क्सवाद’ या ‘यथार्थवाद’ (साहित्य की राजनीति में मार्क्सवादी परंपरा को ही
हिंदी में यथार्थवाद की परंपरा के रूप में देखा गया है।) की भारतीय परंपरा के
विकास के लिए एक ज़रूरी और पक्षधर पद्धति भी मानते हैं। रामविलास शर्मा जहाँ शुक्ल
जी की समन्वयवादी दृष्टि को भारतीय यथार्थवाद की परंपरा सिद्ध करना चाहते हैं वहीं
नामवर जी संतुलनवादी दृष्टि को भारतीय यथार्थवाद या हिंदी में यथार्थवाद की परंपरा
का पक्षधर पक्ष मानते हैं। रामविलास शर्मा ने कई विषयों में हजारीप्रसाद द्विवेदी
की जो आलोचना की थी उसने काशी और अन्य विश्वविद्यालयों में भी हिंदी विभागों के
भीतर दूसरी प्रगतिशील परंपरा के विकास को बाधित करने वाले तत्त्वों को शक्ति
प्रदान की। लेकिन नामवर जी इस प्रयास की निर्थकता को इतिहास द्वारा सिद्ध पाते हैं।
डॉ. रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध या द्विवेदी की आलोचना जिन बिन्दुओं पर की थी वह
स्वयं इतिहास द्वारा असिद्ध हुआ है। वे यांत्रिक भौतिकवादी परंपरा के साथ है। बाद
में ‘इतिहास की शव साधना’ के ज़रिये नामवर जी ने इस यांत्रिक भौतिकवाद की परंपरा के
धुर दक्षिणवादी रूझान को भी व्याख्यायित करने की कोशिश की। परंपरा का यांत्रिक बोध
अतीत के प्रेतों को बुलावा दे बैठता है और करते न करते आप ऋग्वेद की भारतीय परंपरा
तक पहुँच जाते हैं! बहरहाल इस पक्ष के विस्तार में न जाकर नामवर जी की
‘संतुलनवादी’ दूसरी परंपरा को और करीब से देखने की कोशिश करते हैं।
नामवर जी ने खोज की शुरुआत
रवीन्द्रनाथ, शान्तिनिकेतन और प्राच्यविद्याविदों के ‘विश्वनीड़’वाद (ग्लोबलिज्म!)
और द्विवेदी जी की अखंड परंपरा की धारणा के खंडित होने की घटना के इर्द-गिर्द की
है। एक के दो होने के क्षण की आकस्मिकता की एक कल्पना भी वहां शामिल है जहां
रवीन्द्रनाथ द्वारा ‘पूर्वपक्ष’ के प्रामाणिक होने की बात कही गयी थी और वह किसी
सत्य के कौंध की तरह प्रकट हुई। शिव का ‘अखंड’ धनुष देखते-देखते खंडित हो गया। एक
अकस्मात दो होकर सत्य की कौंध में बदल गया। यह सत्यान्वेषण का आरंभिक नियामक क्षण
था। पुरानी एकता खंडित हो कर अकस्मात दो हो गयी और इस प्रकार एक नई अखंडता की
दृष्टि के अन्वेषण का उन्मेष हुआ। यह घटना ‘शास्त्रीय संस्कृत पंडित’ के शान्ति
निकेतन में जाने के कुछ ही दिनों बाद हुई थी। रवीन्द्र ने सतगुरु की तरह ज्ञान का
दीपक द्विवेदी जी के हाथों में पकड़ा दिया। इस घटना ने न केवल बुद्धि को बल्कि
द्विवेदी जी के संपूर्ण भावजगत को ही आंदोलित कर दिया। नई अखंड दृष्टि की तलाश
उनके संपूर्ण जीवनक्रम को एक दिशा देने वाली साबित हुई। यह खुद द्विवेदी जी के
व्यक्तिगत साधना का उद्देश्य बन गया। यह उस स्वभाव की खोज में बदल गया जिसकी
सिद्धि अंततः ‘कबीर’ में हुई। नामवर जी ने दिखाया है कि कैसे द्विवेदी जी की सारी
मूल मान्यताएं कबीर तक आते आते स्पष्ट हो गयी थीं। पर जीवन का मिशन ‘कबीर’ तक पूरा
नहीं हुआ था। रचनात्मक साहित्य में, लेखों में, भाषणों में, और व्यक्तिगत सुख-दुःख
में यह नई ‘संतुलित दृष्टि’ एक वृहत्तर सांस्कृतिक आन्दोलन में योगदान देती रही।
साहित्य और इतिहास में द्विवेदी जी मूलतः अपनी ‘कबीर’ की दृष्टि की पुष्टि करने
वाली पद्धति को और कल्पना को रचनात्मक वस्तुमत्ता प्रदान करते रहे। आदिकाल सम्बन्धी शोध या कबीर-पूर्व के मध्यदेश के
सांस्कृतिक ‘संक्षोभ’ की कल्पनात्मक फैंटेसियों के प्रश्न समकालीन थे। मूल प्रश्न
था कबीर की अखंड परंपरा का संपूर्ण इतिहास कैसे मूर्तिमान हो, जबकि कबीर स्वयं ही
‘लोकप्रिय वैष्णव अखंडता’ की परंपरा में बार बार असंतुलन पैदा करते रहे। कबीर और
तुलसी के बीच संतुलन केवल शास्त्रीयता में संभव था जीवन में नहीं।
द्विवेदी जी की काशी-मोह-जनित पीड़ा को
नामवर जी ने यथार्थ जीवन में भौतिकवाद के हस्तक्षेप की तरह देखा है। मूल से लगाव
और आर्थिक ज़रूरतों का द्वंद्व । विचार और जीवन की एकता के द्वंद्व में काम कर रहे
अंतर्विरोधों के उत्स और उसके भौतिक आधारों को स्पष्ट करते हुए नामवर जी इस खोज की
वर्गीय प्रेरणा को भी स्पष्ट करते चलते हैं। इतिहास के भीतर विचार और भाव की
संतुलित दृष्टि का अन्वेषण या ‘सत्यान्वेषण’ स्वाभाविक होकर भौतिकवादी होता है।
दूसरे शब्दों में नामवर जी ने यथार्थवाद को हिंदी का अपना स्वाभाविक विकास माना
जिसमें बाहरी प्रभाव शास्त्रीय तो हो सकता है पर उसे अपनी ज़मीन पर स्वयं ही विकसित
होना होता है। यथार्थवाद को ‘भारतीय संस्कृति’ की प्राणधारा के रूप में विकसित
होता दिखाना ज़रूरी था और यही धारा हिंदी की जातीयता और वैश्विकता दोनों थी। क्या
इस्लाम के ‘प्र- भाव’ को इसी सन्दर्भ में उन्होंने नहीं देखा है?
रवीन्द्रनाथ वाली घटना पर हम वापस
लौटते हैं। नामवर जी ने लिखा कि अखंड शिव-धनुष के खंड-खंड होने के साथ ही द्विवेदी
जी में जो भिन्न परंपरान्वेषण का बोध हुआ वह एक तरह से ‘इतिहास-बोध’ का उदय भी था।
‘इतिहास-बोध’ के उदय के साथ ही इतिहास निर्माण और इतिहास अनुसन्धान दोनों मिलकर
सत्यान्वेषण का मार्ग पकड़ लेता है। ‘सूर-साहित्य’ द्विवेदी जी की पहली प्रकाशित
किताब थी। इसके पहले १९३३ में ‘वैष्णव संतों की रूपोपासना’ नाम से उनका एक लेख
प्रकाशित हुआ था। ‘सूरसागर’ की भूमिका आचार्य क्षितिमोहन सेन ने लिखी थी।
क्षितिमोहन सेन उन आचार्यों में थे जिनका द्विवेदी जी शायद रवीन्द्रनाथ के बाद सबसे ज्यादा सम्मान करते थे।
परंपरा के शिक्षक के रूप में आचार्य सेन का गंभीर योगदान द्विवेदी जी ने कई जगह
स्वीकार किया है, खुद कबीर के अन्वेषण में भी। द्विवेदी जी ने जब आगे चल कर ‘कबीर’
की प्रस्तावना लिखी तो आचार्य सेन का योगदान रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा:
“श्री क्षितिमोहन सेन द्वारा संपादित ‘कबीर के पद’ नए ढंग का प्रयास है। वे
‘भक्तों के मुख’ से सुनकर संग्रह किये गए हैं। अपनी प्रामाणिकता के लिए उन्होंने
किसी की मुखापेक्षिता नहीं रखी। परंपरा से एक मुँह से दूसरे मुँह तक आते रहने के
कारण इन पदों की भाषा ज़रूर बदल गयी होगी, पर इसके अन्तर्निहित भावों की प्रामाणिकता
विश्वसनीय हो सकती है। फिर भी कोई विशेष स्वार्थ के पोषक महात्माओं की ओर से इस
पुस्तक के गंभीर विचारों को उड़ा देने की चेष्टा की गयी है।
कहा
गया है कि इसमें पाए जाने वाले उच्च भाव किसी पोथी में नहीं मिलते। इस विशेष
स्वार्थ के पोषक लोग भारतीय मनीषा की न तो कोई प्रतिष्ठा देखना चाहते हैं, न आदर
पाना बर्दाश्त कर पाते है। मैंने जान बूझ कर उक्त संग्रह का उपयोग नहीं किया है।
ऐसा मैंने इसलिए किया है कि भारतीय मनीषा को जो लोग अस्वीकार करना चाहते हैं वे
सीधे ही ऐसा करें और प्राचीन तथा नवीन पोथियों का झमेला खड़ा करके अपने उद्देश्य और
पाठक की निर्णयात्मिका बुद्धि के बीच पर्दा खड़ा करने का प्रयास न करें। परन्तु मैं
यहाँ अत्यंत कृतज्ञ भाव से निवेदन करना चाहता हूँ कि यद्यपि आचार्य सेन की पुस्तक
के पाठ इस पुस्तक में नहीं लिए, पर उनके आदेशों का यथेच्छ उपयोग किया है...। उनके
दृष्टिकोण में और मेरे इस पुस्तक में व्यवहृत दृष्टिकोण में थोड़ा मौलिक अंतर है।
वे संतों की वाणियों को म्यूजियम के प्रदर्शन की वस्तु मानते हैं और यह बात ठीक भी
है। जिसे आजकल ‘एकेडमिक’ आलोचना कहते हैं वह बात कुछ म्यूजियम की रूचि को ही
उत्तेजना देती है। आचार्य सेन संतों की जीवंत वाणी को जलती हुई मशाल कहते हैं और
उनका दृढ़ विश्वास है कि ये वाणियाँ यथासमय भारतवर्ष की और संसार की समस्याओं को
सुलझायेंगी, ऐसी प्राणमय वाणी को म्यूजियम में सजा के नहीं रखा जा सकता।”[3]
आचार्य सेन के आतंरिक विरोधों को
द्विवेदी जी इतिहास या परंपरा की ‘एकेडमिक’ चेतना के अंतर्विरोधों के रूप में
देखते हैं। द्विवेदी जी ने कई जगह इस ‘म्यूजियम इंस्टिंक्ट’ की आलोचना की है।
आचार्य सेन की अंतर्दृष्टि संतों की वाणियों को जलती हुई मशाल कहकर स्वयं उसकी जीवन्तता
का परिचय देती है और स्वयं ही उसे म्यूजियम की वस्तु भी कहती है। जहाँ आचार्य सेन
मृत के पुनर्जीवन की आशा में विश्वकल्याण या मानवता का भविष्य देखते थे वहीं
द्विवेदी जी संत परंपरा की जीवन्तता को वर्तमान का हिस्सा मानते थे। ‘इतिहास
विधाता’ के कुंठनृत्य का नैरन्तर्य अपना परिचय नए रूपों में गढ़ता चलता है। प्राचीन
और नवीन पोथियों का विवाद खड़ा करने वाली ‘वस्तुमत्ता’ की आग्रहशीलता प्राच्यविद्या
की एक पद्धति थी जिसके मूल में भारतीय मनीषा के अस्वीकार का प्रयत्न द्विवेदी जी
देखते हैं। इस तरह की आग्रहशीलता अतीत के छुपे हुए निहितार्थों तथा उद्देश्यों और
वर्तमान पाठक की निर्णयात्मिका बुद्धि के बीच एक परदे का काम करती है। द्विवेदी जी
के अनुसार इतिहास को म्यूजियम की वस्तु बनाने के पीछे भी यही दृष्टि काम करती है।
लोकमुख से सुनकर इकट्ठी की गयी वाणियों में रूपगत परिवर्तन से द्विवेदी जी को
इनकार नहीं है परन्तु उनमे अन्तर्निहित भावों की प्रमाणिकता में उन्हें पूरा
विश्वास है। भावों की इसी प्रमाणिकता के सहारे ‘मध्ययुगीन बोध का स्वरूप’
निर्धारित किया जा सकता है। क्योंकि यह एक जीवंत इतिहासबोध है। जिस मध्यकालीन बोध
के गर्भ से आधुनिक भावबोध का विकास हुआ है द्विवेदी जी के अनुसार वह कोई एक या दो
सदी की बात नहीं बल्कि भारतीय परंपरा का स्वाभाविक विकास है।
वैष्णव भक्ति की स्वाभाविकता में
भारतीय लोकधर्म की तलाश ग्रियर्सन जैसे प्राच्यविद्याविदों का एक केन्द्रीय प्रश्न
था। द्विवेदी जी इन प्राच्यविद्याविदों के तर्कों को खारिज करना जरूरी मानते थे
क्योंकि इनका प्रयास ईसाई प्रभाव के आलोक में वैष्णव भक्ति की परंपरा का इतिहासबोध
निर्मित करने का था। आचार्य सेन के लिए भी यूरोपीय ज्ञान मीमांसा की सत्ता
(अथौरिटी) का अस्वीकार एक जरूरी कार्यभार था। भारतीय मनीषा की आतंरिक दुर्बलता
उसकी जड़ता थी। सेन ने लिखा कि हमारे ‘आलसी और आरामप्रिय देश’ में युग युगांतर से
ज्ञान और चिंतन का कार्य ऋषि-मुनियों और शास्त्रों पर, विचार का भार गुरु पर, और
आचार का भार लोकपरंपरा पर लादने की प्रवृत्ति रही है। ‘कर्त्ता की इच्छा ही कर्म
है’ अर्थात् मालिक की इच्छा को स्वीकार कर लेने की सनातन रीति की आलोचना आचार्य
सेन भारतीय परंपरा कहकर करते हैं। पश्चिम में आये ज्ञान विज्ञान के नए युग के आलोक
में भी ‘अपनी सनातन रीति’ भारतीयों ने नहीं छोड़ी अर्थात् पहले भारतीय शास्त्र या
गुरु या लोकाचारों को सत्ता या अथौरिटी मानकर चुप रह जाते थे बाद में उनकी जगह
‘यूरोप की अथौरिटी, मत और सिद्धांत को बिठा दिया’। केवल मालिकों की अदला बदली की।
सेन कहते हैं ‘कोऊ नृप होंही हमें क्या हानि’ एक सनातन रीति है और जड़ता की निशानी
है। सेन की एकेडमिक चुनौती इसी यूरोपीय अथॉरिटी की चुनौती है। सेन के सामने यह
चुनौती तब दुहरी हो जाती है जब वह देखते हैं कि पुराने के साथ साथ नए स्वामी को भी
भारतीयों ने आसपास बैठाकर अपने राजधर्म या ‘मानना- परायणता’ का अद्भुत परिचय दिया
है। ज्ञान की दो परंपराओं शास्त्रीय सनातनी परंपरा और आधुनिक पश्चिम परंपरा का
बेमेल विवाह कैसे संभव हुआ इसके प्रति वह आश्चर्य व्यक्त करते हैं। नए और पुराने
प्रभुओं के इस अद्भुत घालमेल के सामने आचार्य सेन को द्विवेदी जी की दृष्टि में एक
संतुलित दृष्टि का उन्मेष दिखाई पड़ता है। इस संतुलित दृष्टि को विकसित करने के लिए
जिस अकादमिक लगन और मेहनत का परिचय मिलता है वह जड़ता को तोड़ने वाली प्रवृत्ति का
निरूपक था। प्रभुओं के आतंक से बिना घबराए, आलोचना की संतुलित दृष्टि विकसित करना
और सत्यानुसंधान के लिए सब तरह के दुःख सहना एक नए पाठक वर्ग को भी निर्मित करने
की संभावना रखता था। ‘सूरसाहित्य’ की भूमिका में सेन लिखते हैं : “इन्होंने तो
पुराने या नए किसी ‘कर्त्ता’ (मालिक) को बिना विचारे प्रभु नहीं माना, अथच कहीं भी
किसी के प्रति असंगत असम्मान भी नहीं दिखाया। उनके प्रत्येक मत को इन्होंने अपने
विचार-बुद्धि की कसौटी पर भली- भांति घिसकर,
परखकर, सावधानी के साथ ग्रहण या वर्जन किया है। हमारे इस ‘कर्त्ता भजा’ देश में यह
क्या मामूली ढिठाई है ?... लेकिन भरोसा यह है कि एक श्रेणी के पाठक ऐसे हैं जरूर,
यद्यपि इनकी संख्या बहुत कम है, जो सत्य के अनुसन्धान के लिए सब तरह के दुःख सहने
को तैयार हैं... द्विवेदी जी ने इन्हीं संख्या- विरल पाठकों के लिए अपनी पुस्तक
लिखी है।”[4]
‘कर्त्ता भजा’ बंगाल का एक संप्रदाय था जिसके सदस्य कर्त्ता (मालिक या गुरु) की
वाणी को विवेक-शास्त्र सबके ऊपर मानते थे और कर्त्ता का ही भजन करते थे। कहने का
अर्थ यह कि द्विवेदी जी की संतुलित दृष्टि शोधपरक वैज्ञानिकता की विकसित होती एक
अल्पसंख्यक या संख्या- विरल प्रवृत्ति थी। द्विवेदी जी की दृष्टि में अति प्राचीन
और अति नवीन इन दोनों कोटिवाद का विरोध सेन नोट करते हैं जो कि सत्यानुसंधान के
परम शत्रु हैं। द्विवेदी जी की कर्त्ता विरोधी प्रवृत्ति को आचार्य सेन सबसे
महत्वपूर्ण मानते हैं।
बहुत बाद में ‘सूर साहित्य’ का
केन्द्रीय प्रतिपाद्य बताते हुए नामवर जी ने लिखा कि कृष्णभक्ति में द्विवेदी जी
को एक नया मन्त्र मिला था : “प्रेम सबसे बड़ा पुरुषार्थ है : प्रेमा पुमर्थो महान्।
इस मन्त्र का प्रभाव था एक नया जन्म! इस मन्त्र को पाकर स्वयं सूरदास एक अंधे
भिखारी से ऊपर उठकर सूरदास हो गए- सूर शूर हो गए।”[5] खंड
खंड परंपरा के भीतर से इतिहासबोध के उदय के बाद यह दूसरा महत्वपूर्ण क्षण था।
नामवर जी के अनुसार द्विवेदी जी के लिए इस नए मन्त्र का प्रभाव था नया जन्म! यह
द्विवेदी जी की साधना की प्रक्रिया का दूसरा क्षण था। यह उस आरंभिक घटना के आलोक
में शुरू हुई प्रक्रिया या दूसरे शब्दों में कहें तो उस घटना के प्रभाव में शुरू
हुई सत्यानुसंधान की प्रक्रिया में नए जन्म जैसा था। इस मन्त्र ने दो व्यक्तियों
के जीवन को आमूल परिवर्तित कर दिया परन्तु काल के दो भिन्न छोरों पर। दो भिन्न छोरों के बीच यह
संबंध यह जीवन्तता कैसे संभव होती है ?
परंपरा का यह नैरन्तर्य दो व्यक्तियों के जीवन में एक मूलगामी नयापन कैसे संभव कर
पाता है ? क्या यह इतिहास में शाश्वत का संकेत है ? या भक्ति की साधना प्रक्रिया
का सत्यानुसंधान की प्रक्रिया से कोई तादात्म्य है जो शाश्वत सी प्रतीत होती है?
एकेडेमिक बैलेंस दृष्टि का उन्मेष और सूर का शूर होना दोनों एक ही मन्त्र से कैसे
संभव हुआ? तर्क, विवेक, शोध की लगन और मेहनत से द्विवेदी जी ने यह ‘मन्त्र’ पाया
जबकि सूर को वह अनायास गुरु की कृपा से मिल गया था। एक ओर आधुनिक अकादमिक गंभीर
शोधार्थी और दूसरी ओर मध्यकालीन वैष्णव भक्त ! पर मन्त्र ने दोनों को ‘नया जन्म’
दिया, दोनों के जीवन की दिशा बदल दी। इस व्यक्तित्वांतरण के लिए जरूरी मन्त्र तक
द्विवेदी जी इतिहास के रस्ते पहुँचते हैं। नामवर जी इस इतिहास के भीतर एक विशेष
घटना के प्रति द्विवेदी जी का आकर्षण लक्षित करते हैं, ऐसी घटना जो एक विशेष अर्थ
दीप्ती से इतिहास को भर देती है। यह घटना किसी ऐतिहासिक तथ्य से प्रमाणित नहीं थी
बल्कि देशी भाषा स्रोतों में वर्णित एक प्रसंग था जो महज काल्पनिक भी हो सकता है।
नामवर जी ने लिखा : “‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता’ तो बहुतों ने पढ़ी और वल्लभाचार्य
से सूरदास के मिलन का उल्लेख भी किया; किन्तु द्विवेदी जी के लिए वह घटना इतनी
महत्वपूर्ण थी कि उसका उल्लेख उन्होंने अनेक बार किया है और बहुत रस लेकर किया है।
उन्हें उस घटना में विशेष अर्थ मिला। महाप्रभु ने जब सूरदास को कुछ सुनाने का आदेश
दिया, तो उन्होंने गाया : ‘प्रभु हों सब पतितन कौ नायक’ और ‘प्रभु हों सब पतितन को
टीकौ’। प्रभु ने दो ही भजन सुने और फिर डांट कर कहा- “सूर होके ऐसो घिघियात काहे
को हौ, कछु भगवत् लीला वरणन करी।” इसपर सूर ने अपना अज्ञान बताया तब महाप्रभु ने
उपदेश दिया। सूरदास को ज्ञानोदय हुआ और उन्होंने ये पद गाया : ‘चकई री चल चरन
सरोवर जहाँ न प्रेम वियोग।’ आचार्य सन्तुष्ट हुए। बाद को सूरदास ने यह पद सुनाया
‘ब्रज भयौ महर के पूत जब यह बात सुनी।’ यह ‘सूर सागर’ की शुरुआत थी। कहने की
आवश्यकता नहीं कि यह पद ब्रज में ‘महर’ के पूत – कृष्ण के ही होने की सूचना नहीं
है – उनके भक्त सूरदास के भी जन्म का उद्घोष है ?”[6]
नामवर जी की सादृश्यता (या रूपक भी कह
सकते हैं) में सूर के शूर होने की प्रक्रिया, भक्त सूरदास के जन्म का उद्घोष,
व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया की सादृश्यता बनकर सामने आती है। इस व्यक्तिगत साधना
की एकांतिकता इसी अर्थ में थी कि वह बार बार ‘नया जन्म’ पाता रहेगा। यह ईश्वर के
आने की सूचना मात्र नहीं थी, ‘ईश्वर आने वाला है’ की खबर मात्र नहीं थी, यह ईश्वर
के जन्म का उद्घोष भी है। यह सम्भव होता है उस एक घटना से जिसके चलते ज्ञानोदय का
क्षण उपस्थित हुआ। ऐसा नहीं था कि सूर में काव्य प्रतिभा न थी या उन्हें संगीत का
पहले से ज्ञान न था परन्तु जिसे हम काव्य की वस्तु कहते हैं वह उनके पास न थी। यह
घिघियाहट, यह ग्लानिबोध, यह दब्बूपन छोड़कर वह प्रभु की लीला क्यों नहीं गा पा रहे
थे? द्विवेदी जी ने समाज के भीतर सूरदास की इस पीड़ा का रहस्य ढूँढने की कोशिश की
और उनके अंधे होने की कहानी को भी बड़ा रस लेकर सुनाया। कथावाचक तो वह थे ही।
व्यक्ति जीवन में तिरस्कार और समाज बाह्य होने के दुःख के साथ-साथ उनका अंधापन
एकबारगी न आया था। द्विवेदी जी ने लिखा कि उनकी संकीर्ण जीवन दृष्टि किसी भी तरीके
से उनके काव्य की महानता के आड़े नहीं आती। सूरदास के मूल्यांकन के समय ग्रियर्सन
की कृष्णभक्ति धारा की आलोचना एक बड़ी चुनौती थी। न केवल ग्रियर्सन की वरन्
प्राच्यविद्या के विद्वानों की एक प्रवृत्ति के रूप में। क्राइस्ट और कृष्ण के
चरित्र की एकता और क्राइस्ट के सामने कृष्ण की मर्यादाहीनता का आख्यान
प्राच्यविद्याविदों ने पहले से ही तैयार कर रखा था। और द्विवेदी जी के लिए यह
हिन्दुओं पर एक कलंक की तरह था। द्विवेदी जी लिखते हैं : “पी. ज्यौग्री नामक एक
ऐसे ही पादरी ने प्रचार किया था कि कृष्ण वस्तुतः प्रभु (क्राइस्ट) का नामांतर है
जिसे अतिदुष्ट वंचकों (हिन्दुओं) ने बड़ी धूर्तता और नीचता के साथ इस पवित्र चरित्र
को गन्दला कर दिया है! (cunningly and impiously polluted by most wicked
imposters) जहाँ इस प्रकार विकृत वायुमंडल हो वहां से कुछ भी आशा करना व्यर्थ
है।”[7] कहना
न होगा ‘हिन्दुओं पर कलंक’ की यह टीस खुद द्विवेदी जी के भीतर गहरे कहीं धंसी थी।
रवीन्द्रनाथ की उस अकस्मात् घटना ने
द्विवेदी जी के लिए ज्ञानोदय का क्षण उपस्थित किया था। विदेशी प्रभुओं की
ज्ञानमीमांसक शक्ति या आचार्य सेन जिसे प्रभुता कहते हैं उसके सामने शास्त्रीय
सनातनता की अक्षमता और जड़ता कोई विकल्प प्रस्तुत करने में सफल नहीं थी। विषाद का
यह माहौल चारों ओर एकेडमिया से लेकर सांस्कृतिक आन्दोलनों में भी छाया हुआ था।
इस विषाद की तिक्तता में द्विवेदी जी के हृदय की टीस भी शामिल थी। ऐसी स्थिति में
रवींद्रनाथ के प्रभाव से हृदय की यह टीस संकल्प में बदल गयी थी। हिंदी की
साहित्यिक दुनिया में कृष्णभक्ति संबंधी यह विवाद ग्रियर्सन के माध्यम से ही
लोकप्रिय हुआ था। कृष्णभक्ति धारा की श्रृंगारिकता और अनैतिकता को लेकर उसकी
आलोचना होती थी। इस विवाद में आत्मविश्वास के साथ हस्तक्षेप का साहस द्विवेदी जी
के भीतर ज्ञानोदय के उसी क्षण के कारण पैदा हुआ था। शास्त्रज्ञ पंडित की चेतना
इतिहासबोध के उदय के पहले खुद को कहीं न कहीं ‘पापात्मा’ जानकार दबी-दबी रहती थी।
शास्त्रीय विद्या के सभी ग्रंथों और साहित्यों के पारायण के बावजूद मुक्ति का कोई
रास्ता नहीं सूझ रहा था, ऐसे विकट आतंरिक दीनताबोध को दूर कर ‘ज्ञान का दीया’ गुरु
रवीन्द्र ने पकड़ाया था। इसी दीये के आत्मविश्वास से भरकर द्विवेदी जी शोध साधना
में प्रवृत्त हुए थे। आचार्य सेन से उनका संबंध अध्यापकीय ज्ञान के प्रति श्रद्धा
का था। उनकी श्रद्धा शोधकार्य में आचार्य सेन की श्रेष्ठता और नई स्थापनाओं तथा
अंतर्दृष्टि की मौलिकता के प्रति थी। सेन उनकी प्रेरणा के स्रोत थे जिनसे वह अपनी
भिन्नता भी रखते थे। यह संबंध बहुत कुछ एक
ही ‘आकाशधर्मा’ गुरु के भीतर साधनारत दो भिन्न दिशाओं के अन्वेषकों का आपसी सबंध
था। पर ग्रियर्सन के साथ मालिक और दास का रिश्ता था, प्रभुता का संबंध था। उसके खिलाफ़ संघर्ष में आत्मबल के जिस ज्ञान
की जरूरत थी उसका उदय इतिहासबोध के उदय के क्षण में है। यह एक नई शुरुआत है।
नामवर
जी इस व्यक्तिगत साधना की शुरुआत के क्षण को इतिहास में ‘ज्ञानोदय’ के सामान्य
अर्थ में लेते हैं। यह एक ही साथ सार्वभौमिक भी है और वैयक्तिक-सामाजिक भी। इस
अर्थ में वह सार्वजनीन है। ईसा की वैयक्तिकता और उसकी ऐतिहासिक वास्तविकता और सबसे
बढ़कर उसका पुनर्जीवित हो उठाना आधुनिकतावाद की इतिहासदृष्टि के लिए एक जरूरी आरम्भ
बिंदु था। ‘अँधा युग’ के अवतरण की विचारधाराओं के बीच आधुनिकतावाद की आलोचना करते
हुए मार्क्सवादी खेमे में दो प्रवृत्तियां विकसित हुई थीं। दूसरे शब्दों में
प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के भीतर सक्रिय कवि कलाकार ‘नयेपन’ के प्रश्न को दो भिन्न
दृष्टियों से देख रहे थे। यथार्थवाद की दो भिन्न दृष्टियाँ आधुनिकतावाद और कलावाद
के विरुद्ध सक्रिय थीं। नामवर जी ने ‘नयेपन’ की दृष्टि के लिए मुक्तिबोध की
रचनाप्रक्रिया का ‘फॉर्मल’ पक्ष बहुत महत्वपूर्ण माना। रामविलास शर्मा के लिए
आधुनिकतावाद की मूल चेतना में एक रहस्यवादी परंपरा थी और रहस्यवाद की आलोचना के
हथियार शुक्ल जी ने पहले से ही तैयार कर रखे थे। अकारण नहीं कि वैष्णव सर्ववाद
(सर्वात्मवाद) की विचारधारा का समर्थन करते हुए उन्होंने आधुनिकतावाद में
अन्तर्निहित ‘एकेश्वरवादी’ ऐतिहासिक चेतना की आलोचना की। रामविलास शर्मा के लिए
पुनर्जागरण का प्रश्न ‘अवतार’ की निरंतरता का प्रश्न था। इस विचारधारा के प्रति
उनके आकर्षण का आधार समाजवाद के निश्चित ऐतिहासिक चरणों की भारतीय पुनरावृत्ति की
जातीय चेतना में था। दूसरे शब्दों में पूंजीवादी ऐतिहासिक विकास की क्रमिक
अवस्थाओं के रूप में ही भारतीय क्रांति की संभावना थी और अकारण नहीं कि आजीवन वह
मजदूर क्रांति के पक्ष की जनवादी क्रांति के पक्ष से आलोचना करते रहे !
अनुकरणधर्मी इस विश्व दृष्टि में ‘राष्ट्रवाद’ की विचारधारा का प्रेत केवल शुक्ल
जी में ही नहीं रामविलास शर्मा में भी बहुत सक्रिय था। उन्होंने कृषक जीवन के
महाकाव्य के रूप में मानस की परंपरा को लोकचेतना में व्याप्त सर्वात्मवाद की
दार्शनिक चेतना का धार्मिक विचारधारा के माध्यम से प्रतिबिम्बन के रूप में देखा था।
बहुत हद तक रामविलास शर्मा की इतिहासदृष्टि इतिहासवादी ही थी और जिसकी आलोचना
नामवर जी ने ‘इतिहास की शवसाधना’ में की है।
परन्तु
नामवर जी द्विवेदी जी की इतिहासदृष्टि में और बेंजामिन की इतिहासदृष्टि में एक
सादृश्यता देखते हैं। आखिर द्विवेदी जी के ‘इतिहास विधाता’ का कौन सा पक्ष
बेंजामिन के ‘इतिहास के फ़रिश्ते’ से मिलता है ? या यह खुद नामवर जी की अपनी इतिहासदृष्टि
थी ? इन प्रश्नों पर विचार करने के लिए अभी हम इस ‘नए जन्म’ को थोड़ा और करीब से
देखने की कोशिश करते हैं। नामवर जी ने इस रूपक को और स्पष्ट करते हुए इसका अर्थ
रवीन्द्रनाथ और द्विवेदी जी के वैयक्तिक संबंधों में उकेरा है। गुरु और साधक के इस
संबंध में साधक की पूर्व पीड़ा उसके ‘छिन्नवृंत तूलखंड’ की भांति फिरते रहने वाले
सूरदास के ‘जहाज के पंछी’ की पीड़ा है। नामवर जी लिखते हैं कि, “भटकते रहने की पीड़ा
ही उसके आश्रय का अर्थ संदर्भ है।”[8] गुरु
के आश्रय का सन्दर्भ साधक के भीतर मुक्ति की बेचैनी से है। इस बेचैनी में ही उसके
भीतर ‘पापात्मा’ का बोध भी होता है। आश्रयहीन जीव को दृढ़ विश्वास हो जाता है कि वह
‘जनमत ही को पतित’ है, ‘सब पतितन को नायक’ है। अपमान, असहायता और तिरस्कार का
पूर्व जीवन द्विवेदी जी के लिए सूरदास के इतिहास का एक आवश्यक प्रश्न है।
‘ज्ञानोदय की घटना’ न केवल पिछले जीवन को वरन् आगे के ऐतिहासिक सूरदास के जीवन को
भी नए अर्थों से आलोकित कर देता है। ठीक इसी अर्थ में ‘प्रेमा पुमर्थो महान्’ की
घोषणा स्वयं मन्त्र बन जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो कृष्णभक्ति और ब्रज में
गोपाल की लीला से उसका संबंध इतिहास में
कैसे संभव हुआ इसका उत्तर इसी मन्त्र में अन्तर्निहित है। ‘अपने भीतर के देवता’ को
या लोकजीवन के बीच अपने देवता को पहचानना दरअस्ल भाव जगत की आतंरिक दुर्बलता का
साधना की शक्ति में रूपांतरण है। यह अपने व्यक्तिगत स्वभाव के देवता को पहचानने का
क्षण है। गुरु ने जो ज्ञान का दीपक पकड़ाया था उसके आलोक में साधक ने अपने स्वभाव
के देवता को पहचान लिया। अकारण नहीं कि नामवर जी ने साधना के इस दूसरे क्षण को
‘लरकाई को प्रेम’ के प्रभाव की तरह, आजीवन बने रहने वाले प्रथम प्रेम की स्मृति की
तरह व्याख्यायित किया है।
मनुष्य
के पापात्मा होने का प्रश्न केवल धार्मिक या मनोवैज्ञानिक ही नहीं था बल्कि उसका
सामाजिक-राजनैतिक आधार भी था। ‘स्वाभाविक’ पापात्मा होने की विचारधारा सत्ता के
द्वारा मनुष्य को दबाने का उपक्रम है। ‘पापात्मा’ होने का प्रश्न मार्क्सवाद के
भीतर ‘अमानवीकरण’ के प्रश्न से जुड़ा हुआ था। मनुष्य अपने स्वाभाविक प्रकृति का
विकास पूंजीवादी सभ्यता में कभी नहीं कर सकता है। ‘अलगाव’ की विचारधारा को शाश्वत
प्रश्न बनाकर पूँजी खुद अपनी शाश्वतता का प्रमाण देती है। औद्योगिक समाजों के भीतर
मनुष्य का अपनी ‘प्रजाति सत्ता’ से चरम अलगाव और जीवन के अमानवीकरण की भयानक
विद्रूपता एक वस्तुस्थिति है। नामवर जी ने मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ कविता की व्याख्या
इसी अलगाव के ख़िलाफ़ ‘अस्मिता की खोज’ के रूप में की है। इसलिए ‘पापात्मा’ के भटकने
की पीड़ा का ठोस ऐतिहासिक उदाहरण उन्हें खुद मार्क्सवाद की अपनी समस्या भी लगती थी।
प्रेम को पाप बताकर मानवीय प्रवृत्तियों का दमन न केवल सामंतशाही शोषण का तरीका था
वरन् पूंजीवादी समाज की भी एक अनिवार्य प्रवृत्ति है। नामवर जी ने लिखा :
“अमानवीकरण की यह प्रक्रिया शासक वर्गों के दमन का प्रमुख अस्त्र रही है। सामंती
युग में इस दमन कार्य के लिए शासक वर्ग धर्म का सहारा लेता था और, आधुनिक
पूंजीवादी युग में धर्म के अतिरिक्त वैज्ञानिक-तार्किक-व्यावहारिक नीतिशास्त्र का
भी। इस दिशा में स्वयं मार्क्स ने तो संकेत किया ही है, हरबर्ट मार्कुजे ने इस दमन
की व्याख्या के लिए ‘इरोस एंड सिविलाइज़ेशन’ नामक पूरी पुस्तक ही लिखी है। कहने की
आवश्यकता नहीं कि हिंदी में सूरदास आदि का भक्तिकाव्य इस सामंती दमन के विरुद्ध
मानवीय द्रोह था।”[9]
नामवर
जी ने आगे लिखा कि प्रेम को अगर उसका फ्रायडीय खोल हटाकर और धर्मशास्त्रों के ठोस
ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखें तब हमें इस विद्रोही चेतना की स्वतः स्फूर्तता में विधि-निषेधों
की अनिवार्य अस्वीकृति दिखती है। इस स्वतः स्फूर्तता में शुक्ल जी एक एनार्की
देखते थे। द्विवेदी जी के लिए इस स्वतः स्फूर्त एनार्की में अपने स्वाभाविक देवता
के चयन की आरंभिक आकांक्षा थी जो अनिवार्यतः भाव जगत के बंधनों और विधि-निषेधों के
खिलाफ थी। यह भाव जगत व्यक्तियों के दैनिक जीवन संघर्षो में बनता रहता है। और कभी
कभी दमन में सक्रिय शक्तियों के खिलाफ उठ खड़ा होता है। द्विवेदी जी का यह पक्ष
उनकी कल्पनात्मक फैंटेसियों में सबसे अच्छी तरह व्यक्त हुआ है। भाव जगत की
प्रवृत्तियों के दमन के पक्ष में शुक्ल जी भी नहीं थे। पर वहां वासनाओं के संस्कार
की पूर्व निर्धारित शास्त्रीय कोटियाँ थीं। शुक्लजी के लिए भाव जगत की एनार्की
स्वभावतः सामाजिक नहीं होती। शुक्ल जी के लिए एकान्तिक प्रेम सामाजिक नहीं था।
द्विवेदी जी इसे स्वीकार नहीं करते। शास्त्र हमेशा एक अथॉरिटी के रूप में विधि-निषेध
आरोपित कर भाव जगत में एक ग्लानिबोध पैदा करता है। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ का
अघोरभैरव बाणभट्ट को कहता है “देख रे, तेरे शास्त्र तुझे धोखा देते हैं। जो तेरे
भीतर सत्य है, उसे दबाने को कहते हैं; जो तेरे भीतर मोहन है, उसे भुलाने को कहते
हैं; जिसे तू पूजता है, उसे छोड़ने को कहते हैं। मायाविनी है यह मायाविनी। तू उसके
जाल में न फंस। समस्त पुरुषों को भरमा रही है, स्त्रियों को सता रही है, माया का
दर्पण पसारे है। तू उसे नहीं देखता, मैं देख रहा हूँ। तुझे देखकर वह हँस रही है।”[10]
प्रवृत्तियों को दबाने वाले शास्त्र के इस पक्ष को द्विवेदी जी कबीर के पहले सूर
में पहचानते हैं। समाज स्वयं इस विचारधारा को बनाये रखने में योगदान करता है।
शास्त्रीय प्रभुओं की उपस्थिति दैनिक मानवीय व्यवहारों में धर्म के नियम बनकर
साक्षात होती है।
मध्ययुगीन
भक्ति साहित्य में धर्म और साहित्य की जैसी एकता मिलती है वह द्विवेदी जी के
अनुसार पूरे विश्व साहित्य में अद्वितीय है। इस एकता का रहस्य क्या है ? इसका
रहस्य है कि भाव जगत का विद्रोह स्वयं अपना देवता ढूंढ लेता है। यह देवता उन्हें
जिस मन्त्र से मिलता है वह मन्त्र एक सन्धा या समाधि भाषा है, जो कि स्वयं कविता
और शास्त्र के अद्भुत समन्वय का परिणाम है। भागवत् के लीला वर्णन की कथा सुनकर ही
सूरदास ने अपना महाकाव्य रच डाला था। वहाँ कृष्ण की लीलाओं का ‘आश्रय’ ही केवल
धार्मिक सन्दर्भ है बाकी सब लोकजीवन का प्रसंग है। द्विवेदी जी ने भक्ति को एक छोर
से दूसरे छोर तक पूरे उत्तर भारत में फैलने के पीछे इसी शास्त्रीय आधार की बात कही
है। एक तरफ शास्त्र का निषेध दूसरी ओर भक्ति का आन्दोलन बनने में भागवत् की समाधि
भाषा का शास्त्रीय आश्रय पाना द्विवेदी जी के लोक और शास्त्र का द्वंद्व है।
उन्होंने कहा कि बौद्ध सिद्धों की भाषा को संधा भाषा कहा जाता है जो वस्तुतः
समाधि- भाषा का ही अपभ्रंश रूप है। भागवत् में लीला वर्णन की भाषा ही समाधि भाषा
थी। वल्लभाचार्य ने भागवत् को शामिल करते हुए प्रस्थानों की संख्या चार कर दी थी
और उसे ‘प्रस्थान चतुष्टय’ कहा था। द्विवेदी जी लिखते हैं कि, “यह भक्ति का अपूर्व
ग्रन्थ है जो कोई भी इसका लेखक रहा हो निःसंदेह वह महाविद्वान होने के साथ महाकवि
भी था। उपनिषद् के तत्त्व ज्ञान और तत्काल-परिचित सभी आर्ष शास्त्रों के सुविचारित
मत इस ग्रन्थ में सहज कविता के साथ इस प्रकार घुल मिलकर प्रकट हुए हैं कि इसे
‘समाधिभाषा’ या ‘रिवील्ड पोएट्री’ कहना बिलकुल उचित है। ब्रह्मसूत्र और भागवत्
दोनों ही व्यास-रचित माने जाते हैं, लेकिन सूत्रों में जहाँ तत्त्व जिज्ञासा का
समाधान है वहाँ भागवत् भावनाओं को प्रभावित करने वाला और फिर भी बौद्धिक समाधान को
भी प्रस्तुत करने वाला अपूर्व ग्रन्थ है। वह बौद्धिक समाधान मात्र नहीं है, बुद्धि
को भी अभिभूत करके अन्तरतर को उल्लसित करने वाला समाधि-काव्य है। समाधान केवल
प्रतीति उत्पन्न कराता है और समाधि अनुभूति प्रदान करती है। एक बुद्धि का विषय है,
दूसरा बोध का।”[11]
वल्लभाचार्य ने इसी समाधि-काव्य को चौथा प्रस्थान माना था और यह भी कहा था कि किसी
मत की ग्राहकता के लिए आवश्यक है कि वह चारों प्रस्थानों का अविरोधी हो और यदि
कहीं विवाद भी हो तो वहाँ संदेह निवारण के लिए इन चतुष्टयों का उत्तरोत्तर क्रम से
अधिक प्रामाणिक होना ही मान्य होगा। इस प्रकार यह समाधि-काव्य न केवल स्वयं प्रमाण
हुआ बल्कि सबसे अधिक प्रामाणिक भी घोषित किया गया। द्विवेदी जी के लिए काव्य को
प्रमाण मानने की यह घटना बहुत महत्वपूर्ण हुई। ज्ञान और संवेदना या शास्त्र और भाव
जगत का यह ‘संतुलन’ या ‘भार- साम्य’ द्विवेदी जी को शास्त्रों के इतिहास में एक
अभूतपूर्व घटना की तरह मालूम पड़ती है। ठीक ऐसी ही संधा भाषा का प्रयोग बौद्ध
सिद्धों के चर्यापद में भी उन्हें दिखाई पड़ा। बौद्ध दार्शनिक शुष्कता और संस्कृत
शास्त्रों के भीतर यह नया उन्मेष संभव हुआ था भाव जगत के विद्रोह की अनार्की के
दबाव में। भाव जगत की दुर्बलताओं को उच्च आदर्श की ओर मोड़ने के लिए ज्ञान और
संवेदन का यह संतुलन समाधि काव्य के रूप में प्रकट हुआ। हम कह सकते हैं कि
द्विवेदी जी शास्त्रीय इतिहास में एलिगरी के क्षण को पहचानने की कोशिश कर रहे थे।
यहाँ बुद्धि की अमूर्तता या प्रतीति मात्र के भीतर गहरे- किसी गहरे भाव के संकेत
को महत्वपूर्ण माना जाता है। यह गहरा अर्थ संवेदनात्मक बोध का हिस्सा बनकर ही
भावजगत के विद्रोह को एक सही और भव्य जीवन दृष्टि प्रदान कर सकता है। यह भव्य जीवन
दृष्टि द्विवेदी जी के लिए लोककल्याण की भावना थी। उनकी कल्पनात्मक फैंटेसियों में
या गद्य रूपकों में लोक कल्याण का भावात्मक आदर्श ‘राष्ट्रीय रूपक’ बन जाता है।
उनकी समाधिभाषा की गहरी बात ‘राष्ट्र’ की कल्पना थी। धार्मिक- शास्त्रीय और लौकिक-
काव्यात्मक का अपूर्व संतुलन राष्ट्र के एक ऐसे रूपक को जन्म देता है जो विद्रोह
की भावात्मक- संवेदनात्मक बोध को संगठित कर उसे एक आन्दोलनात्मक रूप दे देता है।
‘ज्ञानात्मक
संवेदना’ के इस शास्त्रीय रूप का सूरदास से कैसा संबंध था ? द्विवेदी जी आचार्य शुक्ल की इस बात का
समर्थन करते थे कि ‘सूरसागर’ किसी चली आती हुई लोक परंपरा का ही विकसित रूप था।
सूर ने केवल अपनी कविता के लिए भागवत् की लीला कथा का आश्रय लिया था। द्विवेदी जी
ने ये बातें १९७८ में सूरदास संबंधी अपने एक व्याख्यान में कही थीं, परन्तु इसकी
बीज भावना ‘सूर साहित्य’ के प्रथम प्रेम में ही थी। इसलिए सूर से कबीर तक और कबीर
से सूर तक हम उसी एकान्तिक सत्यान्वेषण से प्राप्त दृष्टि को पहचानने की कोशिश कर
सकते हैं। ‘सूर साहित्य’ में अभी कबीर का पूरा व्यक्तित्व उभरकर सामने नहीं आया था।
इसे बावजूद ‘भावजगत की जड़ता’ को तोड़ने में निम्न श्रेणी के साधकों की महिमाशाली
प्रतिभा का स्वीकार वहां था। ये प्रतिभाशाली निम्न श्रेणी के साधक एक ओर शूद्र से
लेकर ब्राह्मणों तक सभी लोगों के गुरु बन रहे थे। समाज में रहकर वर्णाश्रम का
विरोध एक बिलकुल नई चीज थी। द्विवेदी जी लिखते हैं, “अबतक वर्णाश्रम व्यवस्था का
कोई प्रतिद्वन्दी नहीं था। आचारभ्रष्ट व्यक्ति समाज से अलग कर दिए जाते थे और वे
एक नई जाति की रचना कर लिया करते थे। इस प्रकार सैंकड़ों जातियों, उपजातियों की
सृष्टि होते रहने पर भी वर्णाश्रम व्यवस्था एक तरह से चलती ही जा रही थी। इसमें
कभी विद्रोह हुआ था तो यह वैराग्यपंथी साधु-संतों के द्वारा। परन्तु अबकी बार
समस्या बड़ी टेढ़ी हो चली। सामने ही एक विराट शक्तिशाली प्रतिद्वंदी समाज था, घर में
ही वैराग्य प्रधान साधुओं का भारी विद्रोह था; ये दोनों बातें ही वर्णाश्रम को
हिला देने के लिए काफी थीं। परन्तु तीसरी शक्ति तो और भी विचित्र और अद्भुत थी।
निम्न श्रेणी के साधक अपनी महिमाशालिनी प्रतिभा और साधना के बल पर ब्राह्मण से
लेकर शूद्र तक के गुरु बन रहे थे और सो भी न समाज से निकलकर और न वैराग्य की धूनी
रमाकर। इस विकट स्थिति को संभालना शास्त्र के लिए असंभव हो उठा था।”[12]
शास्त्रों
के लिए इस विलक्षण स्थिति को संभालना बहुत मुश्किल हो रहा था। ‘सूर साहित्य’ के
समय ही द्विवेदी जी को इस विलक्षण तीसरी धारा का,
उनके इस ‘न इधर न उधर’ होने की विलक्षणता का बोध था। शास्त्रीय वर्णाश्रम और
अशास्त्रीय योगियों दोनों को न कहने वाली, एक नई संभावना वाली कैटेगरी, शास्त्रों
की किसी भी पुरानी अवधारणा में फिट नहीं हो पा रही थी। द्विवेदी जी भी केवल इतना
कह पाए कि कबीर आदि बाकी जो हों, ‘अ-वैष्णव’ तो नहीं थे। कबीर आदि की निर्गुण
शून्यता इसी ‘नो मैन्स लैंड’ का रूपक भी थी। परन्तु सूर साहित्य के समय तक
द्विवेदी जी इसमें हृदय को रससिक्त करने वाले प्रेम को नहीं पहचान पाए थे। इसलिए
उन्होंने कहा कि संतों का उच्छेद मूलक आघात जनता के संस्कारों के बंधन को तोड़ने
में असमर्थ रहा और इसलिए दक्षिण से आने वाली ‘प्रेममयी भक्ति’ ने ही वास्तव में इस
सामाजिक शून्य को भरा था। द्विवेदी जी लिखते हैं : “इसी समय दक्षिण से एक धारा आई।
यह धारा थी भक्ति की। कबीर आदि संतों ने जिस साधना का उपदेश किया था वह भारत की
अपनी ही चीज थी, सरल और सहज थी, परन्तु तत्कालीन जनसमुदाय अपने पुराने संस्कारों
के कारण इसे ग्रहण नहीं कर सका। कबीरदास ने स्थान-स्थान पर जनमत को काफी
आघात भी पहुँचाया है, जो उस युग की संस्कारजन्य जड़ता को देखकर उन्हें करना पड़ा था।
पर दक्षिण-भारत से आयी हुई भक्ति-धारा साधारण जनता के लिए बहुत दूर की चीज नहीं
जान पड़ी। इस साधना का केंद्र बिंदु था प्रेम।”[13] कबीर
आदि संतों की स्वीकार्यता- अस्वीकार्यता के लिए जनता की तैयारी का यह तर्क खुद
द्विवेदी जी की कल्पना थी। आगे चलकर शायद उन्हें इस कल्पना की रिक्तता का बोध
स्वयं ही हो गया था। कबीर के बारे में अभी संतुलित दृष्टि नहीं बन पाई थी। पर
शुक्ल जी की तरह न तो इन संतों को वह अभारतीय कहते हैं और न ही जनमत को आघात
पहुँचाना गलत मानते हैं। संतों की वाणियों में भी सिद्धों की संधा भाषा का प्रभाव
था। संतों की उपदेशात्मकता में शायद द्विवेदी जी को उस वक़्त ज्ञान और संवेदनाओं का
संतुलन नहीं मिला था। अभी निर्गुण धारा को एक असमंजित भारतीय धारा के रूप में
स्वीकार किया गया था जिसमें परिस्थितियों से सामंजस्य का प्रयास नहीं था। इनके पास
किसी भागवत् की लीला कथा का शास्त्रीय आश्रय नहीं था। दूसरी ओर सूरदास आदि भक्त
कवि परिस्थितियों और शास्त्रों का सामंजस्य करके आगे बढ़ते हैं। वह लिखते हैं :
“सूरदास आदि भक्त कवियों में कहीं भी विरोध की ध्वनि नहीं है, वे अगर किसी बात को
अनुचित समझेंगे तो अत्यंत मृदु भाषा में उसकी उपेक्षा पर जोर देंगे। यह उपेक्षा भी
वे सीधे नहीं कहेंगे। कहेंगे कवि की भाषा में, लक्षणा और व्यंजना का आवरण डालकर।
इनकी तुलना उपनिषद् के ऋषियों से की जा सकती है जो यज्ञ- याग के विरोधी नहीं,
उपेक्षक थे।”[14]
सूरदास
का प्रेम क्या लोगों का हृदय इसलिए आकर्षित कर पाया कि वहां प्रेम सामंजस्य का
प्रयत्न था ? द्विवेदी जी को अभी प्रेम का वैयक्तिक माधुर्योपासना वाला रूप मोहित
करता है। कबीर के प्रेम से भिन्न यहाँ प्रेम की एक दूसरी कल्पना है। सूर साहित्य
में प्रेम मुख्यतः राधा-भाव का प्रेम है। कामभावना और प्रेम साधना की आरंभिक भावना
में छिपे आचार विरोध को राधा-भाव की शास्त्रीयता का आश्रय मिला था। कामवासना
मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है। ‘लरकाई कौ प्रेम’ दरअस्ल स्वाभाविक कामवासना का
मानवीय संबंधों में रूपांतरण है। नामवर जी ने सूरदास के प्रेम में अन्तर्निहित इस
रूपांतरण के विद्रोही चरित्र को पहचानने में द्विवेदी जी की विशिष्टता नोट की है।
इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह यह कहना चाहते हैं कि कामवासना प्रेम की अंतर्वस्तु
है। दूसरे शब्दों में, प्रेम का यथार्थ काम है। शुक्ल जी के लिए जहाँ एकान्तिक
प्रेम संकीर्ण और लोकबाह्य था वहीं द्विवेदी जी के लिए अपने आरम्भ से ही प्रेम
भावजगत का विद्रोह था। द्विवेदी जी के इसी रूमानियत को लक्ष्य करते हुए नामवर जी
लिखते हैं : “जिस प्रेम को शुक्ल जी लोकबाह्य कहते हैं वह दरअस्ल एक निश्चित सीमा
में जकड़े हुए लोक के बाहर है- निष्प्राण नियमों और रीति-रिवाजों में बंधे हुए समाज
से बाहर निकलने का प्रयास है! उस प्रेम की एकांतिकता ही उसकी लोकोन्मुखता है और
वैयक्तिकता ही सामाजिकता; जैसा कि हर रोमैंटिक विद्रोह में होता है।”[15]
ध्यान देना चाहिए कि रोमैंटिक प्रेम एकांतिकता और लोकोन्मुखता तथा वैयक्तिकता और
सामाजिकता की भिन्नता को ध्वस्त कर देता है। परन्तु इस आरंभिक स्वीकृति और उसकी
लोक परंपरा की खोज के बावजूद ‘सूर साहित्य’ में जिस प्रेम की साधना का चित्र खींचा
गया था वह भागवत् और भक्ति के दर्शन पर ही आधारित था। सामाजिक विद्रोह का जो रूप
प्रेम की भाषा में अभिव्यक्त हो रहा था वह सूर की समाधि-काव्य की भाषा थी। खुद
द्विवेदी जी का प्रेम से प्रथम साक्षात्कार सूरदास के माध्यम से हुआ था और उनके
‘प्रेमपंथ की भावयात्रा’ में यह प्रथम साक्षात्कार सूरदास की मूर्ति बनकर स्थायी
हो गयी थी। प्रेमपंथ की इस भावयात्रा में उस ‘आरंभिक घटना’ का अर्थ नियत हो गया था।
इस पक्ष को नामवर जी इस तरह प्रकट करते हैं, “सूर से कबीर तक की यात्रा प्रेम के
पंथ की ही भावयात्रा है सामाजिक विद्रोह का एक रूप वह भी है जो प्रेम की भाषा में
अभिव्याक्ति पाता है। आकस्मिक नहीं है कि द्विवेदी जी के कबीर पर सूर की
प्रेमभक्ति का गहरा रंग है। द्विवेदी जी के कबीर उनके सूर से निश्चय ही अधिक मुखर
क्रान्तिकारी हैं, और इसलिए द्विवेदी जी उनकी ओर आकृष्ट भी होते हैं; परन्तु ऐसा
लगता है कि उनके अन्दर कहीं-न-कहीं सूरदास के मन में एक मृदु-विद्रोही भी बैठा हुआ
था जिसका प्रवेश साहित्य साधना की उस वय में हुआ जिसका संस्कार जल्दी नहीं छूटता
और प्रायः स्थायी हुआ करता है।”[16] इस
प्रकार इस भावयात्रा में सूरदास की मूर्ति एक ‘स्थायी संस्कार’ की तरह जम गयी थी।
उस स्थायी संस्कार पर ही धीरे-धीरे कबीर की मूर्ति का रंग चढ़ता गया। बाहर से बहुत
कुछ बदलता गया। पर भीतर के किसी कोने ने अपने स्वाभाविक देवता की मूर्ति को बिठाये
रखा। पर खुद द्विवेदी जी जानते थे कि हृदय में दो देवताओं का स्थान एक साथ संभव
नहीं। इसलिए विद्रोह और प्रेम के देवता का जो चित्र कबीर में खींचा गया वह
द्विवेदी जी के प्रेमपंथ की भावयात्रा का अपना देवता है। इसी देवता के रूप को
स्पष्ट करने के लिए ‘कबीर का गद्य’ कहीं कहीं स्वयं समाधिभाषा हो गया है। कबीर के
पदों की व्याख्या करते हुए और रवीन्द्रनाथ की कविताओं से पदों का अर्थ आलोकित करते
वक्त द्विवेदी जी की समाधि- काव्य की साधना भी प्रकट होती है। ‘बाणभट्ट की
आत्मकथा’ में प्रेम के देवता की तलाश अपने तमाम विद्रोह और विक्षोभ के बावजूद
‘महावराह’ में या ‘भागवत् धर्म’ में अपनी पूर्णता पाता है। यह ‘भागवत् धर्म’ भी
द्विवेदी जी की अपनी कल्प सृष्टि थी। धर्म, प्रेम और काव्य के संबंधों से बनने
वाली यह एलिगरी इतिहासबोध के उदय के साथ साथ ही लगी चली आई थी। नामवर जी इस एलिगरी
के भीतर इतिहास चेतना के ठोस यथार्थ को निकलने कोशिश करते हैं। और मिथक के खोल के
अन्दर ठोस अंतर्वस्तु उन्हें प्रथम प्रेम के स्थायी प्रभाव के रूप में दिखाई पड़ती
है।
कबीर
के प्रेम को सामाजिक और सूरदास के प्रेम को वैयक्तिक कहकर अलग नहीं किया जा सकता।
प्रेम की एकांतिकता दोनों जगह है। कबीर का प्रेम एकांतिक और सार्वजनीन है। सूर के
यहाँ भी वह एकान्तिक होकर भी, वैयक्तिक होकर भी लोकोन्मुख और सामाजिक है। पर दोनों
के यहाँ प्रेम साधना की सार्वजनीनता भिन्न है। सूर के यहाँ सार्वजनीनता लीलावाद की
सार्वजनीनता है। जबकि कबीर एक नई सार्वजनीनता की प्रस्तावना कर रहे थे। विकासवादी
मनोविज्ञान से अलग हटकर अगर प्रेम और कामभावना के बीच के संबंध को समझने कोशिश करें तो हम देखते हैं कि
कामभावना के कारण बनने वाला संबंध ‘सामाजिक
सम्बन्ध’ नहीं है। ‘सामाजिक सम्बन्ध’ अर्थात् दो व्यक्तियों के बीच बनने वाला कोई
वैधानिक सम्बन्ध। स्त्री-पुरुष के बीच श्रेणीगत अमूर्तता का सर्वस्वीकृत रिश्ता
पितृसत्ता जनित संबंधों का रिश्ता होता है। ऐसी स्थिति में कामवासना जनित विद्रोह
स्त्रियों के लिए सबसे कठिन है, इसलिए पितृसत्तात्मक सामाजिक संबंध हर संभव तरीके
से इसको दबाने की कोशिश करता है। द्विवेदी जी ने लक्ष्य किया था कि इसको दबाने के
कारण ही सामाजिक कुरीतियों का जन्म होता है। अर्थात् वासना जनित विद्रोह अगर उच्च
आदर्शों से रहित होते हैं तो वे तथाकथित सामाजिक कुरीतियों में बदल जाते हैं।
इसलिए कामवासना की रचनात्मकता को वह प्रेम का आदर्श देना चाहते हैं। वहां प्रेम की
धारणा में स्त्री देह को देवता का घर माना जाता है। द्विवेदी जी ने अपने गद्यात्मक
रूपकों में भी स्त्री के सम्मान का अर्थ उसके देह में देवत्व का वास ही किया है।
‘चारू चंद्रलेख’ में चंद्रलेखा के लिए प्रेम का आदर्श ‘पतिभाव’ की आराधना में है।
इस तरह प्रेम और देवत्व की एकीभूत भावना द्विवेदी जी के चिंतन का केंद्र है।
देवत्व कामजन्य वासना का शास्त्रीय आधार है। कृष्ण के लीला चरित्र का आश्रय पाकर
यह वासना समाज की अन्तः शुद्धि की साधना में बदल जाती है। इस तरह प्रेम का लीला
भाव कामवासनाओं के नियंत्रण के लिए पितृसत्ता की आत्मशुद्धि थी। चंद्रलेखा ने
लोककल्याण के लिए जिस ‘कोटिरस’ की साधना का रास्ता चुना था वह स्वाभाविक मार्ग
नहीं था। वैष्णव भक्ति की सरसता और पवित्रता ने ही उसे फिर से ‘पतिभाव’ की साधना
का सच्चा रास्ता दिखाया था। नामवर जी ने भी नोट किया था कि प्रेम साधना की पूर्णता
द्विवेदी जी को भट्टिनी के शब्दों में ‘भागवत् धर्म’ में ही दिखाई देती है। यहाँ
‘भागवत् धर्म’ का अर्थ उसकी शास्त्रीय मनोवैज्ञानिकता में है। ‘सूर साहित्य’ में
द्विवेदी जी के लिए बंगाल की वैष्णव साधना एक मुख्य प्रस्थान बिंदु है जहाँ से वह
प्रेम की अपनी धारणा विकसित करते हैं।
चैतन्य
के संप्रदाय में परकीया प्रेम को बहुत महत्त्व दिया जाता था, जबकि वल्लभ के
संप्रदाय में स्वकीया प्रेम आदर्श था। प्रेम की वैष्णव पूर्णता में यह आतंरिक
भिन्नता थी और द्विवेदी जी के लिए एक समस्या भी। भागवत् की कथाओं के सहारे गोपियों
को कृष्ण की पत्नियाँ बनाकर परकीया प्रेम की वैधता स्वीकृत की गयी थी। साधारण जीवन
में परकीया प्रेम की शास्त्रीय अस्वीकृति वस्तुतः इसके भीतर छिपी कामवासनाजन्य
अनार्की के कारण थी, जिसका इतिहास द्विवेदी जी ढूँढने की कोशिश करते हैं। उनके
अनुसार भारतवर्ष में अत्यंत प्राचीन काल से ही परकीया प्रेम एक खास संप्रदाय का धर्म था।
इस संप्रदाय का मत वेद विरोधी था। ऋग्वेद, अथर्ववेद और छान्दोग्योपनिषद् के भीतर
इस मत की छाया दिखती है। इस मतवाद की केन्द्रीय प्रवृत्ति का कुछ पता उन्हें
छान्दोग्योपनिषद् (२-१३-१) के ‘कांचन परिहरेत्’ मंत्रांश का जो अर्थ शंकर ने लगाया
था, उससे मिलता है। इसका अर्थ “आचार्य शंकर ने इस प्रकार किया है- जो वामदेव सामन्
को जानता है उसे मैथुन की विधि का कोई बंधन नहीं है। उसका मन्त्र है- ‘किसी स्त्री
को मत छोड़ो’। अवश्य ही इस मतवाद को वैदिक युग में बहुत अच्छा नहीं समझा जाता होगा।”[17]
‘किसी स्त्री को मत छोड़ो’ का मंत्रांश क्या था ? यह यौन उन्मुक्तता को नियंत्रित
करने का मंत्रांश था। या दूसरे शब्दों में कहें तो यह मंत्रांश पितृसत्ता के कठोर
नियंत्रण की आवश्यकता थी। इस मतवाद का पता बौद्धों के ग्रन्थ ‘कथावत्थु- जातक’ और
‘मज्झिम निकाय’ तथा बुद्ध के और भी कई उपदेशों से मिलता है। बुद्ध को भी ऐसे
परकीया प्रेम के प्रसंगों की निंदा करनी पड़ी थी। अगर कोई ऐसा संप्रदाय था तो इसका
मतलब है कि समाज में यौनमुक्त समाज की कल्पना का एक सामूहिक प्रयास जरूर रहा होगा।
कहना न होगा कि उपनिषदों या बुद्ध के समय निम्नवर्गीय जीवन में लोकायतों या
चार्वाकों जैसे भौतिकवादी आदर्शवादियों का काफी प्रभाव था। भाववादी आदर्शवाद के
भीतर यह उन्मुक्तता स्वीकार्य नहीं थी। इसे वह समाज को अस्थिर करने वाली अराजकता
मानते थे। आगे चलकर देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने लोकायत और सांख्य दर्शनों का संबंध
स्त्री प्रधान समाज के मूल्यों से दिखलाया।
उन्होंने यौन संबंध में ‘पुरुष’ की
उदासीनता और ‘स्त्री’ की सक्रियता के आधार पर सांख्य के प्रकृति और पुरुष की अवधारणा
की व्याख्या की। प्रकृति और पुरुष का स्त्री सिद्धांत द्विवेदी जी के चिंतन का भी
एक केन्द्रीय पक्ष है। कहना न होगा कि यौन एनार्की मुख्यतः एक स्त्री प्रश्न था और
आगे चलकर जब प्रेम का शास्त्रीय वर्गीकरण किया जा रहा था तब ‘परकीया प्रेम’ की
अवधारणा सामने आई। हांलाकि द्विवेदी जी इस एनार्की को समाज में फैली एक व्यापक
अस्थिरता के बीच ही रखकर देखने की कोशिश करते है। ईस्वी सन् के आसपास ऐतिहासिक
धर्मों की एक विचित्र स्थिति के भीतर द्विवेदी जी इसे समझने के क्रम में लिखते हैं
: “सन् ईस्वी के आरम्भ में भारतवर्ष में एक विचित्र धार्मिक स्थिति थी। हिन्दू
धर्म सिर उठा रहा था, बौद्ध धर्म गिर रहा था। बाहर से आई हुई अनेक जातियों के
विविध विचार समाज में प्रविष्ट होकर नाना संप्रदायों और मतवादों के उद्भव के कारण
हो रहे थे। पतनशील बौद्ध धर्म फिर से उठने की चेष्टा में था। उनके धर्म के प्रति
नाना कारणों से लोगों की श्रद्धा उठती जा रही थी। संघ में भिक्षु- भिक्षुणियों का
अबाध व्यभिचार जारी था। अलंकार ग्रथों में भिक्षुणियों को दूती-कार्य दिया जाना इस
बात का सबूत है कि उस ज़माने में ये भिक्षुणियाँ केवल संघ को ही नष्ट नहीं कर रही
थीं, बल्कि सद्गृहस्थों को भी चौपट कर रही थीं। इन कारणों से साधारण जनसमाज इनसे
ऊब गया था। अब बुद्धदेव की महीयसी करुणा में वह जादू न था कि लोग उसकी तरफ आकृष्ट
हों। फलतः इनको तंत्र-मन्त्र का आश्रय लेकर जनता को वश में करने की चेष्टा करनी
पड़ी।”[18]
द्विवेदी
जी इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते कि तंत्रवाद का जन्म ‘भिक्षु और भिक्षुणियों
के अबाध व्यभिचार’ को दार्शनिक और धार्मिक रूप देने की कोशिश में हुआ है। संसार
के सभी धर्मों में तंत्रवाद का किसी न
किसी रूप में अस्तित्व रहा है, इसे देबीप्रसाद भी स्वीकार करते हैं। द्विवेदी जी
ने भी लिखा कि तंत्रवाद के मूल सिद्धांत उतने ही पुराने हैं जितनी कि स्वयं मनुष्य
जाति। संघों में अराजकता बढ़ने के चलते तंत्रवाद की पहले से चली आ रही धारा का
आश्रय उन्हें लेना पड़ा था। द्विवेदी जी तंत्रवाद के तात्विक चिंतन को बहुत ऊंचा
स्थान देते थे, परन्तु उसके अन्दर उसका एक कुत्सित पक्ष भी था। इस ‘कुत्सित’ में
उनकी अपनी धारणा का पता मिलता है। अकारण नहीं कि बौद्ध संघों के पतन का एक मुख्य
कारण वह भिक्षुणियों के ‘अबाध व्यभिचार’ में देखते थे। वैसे कई लोगों के लिए तो
वही मुख्य कारण था जिसकी भविष्यवाणी स्वयं बुद्ध ने आनंद से की थी! स्त्री
सिद्धांतों और अराजकता का अंतर्संबंध सामाजिक रूप से कई भिन्न भिन्न सम्प्रदायों
के निर्माण में सामने आता है।
एक संप्रदाय शाक्तों का था जो पराशक्ति की उपासना स्त्री रूप से करता था। भंडारकर
ने अपनी किताब ‘वैष्णविज्म, शैविज्म एंड माइनर रिलीजियस सिस्टम्स’ में इन
सम्प्रदायों की एक मुख्य विशिष्टता ईश्वर की स्त्री-रूप में उपासना बताया था।
द्विवेदी जी इसे स्त्री सिद्धांत का एक ‘ऊँचा अंग’ मानते हैं। यौन एनार्की के भीतर
जब सामान्य बोध से आगे जाकर सिद्धांत का आकर्षण पैदा होता है, ऐसे समय इन
सम्प्रदायों के द्वारा स्थिर किये गए सिद्धांतों की ओर लोगों का ध्यान जाना किसी
आश्चर्य की बात नहीं है। ठीक ऐसे ही समय ऐतिहासिक धर्मों के भीतर से किसी लोकप्रिय
धार्मिक आन्दोलन का जन्म होता है और आदर्श यौन संबंधों की एक नई आचार संहिता भी
बनाई जाती है। द्विवेदी जी इस एनार्की का सबसे सफल प्रतिउत्तर भागवत् संप्रदाय में
बाल कृष्ण के प्रवेश के साथ राधा और गोपियों के यौन प्रसंगों के समावेश में देखते
हैं।
तंत्रवाद
सामान्य ‘असंस्कृत’ लोगों को मर्यादा में नहीं ला पाया। इसका सिद्धांत तो महान् था
लेकिन ‘असंस्कृत’ व्यापक जनसमुदाय इसे व्यवहार में उतरने में अक्षम था। तंत्रवाद
का व्यावहारिक पहलू स्त्री को अनुष्ठान का साधन भर मानती है जबकि वैष्णव मत में वह
“परम पुरुष को पूर्ण करने वाली समझी जाने लगी। तंत्र की परकीया एक यांत्रिक साधना
थी, किन्तु वैष्णव परकीया प्रेम का साधन थी। राधा के बिना कृष्ण अपूर्ण थे। यह एक
ऐसी बात है जो तंत्रवाद से वैष्णव-भाव को पृथक कर देती है। चैतन्य देव के
वैष्णव-संप्रदाय में परकीया-प्रेम को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है, परन्तु समाज
में इसका निषेध किया गया है।”[19] इस
प्रकार यौन उन्मुक्तता को नियत सामाजिक संबंधों के भीतर स्थिर करने की कोशिश में
दो चीजें हुईं- एक ओर यौन कर्म को मुक्ति का साधन बना दिया गया, दूसरी ओर यौन संबंध
को प्रेम के आदर्श में शामिल करने की
कोशिश हुई। प्रेम का वैष्णव आदर्श किसी नए सामाजिक संबंध का आदर्श न था बल्कि
प्रेम की एक पारलौकिक धारणा थी। तंत्रवाद जहाँ यौनकर्म को साधन बनाकर मूलतः स्त्री
को उसकी यौनिकता में सीमित कर देता है और इस प्रकार एनार्की में छिपे समतामूलक
विद्रोह को एक बार फिर पुरुष सत्ता के भीतर निःशेष कर देता है। वहीं वैष्णव मत यौन
कर्म की समानता को ईश्वरीय प्रेम की परम अन्यता की तरफ उन्मुख कर उसे मर्यादित
करता है, एनार्की के भीतर छिपे नए समतामूलक सामाजिक संबंधों की इच्छा को एक आदर्श
यूटोपिया से नियंत्रित कर पुनः पुराने पारिवारिक संबंधों के भीतर ही थिर कर देता
है। यहाँ प्रेम की एकांतिकता का आदर्श ‘पति-पत्नी’ भाव था। एक साथ रहने की सबसे
छोटी इकाई के भीतर ‘पति पत्नी’ भाव में यौन कर्म की स्वतंत्रता। ऐसी स्थिति में
चैतन्य के वैष्णव संप्रदाय को एक अजीब मनोस्थिति का सामना करना पड़ा। चैतन्य परकीया
प्रेम को स्वकीया प्रेम से ऊंचा मानते थे, कारण कि उनके अनुसार परकीया प्रेम का
वेग अधिक रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यौन उन्मुक्तता के भौतिक दबाव के कारण
ही उन्हें प्रेम के आदर्श को परकीया मानना पड़ा था। या कहें कि परकीया प्रेम की एक
ऐसी धारणा सामने लानी पड़ी जो यौन कर्म को अनिवार्यतः ईश्वरीय प्रेम से जोड़ देती है।
वर्णाश्रम में गार्हस्थ जीवन दमित यौन इच्छाओं की विकृति का जीवन ही होता है।
निम्नवर्गीय श्रमशील जीवन में यौन संबंधों को मर्यादित करना बहुत आसान नहीं था
क्योंकि अपनी जीवन स्थितियों के चलते ही वहां एक स्वाभाविक उन्मुक्तता होती है।
परिवार संस्था वहां ज्यादा अस्थिर होती है। इसलिए व्यापक जनसमूह वाले इस
निम्नवर्गीय जीवन में परकीय यौन व्यवहारों की उन्मुक्तता को ‘परकीय प्रेम’ की
अवधारणा से जोड़ना आवश्यक था। या कहें कि, तांत्रिक यांत्रिकता के बरक्स स्त्री
यौनिकता को प्रेम की ऐसी मर्यादा के भीतर लाने का प्रयास बंगाल में चैतन्य आदि के
लोकप्रिय धार्मिक मतों ने किया जो स्त्रीत्व की पूर्णता को यांत्रिक यौनिकता से बाहर
निकाल ने का भ्रम खड़ा कर सके। पितृसत्ता का एक रूप जो तंत्रवाद में विकसित हो रहा
था उसके खिलाफ चैतन्य आदि के सम्प्रदायों ने स्वयं स्त्री यौनिकता का मर्यादित
उदाहरण समाज के सामने रखा। स्त्री की आराधना के बदले यहाँ स्त्री भाव से आराधना
परकीया प्रेम का आदर्श थी। ईश्वर के प्रति उन्मुख यह आदर्श ‘राधा भाव’ प्रेम की
सार्वजनीनता को संबोधित था। पर यह सार्वजनीनता अलग-अलग स्वकीयता से बनते रहने वाली
परकीयता में नहीं थी। शास्त्रीय स्वकीय प्रेम यौन संबंधों का एक स्थिर रूप है
अर्थात् जहाँ यौन कर्म की बारंबारता और दुहराव में व्यक्ति युगल सामाजिक मर्यादा
द्वारा स्थिर रहते हैं। असमान संबंधों वाले समाज में पुरुष चयन के लिए ज्यादा
स्वतंत्र है, वह अपनी इच्छा आरोपित भी कर सकता है। ‘किसी स्त्री को मत छोड़ो’
अर्थात् पुरुष परकीया हो सकता है, स्त्री नहीं हो सकती। चैतन्य ने अपने आदर्श में
इसे ठीक उल्टा कर दिया। जेंडर को भी और स्त्री पुरुष के अपने स्थान को भी। पुरुष
चैतन्य स्त्री भाव से खुद को परकीया कर कृष्ण से प्रेम करते हैं। यह सेक्स, जेंडर
और प्रेम के अद्भुत समन्वय की कोशिश थी। प्रेम की सार्वजनीनता सेक्स और जेंडर के
भेद को स्वभावतः ही नहीं स्वीकार करती इसलिए सेक्स और जेंडर की अदला बदली से उसकी
सार्वजनीनता को कोई दिक्कत नहीं थी। आगे चलकर बंगाल के कई वैष्णव पंथों में
स्त्री-पुरुष या पुरुष-पुरुष के बीच यौन संबंधों का कोई भेद नहीं माना जाता था।
बहुत बाद तक के लालन आदि फकीरों के यहाँ प्रेम तथा सेक्स और जेंडर के बीच कोई
अनिवार्य संबंध स्वीकृत नहीं था।
परन्तु चैतन्य आदि के लोकप्रिय वैष्णव
मतों में जो ‘राधा भाव’ का शास्त्रीय रूप दिया गया है वहां निश्चित रूप से यौन
उन्मुक्तता के नियंत्रण के लिए ही प्रेम की परिभाषा गढ़ी गयी। चैतन्य आदि के वैष्णव
मत का यह आंतरिक अंतर्विरोध ही स्वकीया और परकीया का अंतर्विरोध बनकर उभरा था। प्रेम
का वैष्णव रूप इन्ही दोनों अवधारणाओं के इर्द-गिर्द विकसित हुआ। साधना में परकीया
और व्यवहार में स्वकीया। इस तरह यौन उन्मुक्तता का विद्रोह और प्रेम की
सृजनात्मकता दोनों की ऊर्जा को स्वकीया और परकीया प्रेम के द्वंद्व में जकड़कर
मर्यादित किया गया। परकीया प्रेम एक पवित्र भाव है जो कि अंतिम रूप से सेवा भाव है-
‘दलित द्राक्षा’ की तरह सबकुछ उलीच कर देना। देना तो ठीक था लेकिन किसके प्रति ?
निश्चित रूप से स्वामी या पति के प्रति।
स्वतःस्फूर्त
एनार्की में छिपी संभावना के आलोक में जब निम्नवर्गीय जनसमूह एक विश्वदृष्टि की
तलाश में सक्रिय होता है उसी वक़्त ये लोकप्रिय विचारधाराएँ उनके सामने पहले नैतिक
मूल्य के रूप में और फिर सीधे- सीधे राजनीतिक विचारधारा के रूप में उपस्थित होती
हैं। शास्त्र ऐसे ही लोक की तरफ झुकता है और जिसके संतुलन में भक्ति आन्दोलन एक
छोर से दूसरे छोर तक ‘बिजली की चमक की तरह’ फैल जाता है। जिस प्रक्रिया में
शास्त्र लोक की ओर झुक रहा था निश्चित रूप से उसके मूल में भावजगत का विद्रोह था।
भावजगत के इस विद्रोह में स्वभावतः एक एनार्की द्विवेदी जी पाते हैं। इस एनार्की
की विचारधारा में यांत्रिकता का खतरा था। सिद्धांत और व्यवहार के बीच इस अलगाव की
जगह से ही वह तंत्रवाद की आलोचना करते हैं। शास्त्र और व्यवहार का संतुलन वैष्णवता
में है जिसके केंद्र में लीलावाद है। नामवर जी जिसे बैलेंस दृष्टि कहते हैं वह
कहीं लीलावाद ही तो नहीं है ! या फिर ‘सूर साहित्य’ के आरंभिक लीलावाद को प्रथम
प्रेम की स्थायी स्मृति मात्र मानें ! ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में भट्टिनी, निउनिया
और सुचरिता क्या इसी बैलेंस प्रेम या वैष्णव प्रेम की साधना कर रही हैं ?
लीलावाद
द्विवेदी जी के लिए कोई आगंतुक चीज नहीं थी बल्कि लोकचेतना की अपनी चीज थी। जिस
समय ‘शास्त्रों की व्यवस्थाओं से लोकमत बेपरवा होता जा रहा था’ उसी समय ‘लोकधर्म’
के रूप में विकसित होता वैष्णव धर्म भक्ति आन्दोलन के रूप में शास्त्रीय धर्म का
विकल्प बनकर उपस्थित होता है। कहना चाहिए कि शास्त्रीय धर्म का शास्त्रीय विकल्प
बनकर उपस्थित होता है। “अन्य सभी अशास्त्रीय या लोकधर्मों- बौद्ध, जैन- यहाँ तक कि
उपनिषदों के धर्म की भांति इसकी जन्मभूमि भी बिहार, बंगाल और उड़ीसा के प्रान्त हैं।
वल्लभाचार्य या चैतन्य प्रभृति ने इस लोक-धर्म को शास्त्रसम्मत रूप दिया। ज्योंहि
उसने शास्त्र का सहारा पाया त्योंहि विद्युत की भांति इस छोर से उस छोर तक फैल
गया, क्योंकि उसके लिए क्षेत्र बहुत पहले से तैयार था। जब शास्त्र-सम्मत होकर इसने
अपना पूरा प्रभाव विस्तार किया तो आलंकारिकों और रसाचार्यों ने भी उसको अपने
शास्त्र का आलंबन बनाया। असल में यह कहीं बाहर से आई हुई चीज नहीं है। भारतीय
साधना की जीवन-शक्ति के रूप में यह धारा नाना रूपों में प्रकट हुई थी। मध्ययुग के
वैष्णव धर्म ने इसे जो रूप दिया था वह महायान- भक्ति का विकसित और मार्जित रूप था।
इस भक्ति साहित्य ने संसार के साहित्य में एक नई वस्तु दान की और वह यह कि
आध्यात्मिक तथा कला संबंधी सभी साधनाओं का लक्ष्य विचित्र रूप से एक है; जो ज्ञान
का विषय है वही भक्ति का और वही रस का।”[20]
कबीर: नरसिंह अवतार!
‘कबीर’
पुस्तक में द्विवेदी जी ने कबीर की कैसी कल्प छवि गढ़ी थी इसको नामवर जी ने अपनी
‘दूसरी परंपरा की खोज’ में स्पष्ट करने की कोशिश की है। द्विवेदी जी का कल्प कबीर
तीस और चालीस के दशक के सांस्कृतिक शून्य को भरने वाला ‘क्रांतिकारी’ व्यक्तित्व
था। नामवर जी ने कहा कि ‘गोया वे प्रेमचंद के रूप में आधुनिक कबीर की प्रतिमा गढ़
रहे हों’। यहाँ प्रेमचंद के माध्यम से स्वयं द्विवेदी जी के फक्कड़पन का क्रांतिकारी
पहलू उजागर होता है। ‘कबीर’ प्रेमचंद के ‘मौजी’ चरित्र मेहता के सन्दर्भ से
प्राप्त ‘फक्कड़पन की क्रांतिकारी’ ‘पूर्ण अभिव्यक्ति’ है। प्रेमचंद का
‘क्रांतिकारी पहलू’ द्विवेदी जी की नजर में क्या था इसका उल्लेख करते हुए नामवर जी
लिखते हैं : “प्रेमचंद का महत्त्व उनकी दृष्टि में क्या था, इसका पता उनकी इस
घोषणा से चलता है कि ‘वे अपने काल में
समस्त उत्तरी भारत के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार थे।’ निश्चय ही यह घोषणा करते समय
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर उनके सामने रहे होंगे; फिर भी यह उल्लेखनीय है कि उस
समय शायद ही किसी ने इतने अकुंठ भाव से प्रेमचंद के महत्त्व को पहचाना है।
द्विवेदी जी ही पहले आदमी हैं जिन्होंने हिंदी जगत को यह बताया कि ‘वास्तव में
तुलसीदास और भारतेंदु हरिश्चंद के बाद प्रेमचंद के समान सरल और ज़ोरदार हिंदी किसी
ने नहीं लिखी’।”[21]
प्रेमचंद में साहित्यकार और संस्कृतिकर्म के आदर्श का जो विरल संयोग द्विवेदी जी
ने देखा था उसका आधार क्या था ? आखिर ऐसा क्यों है कि प्रेमचंद के बारे में लिखते
हुए द्विवेदी जी उन्हीं शब्दावलियों का प्रयोग करते हैं जो आगे चलकर ‘कबीर’ के रूप
में उनकी परम अभिव्यक्ति के काम आई। द्विवेदी जी प्रेमचंद के रूप में ‘आधुनिक
कबीर’ ही खोज रहे थे, दूसरे शब्दों में कहें तो यहाँ नामवर जी कबीर और प्रेमचंद की
प्रतिमा को एक दूसरे के बरक्स रखकर द्विवेदी जी की ‘क्रांतिकारिता’ को सामने रखने
की कोशिश कर रहे हैं। अतीत और वर्तमान के संबंध का यह विशिष्ट बोध अपनी परम अभिव्यक्ति पाता है
‘कबीर’ में। प्रेमचंद के साहित्य की ताकत क्या थी? वह थी प्रेमचंद की प्रखर जीवन
दृष्टि, मनुष्य को सबसे बड़ी वस्तु समझना, धर्म के बाह्याचारों को ढोंग समझना,
नास्तिक होते हुए भी मनुष्य की सद्वृत्तियों में अडिग विश्वास। “असल में यह
नास्तिकता भी उनके दृढ़ विश्वास का कवच थी, वे बुद्धिवादी थे, और मनुष्य की आनंदिनी
वृत्ति पर पूरा विश्वास करते थे...जिन्होंने ढोंग को कभी बर्दाश्त नहीं किया,
जिन्होंने समाज को सुधारने की बड़ी-बड़ी बातें सुझाई ही नहीं, स्वयं उन्हें व्यवहार
में लाये, जो मनसा वाचा एक थे, जिनका विनय आत्माभिमान का, संकोच महत्त्व का,
निर्धनता निर्भीकता का, एकान्तप्रियता विश्वानुभूति का और निरीह भाव कठोर कर्तव्य
का कवच था, जो समाज की जटिलताओं की तह में जाकर उसकी टीम टाम और भभ्भड़पन का
पर्दाफाश करने में आनंद पाते थे और जो दरिद्र किसान के अंदर आत्मबल का उद्घाटन
करने को अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझते थे; जिन्हें कठिनाइयों से जूझने में मजा आता
था और जो तरस खाने वाले पर दया की मुस्कराहट बिखेर देते थे, जो ढोंग करने वाले को
कस के व्यंग्य बाण मारते थे और जो निष्कपट मनुष्यों के चेरे हो जाया करते थे।”[22]
प्रेमचंद के क्रांतिकारी फक्कड़पन की यह सृष्टि भी क्या द्विवेदी जी की कल्प सृष्टि
नहीं थी। नामवर जी एक बार फिर कबीर और प्रेमचंद की प्रगतिशील परंपरा को पहचानने
वाली द्विवेदी जी की प्रगतिशील दृष्टि को सामने रखते हैं। उनके अनुसार, मार्क्सवादी
साहित्यालोचना के लिए द्विवेदी जी का महत्त्व ‘परंपरा के इस अन्तःसूत्र’ की पहचान
में है। परंपरा का एक अन्तः सूत्र वह ‘बैलेंस दृष्टि’ भी है जो प्रेमचंद को
रवीन्द्रनाथ या शरतचंद्र से अलग करती है। भाव और विचार का अपूर्व भार-साम्य।
‘कबीर’ की समीक्षा में पाई गयी परम
अभिव्यक्ति और कुछ नहीं तो प्रेमचंद की नास्तिकता के कवच को कबीर की भक्ति या
वैष्णव भक्ति के कवच में जरूर बदल देती है। क्या ऐसा केवल मध्यकाल की भिन्न ऐतिहासिक स्थिति के चलते था या धार्मिक
प्रभुता के कारण था? प्रेमचंद नास्तिक और कबीर धर्मगुरु! प्रेमचंद ने कबीर से क्या
नास्तिकता की विरासत नहीं पाई थी? नास्तिकता और अडिग आस्था की परंपरा क्या कबीर की
परंपरा नहीं थी? आखिर ऐसा क्या था कि कबीर की अडिग आस्था को नया धर्म निकाल ने या
धर्म गुरु की छवि के बिना परिभाषित करना संभव नहीं हो पाया? कबीर की विशिष्ट ऐतिहासिक
स्थिति को द्विवेदी जी कैसे देख रहे थे इसका निरूपण हम ‘भारतीय धर्म-साधना में
कबीर का स्थान’ शीर्षक अध्याय के सहारे करने की कोशिश करते हैं।
कबीर के ‘आविर्भूत’ होने के ठीक पहले
एक ऐसी ‘अभूतपूर्व घटना’ हुई जिसने भारतीय
धर्म मतों और समाज व्यवस्था को एक ऐसा झटका दिया जो भारत के इतिहास में एकदम नया
था। सबसे बड़ा झटका शाश्वत लगने वाली जाति व्यवस्था को लगा था। ‘सारा भारतीय
वातावरण संक्षुब्ध था’। इस्लाम के आगमन की इस ‘अभूतपूर्व घटना’ में ‘अभूतपूर्व’
क्या था इसे स्पष्ट करने के लिए द्विवेदी जी ने भारतीय धर्ममत और समाज व्यवस्था की
विशिष्टताओं को रेखांकित किया है। द्विवेदी जी लिखते हैं : “सबसे पहले यह समझ लिया
जाये कि यह घटना अभूतपूर्व क्यों थी और इसमें नवीनता क्या थी। भारतवर्ष कोई नया
देश नहीं है। बड़े- बड़े साम्राज्य उसकी धूल में दबे हुए हैं, बड़ी-बड़ी धार्मिक घोषणाएं
उसके वायुमंडल में निनादित हो चुकी हैं, बड़ी-बड़ी सभ्यताएँ उसके प्रत्येक कोने में
उत्पन्न और विलीन हो चुकी हैं, उनके स्मृति-चिह्न अब भी इस प्रकार निर्जीव होकर
खड़े हैं मानो अट्टहास करती हुई विजयलक्ष्मी को बिजली मार गयी हो! अनादिकाल से उसमें अनेक जातियों, कबीलों, नस्लों और
घुमक्कड़ खानाबदोशों के झुण्ड इस देश में आते रहे हैं। कुछ देर के लिए इन्होंने देश
के वातावरण को विक्षुब्ध भी बनाया है, पर अंत तक वे पराये नहीं रह सके हैं।”[23]
देश
के रूप में भारत कि खोज अनायास नहीं है। यह एक ‘भारतीय आत्म’ की खोज थी। अतीत में
परिवर्तनों के स्मृति चिह्न किसी खास क्षण पर ठिठक गयी, निर्जीव हो गयी गति के रूप
में है। मानो ‘अट्टहास करती हुई विजयलक्ष्मी को बिजली मार गयी हो!’ कुछ इसी तरह।
स्मृतियाँ कुछ कुछ फ्लैशबैक की तरह हैं। इस फ्लैशबैक में द्विवेदी जी देखते हैं कि
नामालूम किसी काल से, ‘अनादिकाल से अनेक जातियों, कबीलों, नस्लों और घुमक्कड़
खानाबदोशों के झुण्ड इस देश में आते रहे हैं।’ इनके आने से कुछ समय के लिए सामाजिक
विक्षोभ का एक वातावरण बनता है, पर फिर उसमे एक व्यवस्था आ जाती है। जो बाहरी या
विदेशी थे उन्हें साथ लेकर समाज फिर से एक व्यवस्था पा लेता है। भिन्नताएं इस
प्रक्रिया में पूरी तरह ख़त्म नहीं हो गयी पर हुआ यह कि वे एक पूर्ण आत्म का हिस्सा
बन गयी। उनमें परायापन नहीं रहा। आये थे अपनी अलग-अलग संस्कृति और धर्ममत लेकर,
परन्तु धीरे धीरे आरंभिक ‘विक्षोभ’ से निकलकर समाज पुनर्व्यवस्थित होता है और
भिन्नताएं परिवर्तित हो उस पूर्ण का हिस्सा बन जाती हैं। यह प्रक्रिया कैसे संभव
होती है? द्विवेदी जी आगे लिखते हैं, “उनके देवता तैंतीस करोड़ सिंहासनों में से
किसी एक को दखल कर के बैठ जाते रहे हैं और पुराने देवताओं के सामान ही श्रद्धाभाजन
बन जाते रहे हैं- कभी-कभी अधिक सम्मान भी पा सके हैं। भारतीय संस्कृति की कुछ ऐसी
विशेषता रही है कि उन कबीलों, नस्लों और जातियों की भीतरी समाज-व्यवस्था और धर्म-मत
में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया गया है और फिर भी उनको संपूर्ण भारतीय बना
लिया गया है।”[24]
धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था की भीतरी विशेषताओं अर्थात् उन समूहों की धार्मिक मान्यता
और उनके सामाजिक आचार-व्यवहार के प्रति तटस्थता का रवैया वह विशेष बात थी जिसके
चलते क्षणिक विक्षोभ के बावजूद उसे ‘संपूर्ण भारतीय’ बना लिया गया। इस प्रक्रिया
की मुख्य बात थी भिन्नताओं के प्रति तटस्थता या एक किस्म की सहिष्णुता। इस
प्रक्रिया में परायेपन की भेदमूलक दृष्टि का परिहार संभव होता है और फिर से अभेद
की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। भारतीयकरण की यह प्रक्रिया इसलिए संभव हो पाती थी
क्योंकि भारतीय धर्म साधना आरम्भ से ही वैयक्तिक रही है। द्विवेदी जी लिखते हैं
“भारतीय संस्कृति इतने अथितियों को अपना सकी थी, इसका कारण यह है कि बहुत शुरू से
ही उसकी धर्म-साधना वैयक्तिक रही है।”[25]
धर्म-साधना वैयक्तिक थी अर्थात् यहाँ शुरू से ही धर्म व्यक्ति का अपना निजी मामला
था। ‘झुण्ड बांधकर उत्सव हो सकते हैं, भजन नहीं’। इस तरह उपासना यहाँ वैयक्तिक और
एकान्तिक मानी जाती थी। समाज के भीतर मनुष्य की पहचान उपासना से नहीं बल्कि ‘आचार-
शुद्धि और चारित्र्य’ से होती थी। ध्यान रखना चाहिए कि यह इस्लाम की अभूतपूर्व
घटना से पहले की भारतीयता है। उस समय आचार शुद्धि और चारित्र्य के मानक थे-
पूर्वजों के धर्म पर दृढ़ता रखना, भिन्नता की नक़ल नहीं करना बल्कि ‘स्वधर्म’
अर्थात् स्वाभाविक धर्म या पूर्वजों से प्राप्त धर्म में मर जाने को श्रेयस्कर
समझना, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा। भिन्नता में हस्तक्षेप न करने के लिए अपनी पहचान
बनाने वाले ‘स्वधर्म’ की रक्षा आचार शुद्धि और श्रेष्ठ चारित्र्य का एक बड़ा आदर्श
था। इस तरह आचार की शुद्धता धर्मोपासना में हस्तक्षेप नहीं बल्कि अपनी पहचान में
आस्था है। द्विवेदी जी लिखते हैं, “कुलीनता पूर्व जन्म के कर्म का फल है,
चारित्र्य इस जन्म के कर्म का प्रतीक है। देवता किसी एक जाति की संपत्ति नहीं हैं,
वे सबके हैं और सबकी पूजा के अधिकारी हैं। पर यदि स्वयं देवता ही चाहते हों कि
उनकी पूजा का माध्यम कोई विशेष जाति या व्यक्ति हो सकता है तो भारतीय समाज को
इसमें भी कोई आपत्ति नहीं। ब्राह्मण मातंगी देवी की पूजा करेगा पर मातंग के ज़रिये।
क्या हुआ जो मातंग चांडाल है! राहु यदि प्रसन्न होने के लिए डोमों को ही दान देना
अपनी शर्त रखते हैं तो डोम ही सही। समस्त भारतीय समाज डोम को ही दान देकर ग्रहण के
अनर्थ से चन्द्रमा की रक्षा करेगा! इस प्रकार भारतीय संस्कृति ने समस्त जतियों को
उनकी सारी विशेषताओं समेत स्वीकार कर लिया।”[26]
‘जाति’
शब्द द्विवेदी जी कई अर्थों में प्रयोग कर रहे हैं। नस्लों या कबीलों की तरह भी और
वर्णाश्रमी जाति व्यवस्था के सन्दर्भ में भी। लेकिन उद्धरण के अंत में वह विशेष
रूप से जाति व्यवस्था के सन्दर्भ में प्रयुक्त हुआ है। धर्म और जाति का अनिवार्य संबंध
इस भारतीय संस्कृति में नहीं था।
वर्णाश्रम व्यवस्था के लिए वैयक्तिक धर्म-मत का आचार शुद्धि या श्रेष्ठ चारित्र्य
से कोई सीधा संबंध नहीं है। वर्णाश्रम की
अपनी नैतिक आचार- संहिता है जो धर्म- मतों की अविरोधी है। इस्लाम की घटना
अभूतपूर्व इसलिए थी कि इससे पहले ‘अबतक कोई ऐसा मज़हब उसके द्वार पर नहीं आया था।
वह उसको हजम कर सकने की शक्ति नहीं रखता था’। धर्म मतों के बीच ‘मज़हब’ का आना
स्वयं एक अद्वितीय परायापन है। यह मज़हब कोई धर्म-मत नहीं है इसलिए वैयक्तिक साधना
वाले धर्म-मत की संस्कृति में इसको ‘हज़म’ करने की शक्ति भी नहीं है। ‘वैयक्तिक
धर्म साधना और मज़हब में ऐसा क्या था कि दोनों के बीच एक परम विरोधिता द्विवेदी जी
देखते हैं। वैसे भी मज़हब शब्द के प्रयोग में स्वयं हिंदी उर्दू की एक क्षीण
साम्प्रदायिकता स्पष्ट है। पर दोनों के बीच जो मुख्य अंतर था वह व्यक्तिगत और
सामूहिक उपासना का अंतर था। पर इतना ही नहीं था द्विवेदी जी के लिए यह अंतर
व्यक्ति स्वातंत्र्य और भिन्नताओं को मिटा देने वाली तथा समूह के द्वारा थोपा गया
एकमत के आरोप का अंतर है। द्विवेदी जी के अनुसार : “‘मज़हब’ क्या है? मज़हब एक
संघटित धर्ममत है। बहुत से लोग एक ही देवता को मानते हैं, एक ही आचार का पालन करते
हैं, और किसी नस्ल, कबीले या जाति के किसी व्यक्ति को जब एक बार अपने संघटित समूह
में मिला लेते हैं तो उसकी सारी विशेषताएँ दूर कर उसी विशेष मतवाद को स्वीकार
कराते हैं। यहाँ धर्म- साधना व्यक्तिगत नहीं, समूहगत होती है। यहाँ धार्मिक और
सामाजिक विधि-निषेध एक-दूसरे में गुंथे होते हैं। भारतीय समाज नाना जातियों का
सम्मिश्रण था। एक जाति का एक व्यक्ति दूसरी जाति में बदल नहीं सकता, परन्तु मज़हब
इससे ठीक उल्टा है। वह व्यक्ति को समूह का अंग बना देता है। भारतीय समाज की
जातियां कई व्यक्तियों का समूह है, परन्तु किसी मज़हब के व्यक्ति वृहत् समूह के अंग
हैं। एक का व्यक्ति अलग हस्ती रखता है पर अलग नहीं हो सकता, दूसरे का अलग हो सकता
है पर अलग सत्ता नहीं रख सकता।”[27]
द्विवेदी
जी के अनुसार जातियों के मिश्रण वाला यह वर्णाश्रमी भारतीय समाज समूह के बदले व्यक्ति
के हितों का रक्षक था। जातियां स्वयं में एक ऐसी सामूहिकता थी जो अलग-अलग
व्यक्तियों से बनती थी। जातिगत सामूहिकता वैयक्तिक विशिष्टताओं को अस्वीकार नहीं
करती थी। चूँकि धर्म- मत वैयक्तिक था इसलिए यहाँ धर्मान्तरण की कोई जरूरत ही नहीं
पड़ती थी। लेकिन जात्यांतरण भी संभव नहीं था। वर्ण व्यवस्था का विरोध करने वाले
व्यक्तियों के इर्द गिर्द और भी कई लोग इकट्ठे होते और एक नई जाति के रूप में या
एक नई सामूहिकता के रूप में वर्णाश्रम अपनी व्यवस्था में उस नए समूह को एक नया नाम
दे देता था।
इस नामकरण संस्कार के बाद श्रेणी संबंधों में उनकी एक ऊपर या नीचे की जगह निश्चित
हो जाती और इस नए समूह का कोई एक नया देवता वर्णाश्रम के भीतर जगह पा लेता। यहाँ
विश्वास के बदले वर्णाश्रम विहित चरित्र की शुद्धता महत्वपूर्ण थी। पर ‘मज़हब’
(एकेश्वरवाद?) व्यक्ति स्वातंत्र्य का विरोधी था वहां व्यक्ति की अलग हस्ती नहीं
थी। मज़हब में व्यक्ति केवल अपने मज़हब का प्रतिनिधि था। अगर आप मज़हब में हैं तो आप
केवल मज़हब के ‘एकमत’ को संसार में रहकर पुनर्प्रस्तुत करते हैं। व्यक्ति की सत्ता
मज़हब की सर्वग्रासी सत्ता के भीतर है। मज़हब के बाहर संसार में आपकी कोई सत्ता नहीं।
मज़हब धर्ममत और आचार संहिता को या धर्म और समाजिक जीवन को अनिवार्यतः एक कर देता
है। ठीक एक सर्वतंत्रवादी व्यवस्था की तरह वहाँ व्यक्ति स्वातंत्र्य का निषेध होता
है। इस तरह इस ‘अभूतपूर्व’ संकट के सामने वैयक्तिक साधना वाले भारतीय समाज की
बुद्धि को काठ मार गया। ऐसी परम भिन्नता
या चरम परायेपन से भारतीय संस्कृति की मुठभेड़ पहले नहीं हुई थी। “इसलिए कुछ दिंनों
तक उसकी समन्वयात्मिका बुद्धि कुंठित हो गयी। वह विक्षुब्ध- सा हो उठा। परन्तु
विधाता को यह कुंठा और विक्षोभ पसंद नहीं था।”[28]
इस
मुठभेड़ के आलोक में द्विवेदी जी ने एक ऐसे विक्षोभ को देखा जहाँ इतिहास की
द्वंद्वात्मकता थोड़ी देर के लिए ठिठक जाती है। इस ठिठके हुए पल में वह घटना पूर्व
के भारतीय इतिहास में भारतीय संस्कृति की मूल पहचान को फ्लैशबैक में देख पाते हैं।
इस विक्षुब्ध स्थिति का पता द्विवेदी जी उस समय के शिष्ट साहित्य और शास्त्र में
प्रकट होने वाली एक जब्दी हुई मनोवृत्ति में पाते हैं। संस्कृत साहित्य का वह
‘टीका-युग’ इसी जब्दी हुई और स्तब्ध बुद्धि का पता दे रही थी। यह वही समय था जब
लोक ‘शास्त्रों से बेपरवा’ हो रहा था। स्मृति, पुराण, लोकाचार और कुलाचार की
‘विशाल वनस्थली’ से स्मार्त्त पंडित एक सर्वसम्मत धर्म-मत निकलना चाहते थे। उनके
सामने पहली बार ‘संघबद्ध धर्माचार’ के पालन और निर्धारण की जरूरत आन पड़ी थी।
इस्लाम ने ही इस विशाल जनसमुद्र को ‘हिन्दू’ नाम दिया था। इसलिए एक सर्वमान्य
हिन्दू धर्म-मत स्थिर करने का प्रयास हो रहा था। “स्पष्ट ही गैर इस्लामी मत में कई
तरह के मत थे, कुछ ब्रह्मवादी थे, कुछ कर्मकांडी थे, कुछ शैव थे, कुछ वैष्णव थे,
कुछ शाक्त थे, कुछ स्मार्त्त थे तथा और भी न जाने क्या थे।”[29] इतनी
विविधताओं के बीच से ‘एकमत’ निकाल ना असंभव था, परन्तु भारतीय मनीषा के द्वारा
अपने स्तूपीभूत शास्त्रों के भीतर से एकमत निकाल ने का भारतीय इतिहास में यह सबसे
बड़ा प्रयास था। “हेमाद्री से लेकर कमलाकर और रघुनन्दन तक बहुतेरे पंडितों ने बहुत
परिश्रम के बाद जो कुछ परिश्रम किया वह यद्यपि सर्ववादीसम्मत नहीं हुआ, परन्तु
निस्संदेह स्तूपीभूत शास्त्र-वाक्यों की छानबीन से एक बहुत-कुछ मिलता-जुलता
आचार-प्रवण धर्म-मत स्थिर किया जा सका। निबंध-ग्रंथों की यह बहुत बड़ी देन थी। जिस
बात को आजकल ‘हिन्दू-सॉलिडेरिटी’ कहते हैं उसका प्रथम भित्ति-स्थापन इन
निबंध-ग्रंथों के द्वारा ही हुआ था। पर समस्या का समाधान इससे नहीं हुआ।”[30]
समस्या का समाधान इस ‘हिन्दू-सॉलिडेरिटी’ से नहीं हुआ। इस प्रयास की सबसे बड़ी कमजोरी
थी इसकी आचार-प्रवणता। वर्णाश्रम आचार को महत्त्व देता था पर मज़हब इसे महत्त्व
नहीं देता था। आचार नियमों के आधार पर ‘एकधर्म’-मत जो सर्वस्वीकृत हो और सबको
स्वीकार करके बनाया गया हो वहां आचार नियमों का सार-संग्रहमात्र ही संभव था। यह
‘हिन्दू- सॉलिडेरिटी’ आचार नियमों का एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम थी। परन्तु धार्मिक
रूप से ग्रहणशील भारतीय समाज सामाजिक रूप से वर्जनशील था जबकि मज़हब सामाजिक रूप से
ग्रहणशील लेकिन धार्मिक रूप से वर्जनशील था। ऐसी स्थिति में भारतीय एकधर्म-मत का
रास्ता बिना सामाजिक वर्जनशीलता की आलोचना के संभव नहीं था। “निबंध ग्रंथों ने
हिन्दू को और अधिक हिन्दू बना दिया, पर मुसलमानों को आत्मसात करने का कोई रास्ता
नहीं बताया।”[31]
इस
प्रकार इस ‘अभूतपूर्व घटना’ के चलते वर्णाश्रम और भी कठोर हो गया, अपने भीतर
सिकुड़कर और भी जकड़ गया। ऐसी स्थिति में नाथों और योगियों की स्मार्त्त-विरोधी,
प्रस्थान-त्रयी को अस्वीकार करने वाली वर्णाश्रम विरोधी धारा की ओर ध्यान जाना
स्वाभाविक था। इन आश्रमभ्रष्ट योगियों की पहचान ‘न हिन्दू न मुस्लमान’ थी। यह
हिन्दू वर्णाश्रम और मज़हब के बीच एक ऐसी जगह खड़े थे जहाँ वर्णाश्रम को अस्वीकार
करने के बाद अभी भी इस्लाम में धर्मान्तरित नहीं हुए थे। परन्तु द्विवेदी जी कहते
हैं कि यह प्रक्रिया शुरू हो गयी थी। “वे इसी प्रक्रिया से गुजर रहे थे, उसी समय
कबीर का आविर्भाव हुआ था।”[32]
इस
प्रकार द्विवेदी जी ने कबीर के पहचान की अनिश्चित स्थिति को समझने के क्रम में
इस्लाम रूपी एक अभूतपूर्व घटना की कल्पना की थी। कबीर की कविता के भीतर से कबीर की
जिस प्रतिमा को बनाने की जिस ऐतिहासिक कल्पना में द्विवेदी जी लगे थे वहां कबीर की
अस्मिता का निर्धारण बहुत कठिन था। उनकी अस्मिता के निर्धारण के लिए समाजशास्त्र
और जननांकीय आकंड़ों के सहारे द्विवेदी जी ने जो कोशिश की है उसे फिलहाल अलग रखते
हुए हम केवल इस प्रतिमा निर्माण के संकट की बात कर रहे हैं। यह प्रतिमा कबीर की
कविता से ही मुख्यतः बन रही थी। कबीर की विलक्षणता तक पहुँचने से पहले जिस
अभूतपूर्व घटना का ज़िक्र द्विवेदी जी कर रहे हैं, उन्हीं के अनुसार वह घटना न भी
हुई होती तो भी इतिहास का ‘बारह आना’ वैसा ही होता जैसा वह है। फिर चार आने के
प्रभाव के लिए इतनी अभूतपूर्व घटना का होना क्यों जरूरी था! आखिर इस अंतर्विरोध का
क्या आशय है? इस्लाम के इस भिन्न सांस्कृतिक परिवेश और उसके साथ ही साथ व्यापारिक
पूँजी के आरंभिक विकास के साथ कबीर आदि संतों को देखने से इस ‘प्रभाव’ की वास्तविक
ऐतिहासिक गति का पता चलता है। इस प्रभाव की व्याख्या इरफ़ान हबीब के हवाले से नामवर
जी ने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में भी की है। यहाँ केवल यह देखने की कोशिश है कि
कबीर की अनअस्मिता का प्रश्न कैसे अंतर्विरोधी अस्मिताओं में उलझ जाता है।
संक्षुब्ध और विक्षुब्ध भारतीय समाज को आशा की किरण विशाल जनसमूह वाले सबाल्टर्न
या निम्न वर्गों के भीतर से ही मिल सकती थी। द्विवेदी जी के विश्लेषण का यही पक्ष
नामवर जी महत्त्वपूर्ण मानते हैं। पर कबीर के विलक्षण व्यक्तित्व में ऐसा क्या था
जिसने संक्षुब्ध-विक्षुब्ध समाज व्यवस्था और ‘एकधर्म-मत के संकट का समाधान किया?
पुरानी
धार्मिक व्यवस्था के भीतर जब दो भिन्न विश्व दृष्टियों में बंट जाने का खतरा पैदा
हुआ या लोक के पूरी तरह बेपरवा हो जाने का खतरा पैदा हुआ, उस समय जो ‘कौंध’ कबीर
के यहाँ प्रकट हुई थी उसे द्विवेदी जी फिर से अस्मिता प्रदान करने की कोशिश में
‘सद्यः धर्मान्तरित जोगी या जुगी’ जातियों के समाजशास्त्र में प्रवृत्त हुए।
धर्मान्तरण सम्बन्धी यह धारणा द्विवेदी जी के मष्तिस्क में कहीं भीतर तक पैठी थी।
दूसरी ओर कबीर खुद किसी जन्म आधारित पहचान में अंट नहीं रहे थे। चाहे वो धार्मिक
हो या जाति व्यवस्था की, कबीर के यहाँ दोनों का नकार था। हिन्दू या मुस्लमान दोनों
धार्मिक व्यवस्थाओं की विधर्मी परंपराओं अर्थात् नाथ-योगी की परंपरा या सूफ़ी
परंपरा में भी कबीर की पहचान को फिट करना मुश्किल हो रहा था ऐसी ही स्थिति में,
विक्षुब्ध-संक्षुब्ध अँधेरे में ‘आत्मप्रकाश’ हुआ। यह आत्मप्रकाश ग्रियर्सन के
‘बिजली की चमक’ से अभिन्न है। बिजली की यह चमक दक्षिण से आती ‘वेदांत भावित भक्ति’
के रूप में देश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल गयी थी। यही भक्ति आन्दोलन का
आत्मप्रकाश था। इसी आत्मप्रकाश में कबीर की पहचान संभव हुई। द्विवेदी जी लिखते हैं
: “इसने दो रूपों में आत्मप्रकाश किया। पौराणिक अवतारों को केंद्र करके सगुण
उपासना के रूप में और निर्गुण-परब्रह्म जो योगियों का ध्येय था, उसे केंद्र करके
निर्गुण-भक्ति की साधना के रूप में। पहली साधना ने हिन्दू जाति की बाह्याचार की
शुष्कता को आतंरिक प्रेम से सींचकर रसमय बनाया और दूसरी साधना ने बाह्याचार की
शुष्कता को ही दूर करने का प्रयत्न किया। एक ने समझौते का रास्ता लिया, दूसरे ने
विद्रोह का; एक ने शास्त्र का सहारा लिया, दूसरे ने अनुभव का; एक ने श्रद्धा को
पथ-प्रदर्शक माना, दूसरी ने ज्ञान को; एक ने सगुण भगवान् को अपनाया, दूसरी ने
निर्गुण भगवान् को। पर प्रेम दोनों का ही मार्ग था; सूखा ज्ञान दोनों को अप्रिय
था; केवल बाह्याचार दोनों को सम्मत नहीं थे; आतंरिक प्रेम-निवेदन दोनों को अभीष्ट
था; अहैतुक भक्ति दोनों की काम्य थी; बिना शर्त के भगवान् के प्रति आत्म-समर्पण
दोनों के प्रिय साधन थे। इन बातों में दोनों एक थे। सबसे बड़ा अंतर इनके
लीला-सम्बन्धी विचारों में था। दोनों ही भगवान् की प्रेम-लीला में विश्वास करते थे।
दोनों का ही अनुभव था कि भगवान् लीला के लिए इस जागतिक प्रपंच को सम्हाले हुए हैं।
पर प्रधान भेद यह था कि सगुण भाव से भजन करने वाले भक्त भगवान् को दूर से देखने
में रस पाते रहे, जबकि निर्गुण-भाव से भजन करने वाले भक्त अपने-आप में रमे हुए
भगवान् को ही परम काम्य मानते थे।”[33]
कबीर
की अनअस्मिता को निर्गुण प्रेम-भक्ति का नाम मिल गया। वैष्णव प्रेम-भक्ति की यह
खोज द्विवेदी जी ‘सूर-साहित्य’ के समय ही कर चुके थे। ‘प्रेमा पुमर्थो महान्’ की
शास्त्रीय स्वीकृति में और लोकधर्म के वैष्णव स्वरूप में -सूर जिसके आदर्श थे।
कबीर आदि संतों ने ज्ञान को पथ-प्रदर्शक मानते हुए प्रेम के विद्रोही मार्ग पर
चलकर बाह्याचार की शुष्कता को दूर करने का प्रयास किया। इनका ज्ञान शास्त्रीय नहीं
बल्कि आनुभविक था। परन्तु था प्रेमभक्ति के आत्मप्रकाश का ही एक रूप। इसलिए वैष्णव
अर्थों में ‘अहैतुक भक्ति’, ‘बिना शर्त भगवान् के प्रति आत्म समर्पण’ इत्यादि इनकी
एकता का आधार था। परन्तु जो भिन्नता है- रूपगत भिन्नता है, उसका पता इनके लीला
संबंधी विचारों में लगता है। अर्थात् लीला संबंधी विचार तो हैं, उसकी अवधारणा तो
है फर्क केवल व्याख्या का है। कबीर आदि अपने आप में रमे हुए भगवान् की लीला का
आनंद लेते हैं। इस प्रकार इनके आनुभविक सच में लीला का ज्ञान है। लीला का यह ज्ञान
सद्गुरु देते हैं और भक्त इसके निर्देश में अपने अनुभवों में रमे भगवान् या
निर्गुण भगवान् की लीला की शब्द साधना करते हैं। उनका प्रेम यही लीला है। सूर आदि
सगुण भक्त इस लीला को दूर से ही देखने में आनंद पाते थे।उनकी लीला इस जगत के
समानांतर थी। वहां भगवान् दूर थे। कबीर आदि निर्गुण कवियों के लिए यह लीला इहलौकिक
थी। यही उनका ‘अनभै सच’ है। सगुण भक्त लीला का अर्थ शास्त्र से लेते हैं, निर्गुण
अनुभव से। इस तरह कबीर आदि के लिए लीला अनुभव प्रसूत ज्ञान है। वहीं सगुण भक्तों
के लिए लीला ज्ञान प्रसूत अनुभव। लीला अपने आप में एक विश्वदृष्टि है और वह पूर्ण
है। लीला एक पूर्ण फैंटेसी है। या दूसरे शब्दों में कहें तो लीला पूर्णता की
फैंटेसी है। द्विवेदी जी के अनुसार लीला भारतीय भक्तों की सबसे ऊँची कल्पना है।
जीवन के अभाव को प्रेम लीला की फैंटेसी से भरा जा सकता है। या कहिए कि “...नरक
आखिर कुछ अभावों का ही तो नाम है; दुःख तो सुख का अभाव-मात्र है और अभाव को दूर
करने का एकमात्र ब्रह्मास्त्र प्रेम है। दरिद्रता, पीड़ा और अभाव, सब एक ही शब्द के
पर्याय हैं... यह भगवान् की माया है। भगवान् के सामान ही रहस्यपूर्ण, वैसी ही
अनिर्वचनीय... विज्ञानी शायद ‘इंस्टिक्ट’ कह दे; पर एक नाम दे देने से समस्या हल
नहीं हो जाती। माया है, यह ठीक है।”[34]
तो
यह लीला और माया एक ही चीज है! कबीर कहीं माया की आलोचना करते हुए लीला की ही तो
आलोचना नहीं कर रहे थे! आनुभविक स्वतःस्फूर्तता में जो पूर्णता की एक इंस्टिंक्टिव
प्रेरणा होती है लीला की फैंटेसी उसे पूर्णता के अनुभव में बदल देती है। और यह
“लीला क्यों”?- लीला के लिए। लीला के लिए कौन-सी वस्तु?- लीला ही।- लीला का फल
क्या है?- लीला ही। ‘नहि लीलायाः किन्चित्प्रयोजनमस्ति, लीला एव प्रयोजनत्वात्।’
जो इस लीला को नहीं समझता वह भ्रम में है।”[35]
उद्देश्य या प्रयोजनमूलक दृष्टि के खिलाफ यह लीला कुछ वैसी ही है जिसे हम ‘कला कला
के लिए’ कहने वालों में देखते हैं। लीला अर्थात् अनुभव के दुखते-सुलगते मूल से काट
दी गयी स्वयं पूर्ण फैंटेसी।
प्रेम-भक्ति
के इस आत्मप्रकाश ने इस्लाम की उस अभूतपूर्व घटना से उत्पन्न विक्षोभ-संक्षोभ के
उस अन्धकार को; भारतीयता के अभाव को लीलावाद से भर दिया। कबीर की अनअस्मिता को
वैष्णव भक्ति की अस्मिता मिल गयी। शुक्ल जी वगैरह ने जिन्हें ज्ञानमार्गी कहा था
द्विवेदी जी ने उसे प्रेममार्गी वैष्णव भक्ति की मुख्य धारा में या भक्ति की अखंडता
में या वैष्णव धर्म की पूर्णता में वापस खींचकर महत्त्व प्रदान किया। फिर भी कबीर
की लीला इतनी भिन्न अर्थ रखती थी कि उसे रवीन्द्रनाथ की कविताएँ ही अनुभवगम्य बना
सकती थीं। कबीर की लीला आधुनिक इहलौकिक लीला थी। द्विवेदी जी ने यद्यपि बार बार इस
भिन्नता को स्पष्ट करने का प्रयास किया पर साधना का केंद्र बिंदु इसी प्रेम-भक्ति
को माना। इस प्रकार कबीर की साधना का केंद्र प्रेम लीला हुआ।इसी प्रेम लीला ने
शास्त्र और लोक दोनों को मुक्ति दी। इसी प्रेम लीला में शास्त्र और लोक का अपूर्व
‘बैलेंस’ संभव हुआ। कबीर की स्वतःस्फूर्त साधना उनकी अनुभव प्रसूत साधना का सच
द्विवेदी जी के यहाँ यही लीला भाव ठहरता है। पर किंचित भिन्नता के साथ।
द्विवेदी
जी ने इस प्रेम साधना, इस आनंद केलि की व्याख्या के लिए कबीर का यह पद उद्धृत किया
है :-
सतगुरु हो महाराज, मोपै साईं रंग डारा।
सब्द की चोट लगी मेरे मन में, बेध गया तन
सारा।
औषध-मूल कछू नहीं लागै, का करै बैद
बेचारा।।
सुर-नर-मुनिजन पीर-औलिया, कोई न पावे
पारा।
साहब कबीर सर्व रँग-रँगिया, सब रँग से
रँग न्यारा।। (द्विवेदी जी द्वारा उद्धृत, पृष्ठ- ३३६)
द्विवेदी
जी इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि भगवान् को प्रेमलीला की भूख है। इस
प्रेमलीला की भूख का कोई कारण नहीं क्योंकि यह भूख भी लीला है। प्रेमलीला है,
इसलिए अभाव या दुःख है या अभाव या दुःख है, इसलिए प्रेमलीला है। कार्य कारण दोनों
छोरों पर लीला है। लीला ही इसकी जरूरत है। इसी लीला के लिए साईं राह चलते भक्तों
पर रँग दल देता है। इस रंग की चोट उन्हें लगती है जो अनुभवी है। जिनकी वृत्तियाँ
दुनियादारी में उलझकर बहिर्मुखी नहीं होतीं वही इस चोट की व्याकुलता को समझ सकता
है। यह चोट पूरे अनुभवजगत में व्याप्त हो जाती है। यह चोट न औषधियों से ठीक होती
है और न ही शास्त्रों के ज्ञान से। ‘कबीरदास गवाह हैं कि साईं के इस रंग का चोट
खाया मनुष्य सब रंगों से रँग जाता है और फिर भी इसका रंग सब रंगों से न्यारा होता
है। स्वयं कबीरदास रंग चुके थे। वे इस अकारण प्रेम पुकार से घायल हो चुके थे।
व्याकुल भाव से सतगुरु के पास इसका उपाय पूछने गए थे।’
इस तरह कबीर की प्रेमलीला साधना के
आरंभिक चोट का पता मिलता है। उनकी प्रेम व्याकुलता से उनकी प्रेम साधना शुरू होती
है। कबीर की प्रेम साधना ईश्वर की लीला है पर कबीर क्या यहाँ इसी चोट की बात करते
है? सबद की चोट क्या है? सबद की चोट तो खुद सद्गुरु करता है। कविता के संबंध में कहें तो सबद की चोट काव्यानुभूति है। ऐसी
काव्यानुभूति जो स्वयं सौन्दर्यानुभूति के प्रथम क्षण की व्याकुलता पैदा करती है।
यही अनुभूति सारे अनुभव जगत में व्याप्त हो जाती है। संपूर्ण अनुभवजगत को रंग देने
वाली इस सौन्दर्यानुभूति की विशिष्टता ऐसी है जिसमें संपूर्ण अनुभवजगत का अतिरेक
भी शामिल है। उसका अपना एक न्यारा नया रंग भी है। इस विशिष्टता को पहचानने की
व्याकुलता, उसे समझने की व्याकुलता एक नई रचना प्रक्रिया की शुरुआत भी है। कबीर
इसी व्याकुलता को लेकर सद्गुरु के पास जाते हैं। रचना प्रक्रिया का यह अनुभव गूंगे
का गुड़ है, वह अकथ कहानी है। इसका पता बिरला ही पा सकता है जो स्वयं वैसी ही रचना
प्रक्रिया से गुजर रहा है। यह प्रक्रिया प्रेम की साधना की तरह है जिसे दो ही लोग
समझ सकते हैं। जो दो प्रेम की साधना में हैं, वही सिर्फ उस प्रेम का अनुभव कर सकते
हैं। पर यह प्रेम कोई लीला नहीं है। जो लोग इस अनभै सच को नहीं जानते वह माया के
फंदे में फंसे हैं। माया ही लीला है। कबीर का यह अनुभव सच और अभय सच विरलों को ही
समझ आता है। इस अनुभव प्रसूत फैंटेसी में लीला का निषेध है इसलिए उसका रंग सर्वरंग
होकर भी सबसे न्यारा है। क्योंकि इस चोट की ‘सर्व रँग-रँगिया, सब रँग से रँग
न्यारा’ अनुभव की वास्तविकता खुद कविता है। कविता संवेदनाओं को न केवल प्रभावित
करती है, न केवल अपने रंग से सारे अनुभवजगत को रंग देती है बल्कि नई संवेदना पैदा
भी करती है। उसका अपना नया न्यारा रंग भी है। हर कविता अनुभव में नया कुछ रचती है।
कबीर अनंत को अपनी कविता में कैद नहीं करते बल्कि अपनी कविता से अनंत की संवेदना
को बनाते हैं। इस सबद साधना की फैंटेसी प्रेम की फैंटेसी जैसी है, पर जो अकथ है।
वह भाषा का भी अतिरेक है। पर इसे लीला न समझ लिया जाये इसलिए कबीर कहते हैं;
ऋतु फागुन नियरानी हो,
कोई पिया से मिलावे।।
सोई सुंदर जाकों पिया को ध्यान है,
सोई पिया की मनमानी,
खेलत फाग अंग नहिं मोड़े,
सतगुरु से लिपटानी।
इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,
इक इक कुल अरुझानी।
इक इक नाम बिना बहकानी,
हो रही ऐंचातानी ।।
पिय को रूप कहाँ लगि बरनौं,
रुपहिं माहिं समानि ।
जो रँगे रँगे सकल छवि छाके,
तन-मन सबहि भुलानी ।
यों मत जाने यही रे फाग है,
यह कछु अकथ-कहानी ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
यह गति बिरलै जानी ।। (उद्धृत पृष्ठ-
३३७)
यह
मत समझ लो कि यह फाग है, कोई लीला चल रही है यह तो केवल अकथ को कहने कोशिश है।
साधना के अनुभव को, रचना प्रक्रिया के अनुभव को, कविता की फैंटेसी को, वास्तविक
दुनिया में उसी तरह चरितार्थ लीला के रूप में देखना गलत है। यह नहीं कि कबीर घर
जलाने को कहें तो सचमुच घर जलाने चले गए। पर अगर तुम यह सोचते हो कि यह केवल कविता
की लीला है तो भी भ्रम में हो। यह जीवन विवेक भी है। निज ब्रह्म विचार भी है। यह
प्रेम बिना साधना में भागीदारी के अनुभवगम्य भी नहीं, क्योंकि:-
भाग बिना नहिं पाइये, प्रेम-प्रीति की भक्त ।
बिना प्रेम नहिं भक्ति कछु भक्ति-भर्यो सब जक्त ।।
प्रेम बिना जो भक्ति है, सो निज दम्भ विचार ।
उदर भरन के कारने, जनम गँवायो सार ।। (उद्धृत पृष्ठ- ३३८)
क्या द्विवेदी जी के कल्प कबीर
भारतीयता की जिस दूसरी परंपरा की प्रतिमा थे, वह इसी लीलावाद की दूसरी परंपरा थी?
कबीर की अनअस्मिता की जो पहचान द्विवेदी जी को हुई वह उन्हीं के शब्दों में राम और
कृष्ण के अवतार में नहीं बल्कि नृसिंह के अवतार में थी : “वे मुसलमान होकर भी असल
में मुसलमान नहीं थे, हिन्दू होकर भी हिन्दू नहीं थे, वे साधु होकर भी साधु (=
अगृहस्थ) नहीं थे, वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे, योगी होकर भी योगी नहीं थे,
वे कुछ भगवान् की तरफ से ही सबसे न्यारे बनाकर भेजे गए थे। वे भगवान् की
नृसिंहावतार की मानव-प्रतिमूर्ति थे।”[36]
सबरंग में भी रंगे हुए और फिर भी सबसे न्यारे। अस्मिता के इस अतिरेक को इस अनअस्मिता
को, सबका होकर भी अपवाद होना सत्य की सार्वजनीनता की घोषणा है। द्विवेदी जी इस
महत्वपूर्ण बिंदु पर आकर भी पीछे छूट जाते हैं। कबीर भगवान् की नृसिंहावतार की
मानव-प्रतिमूर्ति थे और प्रेमचंद आधुनिक कबीर की प्रतिमा थे। इस विडम्बना में क्या
दूसरी परंपरा का संकट मौजूद नहीं है! जो अनअस्मिता थी वह नृसिंह की प्रतिमा से भर
दी गयी।
द्विवेदी जी ने कबीर के सहारे
धर्मनिरपेक्षता को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश की। वैष्णव सगुण भक्तों की
धर्मनिरपेक्षता सबकुछ को शामिल करने वाली, समन्वयवादी, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य वाली
धर्मनिरपेक्षता थी। पर कबीर सबकुछ स्वीकार कर सबको साथ लेकर ‘मानव-मिलन’ की एक
सामान्य भूमि तैयार करने वाले नहीं थे। कबीर का रास्ता उल्टा था। द्विवेदी जी
लिखते हैं : “जातिगत, कुलगत, धर्मगत, संस्कारगत, विश्वासगत, शास्त्रगत,
सम्प्रदायगत, बहुतेरी विशेषताओं के जाल को छिन्न करके ही वह आसन तैयार किया जा
सकता है जहाँ एक मनुष्य दूसरे से मनुष्य की हैसियत से ही मिले। जबतक यह नहीं होता
तब तक अशांति रहेगी, मारामारी रहेगी, हिंसा-प्रतिस्पर्धा रहेगी। कबीरदास ने इस
महती साधना का बीज बोया था।”[37] कबीर
का ‘निरपख’ आधुनिक अर्थों में जिसे सेकुलर या धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है वह नहीं है।
अकारण नहीं कि द्विवेदी जी कबीर को हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य विधायक या समाज सुधारक
नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि सर्वधर्म समन्वयकारी नहीं थी। पर द्विवेदी जी के यहाँ
कबीर निरपख भगवान् का धर्म निकलना चाहते थे। वह स्वयं नृसिंहावतार की प्रतिमूर्ति
थे। द्विवेदी जी के ‘कबीर’ की दूसरी परंपरा की आतंरिक विडंबना यही थी! द्विवेदी जी
ने कबीर के अनअस्मिता के क्षण को पहचानकर उसे फिर अस्मिता के घेरे में बंद कर दिया।
निरपख को धर्मनिरपेक्षता के विमर्श के सामने खड़ा कर उसे फिर धर्म में बंदकर दिया।
विक्षुब्ध और संक्षुब्ध स्थिति में ठिठका हुआ द्वंद्व फिर लीला में पर्यवसित हो
गया। पर उन्हें विश्वास है कि कबीर की अद्वितीय प्रस्तावना मरी नहीं है, वह अपूर्ण
आकांक्षाओं की तरह अभी भी वर्तमान है। प्रश्न सफलता का नहीं है। उनकी साधना ‘अनागत
और अनाहत’ के सुरों में भी बज रही है, उसका न तो लोप हुआ है न वह खो गयी है। क्या
द्विवेदी जी स्वयं कबीर को दूसरी परंपरा की सीमा भी मानते थे ? क्या समूची दूसरी
परंपरा को लेकर आविर्भूत कबीर उस परंपरा को स्वयं ही निःशेष नहीं कर देते। कबीर
दूसरी परंपरा के अतिरेक हैं और द्विवेदी जी के ‘कल्प कबीर’ के भी- अधबनी, अनबनी
प्रतिमा!
[1] नामवर सिंह, दूसरी परंपरा की खोज, पृष्ठ- २०. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-
२००३.
[2] वही.
[3] हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, खंड ४, सं. मुकुंद द्विवेदी, पृष्ठ २१५,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २००७
[4] वही, पृष्ठ- १९
[5] नामवर सिंह, दूसरी परंपरा की खोज, पृष्ठ- ५७
[6] वही, पृष्ठ – ५७
[7] हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, खंड ४, पृष्ठ- १२१,
[8] नामवर सिंह, दूसरी परंपरा की खोज, पृष्ठ- ५८
[9] वही, पृष्ठ- ६१
[10] हजारीप्रसाद द्विवेदी, बाणभट्ट की आत्मकथा. पृष्ठ- ६३. राजकमल प्रकाशन,
नयी दिल्ली- १९९९.
[11] हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, खंड ४, पृष्ठ- १४९-५०
[12] वही, पृष्ठ- ५५
[13] वही
[14] वही, पृष्ठ- ५६
[15] नामवर सिंह, दूसरी परंपरा की खोज, पृष्ठ- ६५
[16] वही, पृष्ठ- ६७
[17] हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, खंड ४, पृष्ठ ४१
[18] वही,
[19] वही, पृष्ठ – ४२
[20] वही, पृष्ठ- ८१
[21] नामवर सिंह, दूसरी परंपरा की खोज, पृष्ठ- ४९
[22] वही, उद्धृत, पृष्ठ- ४९-५०
[23] हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंन्थावली, खंड ४, पृष्ठ ३३०
[24] वही
[25] वही
[26] वही, पृष्ठ ३३१
[27] वही
[28] वही, पृष्ठ- ३३२
[29] वही
[30] वही
[31] वही, पृष्ठ-३३३
[32] वही
[33] वही, पृष्ठ- ३३४
[34] वही, पृष्ठ- ३३५
[35] वही
[36] वही, पृष्ठ ३३९
[37] वही, पृष्ठ- ३४२
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