अनुभव और
ज्ञान के बीच संबंध को लेकर शुक्ल जी की
कुछ मान्यताएं स्पष्ट थीं। जगत् का वास्तविक प्रत्यक्षानुभव होता है। इसलिए उसका
वास्तविक अस्तित्व है। जगत् सत् है। दृश्य या मूर्त है। पर यह मर्त्य है,
सतत गतिशील और परिवर्तनशील। इसका अर्थ यह नहीं कि सत्ता का
अभाव है। अतः असीम और नित्य के लिए अव्यक्त और अगोचर में जाने की ज़रूरत नहीं है।
बाहर भी रूप हैं अन्दर भी रूप हैं। अव्यक्त और अगोचर में नित्य और शाश्वत की खोज
पुराने योगियों की भाषा में व्यक्त हुआ है। शुक्ल जी के अनुसार ये मन के भीतर ही
भीतर कल्पना और विचार में नित्य और असीम का ज्ञान प्राप्त करते थे। बाहरी विश्व के
वास्तविक अनुभवों की नित्यप्रति संवेदनाओं से मुक्ति के लिए ये योगी इन्द्रियों का
दमन करते थे और मन और शरीर की हठयोग साधना में लगे रहते थे। मन भी छठी इन्द्रिय है
ऐसा कहा गया है। ऐसे में मन साधना और काया साधना को ही ये अपना लक्ष्य बना कर चलते
थे। नित्य जगत् के सरूप व्यापारों के बदले इनकी उक्तियों में दर्शन या वेदान्त की
ऊपर-ऊपर की बातों की चमत्कार पूर्ण उक्तियाँ होती थीं। पश्चिम में भी इल्हामी,
स्वयंप्रकाश ज्ञान या अन्तः प्रज्ञा और हाल की दशा जैसी
संकल्पनाएँ तात्कालिक अनुभवों में दिव्यज्ञान का दावा करती हैं और मन की उड़ान में
अव्यक्त और नित्य की अद्भुत उक्तियों का भ्रम जाल खड़ा करती हैं। इन दोनों
प्रवृत्तियों में जगत् के भीतर भावप्रसार की उच्चतर और विस्तृत संभावना को और इस
प्रकार हृदय की मुक्तावस्था को संकीर्ण और रहस्यमय बनाया जाता है। यह रहस्यवाद है
जो कविता के क्षेत्र को निजबद्ध करता है और लोकहृदय की सामान्य भावभूमि से उसे दूर
करता है। इन रहस्यवादियों में भी जहाँ तक अव्यक्त और अगोचर के प्रति सहज जिज्ञासा
भाव की मनोहारिणी अभिव्यक्ति होती है वहां तक उसमें भावप्रसार की सामर्थ्य वाली
श्रेष्ठ कवितायें मिलती हैं। शुक्ल जी के अनुसार अव्यक्त या अगोचर के प्रति केवल
जिज्ञासा भाव हो सकता है। आरंभिक काल में प्रकृति की हर घटना में एक कार्य-कारण संबंध देख या प्रकृति की कुछ घटनाओं की नियमित आवृति
देख मनुष्य हर वस्तु या घटना के प्रति एक सहज जिज्ञासा से भरा होता था। इसलिए
अव्यक्त के प्रति जिज्ञासा मनुष्य की बुद्धि का स्वभाव है। लालसा या अभिलाषा केवल
व्यक्त और मूर्त की होती है। कुछ पाने की इच्छा जब होती है तो उसे हम लालसा या
अभिलाषा कहते हैं। लालसा उसी की हो सकती है जिसे मूर्त रूप में मनुष्य देखता है।
जबकि “ जिज्ञासा केवल जानने की इच्छा है। उसका ज्ञेय वस्तु के प्रति राग,
द्वेष, प्रेम, घृणा, आदि का कोई लगाव नहीं होता। उसका संबंध शुद्ध ज्ञान के साथ होता है। इसके विपरीत लालसा या अभिलाषा रतिभाव का एक अंग
है। अव्यक्त ब्रह्म की जिज्ञासा और व्यक्त सगुण ईश्वर या भगवान् के सान्निध्य का
अभिलाष, यही भारतीय पद्धति है।”[1]
‘जानने की इच्छा’ का अपनी वस्तु से संबंध केवल ‘जानने’ का है। यह शुद्ध बुद्धि की क्रिया है। इसमें बुद्धि राग-द्वेष विहीन केवल वस्तु के स्वरूप निदर्शन में प्रवृत्त
होती है। इसके आगे यह शुद्ध बुद्धि का क्षेत्र है। कांट की ‘शुद्ध बुद्धि की परीक्षा’
या उसके परमार्थ-पक्ष निरूपण के साथ शुक्ल जी की पूरी सहमति है। उनकी दिक्कत
मुख्यतः व्यावहारिक-पक्ष निरूपण या ‘व्यावहारिक बुद्धि की परीक्षा’
से है। शुक्ल जी लिखते हैं कि :
“ विचार करने पर यह स्पष्ट
प्रतीत होगा कि कांट का व्यवहार-पक्ष निरूपण उसी दृष्टि से हुआ जिस दृष्टि से शंकराचार्य का;
पर दोनों में उतना ही अंतर है जितना भारत और यूरोप में।
व्यवहार पक्ष में शंकराचार्य ने जिस उपासना गम्य ब्रह्म का
अवस्थान किया है वह सोपाधि या सगुण ब्रह्म है;
अव्यक्त पारमार्थिक सत् नहीं।
अव्यक्त, निर्गुण, निर्विशेष (एब्सोल्यूट) ब्रह्म उपासना के व्यवहार में सगुण ईश्वर हो जाता है। इसका
तात्पर्य है उपासना जब होगी तो व्यक्त और सगुण की होगी;
अव्यक्त और निर्गुण की नहीं।”
[2]कांट के यहाँ व्यावहारिक क्षेत्र में जो अमर आत्मा और शाश्वत
का प्रमाण मिलता है वह धर्मनियमों के व्यवहार में। ये धर्म नियम उसी प्रकार की
पूर्वनिर्धारित कोटियाँ है जैसी की ‘शुद्ध बुद्धि की परीक्षा’
में। परन्तु इन धर्म नियमों के पालन में ‘ईश्वर’ का प्रमाण मिल जाता है। धर्म नियम अनुभवातीत बुद्धि के
कार्य हैं। पर कांट के यहाँ व्यावहारिक
पक्ष में हृदय से कोई संबंध न पाकर शुक्ल जी ने शंकर के व्यवहार-पक्ष से इसकी भिन्नता को ‘भारतीय आत्म’ के स्वरूप निर्धारण का एक और प्रमाण माना है। इस प्रकार
शुक्ल जी अव्यक्त के प्रति जिज्ञासा के बदले लालसा या अभिलाष को सच्ची उपासना और ‘अनुभूति योग’ के बदले महज प्रमाद और रहस्य मानते थे। ऐसी स्थिति में यह
एक सहज सवाल था कि मोक्ष या मुक्ति के प्रति क्या केवल जिज्ञासा हो सकती है, लालसा या अभिलाष नहीं?
मुक्ति या मोक्ष क्या वास्तव में प्राप्य नहीं है?
यह नितांत अव्यक्त और अगोचर है?
इसके जवाब में शुक्ल जी का कहना था कि ‘मोक्ष’ या ‘मुक्ति’ केवल अभावसूचक (निगेटिव) शब्द है। इसका इतना ही अर्थ है कि ‘छुटकारा’ मिले। पर छुटकारे की वस्तु अर्थात् “दुःख, क्लेशादि का संघात उसे ज्ञात होता है।”
अर्थात् दुःख, क्लेशादि के कारणों का उसे ज्ञान होता है। पर मोक्ष के बाद
क्या होगा उसके बारे में न तो कुछ ज्ञात होता है न उसकी कोई लालसा हो सकती है।
शुक्ल जी ने इस प्रकार अव्यक्त या अगोचर को शुद्ध बुद्धि का क्षेत्र घोषित
किया। यह दर्शन और शास्त्र का विषय हुआ। सामान्य जीवन में व्यक्तिगत अनुभवों या
आकस्मिक अनुभवों के आधार पर ‘ईश्वर के साक्षात्कार’
को या ‘सत्य के ज्ञान’ को पाने का जो दावा करते हैं वह महज प्रमाद करते हैं। इसलिए
कविता के भीतर जहाँ वैयक्तिक विशिष्ट अनुभवों के भीतर ‘कल्पना की उड़ान’ से सत्य, शाश्वत,या ब्रह्म के ज्ञान
का दावा किया जाता शुक्ल जी के लिए वह
रहस्यवादी हो जाता था। अचानक हुए अनुभवों के प्रति सहज आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा
हो सकती है। यह जिज्ञासा जहाँ तक कबीर आदि निर्गुनियों की कविता में या अंग्रेजी
रोमैंटिक कविता के प्रथम उठान में या द्विवेदीयुगीन प्राकृतिक स्वछंदतावाद में या
पन्त की प्रकृति विषयक कविताओं में व्यक्त हुई हैं उसे कविता की उत्तम भाव भूमि के
भीतर शुक्ल जी ने स्वीकार किया है। जहाँ इसके अलावा ‘ज्ञान’ का दावा या परम साक्षात्कार के काल्पनिक चित्र खड़े किये
जाते हैं वहां वह उक्तिवैचित्र्य या अभिव्यंजना की निराली शैली के अलावा और कुछ
नहीं होती। शुक्ल जी के लिए कविता मुख्यतः भावयोग है। वह हृदय का क्षेत्र है और
शुद्ध बुद्धि के द्वारा किये गए ज्ञान प्रसार के भीतर ही उसका भाव प्रसार संभव है।
शुक्ल जी के लिए यह विभाजन और वरीयता मनुष्यत्व की स्वाभाविक वृत्ति है। ज्ञान और
कविता या बुद्धि और हृदय एक ही वृत्ति के दो पक्ष हैं। बुद्धि या हृदय की ये
वृत्तियाँ उनके अद्वैत भूमि पर अर्थात् मुक्तावस्था में फिर से समन्वित हो सत्य को
पाती है।
शुद्ध बुद्धि हमें कार्य में प्रवृत्त नहीं कर सकती। शुक्ल जी लिखते हैं कि
मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त करने वाली मूल वृत्ति भावात्मिका है।
‘शुद्ध बुद्धि’
वेदान्त की भाषा में शुद्ध चैतन्य है और बुद्धि से अलग है।
वहां शुद्ध आत्मा को अकर्ता कहा गया है। जबकि बुद्धि आदि अन्तःकरण की जड़ क्रियाएं
हैं। सोचना या स्मरण करना आत्मा का व्यापार नहीं है,
आत्मा तो महज यह ज्ञान है कि ‘मैं सोच रहा हूँ’ या ‘मैं स्मरण कर रहा हूँ’। शुद्ध चैतन्य का यह लक्षण ‘साक्षी भाव’ है। इस प्रकार व्यापार मन ही करता है। शुक्ल जी ने इसी आधार
पर यह स्थिर किया है कि ‘शुद्ध बुद्धि’ या ‘आत्मा’ कार्य में प्रवृत्त नहीं करती,
प्रवृत्त करती है भाव संवेदनाएं। शुक्ल जी का विश्वास था कि
“
जटिल बुद्धि व्यापार के अंतर में किसी कर्म का अनुष्ठान
देखा जाता है वहां भी तह में भाव या वासना छिपी रहती है।”[3] शुद्ध बुद्धि या तर्क बुद्धि या विवेचना के बल से हम किसी
कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकते। जो लोग अपनी किसी नीति या राजनीति में लगे रहते
हैं और ऊपर-ऊपर से मनोविकारों या भावों से तटस्थ दिखायी देते हैं ज़रा ‘अंतर्दृष्टि गड़ा कर’ देखने पर ऐसे व्यक्तियों को ‘नचाने वाली डोर की छोर भी अन्तःकरण के रागात्मक खंड की ओर
मिलेगा’।[4] सुख की लालसा, दुःख से मुक्ति, नया पुराना घमंड जैसी भावनाएं मन में वेग पैदा करती हैं। हम
इन्हीं मनोवेगों से किसी कार्य में प्रवृत्त होते हैं। शुक्ल जी लिखते हैं :
“कर्म प्रवृत्ति के लिए मन
में कुछ वेग आना आवश्यक है। यदि किसी जन समुदाय के बीच कहा जाए कि अमुक देश तुम्हारा
इतना रुपया उठा ले जाता है तो संभव है उस पर कुछ प्रभाव ना पड़े। पर यदि दारिद्रय
और अकाल का भीषण और करुण रूप दिखाया जाए और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई
माता का आर्त्तनाद सुनाया जाए तो बहुत से लोग क्रोध और करुणा से व्याकुल हो उठेंगे
और इस दशा को दूर करने का उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेंगे। पहले ढंग की बात कहना
राजनीतिक या अर्थशास्त्री का काम है और पिछले प्रकार का दृश्य भावना में लाना कवि
का”।[5] इस प्रकार कवि भावप्रसार द्वारा कर्मक्षेत्र का विस्तार
करता है। इसलिए काव्य और विमर्शात्मक ज्ञान दो अलग-अलग अनुशासन हैं। राजनीतिशास्त्री या अर्थशास्त्री की
विवेचना में वह गुण नहीं जो लोगों को कार्य में प्रवृत्त कर सके। इनका काम ज्ञान
प्रसार करना है। कवि का काम भावप्रसार का है। मनोवेगों को जगाने का है। कविता
मनुष्यों के मन या हृदय को ही वेगवान् करती है। इसी प्रकार जो केवल अर्थी हैं और
स्वार्थ से वशीभूत हैं उनका हृदय शुद्ध हानि लाभ के संकुचित मंडल से घिरा है उनके
लिए कवि या भावुक की ‘क्रियाओं का कोई अर्थ नहीं’। इस तरह एक ओर कविता को बुद्धि आधारित विमर्शात्मक
अनुशासनों से अलग कर शुक्ल जी ने कविता की स्वायत्त जगह तय की दूसरी ओर सतोद्रेक
में सक्षम इस विधा की आर्थिक उपयोगितावाद से भिन्न ‘सामाजिक उपयोगिता’ सिद्ध की।
शुक्ल जी ने शुद्ध ज्ञान से अलग ‘सक्रियता’ मात्र को भावात्मिका वृत्ति के हवाले कर दिया। परन्तु
क्रिया का मन के वेग से यह अनिवार्य संबंध ज्ञान के पीछे-पीछे ही चलता है। यही कारण था कि कवि को उपलब्ध शास्त्रों
का ज्ञान होना आवश्यक था। बुद्धि जितनी दूर तक अव्यक्त सत्ता का को देख पायी है
उसके भीतर ही मन का वेग संभव है। बुद्धि जितनी दूर तक दिखाती है जगत् उतनी दूर तक
मूर्त होता जाता है। उसके आगे केवल कल्पना की उड़ान होती है। अव्यक्त को केवल
लक्षणा द्वारा ही जाना जा सकता है। इसलिए शुक्ल जी ने कवियों के लिए विज्ञान,
समाजविज्ञान, और इतिहास आदि दूसरे अनुशासनों के द्वारा प्रकाशित नयी नयी
बातों का ज्ञान आवश्यक ठहराया। इस प्रकार शास्त्रहीन कवियों में ‘संस्कृत बुद्धि’, ‘संस्कृत हृदय’ और ‘संस्कृत वाणी’ अर्थात् दर्शन, जगत् और काव्य का कोई संस्कार नहीं हो सकता। इसी तरह आलोचना
का काम सहृदयों के समक्ष केवल वस्तु रूप में कविता की परीक्षा करना और इतिहास में
उसकी स्थिति का निरूपण करना ही नहीं वरन् ज्ञान-विज्ञान के नवीन अनुसंधानों और निष्कर्षों को भी उनके सामने
रखना था। इस प्रकार अन्य अनुशासनों के साथ एक लोकतांत्रिक ‘वाद-विवाद’ के भीतर ही कविता और आलोचना दोनों का विकास संभव था।
रीतिकालीन आचार्यों की ठस और सहृदयहीन छवि को तोड़ कर आलोचक के रूप में एक ज्ञानशील
भावुक आलोचक की छवि का निर्माण शुक्ल जी ने किया। लोगों ने जब यह कहा कि उपनिषदों
में कई तत्त्वचिंतन वाली कवितायें भी हैं जहाँ ‘अव्यक्त’ की साधना है तो शुक्ल जी ने जोर देकर कहा कि उपनिषदों के
ऋषि और रचयिता मुख्यतः तत्त्वचिंतक ही थे, कवि नहीं। यह संभव है कि भावना में आकर इन्होंने कभी कभी
जो सरस उद्गार व्यक्त किये हैं उनमें रागात्मिका वृत्ति की भी झलक मिल जाए।
आचार्य की भावुकता यहाँ बंगाल में रवीन्द्र की भावुकता से भिन्न थी। बंगदेश की
भावुकता का ज़िक्र शुक्ल जी ने लगभग ‘स्त्रैण भावुकता’ के अर्थ में ही किया है। इस भावुकता में उन्होंने व्यक्तिवाद
की गंध पायी थी। उस लिहाज से हिंदी की ‘आत्मा’ नराकार थी। वह तथाकथित पुरुषोचित भावुकता थी। एक पुरुष
रूमानियत का भाव था। ‘क्षात्र धर्म का सौन्दर्य’
उनके सौन्दर्यशास्त्र का आदर्श है।यह क्षात्र धर्म व्यक्ति
के संकुचित दायरे का धर्म नहीं है। जनता के संपूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला धर्म
है क्षात्र-धर्म। उन्होंने कहा कि इस व्यापक और सार्वभौम का व्यक्त
चरित्र राम और कृष्ण भी क्षत्रिय है। उन्होंने लिखा :
“ क्षात्र-धर्म एकान्तिक नहीं है। उसका संबंध लोक-रक्षा से है। ‘कोई राजा होगा तो अपने घर का होगा’
इससे बढ़कर झूठ बात शायद ही मिले ।झूठे खिताबों के द्वारा यह
कभी सच नहीं की जा सकती। कर्म-सौन्दर्य की योजना क्षात्र-जीवन में जितने रूपों में संभव है,
उतने रूपों में और किसी जीवन में नहीं। शक्ति के लिए क्षमा,
वैभव के साथ विनय, पराक्रम के साथ रूप माधुर्य,
तेज के साथ कोमलता, सुख भोग के साथ परदुःख कातरता,
प्रताप के साथ कठिन धर्म-पथ का अवलंबन इत्यादि कर्म सौन्दर्य के इतने अधिक प्रकार के
उत्कर्ष-योग और कहाँ घट सकते हैं?
इसी से क्षात्र-धर्म के सौन्दर्य में जो मधुर आकर्षण है वह अधिक व्यापक,
अधिक मर्मस्पर्शी और अधिक स्पष्ट है। मनुष्य की संपूर्ण
रागात्मिका वृत्तियों को उत्कर्ष पर ले जाने और विशुद्ध करने की सामर्थ्य उसमें है।”इस कर्म सौन्दर्य के उत्कर्ष में ‘लोक-रक्षा’ का मार्ग है। यह वृत्तियों के बीच से निकला मार्ग है। यह
धर्म का चलता हुआ मार्ग है। चलता हुआ मतलब ‘लोकप्रिय’ मार्ग है। ‘वह वृत्ति या व्यवस्था जिससे लोक में मंगल की भावना का
विधान होता है, ‘अभ्युदय’ की सिद्धि होती है, वही धर्म है’। इस प्रकार लोकमंगल से धर्म की सिद्धि होती है धर्म से
लोकमंगल की। यह शुक्ल जी की पुनुरुक्ति है। इस पुनुरुक्ति में क्षात्र धर्म का ‘पुरुषोचित’ मार्ग ही लोकप्रिय मार्ग हो सकता है। कविता में सौन्दर्य का
यही उत्कर्ष राम और कृष्ण के चरित्र में आदर्श हुआ है। जहाँ कृष्ण का चरित्र आनन्द
के उपभोग पक्ष को ले कर चलता है वहीं राम का चरित्र आनन्द के प्रयत्न पक्ष को। राम
के चरित्र में ही ‘क्षात्र-धर्म’ का सौन्दर्य अपने उत्कर्ष पर पहुँचता है। पीछे हमने देखा कि
ग्रियर्सन के यहाँ राम के चरित्र को कैथोलिक समर्पण के भाव से एक करने का प्रयास
था। शुक्ल जी का ‘राम’ ग्रियर्सन के ‘राम’ से इसी क्षात्र धर्म के सौन्दर्य के उत्कर्ष में भिन्न है।
लोक रक्षा के मार्ग में हिंसा भी सौन्दर्यमयी हो जाती है। यह हिंसा विधान के खिलाफ
नहीं बल्कि विधान के अभ्युदय के निमित्त की जाने वाली हिंसा है। विधान की
पुनर्स्थापना के निमित्त की जाने वाली हिंसा है। यह हिंसा हमारे मनोवेग को सत् की
ओर ले जाने वाली है। विधान के अभ्युदय के लिए प्रयत्न पक्ष को लेकर चलने वाली
कविता का मूल भाव करुणा है। शुक्ल जी ध्यान दिलाते हैं कि भवभूति ने इसी कारण केवल
एक ही रस, करुणरस को ही माना था। लोक की पीड़ा से मुक्ति के प्रयास के
पीछे बीज भाव करुणा ही ठहरती है ।विधान और धर्म के अभ्युदय का कोई ‘अहिंसक मार्ग’ नहीं हो सकता। वहां पुरुषोचित क्षात्र-धर्म का सौन्दर्य अपने उत्कर्ष तक नहीं पहुँचता। अकारण नहीं
कि शुक्ल जी को गांधी का ‘अहिंसक’ मार्ग अस्वाभाविक प्रतीत होता था।
उसी प्रकार ताल्स्तॉय या रवीन्द्र के यहाँ शुक्ल जी को ‘लोकादर्शवाद’ या ‘भाववादी मानवतावाद’ के रूप में जीवन के किसी एक पक्ष पर अतिशय जोर दिखता था।
इनके यहाँ क्रूरता, हिंसा,अविवेक और पाप को सौन्दर्य से,
प्रेम से, मंगल से एकदम समूल नष्ट करने को आध्यात्मिक प्रकृति की
आकांक्षा और उच्च काव्य की स्वाभाविकता माना गया है। जबकि क्रूरता पर क्रोध,
अत्याचारियों का ध्वंस आदि मध्यम काव्य का विधान है।
वर्णव्यवस्था से शब्द लेते हुए पहले प्रकार के काव्य को शुक्ल जी ब्राह्मण काव्य
और दूसरा क्षत्रिय काव्य कहते हैं। पर शुक्ल जी के अनुसार उत्तम काव्य दोनों के
समन्वय में ही संभव है। करुणा और क्रोध के अपूर्व समन्वय में कर्म सौन्दर्य की
पूर्ण अभिव्यक्ति और काव्य की चरम सफलता है। शुक्ल जी का स्पष्ट मत था कि ‘आदर्श’ केवल स्वप्न नहीं है वह जागरण भी है। आदर्श की सिद्धि केवल
व्यक्तिगत हो सकती है। शुक्ल जी के अनुसार संपूर्ण ‘लोक’ के लिए आदर्श कभी मूर्त नहीं हो सकता। उसकी सिद्धि कभी संभव
नहीं।
लोक-रक्षण का यह क्षात्र-धर्म ब्रह्म की आनन्द कला का शक्तिमय रूप है। लोक का
उद्धारक रूप है। इसी के सहारे लोक में मंगल का विधान होता है। इसमें हिंसा भी
सौन्दर्य से भर उठती है क्योंकि इससे ‘अभ्युदय’ की सिद्धि होती है। धर्म की पुनर्स्थापना में समाज जुट जाता
है। इसकी प्रेरणा से व्यक्ति लोक रक्षा में प्रवृत्त होता है। हृदय के वेग के बिना
इस कार्य में प्रवृत्त होना संभव नहीं। काव्य का उत्कर्ष वहीं है जहाँ वह लोकमंगल
में प्रवृत्त किसी चरित्र को संपूर्ण जीवन के गतिशील सौन्दर्य के बीच प्रयत्नशील
दिखा सके। कवि के लिए महत्वपूर्ण ‘गति का सौन्दर्य’ है। यह गति ‘अधर्म वृत्ति की तत्परता’
हटाने में ‘धर्मवृत्ति की तत्परता’
की गति है। शुक्ल जी कहते हैं कि अंतिम रूप से सफलता या
असफलता दोनों में सौन्दर्य हो सकता है। पर काव्य का उत्कर्ष उसकी गति की
अभिव्यक्ति में है। देशभक्ति का आदर्श शुक्ल जी के यहाँ इसी क्षात्र-धर्म के पालन में था।
‘धर्म के अभ्युदय’
के लिए प्रेरणा और बलिदान के साथ-साथ उसकी अनिवार्यता को प्रत्यक्ष करना भी काव्यकला का
उद्देश्य बताया गया। कविता सहृदय और पाठक को इसी धर्म पालन की ओर स्वभावतः सक्रिय
करने वाली होनी चाहिए। शुक्ल जी के लिए आदर्श आलोचना में भी पुरुषोचित क्षात्र-धर्म होना ज़रूरी था। आलोचना भी केवल गुण दोष विवेचन में
नहीं बल्कि नाना भेदों में अभेद को प्रत्यक्ष करने वाले मार्मिक क्षणों की पहचान
में है। मार्मिक क्षणों की इस पहचान में कर्मक्षेत्र के सौन्दर्य का संगठन ज़रूरी
था। केवल दार्शनिक विवेचना आलोचना नहीं थी। आलोचना बिना रचना बने कोई प्रभाव नहीं
पैदा कर सकती। केवल दार्शनिक विवेचना कर्म क्षेत्र में दूसरों को प्रवृत्त करने की
क्षमता नहीं रखती। इसलिए आलोचना को मनोवेगों का संगठनकर्ता होना चाहिए। कविता के
क्षेत्र में अनेक प्रवृत्तियों की जैसी आलोचना शुक्ल जी ने की है उसे हम आलोचना का
क्षात्र-धर्म कह सकते हैं। शुक्ल जी के यहाँ कवि या भक्त ज्ञान
प्राप्त करता जाता है, भक्ति या कविता करता जाता है और खुद को महत्त्व की ओर
अग्रसर करता जाता है। श्रद्धालु अपने जीवन में कोई परिवर्तन नहीं करता। पर कवि या
भक्त उसकी ‘कांट-छांट’ में लग जाता है। अपने आचरण से वह दूसरों की भक्ति या
कविकर्म का अधिकारी होता है। भक्त दूसरों को भी भक्त बनाता जाता है। केवल श्रद्धा
से आस्था नहीं बनती। आचरण से बनती है। भक्त या कवि की तरह ही आलोचक का आदर्श भी
यही है। शुक्ल जी लिखते हैं: “अपने जीवन द्वारा कर्म सौन्दर्य संगठित करने वाले ही अवतार
कहे गए हैं कर्म सौन्दर्य के योग से उनके स्वरूप में इतना माधुर्य आ गया है कि
हमारा हृदय आप से आप उनकी ओर खिंचा पड़ता है।”
इस प्रकार शुक्ल जी के यहाँ अवतार की एक सामाजिक व्याख्या
थी। अवतार दूसरों को भी अवतार बनाता जाता है।
“ सामाजिक महत्त्व के लिए
आवश्यक है कि या तो आकर्षित करो या आकर्षित हो”।[6]यह अलग बात है कि शुक्ल जी खुद नए कवियों को तो आकर्षित
नहीं कर पाए पर हिंदी विभागों में आलोचक भक्तों की मंडली ज़रूर तैयार हो गयी। जिनकी
तरफ खुद शुक्ल जी आकर्षित हुए वह पिछले ज़माने के कवि थे। भावुक आचार्य के रूप में
आलोचक की यह छवि हिंदी आलोचना-संस्थान में क्रमशः घर करती गयी। शुक्ल जी के लिए जैसे
भक्ति धर्म की रसात्मक अभिव्यक्ति थी वैसे ही आलोचना काव्य की रसमीमांसात्मक
अभिव्यक्ति है। सिद्धांत में मतवाद का विरोध आलोचना कर्म में पक्षधरता का आधार
बनता है। सिद्धांत में यही समन्वयवाद है। भावुक आचार्य जगत् में रस की दिव्यता का
प्रचार करता है। यह उनके लेखे सार्वभौम सत्य की भावना का प्रचार है। भक्त का आदर्श
भावुक आचार्य का भी आदर्श है। यह जीवन व्यवहार का दर्शन है।
शुक्ल जी के अनुसार मनुष्य जब अपनी पृथक् सत्ता की भावना भूल जाता है,
भिन्नता को भूल जाता है और विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता
है तब वह ‘मुक्त हृदय’ होता है। ‘विशुद्ध अनुभूति’ अमूर्त सार्वभौम से तादात्म्य है। वह मनुष्यता के सार की
हृदय में शुद्ध भावना है। यहाँ ‘विशुद्ध अनुभूति’ की धारणा अमूर्त्त मनुष्य के सार की ही धारणा है। अर्थात्
जब मनुष्य भेदों को भूल कर मनुष्यता का सार रूप मात्र रह जाता है तब वह लोक की
सामान्य भावभूमि पर पहुँच जाता है। यही मुक्तावस्था आत्मा के सन्दर्भ में ‘ज्ञानदशा’ कहलाती है और हृदय के सन्दर्भ में रसदशा।
‘आत्मा’
की मुक्ति की साधना में जो शब्दविधान होता है वह शास्त्र और
दर्शन है जबकि हृदय की मुक्ति के लिए जो शब्दविधान होता है वह काव्य है।
शुक्ल जी लिखते हैं : “इस साधना को हम भाव योग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का
समकक्ष मानते हैं।”[7] यहाँ ‘भक्तियोग’ ही ‘भावयोग’ हो गया है। कविता मनुष्य को सार्वभौम की अनुभूति तक ले जाती
है। इस तल्लीनता में वह ‘विशुद्ध अनुभूति’ मात्र होता है। जब तक वह अपने को बिलकुल भूला रहता है तब तक
उसकी निजता का पूर्ण अभाव होता है। यह सौंदर्यानुभूति का क्षण होता है। कह सकते
हैं कि यह तल्लीनता समय के भीतर शाश्वत की अनुभूति है। यह दृश्य और दर्शक का
भावरूप में एक हो जाना है। उनके बीच सक्रिय संबंध न रहकर शुद्ध तादात्म्य का संबंध हो जाता है। बाह्य दुनिया से मनुष्य का संबंध वस्तुगत सक्रियता का संबंध है। इसलिए कोई भी तल्लीनता एक सक्रिय तल्लीनता ही हो सकती है। वास्तव में जब
तल्लीन सक्रियता और सक्रिय तल्लीनता के द्वंद्व को ‘लोक सामान्य भाव भूमि’
की धारणा में अमूर्त किया जाता है तो वस्तुतः सामाजिक संबंधों
के भीतर काम करने वाली विचारधारायें भावों की रूढ़ि के रूप में तल्लीनता का भ्रम
पैदा करती है। वस्तुतः यह बाह्य संबंद्ध से पूर्ण सामंजस्य का रागात्मक क्षण, जिसे शुक्ल मुक्तावस्था कहते हैं वह सक्रियता के निषेध के
बिना संभव नहीं। यह सामंजस्य तभी संभव है जब रूढ़िबद्ध भावों की एकता हो। अकारण
नहीं कि कई कवि ख़ास काट के दृश्यों में ही तल्लीनता पाते हैं। जैसे अब कोई भी
व्यक्ति सुन्दर गृहणी की पतिभक्ति को देख कर हृदय के भावों के साथ उसका पूर्ण
सामंजस्य नहीं पाता जैसा कि शुक्ल जी के ज़माने में संभव था। शुक्ल जी के अनुसार
अनेक भावात्मक हृदय को सामंजस्य स्थापन के प्रयत्न में अपने भावों का ‘परिष्कार’ और ‘व्यायाम’ करना पड़ता है। यह सामंजस्य-प्रयत्न जगत् के नाना रूपों,
व्यापारों तथा तथ्यों के साथ प्रकृत सामंजस्य स्थापन का
प्रयत्न है। इसी व्यायाम या परिष्कार को शुक्ल अनुभूति योग कहते हैं। यह वासनाओं
के दमन के बदले उसका परिष्कार करती है। यह अभ्यास और परिष्कार प्रकृत है। दूसरे
शब्दों में जगत् के साथ मनुष्य के संबंधों में जो एक असामंजस्य है उसके साथ अभ्यास
और परिष्कार द्वारा सामंजस्य स्थापन मनुष्य का प्रकृत स्वभाव है। मनुष्य जाति में
आत्मरक्षार्थ यह सामंजस्य स्थापन प्रयत्न एक विधान के रूप में विकसित हुआ है।
भावों का यह प्रकृत सामंजस्य स्थापन ‘मनोविकारों’ के विकासवादी दर्शन की छाया ही माननी चाहिए। भावों का यह
सामंजस्य स्थापन भावों का ‘कॉमनसेन्स’ ही है। भावों के सामंजस्य की यह विचारधारा प्रभावशाली
सामाजिक संबंधों की व्यावहारिक विचारधारा होती है। कविता में यह ‘जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि’
को प्रश्रय देती है। अनेक भावात्मक हृदय में मूल भावों या
भावों के कुछ मूल रूप हैं। ये भावों के कुछ पूर्वनिर्धारित वर्ग हैं जिनमें लेकर
ही काव्यदृष्टि बनती है। “ इस विशाल विश्व के प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष और गूढ़ से गूढ़
तथ्यों को भावों के विषय या आलम्बन बनाने के
लिए इन्हीं मूल रूपों और व्यापारों में परिणत करना पड़ता है।
जबतक वे इन मूल मार्मिक रूपों से नहीं लाये जाते तब तक उन पर काव्य दृष्टि नहीं
पडती।”[8] भावनाओं को मन जब इन मूल भावों की व्यवस्था में लाता है तब
कविता की कच्ची सामग्री बनती है। ये मूल भाव बाह्य प्रकृति (जिसमें नर क्षेत्र और मनुष्येतर बाह्य सृष्टि दोनों शामिल
है ) के साथ मानुष के आदिम और प्राचीन साहचर्य का परिणाम हैं।
“ऐसे आदि रूपों और
व्यापारों में वंशानुगत भावना की दीर्घ परम्परा के प्रभाव से,
भावों के उद्बोधन की गहरी शक्ति संचित है,
अतः इसके द्वारा जैसा रस परिपाक संभव है वैसा कल-कारखाने, गोदाम,स्टेशन,इंजिन, हवाई जहाज जैसी वस्तुओं तथा अनाथालय के लिए चेक काटना,
सर्वस्वहरण के लिए जाली दस्तावेज बनाना,
मोटर की चरखी घुमाना या इंजिन में कोयला झोंकना आदि द्वारा
नहीं।”[9]’वंशानुगत भावना की दीर्घ परम्परा’
पर लैमार्क के वन्शानुगति के सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक
व्याख्याओं का प्रभाव है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में कहें तो ये मूल भाव वंशानुगत
या जेनेटिक हैं। और इनके मूल कणों की व्यवस्था में स्थिर करके ही काव्यदृष्टि बनती
है। संरचना का यह ज्ञान काफी पहले ही ‘रससिद्धांत’ के रूप में विकसित हो चुका था।
यह ‘रससिद्धांत’ जिस तात्विक दृष्टि के आधार पर बना है वह शाश्वत है। इसलिए
उसके हिसाब से नए तथ्यों या भावों का समावेश संभव है। पर शुक्ल जी के सामने कोई रस
सिद्धांत को ही अस्वीकार करे यह संभव नहीं है। यह सिद्धांत शुद्ध बुद्धि या आत्मा
की मुक्तावस्था है। ज्ञानदशा है। रस साहचर्य संभूत है और मन के भीतर आदिम साहचर्य
जनित वासना के मूल भावों की व्यवस्था से संबंधित है। सभ्यता के विकास के साथ इन
मूल भावों पर परत दर परत सभ्यता का आवरण चढ़ता जाता है और ये नीचे कहीं दबती जाती
हैं। इन आदिम मूल भावों की आदर्श छवि शुक्ल जी के लिए ग्राम्य जीवन के साहचर्य की
यूटोपिया में है। इस ग्राम्य यूटोपिया में मनुष्य का जीवन सादा और सहज साहचर्य से
भरा होता है। परन्तु ‘ज्यों ज्यों मनुष्यों के व्यापार बहुरूपी और जटिल होते गए
त्यों त्यों उसके मूल रूप बहुत कुछ आच्छन्न होते गए’।इस आदर्श छवि में रोमैंटिक काव्य धारा का प्रभाव भी स्पष्ट
है। कल-कारखाने और मशीनों पर काम काज औद्योगिक सभ्यता की बातें हैं जो मनुष्य को उसके
सहज प्राकृतिक साहचर्य से दूर ले जाती है। मूल आदिम वासनाओं से दूर। प्रकृति और
मनुष्य के बीच रिश्ते की यह धारणा प्रकृति को इतिहास के बाहर और शुद्ध मानता है।
यह धारणा वैसी ही थी जैसी फायरबाख की। यहाँ जिस ‘संवेदनात्मक निश्चितता’
या ‘मूल भाव’ की खोज की जाती है उसमें मनुष्य समाज एक अलग घेरा होता है
और प्रकृति एक अलग, जिनके बीच साहचर्य और सामंजस्य प्रयत्न के सहज रिश्ते के
अलावा और कोई रिश्ता नहीं बनता। ऐसे में सभ्यता का विकास मूल भावों को विकृत नहीं
तो उसको छुपाने या आच्छन्न करने वाली प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। शुक्ल जी
लिखते हैं कि सभ्यता के विकास के साथ “ भावों के आदिम और सीधे लक्ष्यों के अतिरिक्त और और लक्ष्यों
की स्थापना होती गयी; वासनाजन्य मूल व्यापारों के सिवा बुद्धि द्वारा निश्चित
व्यापारों का विधान बढ़ता गया। इस प्रकार बहुत से ऐसे व्यापारों से मनुष्य घिरता
गया जिनके साथ उनके भावों का सीधा लगाव नहीं है।”[10]‘आदिम और सीधे लक्ष्यों वाले निश्चित मूल भाव’
शुक्ल जी के ठीक पहले के सामन्ती संबंधों के ग्राम्य रूप थे।
प्रकृति हमारे सामने ऐतिहासिक प्रकृति के रूप में ही आती है जो मानवीय क्रियाओं
द्वारा निरंतर परिवर्तित होती आई है। परन्तु यह आदिम और मूल की खोज उपनिषदों में
स्थिर होती है। फायरबाख को संबोधित करते हुए मार्क्स ने कहा कि चेरी के पेड़ों या
दूसरे फलों के वृक्षों में फायरबाख को जो सरलतम ‘मूल संवेदनाएं’ मिलती हैं वे भी कुछ सदियों पहले कहीं और से हमारे इलाके
में लाकर लगाये गए थे। कहने का अर्थ है कि “ मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों का महत्वपूर्ण सवाल (ब्रूनो तो प्रकृति और मनुष्य में एक एंटीथीसिस तक देख लेता
है मानो ये दोनों दो भिन्न वस्तुएं हों और मनुष्य के सामने हमेशा एक ऐतिहासिक
प्रकृति और एक प्राकृतिक इतिहास हो ही नहीं) जिसने ‘तत्त्व’ और ‘आत्मचेतना’ के बारे में ‘अथाह बड़े कामों’ को पैदा किया है वह तब हवा हो जाता है जब हम यह समझ जाते
हैं कि ‘मनुष्य और प्रकृति की बहुप्रशंसित एकता’
का अस्तित्व हमेशा ही उद्योग में रहा है और उद्योगों के कम
या ज्यादा विकास के हिसाब से हर युग में बदलता रहा है,
और इसी प्रकार इनका ‘संघर्ष’ भी, वहां तक जहां तक उत्पादन शक्तियों का विकास हुआ है।”[11]
ऐसा लगता है कि साहचर्य संभूत ये मूल भाव सभ्यता के विकास के साथ ‘मोहग्रस्त’ हो खुद को भूलते जाते हैं। मनुष्यता का यह ‘सार’ अपने आप अलगाव का शिकार होता जाता है। दूसरे शब्दों में
कहें तो मूलभावों के इस अलगाव को खत्म करके फिर से इन्हें जगाने का काम कविता करती
है। इसलिए शुक्ल जी कहते हैं कि जैसे जैसे इन मूलभावों पर सभ्यता का आवरण चढ़ता
जाएगा कवि कर्म कठिन होता जाएगा। साहित्यशास्त्र की पुरानी ‘रसनिरूपण’ पद्धति में तो प्रकृति को आलम्बन तक माना नहीं गया था। यह
सिर्फ उद्दीपन के अर्थ में शास्त्र सम्मत था। शुक्ल जी के यहाँ प्राचीन-मध्यकालीन काव्यों के आधार पर ‘मार्मिक बिम्बयोजना’ के साथ प्रकृति को आलम्बनों में शामिल कर लिया गया। इस
प्रयास को उन्होंने विज्ञान सम्मत भी दिखाया। इस ‘साहचर्य संभूत रस’ की धारणा में शामिल प्रकृति
प्रेम शुक्ल जी के यहाँ आदिकाल से भारत की प्रकृति के प्रेम
में बदल गया। इस लिहाज से शुक्ल जी के लिए ‘मेघदूत’, देश की प्रकृति के सौन्दर्यवर्णन वाला ‘राष्ट्रीय’ काव्य भी था। देशप्रेम इस अनैतिहासिक शुद्ध और सहज प्रकृति
से भी प्रेम था। शुक्ल जी ने इस ‘साहचर्य संभूत रस’ को भारत की कल्पना में एक उच्च आदर्श प्रदान किया।
‘देश-प्रेम’ को प्रकृति के साहचर्य से जोड़ कर देशभक्ति और राष्ट्रीयता
का एक प्रकृत आधार तैयार किया। ‘साहचर्य संभूत रस’ भारतीय हृदय की मुक्तावस्था थी और औपनिषदिक वेदान्त भारतीय
आत्मा की। राष्ट्रीयता इन्हीं अमूर्त सार्वभौमों से बनने वाली विचारधारा थी।
मनुष्य द्वारा प्रकृति के ध्वंस और लूट का दृश्य औपनिवेशिक पूंजी की लूट का प्रभाव
था। इसके खिलाफ राष्ट्रीयता की भावुक विचारधारा ने एक भावुक साहचर्य की प्रतिष्ठा
करना ज़रूरी समझा। लोकप्रिय ‘अभ्युदय’ का एक माध्यम यह भी था। यह भी ‘ग्राम्य भारत’ की छवि थी। “सारांश यह कि केवल असाधारणत्व की रूचि सच्ची सहृदयता की
पहिचान नहीं है। शोभा और सौन्दर्य की भावना के साथ जिसमें मनुष्य जाति के उस समय
के पुराने सहचरों की वंश-परम्परागत स्मृति भावना के रूप में बनी हुई है,
जब वह प्रकृति के खुले क्षेत्र में विचरती थी,
वे ही पूरे सहृदय या भावुक कहे जा सकते हैं। वन्य और
ग्रामीण दोनों प्रकार के जीवन प्राचीन हैं।”[12] इस प्राचीन जीवन में छुपे साहचर्य की उमंग को जो नहीं देख
पाते शुक्ल जी के लिए वे प्रकृति प्रेमी नहीं बल्कि सिर्फ तमाशबीन होते हैं। अतः
साहित्य में प्रकृति का आलंबन धर्म वहीं तक स्वीकार्य है जहाँ तक वह ‘वन्य’ और ‘ग्रामीण’ जीवन के साहचर्य से संभूत हो। सभ्यता के विकास के साथ जो नए
रागात्मक संबंध बनते चलते हैं उनकी नवीनता शुक्ल जी को वहीं तक स्वीकार्य है जहाँ
तक वे मूल भावों के अनुकूल बन कर आती है। कविता का ‘सृष्टिप्रसार’ के साथ यही संबंध मानना चाहिए।
भक्ति भी लोभ, प्रेम या श्रद्धा जैसे मनोविकारों की तरह ही शुक्ल जी के
लिए एक मनोविकार भी है। यह मन की एक वृत्ति है। यह न केवल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से
उपयुक्त है वरन् इसका एक तात्त्विक आधार भी है। उचित तात्त्विक दृष्टि से युक्त
होकर भक्ति , काव्य और जीवन व्यवहार दोनों का आदर्श है। भक्ति के इस जीवन
व्यवहार और काव्य दोनों सन्दर्भों में कबीर आदि संत निर्गुनियों की ‘भक्ति’ शुक्ल जी के लिए ऐसे प्रतिपक्ष का निर्माण करती है जिससे
जीवन भर वह अपना पीछा छुड़ा नहीं पाए। ‘विदेशी प्रभाव’ या ‘रहस्यवाद’ या ‘व्यक्तिगत साधना’ या ‘वासनाओं का दमन’ या ‘व्यक्तिवाद’ या ‘अनूठी उक्तियों से ज्ञान की धाक जमाना’
आदि पदों और धारणाओं की आलोचना करना और इस क्रम में इनकी ‘भारतीय आत्म’ की धारणा से भिन्नता या परत्व दिखाते चलना शुक्ल जी के
चिंतन का एक केन्द्रीय पक्ष था। शुक्ल जी के लिए जीवन व्यवहार में ‘भक्ति’ एक ऐसे आदर्श का क्रियान्वयन थी जिसके सहारे विधान के ‘अभ्युदय’ में अर्थात् संकट काल में जनमानस के बीच ‘धर्म’ की रक्षा में लोग प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार भक्ति सद्विवेक
का लोकप्रिय रूप है। यह क्रिया पक्ष है। शुक्ल जी के अनुसार भक्त कवियों के यहाँ
इस ‘अभ्युदय’ को सिद्ध होता हुआ हम देखते हैं। क्रियापक्ष की सिद्धि का
मध्यकालीन साक्ष्य यह स्पष्ट करता है कि धर्म का वास्तविक लोकप्रिय मार्ग इसी से
गुजरता है। भक्ति और भक्ति काव्य जीवन व्यवहार में धर्म की सरसता का प्रमाण हैं।
मनोविकार के विकासक्रम में ‘भक्ति’ प्रेम और श्रद्धा के रास्ते इन दोनों की अभेद भूमि तक
पहुंचती है। शुक्ल जी के लिए प्रेम ‘विशिष्ट’ और ‘एकान्तिक’ है। यह दो लोंगों के बीच का भाव है। प्रेम में कोई मध्यस्थ
नहीं होता। इसका कारण बहुत कुछ अनिर्दिष्ट होता है। प्रेम में दृष्टि व्यक्ति से
होते हुए उसके कर्मों पर जाती है। शुक्ल जी कहते हैं कि प्रेम में व्यक्ति प्रधान
है। प्रेम में प्रेमी प्रिय के संपूर्ण जीवन क्रम के सतत साक्षात्कार का अभिलाषी
होता है। दो लोग मिल कर अपने जीवन का एक निराला मिश्रण तैयार करना चाहते हैं। दो
लोगों तक सीमित रहने वाला यह प्रेम शुक्ल जी के लिए सामाजिक नहीं है। दो के बीच जब
तीसरा आ जाता है तब वह सामाजिक हो जाता है। तीसरे के आने से श्रद्धा का जन्म होता
है। पर अब वह एकान्तिक नहीं रह जाता। श्रद्धा का पात्र जीवन व्यवहार में अपने
कर्मों के चलते एक से अधिक लोगों का श्रद्धा भाजन हो सकता है। हम किसी के कर्मों
से प्रभावित हो उसके प्रति श्रद्धा करते हैं। यहाँ कर्मों से चल कर दृष्टि व्यक्ति
तक जाती है। यहाँ कर्म प्रधान है और व्यक्ति गौण। इस प्रकार श्रद्धा का कारण
अनिर्दिष्ट नहीं होता। श्रद्धा संयोग का विषय नहीं है। हम कारण समझ बूझ कर ही
श्रद्धेय के चरित्र तक पहुँचते हैं। श्रद्धेय के साथ हमें निरंतर साहचर्य की कामना
नहीं होती। हम श्रद्धेय से अपने लिए कुछ नहीं चाहते। श्रद्धेय समाज के किसी अंश पर
अपने कर्मों से शुभ प्रभाव डालता है। वह जोर देकर समाज के उस अंश में कुछ न कुछ
परिवर्तन उपस्थित करता है। हम समाज के उस हिस्से के परिवर्तन में भले ही व्यक्तिगत
रूप से शामिल न हों तब भी हम परिवर्तन उपस्थित करने वाले उस व्यक्ति पर श्रद्धा रख
सकते हैं। हम श्रद्धेय को सामाजिक प्रतिनिधित्व प्रदान करते हैं।हम जिस पर श्रद्धा
रखते हैं उसके प्रति और लोगों की श्रद्धा की कामना भी करते हैं। श्रद्धा समाज को
अपने साथ सम्मिलित करना चाहती है प्रेम ऐसा नहीं चाहता। एकान्तिक प्रेम के बरक्स
शुक्ल जी का आदर्श दाम्पत्य प्रेम सामाजिक है क्योंकि वहां विधान की मान्यता है।
इस प्रकार प्रेम का निखरा हुआ सामाजिक रूप दाम्पत्य प्रेम है जो उनकी लोकप्रिय
सामाजिकता के अनुरूप है। सामाजिक होने के कारण श्रद्धा में श्रद्धालु की दृष्टि
विशेष पर नहीं होती बल्कि सामान्य पर होती है। श्रद्धा में हम दूसरों का महत्त्व
वहाँ तक स्वीकार करते हैं जहाँ तक वह सामान्योन्मुख सामाजिकता से संदर्भित हो,
प्रेमी की तरह विशेषोन्मुख वैयक्तिकता से नहीं। शुक्ल जी के
अनुसार श्रद्धा के तीन विषय हैं: शील, प्रतिभा और साधन-संपत्ति। शील का संबंध धर्म से है। शील या धर्म एक ही है। धर्म सामाजिक आत्मरक्षा का विधान करता है।
धर्म स्वभावतः रक्षणशील होता है क्योंकि यह समाज की रक्षा करता है। इसलिए श्रद्धेय
को शीलवान होना चाहिए। उनके प्रयत्न धर्म के ‘अभ्युदय’ के प्रयत्न होने चाहिए। ऐसे ही प्रयत्नों के प्रति जनसाधारण
का ध्यान सबसे पहले जाना शुक्ल जी स्वाभाविक बताते हैं,
“ क्योंकि उसका संबंध मनुष्य-मात्र की सामान्य स्थिति रक्षा से है”।[13] इस स्थिति रक्षा के बिना समाज में न तो प्रतिभा के सहारे
कला-कौशल की मनोहारिता का प्रचार-प्रसार संभव है न ही साधन-संपत्ति की ‘प्रचुरता का वितरण और व्यवहार’
ही। इन सब सामाजिक क्रियाओं का आधार धर्म है। इसलिए कला-कौशल और साधन-संपत्ति का सार्थक उपयोग धर्म की रक्षा के निमित्त ही हो
सकता है। संपत्ति और साधन का सामाजिक उपयोग ‘शील-साधन’ और ‘प्रतिभा-विकास’ में है। अर्थयुग ने संपत्ति-साधनों को ‘शील-साधन’ या ‘प्रतिभा-विकास’ के गुरुतर उद्देश्यों को हटा कर महज स्वार्थ साधन बना दिया
है। व्यक्तिगत लाभ-हानि के स्वार्थ साधन के बदले श्रद्धा हमें सामाजिक मूल्यों
से जोड़ती है। हम जब श्रद्धेय के इस सामाजिक मूल्य को स्वीकार करते हैं,
उसकी प्रशंसा करते हैं और चाहते हैं कि दूसरे अन्य लोग भी
ऐसा करें तो तब हम उसका हौसला बढ़ा रहे होते हैं जिससे उसे अपनी सामर्थ्य का बोध
होता है और वह अपने कार्यों में और तत्पर होता है।
“कला-कुशल या सदाचारी अपने चारों ओर प्रसन्नता देखना चाहता है,
अतः हम अपनी श्रद्धा द्वारा उसे अपनी प्रसन्नता का निश्चय
मात्र कराते हैं।”[14] इस प्रकार सामाजिक मंगल में श्रद्धालुओं का भी योगदान
निश्चित होता है। श्रद्धालु अगर लोभवश श्रद्धावान् का व्यक्तिगत लाभ उठाना चाहता
है तो वह अपनी पात्रता खोता है। श्रद्धा भाव श्रद्धेय के पक्ष का भावात्मक प्रचार
करने में है। यह स्वार्थ के खिलाफ है। ऐसे में अगर श्रद्धावान् व्यक्तिगत रूप से
हम पर रुष्ट भी है तब भी हम उसके शील और सदाचार की सामाजिक महिमा का प्रचार करते
हैं। श्रद्धा भाव धर्म का प्रचारक है, व्यक्ति का नहीं। श्रद्धालुओं का दल महत्त्व को स्वीकार
करता है पर वे सब खुद महत्त्व की ओर अग्रसर नहीं होते। व्यक्तिगत सदाचार के पालन
के अलावा श्रद्धेय के महत्त्व का प्रचार उनका सामाजिक उत्तरदायित्व है। इस
उत्तरदायित्व का निर्वाह श्रद्धाभाव का सामाजिक मूल्य है। यह किसी के प्रति
असामर्थ्य जनित दया नहीं है। दया असामर्थ्य के प्रति होती है श्रद्धा सामर्थ्य के
प्रति। “जनसाधारण अपनी दया द्वारा केवल असामर्थ्य के उपस्थित परिणामों का,
कुछ स्थान के बीच और कुछ काल तक के लिए निवारण कर सकते हैं,
अतः श्रद्धा द्वारा वे ऐसे असाधारण जनों को अपने
वित्तानुसार थोड़ी-थोड़ी शक्ति दान करते हैं जो असामर्थ्यों के निराकरण में
समर्थ होते हैं।”[15]अतः श्रद्धेय सामर्थ्यवान् और असाधारण व्यक्ति है,
जो श्रद्धालुओं और जनसाधारण के सहयोग से असामर्थ्य के
कारणों के निराकरण में प्रयत्नरत रहता है।
इस असाधारणता और सामर्थ्य के प्रति श्रद्धा भाव बढ़ते बढ़ते पूज्य भाव में बदल
जाता है। यह पूज्य भाव आगे बढ़ते बढ़ते श्रद्धेय के सामीप्य लाभ का आकांक्षी हो जाता
है। ऐसे में वह श्रद्धेय के जीवन के प्रत्येक पल का साक्षात्कार चाहता है। यह ‘कई रूपों के साक्षात्कार की वासना’
प्रेम का लक्षण है। शुक्ल जी के यहाँ इसी ‘श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है’। भक्ति श्रद्धा की सामान्योन्मुखता के साथ प्रेम की
एकांतिकता का योग है। यह व्यक्तिगत न हो कर सामाजिक है और साहचर्य या सान्निध्य की
प्रवृत्ति के कारण एकान्तिक। अब श्रद्धेय के विचार या श्रद्धा के विषयों के
अतिरिक्त उसके संपूर्ण जीवन क्रम में हमें आनन्द आने लगता है। हम उसकी प्रत्येक
गतिविधि उसकी प्रत्येक क्रिया को आत्मसात करना चाहते हैं। उसको अपने जीवन क्रम का
थोड़ा या बहुत अंश अर्पित करना चाहते हैं और बदले में उसके जीवन पर भी थोड़ा अधिकार
चाहते हैं। ‘हम भक्ति भाजन से विशेष घनिष्ठ संबंध रखना चाहते हैं-
उसकी सत्ता में विशेष रूप से योग देना चाहते हैं।’
ऐसी स्थिति में हम केवल प्रचार द्वारा श्रद्धा भाव का
विस्तार करने वाले ही नहीं रह जाते। हम अपने ‘आत्म निवेदन’ के जरिये भक्त भाजन को उसके कार्यों में यथासंभव योग देने
वाले हो जाते हैं। भक्ति का आश्रय पाकर हम परमार्थ में अपना अपना योगदान सुनिश्चित
कर सकते हैं। भक्ति भाव इसी अर्थ में व्यावहारिक है। अपने जीवन में कांट-छांट करते हुए हम खुद किसी तीसरे की भक्ति का आश्रय हो सकते
हैं। भक्ति ऐसा व्यवहार है जो भक्ति करने वाले को खुद भक्ति का भाजन बना देता है।
शुक्ल जी के अनुसार भक्ति के लिए अपनी वास्तविक क्षुद्रता का ज्ञान पहली शर्त है।
अपनी सीमाओं का स्वीकार एक लघुत्व की भावना के साथ जब होगा तभी हम भक्ति में
प्रवृत्त हो सकते हैं। इसलिए ‘दैन्य भाव’ भक्ति का प्राथमिक भाव है। स्वार्थों को त्याग कर तथा मुक्त
हृदय होकर जब तक हम इस दैन्य भाव के साथ दूसरों पर श्रद्धा नहीं करेंगे तब तक
श्रद्धा में प्रेम का योग संभव नहीं। सान्निध्य के रूप में हम अपने ऊपर एक पहरा
बिठा लेते हैं। यह हमारे आत्मशोधन का स्वच्छ आदर्श हो जाता है। इस प्रकार धीरे
धीरे हम भक्ति करते हुए स्वयं धर्म के अभ्युदय के लिए सत्कार्य में लगते जाते हैं।
मानव जीवन के परिमित क्षेत्र में भक्ति के विषय भी श्रद्धा की तरह शील संबंधी,
कला संबंधी या साधन संपत्ति संबंधी हैं। शील संबंधी भक्ति
जब भगवान् के प्रति होता है तो वह भगवत भक्ति में बदल जाता है। यह भक्ति का आदर्श
रूप है। परन्तु सामान्य जीवन में भी भक्ति करते हुए हम स्वयं समाज के भीतर एक ऐसे
नेतृत्व में परिवर्तित होते जाते हैं जो धर्म या कला कौशल या साधन-संपत्ति के विषय में पहले तो दूसरों की श्रद्धा फिर उनकी
भक्ति का भाजन बन जाता है। ऐसी स्थिति में भक्ति की ‘लोकहितकारिणी’ शक्ति समाज के भीतर ‘भक्तों की मंडली’ बनने में प्रकट होती है। शुक्ल जी के अनुसार गुरु गोविन्द
सिंह इसी रास्ते अन्याय दमन में समर्थ हुए थे।
‘सामाजिक महत्त्व के लिए
आवश्यक है कि या तो आकर्षित करो या आकर्षित हो। जैसे इस आकर्षण-विधान के बिना अणुओं द्वारा व्यक्त पिंडों का आविर्भाव नहीं
हो सकता, वैसे ही मानव-जीवन की विशद् अभिव्यक्ति भी नहीं हो सकती।”[16]मानव जीवन की विशद अभिव्यक्ति इसी संगठन रूप पिंडों के
आविर्भाव में है।
शुक्ल जी के अनुसार आकर्षण का गुण कोरे दार्शनिक सिद्धांतों में नहीं है।
निश्चयात्मिका बुद्धि को चाहे वह व्यक्त हो भी जाए पर ‘सुनने वालों के लिए अव्यक्त ही रहते हैं’। शुद्ध उपदेशों में कोई आकर्षण शक्ति या प्रवृत्तिकारिणी
शक्ति नहीं होती। जब तक यह शक्ति किसी जीवन चरित्र में प्रत्यक्ष नहीं होते तब तक
वे हमारी भावनाओं में मूर्त नहीं होते। गुणों में स्वयं की शक्ति नहीं होती। वे तो
प्रत्यक्ष भी नहीं होते। उनके आश्रय और परिणाम प्रत्यक्ष होते हैं। इस प्रकार
अनूभूति मन की पहली क्रिया है, संकल्प-विकल्प दूसरी। ऐसा नहीं है कि अनूभूति केवल प्रत्यक्ष
सामीप्य से ही होती है। बड़े-बड़े महात्माओं के चरित्रों के ‘श्रवण, कीर्तन और स्मरण’ द्वारा भी अनुभूति पैदा होती है। सामीप्य लाभ मिलता है। ये
सब सामीप्य के साधन हैं। इन्हीं कारणों से ‘जनसाधारण’ के लिए ‘भक्तों’ के आश्रय द्वारा ‘महत्त्व-प्राप्ति’ का रास्ता सुगम हो जाता है।
‘जनसाधारण’
ऐसे भक्तों का आश्रय पा सुगम और मनोहारी रीति से ‘धर्म के अभ्युदय’ में अपना अंश देते हैं। दूसरे शब्दों में भक्ति के सहारे
सुगम रीति से ‘धर्म का अभ्युदय’ संभव हो पाता है।समाज रक्षण का यह सुगम पथ, आकर्षण शक्ति के संघात से ऐसी सामुहिकता में रूपांतरित हो
जाता है जो खुद ही मानव जीवन की विशद् अभिव्यक्ति है।
शुक्ल जी समकालीन औपनिवेशिक परतंत्रता और यूरोप की ह्रास्ग्रस्त सभ्यता को
धर्म और मनुष्यता की अपूर्व हानि के संकट काल के रूप में देख रहे थे। विश्व विधान
के क्षुद्र अंश के रूप में मनुष्य हमेशा सीमित जीवन के भीतर रहने को अभिशप्त है।‘मनुष्य जाति’ जिन पुरानी अवस्थाओं से हो कर आगे बढ़ी है वहां से आगे चेतना
का कोई और विकास उसे दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में कई सामाजिक सिद्धांत मनुष्य को
या तो परमसुख का स्वप्न देते हैं या लूट मार कर इस धरती को ‘मर्कटतुल्य या मत्स्यतुल्य’
बना देना चाहते हैं। इन दोनों स्थितियों में मनुष्य अपने
अन्तःकरण के किसी एक पक्ष को दबाना या उठाना चाहता है। पर शुक्ल जी के अनुसार यह
दबाना या उठाना मनुष्यता का स्वभाव नहीं है। ऐसे संकट के समय ‘धर्म के अभ्युदय’ के लिए भक्ति का संगठन आवश्यक है। क्योंकि इससे सुगम और
सर्वसाधारण कोई और रास्ता उन्हें दिखाई नहीं दे रहा था। भक्ति का संगठन उनके यहाँ
मनुष्य धर्म का संगठन है। और इसका आदर्श हमने पीछे देखा कि क्षात्र-धर्म के सौन्दर्य में है। यह ‘शील, शक्ति और सौन्दर्य’ तीनों की पराकाष्ठा है।
कबीर आदि संतों के यहाँ भक्ति ‘श्रद्धा और प्रेम’ के योग के बदले ‘ज्ञान और प्रेम’ का योग प्रतीत होती है। यहाँ ज्ञान की सार्वभौमिकता और
प्रेम की एकांतिकता का योग है। उनके यहाँ ज्ञान अनुभूति में ही था। ज्ञान स्वयं
भावनात्मक था। ‘गृहस्थ हिन्दू जनसाधारण’
की औसत अनुभूतियों के बदले यह रोज़मर्रा में तात्कालिक
अनुभवों की निरंतरता से प्रसूत ज्ञान था और जिसकी प्रक्रिया प्रेम की तरह एकान्तिक
थी। यहाँ भक्ति धर्म या शील के विधान में नहीं बल्कि उनकी निर्थकता के अनुभूतिमय
ज्ञान का क्रियात्मक पक्ष है। यह समाज में धर्म की हानि नहीं देखती बल्कि समाज की
हानि का कारण धर्म में देखती है। यह विधान निर्माण में हिंसा का सौन्दर्य नहीं
देखती बल्कि हिंसा को विधान निर्माण का साधन देखती है। उनकी हिंसा प्रेम के घर में
प्रवेश करने के पहले ‘शीश उतारे भूईं धरे’ की हिंसा है। विधान की हिंसक निर्थकता के खिलाफ प्रेम की
सार्थक हिंसा। शुक्ल जी जो बार-बार इनकी भक्ति को वैयक्तिक साधना कह कर पूंजीवादी
व्यक्तिवाद और रहस्यवाद से जोड़ने की कोशिश करते हैं वह उनकी पूरी व्यवस्था में
अर्थात् सामंजस्य के पूरे दर्शन में बने रहने वाले असमंजित प्रतिपक्ष की उलझन के
चलते है। कबीर आदि के यहाँ ‘श्रद्धेय’ या ‘भक्त-भाजन’ के बदले ‘गुरु’ का चरित्र और निर्गुण सत्ता के प्रति प्रेम भाव भक्ति की
आतंरिक शुक्ल-व्यवस्था के अनुरूप ना था। शुक्ल जी की सामुहिकता और
सामाजिकता की अवधारणा में इसकी जगह नहीं थी।
शुक्ल जी के अनुसार ज्ञान प्रसार के भीतर रागात्मक संबंधों का प्रसार, समन्वय की वैसी प्रक्रिया है जिसकी एकता अद्वैत भाव में
स्थापित होती है। भक्ति में ज्ञान और रागात्मिका वृत्तियों का पूर्वापर क्रम इस
प्रकार धूमिल हो जाता है कि वह स्वयं अद्वैत भाव में बदल जाती है। परम सत्ता की
शाश्वतता और सत्यता की भावना संपूर्ण जीवन क्रम का हिस्सा हो जाती है। शुक्ल जी
लिखते हैं: “ज्ञान हमारी आत्मा के तटस्थ (Transcendental)
स्वरूप का संकेत है, रागात्मक हृदय उसके व्यापक (Immanent)
स्वरूप का। ज्ञान ब्रह्म है तो हृदय ईश्वर है। किसी व्यक्ति
या वस्तु को जानना ही वह शक्ति नहीं, जो उस व्यक्ति या वस्तु को हमारी अन्तःसत्ता में सम्मिलित
कर दे। वह शक्ति है राग या प्रेम”[17]। अनुभव केवल व्यापक स्वरूप का होता है। अगर अनुभवों के
आधार पर तटस्थ सत्ता के स्वरूप की कोई बात करता है तो रहस्यवादी होने को बाध्य है।
अनुभव हमेशा ही सीमित होते हैं। सीमित अनुभव में असीम भी सीमित हो कर ईश्वर हो
जाता है। इसलिए जो सीमित अनुभव में निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप को व्यक्त करने का
दावा करते हैं और इस क्रम में कल्पना की अबूझ और नितांत वैयक्तिक पहेलियाँ बनाते
हैं वह रहस्यवाद है। शुक्ल जी का ‘ब्रह्मवाद’ अद्वैत भौतिकवादियों की तरह अनुभव और ज्ञान दोनों की शुद्ध
व्यापकता को स्वीकार नहीं करता। न ही शुक्ल जी के यहाँ ज्ञानात्मक अनुभव और
अनुभवात्मक ज्ञान के द्वंद्व के रूप में इस संबंध को देखा गया है। उनका द्वंद्व ‘पृथकता का द्वंद्व’ है और यही कारण है कि कांट की तरह ही शुक्ल जी की व्यवस्था
भी अनुभव और अनुभव के ज्ञान के रिश्ते को लेकर एक दुविधा का शिकार बनी रही। अनुभवात्मक
ज्ञान को ज्ञान की दूसरी अभिव्यक्तियों की तरह ही वह स्वीकार नहीं करते थे,न ही ज्ञानात्मक अनुभव को वह अनुभव मानते थे। ज्ञान या
आत्मा स्वयं अकर्ता थी और इसलिए अनुभव या रागात्मकता से रहित शुद्ध बुद्धि थी।
इसलिए ज्ञान प्रसूत अनुभव संभव ही नहीं था। इन दोनों को ही वह ‘आध्यात्मिकता’ का क्षेत्र मानते थे और ‘काव्य’ के बाहर की वस्तु करार देते थे। प्राच्यविद्याविदों
द्वारा भारतीय आत्म की आध्यात्मिक व्याख्याओं का विरोध
उन्होंने इसी रास्ते किया। ‘अन्तःप्रज्ञा’ पर जोर देने वाला रहस्यवाद इसी ‘आध्यात्मिकता’ की प्रवृत्ति का एक पक्ष था। इन दोनों को वह ‘विदेशी’ प्रभाव कहते हैं जो काव्य के सहज,
सुलभ और लोकप्रिय पथ से अलग अलौकिक,
वैयक्तिक और साम्प्रदायिक रूपों को प्रश्रय देता है।
‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’
शीर्षक व्याख्यान में क्रोंचे के ‘अन्तःप्रज्ञात्मक’ सौंदर्यशास्त्र की आलोचना का भी सैद्धांतिक आधार उन्होंने
अपने ‘पृथकता के द्वंद्व’ को ही बनाया है।
क्रोंचे को लेकर शुक्ल जी का उहापोह उनके अपने ‘अभिव्यक्तिवाद’ के अंतर्विरोधों का प्रमाण है। शुक्ल जी ने जिस
अभिव्यक्तिवाद या सामंजस्यवाद का पक्ष लिया है वह अभिनवगुप्त के
‘अभिव्यक्तिवाद’
या ‘आभासवाद’ की ही समयानुकूल व्याख्या है। रस की व्याख्या में तो यह बात
स्पष्ट है। अभिनवगुप्त का दर्शन शैवाद्वैतवाद है और मोटे तौर पर सांख्य और अद्वैत
मायावाद का सामंजस्य है। वैसे ही उनका रस सिद्धांत भी भरत और आनन्दवर्धन के
सिद्धांतों का सामंजस्य है। अभिनवगुप्त का काव्यसिद्धांत योगियों के ‘ब्रह्मानन्द’ के बरक्स काव्य के ‘ब्रह्मानन्द सहोदर’ को प्रतिष्ठित करने का प्रयास था। अभिनवगुप्त के यहाँ रस
सिद्धांत अपने पूर्ण रूप में विकसित होता है। आगे हम देखेंगे कि आनन्दवर्धन और
उसके बाद अभिनवगुप्त द्वारा विकसित ‘ध्वनि सिद्धांत’ का वह कौन सा पक्ष था जो क्रोंचे की अवधारणा में उन्हें
दिखाई पड़ता है और जिससे शुक्ल जी के ‘अभिव्यक्तिवाद’ को भी खतरा महसूस होता है।
क्रोंचे इटली का दार्शनिक था जिसका प्रारम्भिक विकास मार्क्सवाद से प्रभावित
था और आगे चलकर उसकी आलोचना और उसकी सीमित उपयोगिता के स्वीकार पर केन्द्रित हो
गया। इटली में मार्क्सवाद की दार्शनिक आधार-भूमि १८७० में हुए ‘रिसोरिजेमेंतो’ के संघर्ष के बाद तैयार हुई थी। आरंभिक मार्क्सवादियों में ग्राम्शी ने
लैब्रियोला का नाम सबसे सम्मान के साथ लिया है। एंगेल्स ने इटली में मजदूर आंदोलन
की प्रकृति की व्याख्या में लाब्रियोला का पक्ष लिया था और दोनों के बीच पत्राचार
भी था। लाब्रियोला वह पहला दार्शनिक था जिसने मार्क्सवाद को ‘व्यवहार का दर्शन’ कहा था। वह खुद को मार्क्स और एंगेल्स की परम्परा में मानता
था और मजदूर वर्ग के आन्दोलनों में बुद्धिजीवियों की भूमिका को लेकर सिद्धांत
निरूपण का प्रयास कर रहा था। क्रोंचे ने अपने बौद्धिक जीवन की शुरुआत लाब्रियोला
के शिष्य के रूप की थी। आरम्भ में वह खुद को मार्क्सवादी मानता था पर धीरे धीरे
उसने लाब्रियोला की आलोचना करते हुए अपने आरंभिक ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवादी’
रूझान की भी आलोचना शुरू कर दी। उसके अनुसार वह ‘व्यवहार के दर्शन’ को उसके अधिभौतिकवादी या मेटाफिजिकल तत्त्वों से अलग कर रहा
था। उसके अनुसार राजनीतिक अर्थशास्त्र जीवन के केवल व्यावहारिक आर्थिक पक्षों से संबंध
रखता है जिसे मार्क्सवाद गलत रूप में जीवन के हर क्षेत्र के भीतर भाववादी विस्तार
देता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद क्रोंचे के लिए केवल इतिहास के सामान्य निरूपण हेतु
उपयुक्त था। क्रोंचे का दावा था कि उसके दर्शन में कांट और हीगेल दोनों की ‘गलतियों और सीमाओं’ का निराकरण है। वह खुद को हीगेल का आलोचनात्मक अनुयायी
मानता था। क्रोंचे के अनुसार आध्यात्मिक क्रियाओं के निरूपण में मार्क्सवाद अक्षम
था। उसके यहाँ ‘विश्वात्मा’ के प्रकटीकरण के विभिन्न स्तर ‘परम इतिहास’ के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। दूसरे शब्दों में ‘परम इतिहास’ विश्वात्मा की जगत् में परम व्यापकता की अभिव्यक्ति है। इस
प्रकार इतिहास के सोद्देश्यता की उसने अपनी आलोचना सामने रखी। क्रोंचे के अनुसार ‘परम इतिहासवाद’ (Absolute
Historicism) के रूप में
जगत् की पूर्णतः इहलौकिक व्याख्या अधिभौतिकवाद के हर रूप का उन्मूलन कर देती है।
इस व्यापकता और इहलौकिकता को सामने रख क्रोंचे अपने दर्शन को भाववाद और भौतिकवाद
दोनों की सीमाओं से स्वतंत्र मानता है। क्रोंचे ने हीगेल के वस्तुनिष्ठ द्वंदवाद
में संशोधन करते हुए ‘पृथकता का द्वंदवाद’ (Dialectics
of distincts) सामने रखा।
बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में क्रोंचे बौद्धिकों और नौजवान छात्रों के बीच ख़ासा
लोकप्रिय था और इटली की बौद्धिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में उसकी प्रभावशाली भूमिका थी। इस
बात का अंदाजा इससे भी लगता है कि ग्राम्शी अपने आरंभिक दिनों में क्रोंचेपंथी थे
और बाद में भी उसे इटली के हीगेल के रूप में ही देखते हैं जिसे ‘पैरों के बल खड़ा करना’
ज़रूरी था। ग्राम्शी के ‘प्रभुत्व के सिद्धांत’
के साथ-साथ कला और सौंदर्यशास्त्र की टिप्पणियों पर भी क्रोंचे के
दर्शन की स्पष्ट छाप है। फिलहाल हम क्रोंचे के सौंदर्यशास्त्र की मुख्य स्थापनाओं को
देखने की कोशिश करते हैं।
क्रोंचे के अनुसार दर्शन में कोई भी गलती पूर्णतः नहीं होती और सब में सच्चाई
का अंश होता है। सारी दिक्कत उन्हें स्पष्ट परिप्रेक्ष्य में नहीं देखने से आती है।
गलतियों से ही दर्शन आगे बढ़ता है। उसके अनुसार जब हम गलतियों की संभावना की
स्वीकृति के बदले किसी धारणा की पूर्ण परिभाषा नियत करने लगते हैं तब हम यह भूल
जाते हैं कि विश्वात्मा का परवर्ती जीवन हमेशा पुरानी समस्याओं को पुनर्नवीन करता
चलता है और उसमें कुछ न कुछ नए सवाल जोड़ता चलता है। ऐसी स्थिति में वह पुराने
निष्कर्षों या समाधानों को एकबारगी खारिज नहीं करता बल्कि प्रश्न के समाधान में
उसकी असमर्थता दिखाता चलता है। पुराने कई प्रश्न सूची से निकाल दिए जाते हैं और
माना जाता है इनका सत्य उपलब्ध हो चुका है जबकि बाक़ी प्रश्नों को फिर से एक बार
दर्शन अपनी व्यवस्था में शामिल कर लेता है।कला का दर्शन भी इसी पद्धति से आगे बढ़ा
है। ‘परम इतिहास’ के रूप में विश्वात्मा की अभिव्यक्ति भी इसी रूप में होती
चलती है। कला संबंधी जो भिन्न-भिन्न समस्याएं अतीत, निकट अतीत या वर्तमान में हमारे सामने हैं उन सबमें सत्य का
थोड़ा-थोड़ा अंश मौजूद है और इसलिए गलतियों का भी। सत्य जो खुद विचार ही है हमेशा
सक्रिय और श्रमशील है। कोई भी गंभीर दर्शन ख़ास समस्याओं की केवल आलोचना के ज़रिये
पूर्ण सत्य को प्रकट नहीं कर सकता उसी तरह कितना ही गैर महत्वपूर्ण और अगंभीर
दार्शनिक विमर्श हो उनमें विभिन्न मतों की समीक्षा का कोई न कोई न कोई प्रयास ज़रूर
रहता है। सभी समस्याओं से गुजरते हुए इनकी इच्छा भविष्य के समाधानों में अपना
योगदान इसी अर्थ में देखती है कि नया समाधान ‘मानव आत्मा’ के पिछले सभी श्रम को खुद में शामिल करता है।
‘कला कला के लिए’ और ‘कला जीवन के लिए’ इन दोनों पक्षों को क्रोंचे इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की
बात करता है। उसके अनुसार कला ‘दृष्टि या अन्तःप्रज्ञा है’। यह इन दोनों अतियों का निषेध है और इस अर्थ में उच्चतर
संश्लेष है। कलाकार एक काल्पनिक बिम्ब या फैंटाज्म का उत्पादान करता है। दर्शक या
आस्वादक कलाकार के द्वारा खोली गयी एक खिड़की से उस बिंदु की तरफ टकटकी बांधता है
जिसकी ओर कलाकार ने इशारा किया है और उस बिम्ब को अपने भीतर पुनुरुत्पादित करता है।[18]क्रोंचे के अनुसार ‘अन्तःप्रज्ञा’, ‘दृष्टि’, ‘मनन’ या ‘अनुमान’, ‘कल्पना’, ‘मूर्तिमत्ता’, ‘प्रतिबिम्ब’ आदि शब्द कला संबंधी चर्चाओं में लगभग पर्याय के रूप में
प्रयुक्त होते हैं और इस प्रकार इनके बीच की किसी सामान्य भूमि की ओर इशारा करते
हैं। ‘अन्तःप्रज्ञा’ के रूप में कला की अपनी शक्ति और सार्थकता उन सब से है जिसे
वह स्वयं खारिज करती है और कला से अलग करती है। सबसे पहले यह कला को एक भौतिक (physical)
तथ्य नहीं मानती। सामान्य बोध और भौतिक विज्ञानों के आलोक
में भौतिक तथ्य के रूप में कला को देखना एक स्वाभाविक चीज़ है। चाहे सुन्दर को छूने की इच्छा का सन्दर्भ हो या
प्राकृतिक विज्ञानों से कला के रिश्ते का सन्दर्भ हो यह प्रश्न बराबर हमारे सामने
बना हुआ है। मानव की आत्मा कला के उत्पादन का कारण बाह्य प्रकृति में ढूंढती आई है।
वह सुन्दर और कुरूप का निर्धारण प्रकृति में चाहती है। कुछ रंगों को शुभ और कुछ को
अशुभ मानना या फिर कुछ दृश्यों को रम्य और कुछ को जुगुप्सामय मानना ऐसा ही प्रयास
है। परन्तु कला कोई भौतिक तथ्य नहीं है। क्योंकि खुद भौतिक तथ्यों में कोई यथार्थ
नहीं होता जबकि कला जिसके लिए लोग अपना सारा जीवन लगा देते हैं ‘चरम यथार्थ’ (supremely
real) है।[19] क्रोंचे दरअस्ल विज्ञान के भीतर माखपंथियों की धारणा को
सर्वमान्य सत्य की तरह देख रहा था जिसके अनुसार भौतिक तथ्य खुद मानसिक निर्मितियां
हैं और बाहरी भौतिक दुनिया अयाथार्थ है। क्रोंचे लिखता है :
“... चाहे सत्य कितना भी कड़वा
क्यों न लगे हमें यह मानना होगा कि भौतिक दुनिया की अयथार्थता न केवल एकमत से
प्रमाणित स्वीकार की गयी है और सभी दार्शनिकों (उनको छोड़ कर जो कट्टर भौतिकवादी हैं और भौतिकवाद के तीक्ष्ण
अंतर्विरोधों में शामिल नहीं हैं) की इसपर सहमति है बल्कि खुद भौतिक विज्ञानी भी अपने
स्वतःस्फूर्त दर्शन में इसकी उद्घोषणा करता है और जिसे वह बाद में अपने भौतिक
विज्ञान से मिला देता है और यह मानने लगता है कि भौतिक प्रपंच उन नियमों के उत्पाद
हैं जो अनुभव से परे हैं, अणुओं या ईथर या किसी अज्ञात के आविर्भाव हैं। इससे अलग खुद
भौतिकवादियों का पदार्थ एक चरमभौतिक सिद्धांत है। इस प्रकार भौतिक तथ्य अपने ही
आतंरिक तर्कों और सहमतियों के द्वारा सामने आते हैं किसी यथार्थ की तरह नहीं बल्कि
विज्ञान के उद्देश्य के लिए बुद्धि की निर्मिती के रूप में।”[20]इस आधार पर क्रोंचे भौतिक तथ्य के रूप में कला के प्रश्न को
बदल कर इस रूप में सामने रखता है कि ‘क्या कला को भौतिक रूप से बनाना संभव है’। परन्तु इस रूप में यह प्रश्न कला का प्रश्न नहीं रह जाएगा।
शब्दों के व्याकरण की व्याख्या या किसी मूर्तिशिल्प के पत्थर की माप तौल या नर्तकी
के गति नियमों की व्याख्या कला के सौन्दर्य की व्याख्या में सक्षम नहीं है।
इसी प्रकार यदि अनुमान (contemplation) के मूल अर्थ में ‘अन्तःप्रज्ञा’ सिद्धांत की तरह है तब फिर कला
कोई उपयोगितावादी कर्म नहीं हो सकता। रूप कोई वस्तु तभी
उपयोगी है जब वह हमारी पीड़ा या दुःख को दूर कर हमें आनन्द प्रदान करे। जीवन के सुख
या दुःख की तरह कला से हमें कोई सुख या दुःख नहीं मिलता। कला से किसी कोई आनन्द
नहीं मिलता। अगर कोई आनन्द है भी तो प्रकृततः वह जीवन से भिन्न एक किस्म का
आध्यात्मिक आनन्द है। यह आनन्द का एक विशिष्ट रूप है। इसकी विशिष्टता इसकी
सामान्यता में नहीं बल्कि अन्य आनन्द रूपों से पृथकता में है। आनंद के रूप में कला
की व्याख्या सुखवादी सौंदर्यशास्त्र का आधार है जिसका इतिहास में एक संश्लिष्ट
चरित्र रहा है और अभी भी कला अध्येताओं को इसलिए आकर्षित करता है क्योंकि उन्हें
लगता है कि कला आनन्द का कारण है। फिर भी इस आनन्दवादी सौन्दर्यशास्त्र में सत्य
का छोटा सा अंश ज़रूर है। मूल रूप में कला को आनन्द से जोड़ कर यह कला के आध्यात्मिक
चरित्र को तो सामने रखता है परन्तु अन्य आध्यात्मिक क्रियाओं से इसकी पृथकता
स्पष्ट नहीं कर पाता।
अन्तःप्रज्ञा के रूप में कला, नैतिकता के रूप में कला की परिभाषा का भी निषेध है। नैतिक
कर्म के रूप में कला के साथ एक आध्यात्मिक सुख और दुःख जुड़ा ही रहता है पर
उपयोगितावादी या सुखवादी (Hedonostic) अर्थ में सुख या दुःख नहीं है। यह एक उच्चतर आध्यात्मिक
कर्म है। परन्तु अन्तःप्रज्ञा की धारणा सैद्धांतिक है और इस अर्थ में व्यावहारिकता
(practicality) के खिलाफ है। सदेच्छा से आप भला व्यक्ति बन सकते हैं पर एक
अच्छा कलाकार नहीं हो सकते। कला पर हम कोई नैतिक मूल्य नहीं थोप सकते। कला क़ानून
के बाहर है। हम कलाकार से यह मांग नहीं कर सकते कि वह निम्न वर्गों की शिक्षा में
सहयोग करे और लोगों की राष्ट्रीय चेतना मजबूत करे या किन्हीं सरल श्रममय जीवन के
आदर्श प्रचारित करें। ये सब कला के नैतिक कर्म होने के सैद्धांतिक आग्रह हैं।
क्रोंचे कहता है कि ये सारे कार्य कला नहीं कर सकती जैसे इन्हें रेखागणित नहीं कर
सकता। पर इस कारण न हम कला का और न ही रेखागणित का महत्त्व अस्वीकार कर सकते हैं।
यह बात सही है कि कला चर्च की नैतिकता का प्रचार या उच्च मर्यादाओं और विज्ञान के
गंभीर निष्कर्षों का सुगम और सहज व्याख्यान करती आई है। इसने कला के साथ हमेशा एक
उच्चतर आध्यात्मिक गरिमा की भावना को बनाये रखा है। क्रोंचे के अनुसार “... और कला का नैतिक सिद्धांत अपने अंतर्विरोधों के चलते जैसे
अतीत में फायदेमंद रहा है वैसे ही आज भी है और आगे भी रहेगा। वह कला को आनन्द तक
सीमित करने के खिलाफ है और इस वजह से कला को एक उच्चतर पद प्रदान करता है :
और इसका सही पक्ष यह भी है कि अगर कला नैतिकता के परे है तो
कलाकार न इस तरफ रहेगा न उस तरफ बल्कि वह कला के साम्राज्य के नीचे रहेगा। कलाकार
मनुष्य भी है और मनुष्य होने के नाते वह अपने कर्त्तव्यों से पीछे नहीं हट सकता और
यह कर्त्तव्य उसे बार बार कला की तरफ ले जाएगा एक मिशन की तरह – कला जो कभी भी न नैतिक थी और न रहेगी।”[21]
क्रोंचे की परिभाषा का चौथा निषेध कला को अवधारणात्मक ज्ञान से अलग करने में
है। उसके अनुसार अवधारणात्मक ज्ञान दर्शन है और वह हमेशा यथार्थ परक होता है। यह
यथार्थ को अयथार्थ के सामने स्पस्ट करता है या दूसरे शब्दों में अयथार्थ को यथार्थ
के मातहत अपना ही एक क्षण बताता है। लेकिन अन्तःप्रज्ञा में यथार्थ और अयथार्थ का
कोई भेद नहीं रहता। बिम्ब का मूल्य वहां सिर्फ बिम्ब के रूप में है। वहां बिम्ब
शुद्ध आदर्श (Pure Ideality) है। ज्ञान के सरल और आरंभिक रूप की तरह ‘अन्तःप्रज्ञात्मक ज्ञान’
या ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ (sensible
knowledge) अवधारणात्मक
और बुद्धिमत्तापूर्ण ज्ञान से अलग है। यह परिभाषा सौन्दर्यात्मक को बौद्धिक से अलग
करती है। क्रोंचे अन्तःप्रज्ञा को ‘सिद्धांत जीवन का स्वप्न’
कहता है और दर्शन को स्वप्न से जागृति।[22]बिम्ब शुद्ध विषयी है और इसलिए
उसके प्रति कोई निर्णय संभव नहीं है। यह गुणातीत है। सार्वभौमिकता इसमें
अन्तर्निहित है क्योंकि सार्वभौम के रूप में विश्वात्मा सर्वगत और सर्वव्यापी है।
क्रोंचे सार्वभौमिकता को अन्तःप्रज्ञा के भीतर तार्किक निरूपण के खिलाफ है। इस
प्रकार बिम्ब की वैयक्तिकता का निर्वाह विश्वात्मा के सन्दर्भ में सहज ही हो जाता
है और दूसरी ओर विश्वात्मा की एकता भी खंडित नहीं होती बल्कि विचार से कल्पना या
फैन्सी की स्पष्ट पृथकता के चलते वह मजबूत ही होती है क्योंकि “ पृथकता से विरोध आता है और विरोध से ठोस एकता”।[23]
दर्शन से कला की पृथकता मिथकों से कला की पृथकता को
भी स्पष्ट करता है। मिथकों को कलाकार जब शुद्ध बिम्ब या प्रतीक के रूप में ग्रहण
करता है तो वह उसे यथार्थ का ज्ञान या यथार्थ प्रकटीकरण नहीं मान रहा होता है।
जबकि जो लोग मिथकों में विश्वास करते हैं उन्हें वे सत्य का प्रतीक मानते हैं। ऐसे
विश्वासियों के लिए मिथक केवल कल्पना नहीं बल्कि धर्म होता है। और क्रोंचे लिखता
है कि धर्म एक अर्थ में दर्शन ही है जहां वह अपनी पूर्णता अभी प्राप्त नहीं कर
पाया है, जहाँ वह धर्म के भीतर बनने की
प्रक्रिया में है, जहां वह निरंतर शुद्ध होता जाता है।
यह परम में शाश्वत के विचार के विकसित होने की प्रक्रिया है। अवधारणात्मक ज्ञानों
में कला अपनी नजदीकी अयथार्थपरक गणित या
प्राकृतिक विज्ञानों के अमूर्त और सामान्य पुनर्प्रस्तुतियों की अपेक्षा इतिहास या
दर्शन से ज्यादा महसूस करती है। गणित या प्राकृतिक विज्ञानों के शुष्क सामान्यीकरण
और वर्गीकरण और रूखे व्यवहारों की दुनिया के बदले इतिहास, धर्म या दर्शन उसे अपनी दुनिया के नागरिक लगते हैं।
क्रोंचे का मानना था कि बौद्धिकतावाद और प्राकृतिक विज्ञानों के प्रभाव के कारण ही
अट्ठारहवीं सदी कला के लिहाज से एक कम फलदायी सदी रही थी। क्रोंचे कला को ज्ञान के
भीतर शामिल कर इसके अतार्किकता का निषेध करता है जिसका आरोप गणित या प्राकृतिक
विज्ञानों की तरफ से उस पर लगता रहा था। शेलिंग या हीगेल के यहाँ अन्तःप्रज्ञा
ज्ञान का रूप तो है लेकिन वहां जगह जगह उसे इतिहास या दर्शन के साथ एकमेक करने का
प्रयास भी है। क्रोंचे ऐसी स्थिति में शुद्ध अन्तःप्रज्ञा की रोमैंटिक धारणा और
शेलिंग और हीगेल की दर्शन और इतिहास से अभिन्न अन्तःप्रज्ञा की धारणा, दोनों का निषेध करता है। ‘शुद्ध अन्तःप्रज्ञा’ के असंबद्ध बिम्बों से कला के रूप में अन्तःप्रज्ञा
या कल्पना पृथक् है। शुद्ध बिम्ब केवल संवेदनात्मक हैं। असंबद्ध और भिन्न-भिन्न बिम्बों का एक ढेर जबकि कल्पना संवेदनाओं से
बुद्धि का योग है। यह बुद्धि संवेदनाओं की अव्यवस्था में उनकी भिन्नता में एकता
लाता है। यह एकता ही विश्वात्मा की एकता की प्रक्रिया है। अन्तःप्रज्ञा या कल्पना ‘सिद्धांत-जीवन के स्वप्न’ की तरह संवेदनात्मक ज्ञान है। यह
विश्वात्मा की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति है। यह संवेदनात्मक ज्ञान इस अर्थ में विचार
या प्रपत्ति ही है। परन्तु इस अर्थ में यह संवेदनात्मक ज्ञान दर्शन से भिन्न कैसे
है?
हमने देखा था कि कांट के यहाँ ‘अनुभूति’ और ‘अनुभूति का ज्ञान’ या ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ वैज्ञानिक अनुभव था। वहां कांट के
अनुभवातीत(
transcendental) सौंदर्यशास्त्र में संवेदनाओं को वस्तुनिजरूप माना गया
जबकि ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ को निर्णय, जहां निर्णय पूर्वनिर्धारित संश्लेष है और शब्दों के रूप में अपना शरीर धारण
करता है और यही इतिहास है। इस प्रकार कल्पना तर्क में और कला दर्शन में वापस लौट
जाती है। क्रोंचे कहता है कि संवेदनात्मक ज्ञान के बाहर संवेदनाओं की तलाश या
शब्दों के बाहर इसकी तलाश जिसमें यह अभिव्यक्त होता है एक ओर कला को इतिहास और
दर्शन से अलग ज़रूर करता है परन्तु फिर यह कला को एक रूपक या अलेगरी बना देता है।
पीछे हमने देखा था कि बेंजामिन ने ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ को ज्ञान का ही एक प्रकार मानते
हुए वास्तविक अनुभव से इसकी एकता और भिन्नता को स्पष्ट किया था। वहां अनुभव, संवेदनात्मक ज्ञान के रूप में ज्ञान का सन्दर्भ बन कर
आता है। जबकि उनका तादात्म्य भाषा की मध्यस्थता से संभव होता था। कला के क्षेत्र
में अनुभव कलात्मक सन्दर्भ के प्रतीक के रूप में आता है। दूसरे शब्दों में कहें तो
संवेदनात्मक ज्ञान कलात्मक सन्दर्भ में संवेदनाओं के प्रतीक या सिंबल की तरह आता
है, जबकि ज्ञानात्मक संवेदनाएं भाषा की
मध्यस्थता में ज्ञान से प्रसूत होती है। क्रोंचे अलेगरी या रूपक को ‘विचार या बिम्ब’ के विरोधों की बाहरी एकता मानता है, जहां यह माना जाता है कि फलां बिम्ब फलां विचार को
आवश्यक रूप से पुनर्प्रस्तुत करता है। परन्तु क्रोंचे के अनुसार प्रतीक या बिम्ब
के रूप में संवेदनात्मक ज्ञान बिम्ब और विचार की आतंरिक एकता है। इसलिए क्रोंचे के
लिए ज्ञानात्मक संवेदना स्वयं में पूर्ण कला है वहाँ ज्ञानात्मक संवेदना का
हस्तक्षेप अन्तःप्रज्ञा के रूप में कला की स्वायत्ता को भंग करने वाला है क्योंकि
वहां विचार और बिम्ब की बाहरी एकता स्थापित होती है। यह कला के आध्यात्मिक कर्म
में अन्तर्निहित विश्वात्मा की एकता को खंडित करने वाली है। क्रोंचे के लिए प्रतीति
और प्रत्यय की आतंरिक एकता से भिन्न कल्पना या अन्तःप्रज्ञा को नहीं सोचा जा सकता।
प्रतीक में विचार प्रतीकात्मक पुनर्प्रस्तुति के रूप में ही सोचा जा सकता है और
प्रतीक बिना विचार के खुद को पुनर्प्रस्तुत कर ही नहीं सकता। इसलिए क्रोंचे के लिए
विचार पुनर्प्रस्तुति में पूर्णतः घुल मिल कर आता है। कला की रोमैंटिक धारणा ऐसी
स्थिति में अनुभव की प्राथमिकता को सामने रखती है, जबकि शास्त्रीयतावाद पुनर्प्रस्तुति को। इस द्वैत का
सही निराकरण क्रोंचे के अनुसार इस ऐतिहासिक सच्चाई में निहित है कि अन्तःप्रज्ञा
की तारतम्यता और एकता का आधार अनुभव ही होता है। क्रोंचे लिखता है कि अन्तःप्रज्ञा
केवल अनुभवाश्रित और अनुभवप्रसूत हो कर ही अन्तःप्रज्ञा है। विचार नहीं बल्कि
अनुभव कला को प्रतीक बनाता है। ‘ कला में अनुभव ही आकांक्षा के रूप में पुनर्प्रस्तुत होता है और
पुनर्प्रस्तुति स्वयं उसकी आकांक्षा है’।[24] आत्मा की किसी अवस्था विशेष या
कोई मनोवेग ही बिखरे हुए बिम्बों को एकता प्रदान करता है। ये हृदय से आने वाले भाव
हैं। इसी अर्थ में कलात्मक अन्तःप्रज्ञा क्रोंचे के लिए हमेशा ‘प्रगीतात्मक’ हैं। उसके यहाँ कलात्मक अन्तःप्रज्ञा और प्रगीत पर्याय हैं विशेष्य-विशेषण नहीं। सच्ची अन्तःप्रज्ञा जीवन्तता है और
इसलिए स्वयं जैविक (organic) है। इसी अर्थ में वह शुद्ध
अन्तःप्रज्ञा के बिम्बों के ढेर से अलग कला की जीवंत धारणा है। इस प्रकार क्रोंचे
अन्तःप्रज्ञा के रूप में कला को जीववैज्ञानिक आधार भी देने की कोशिश करता है।
रूप और अंतर्वस्तु संबंधी बहसों की एकपक्षीयता की
आलोचना करते हुए क्रोंचे कहता है कि इनके बीच की एकता कोई ‘मृत एकता’ नहीं है। इनके बीच का कलात्मक संबंध पूर्वनिर्धारित संश्लेष का है। ‘अनुभवहीन बिम्ब शून्य है और बिम्बविहीन अनुभव अंधा’। क्रोंचे के लिए यह अनुभवमय बिम्ब और बिम्बमय अनुभव
की आतंरिक एकता है। परन्तु ऐसी स्थिति में यह सवाल उठाया जा सकता है कि आत्मा की
अवस्था या अनुभव के रूप में तब अन्तःप्रज्ञा की अंतर्वस्तु तो उसके बाहर है, ऐसी स्थिति में आतंरिक एकता कैसे बन सकती है। यह सवाल
क्रोंचे के खिलाफ शुक्ल जी का एक महत्वपूर्ण आरोप है। इस आरोप का निराकरण क्रोंचे
यह कह कर करता है कि आत्मा की अवस्था के रूप में अनुभव कोई विशिष्ट अंतर्वस्तु
नहीं है बल्कि अन्तःप्रज्ञामय संपूर्ण विश्व ही है।[25]इस प्रकार क्रोंचे के लिए
अन्तःप्रज्ञा मुख्यतः भावात्मक है। कलात्मक अन्तःप्रज्ञा अपनी अभिव्यंजना से अलग
नहीं है। इस अर्थ में क्रोंचे के लिए अन्तःप्रज्ञा और अभिव्यंजना पर्याय हैं। कला
अभिव्यंजित हो कर ही कला है। कवि के मन ही मन में बनने वाली सुन्दर कल्पनाएँ कविता
नहीं होती। भाषा में अभिव्यक्त कविता के अतिरिक्त कविता का कहीं और अस्तित्व हमें
नहीं मिलता। कल्पना या कलात्मक अन्तःप्रज्ञा का पुनुरुत्पादन लेखक अपने व्यावहारिक
क्रियाओं से करता है। चित्रकार रंगों और ब्रशों से और कवि शब्दों से यह काम करता
है। इस पुनुर्त्पादन में कलाकारों को तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता होती है। क्रोंचे
के अनुसार कलाकर्म में केवल तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता होती है अनुमानाश्रित ज्ञान
की नहीं। क्रोंचे कहता है कि अन्तःप्रज्ञा से भौतिक वस्तु के रूप में कला का
रूपांतरण वैसे ही होता है जैसे इच्छा या आर्थिक श्रम का रूपांतरण वस्तुओं या माल
में होता है। यद्यपि क्रोंचे इसे ऊपरी सादृश्यता बताता है लेकिन इसमें निहित है कि
कलाकार के रूप में कला उत्पादन में रत श्रमिक का आध्यात्मिक श्रम ही उत्पादन के
औजारों की सहायता से कलात्मक उत्पादन में रूपांतरित होता है। ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ रूपी कच्चा माल कलात्मक प्रक्रिया में श्रम का ही विशिष्ट
आध्यात्मिक रूप है जो उत्पाद में रूपांतरित होता है।[26]
अन्तःप्रज्ञा और अभिव्यंजना अभिन्न हैं। ऐसी स्थिति
में क्रोंचे कला में औचित्य या अलंकार को स्वयं अभिव्यंजना में अनुस्यूत मानता है।
उनका अलग से निर्धारण और उनके सहारे वर्गीकरण का प्रयास उसके सामने महत्त्वहीन है।
कविता की आलोचना के लिए संभावित क्षेत्र भाषा के अध्ययन में ही है। कविता और भाषा
का तादात्म्य एक अनिवार्य परिणति है क्योंकि कला अन्तःप्रज्ञा है और अन्तःप्रज्ञा
अभिव्यंजना। भाषा का ज्ञान काव्यकर्म के लिए अनिवार्य तकनीकी ज्ञान है। इस लिहाज
से क्रोंचे हर मनुष्य को कवि मानता है क्योंकि वह अपने भावों और संवेदनाओं को भाषा
में अभिव्यंजित या अभिव्यक्त करता है। यह सही है कि ऐसी अभिव्यंजना अधिकांशतः
संवादपरक होती है। परन्तु केवल इसी आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि गद्यात्मक, प्रगीतात्मक, नाटकीय या एकालाप के मुकाबले इनकी भाषा एकदम अलग और हीन होती है। मनुष्य होने
के नाते कलाकार खुद को सामान्य मनुष्यता से अलग नहीं मान सकता क्योंकि कविता अपनी
शक्ति आत्माओं को जोड़ने में ही प्राप्त करती है। इस लिहाज से कविता यदि भाषा के
स्तर को ऊँचा उठाती है तो इसलिए नहीं की वह देवभाषा बन जाए, क्योंकि तब वह मनुष्यों की समझ में नहीं आ सकती। यह
ऊँचाई आसमान के ऊपर नहीं वरन् मनुष्यों के भीतर की ऊँचाई है। क्रोंचे के अनुसार
कला या कविता के क्षेत्र में भी सच्चा लोकतंत्र और सच्ची कुलीनशाही एक दूसरे से
अभिन्न हो जाती है। भाषा विज्ञान में शोध की दो धाराओं को क्रोंचे अनावश्यक बताता
है। शरीरक्रिया विज्ञान, मनोविज्ञान या शरीर-मनोविज्ञान की पद्धति से भाषाविज्ञान को मुक्त करना
ज़रूरी है। साथ ही साथ इसके विरोध में विकसित होने वाली भाषा के परम्परागत उद्गम की
व्याख्या वाली रहस्यमय धारणा से भी भाषाविज्ञान को मुक्त होनी की ज़रूरत है । यह
परम्परागत धारणा भाषा को बिम्ब के बदले चिह्न मानती है। चिह्न किसी संकेतक वस्तु
का होता है जबकि बिम्ब चिह्न और चिह्नित वस्तु दोनों की एकता है। स्वयं में चिह्न
है। जहाँ बिम्ब कल्पना का स्वतःस्फूर्त कार्य है वहीं संकेत के लिए मनुष्यों के
बीच आपसी सहमति आवश्यक है और इसलिए वह भाषा को पूर्वकल्पित मानता है। ऐसी स्थिति
में बार बार अर्थ के उद्गम का स्रोत ईश्वर की ओर लौट जाता है या दूसरे शब्दों में
शब्द ही ईश्वर हो जाता है। इस प्रकार भाषा का कारण अज्ञात हो जाता है।
क्रोंचे कहता है कि ‘अन्तःप्रज्ञा’ हमेशा नवीन होती चलती है। आत्मा की हर अवस्था वैयक्तिक होती है। इसलिए
अन्तःप्रज्ञा अनंत है और उसे ख़ास खांचे में बांटना असंभव है। इस वैयक्तिकता और
सार्वभौमिकता की तात्कालिकता के अतिरिक्त कलाकार और कला के भावक के पास और किसी
चीज़ की ज़रूरत नहीं होती। दूसरे शब्दों में कहें तो यह निजबद्ध सार्वभौम (universal individualized) है। सार्वभौमिक कलात्मक
क्रियाव्यापार है जो आत्मा के अवस्था विशेष की सघन पुनर्प्रस्तुति है। क्रोंचे के
लिए यह कला की वैयक्तिकता और स्वायत्तता दोनों है। ‘अन्तःप्रज्ञा’ के रूप में यह कला का व्यक्ति-स्वातान्त्र्यवाद है। (The true
doctrine of the individuality of Art)। यह सिद्धांत क्रोंचे के अनुसार जितना अराजक है उतना
उदार नहीं। अगर अराजक है तो फिर ज्ञान से इसका संबंध कैसे होगा? क्रोंचे कहता है कि इस स्थिति में कला के अमूर्त
वर्गीकरण के बदले एक जेनेटिक और ठोस वर्गीकरण की आवश्यकता है। यह जेनेटिक या ठोस
वर्गीकरण खुद इतिहास है जहां हर कलात्मक क्रिया अपना विशिष्ट महत्त्व पा लेती है।
आत्मा के विकास की अलग-अलग क्रमागत और अनिवार्य अवस्थाओं
के रूप में इतिहास के भीतर वह एक दूसरे से जुड़ी दिखाई देती है। शुद्ध अन्तःप्रज्ञा
के रूप में कला की पूर्ण स्वतंत्रता का दावा करने वाला रोमैंटिक ‘कला कला के लिए’ इस बात को नहीं समझ पाता कि परम या विश्वात्मा को छोड़
और कोई भी पूर्ण स्वतंत्र नहीं है। स्वयं इतिहास को छोड़ और कोई भी पूर्ण स्वतंत्र
नहीं है।
स्वतंत्रता रिश्तों की अवधारणा है। क्रोंचे कहता है
कि अगर हर यथार्थ पूर्ण स्वतंत्र होता तो वे एक दूसरे के आमने सामने खड़े परमों का
क्रम होता या दूसरे शब्दों में आमने सामने खड़ी शून्यताओं का क्रम ही यथार्थ होता।
किसी रूप की स्वतंत्रता उसके अंतर्वस्तु की स्वतंत्रता पर निर्भर है। इस लिहाज से
प्रत्येक संवेदना या मनोवेग अगर परम स्वतंत्रता चाहता तो कला कभी रूपग्रहण ही नहीं
कर पाती। ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता केवल आपसी निर्भरता में ही सोची जा सकती है।
सभी आध्यात्मिक क्रियाओं की स्वतंत्रता उनकी आपसी निर्भरता पर ही टिकी होती है। यहाँ
हर आध्यात्मिक क्रिया दूसरी आध्यात्मिक क्रिया की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
हर कला के साथ कलाकार की असंतुष्टि भी चली आती है। कला कलाकार को जितनी संतुष्टि
देता है उतनी ही असंतुष्टि भी। जब कलाकार अपनी कला को अपने ही सामने रख कर उसपर
मनन करना शुरू करता है तब वह कलात्मक क्रियाएं नहीं कर रहा होता। क्रोंचे लिखता है
कि यह मानवीय आत्मा का दूसरा धरातल है जो पहली के साथ ही साथ लगा आता है। जहां
पहला धरातल आत्मा की तात्कालिक अभिव्यक्ति का था वहीं दूसरा और फिर उससे लगा तीसरा
धरातल कालिक (mediated) अभिव्यक्तियों का होता है। यह
दूसरा धरातल उसके आलोचक/दार्शनिक का धरातल का होता है। अब
वह कला को समझने और उसकी व्याख्या के काम में प्रवृत्त होता है। क्रोंचे इसे बिम्ब
की आत्मकथा के स्वत्व के रूप में बोध कहता है। अनुभव और कल्पना का पूर्वनिर्धारित
कलात्मक संश्लेष अब एक नए संश्लेष की तरह प्रकट होता है जो कि पुनर्प्रस्तुति और वर्गों का संश्लेष है।
दूसरे शब्दों में यह स्तर पूर्वनिर्धारित तार्किक संश्लेष का है। क्रोंचे कहता है
कि जो कुछ हुआ उसकी चेतना इतिहास है और सार्वभौम की चेतना दर्शन। परन्तु इस दूसरे
स्तर पर भी आत्मा में एक असंतुष्टि लगी रहती है। ज्ञान आत्मा को तृप्ति नहीं देता वह क्रिया चाहती है।
सैद्धांतिक कर्म व्यावहारिक कर्म की ओर अग्रसर होता है। अग्रसर होने की यह इच्छा
कहीं बाहर से नहीं पैदा होती और न व्यवहार सैद्धांतिक कर्म की तुलना में कोई हीन
कर्म है। यह खुद सिद्धांत में ही शामिल है कि वह व्यवहार की ओर ले जाएगा। क्रोंचे
लिखता है कि हमारे विचार एक ऐतिहासिक दुनिया के ऐतिहासिक विचार होते हैं, एक विकास के विकास की प्रक्रिया। इसलिए यहाँ खुद ही
एक नए यथार्थ का जन्म होता है इसलिए अलग से किसी यथार्थ की ज़रूरत यहाँ नहीं होती।
यह नया यथार्थ आत्मा की अभिव्यक्ति का तीसरा धरातल है जो आर्थिक और नैतिक जीवन
क्रियाएं हैं। अब पूर्वनिर्धारित तार्किक संश्लेष पूर्वनिर्धारित व्यावहारिक
संश्लेष में बदल जाता है। पर यह व्यवहार कवि के लिए नए अनुभव, नए मनोवेग, नयी इच्छाओं का पैदा होना है जिसके सहारे वह एक नयी अन्तःप्रज्ञा या नयी कला
की ओर प्रवृत्त होता है। इस क्रम में चक्र लौट कर फिर पहले स्तर पर आता है। पर यह
लौटना यहाँ एक नयी प्रक्रिया की शुरुआत है। क्रोंचे कहता है कि इस पूरी प्रक्रिया
में आत्मा की एकता अखंड रहती है और न ही वह किसी एक स्तर पर पूर्ण ही होती है।
वास्तविक संश्लेष न केवल कलात्मक है न केवल तार्किक और न ही केवल व्यावहारिक बल्कि
संश्लेष के संश्लेष के रूप में स्वयं विश्वात्मा ही है। कलाकार पर नैतिकता और
दार्शनिक निषेध का कोई मतलब नहीं होता भले ही नैतिक रूप से वह पतित और दार्शनिक
रूप से खोखला हो। वह अपनी कला में ही वह कर्तव्य शामिल मानता है और इसी कारण कला
के प्रति तीव्र भावावेगों और उच्च कर्त्तव्यों की चेतना से लैस होता है। इस अर्थ
में कवि या कलाकार हमेशा नैतिक होता है।
क्रोंचे के इस पूरे चक्र में आप किसी स्तर पर विद्रोह
कर इससे मुक्त होना चाहें तो भी मुक्त नहीं हो सकते। सारी प्रक्रिया का शुद्ध
साक्षी होना असंभव है क्योंकि इतिहास मात्र को छोड़ कर कोई अन्य शुद्ध साक्षी नहीं
हो सकता और निकास का अर्थ है मृत्यु। दर्शन कला के आधार पर ही संभव है और कला
नैतिक व्यावहारिक आधार पर। व्यवहार भी क्रोंचे के लिए तभी व्यवहार है जब वह आकांक्षाओं के और कल्पनाओं
द्वारा गतिशील और नित-नित नूतन होता जाये। वह कहता है कि
जो लोग इस चक्र को ईश्वर, प्रेम या और किसी नाम से तोड़ना
चाहता है दूसरे शब्दों में विचार के विचार के नाम पर इस चक्र को भंग करना चाहते
हैं और सिद्धांत और व्यवहार की पूर्ण एकता चाहते हैं उन्हें पता होना चाहिए कि यह
एकता पहले से ही इस चक्र में शामिल है और चक्र के लिए ही वहां मौजूद है। इसलिए
क्रोंचे कला की ऐतिहासिक और सौन्दर्यशास्त्रीय आलोचना को अभिन्न मानता है। इस
प्रकार इतिहास स्वयं में विचार की पूर्णता है और जो लोग इतिहास बदलने के नाम पर
सिद्धांत और व्यवहार की बात करते हैं उन्हें पता होना चाहिए कि यह एकता पहले से ही
इतिहास में शामिल है, खुद इतिहास के लिए ही है। इतिहास
या परम की गति स्वयं अंतर्विरोध से ही चालित है जिसकी पूर्णता क्रोंचे के चक्र में
ही है। मृत्यु को छोड़ इतिहास से निकलने का कोई और रास्ता संभव नहीं है। ग्राम्शी
ठीक ही कहते थे कि क्रोंचे ने व्यवहार के दर्शन को मनोवेगों का दर्शन बना दिया था।
क्रोंचे के संबंध में यह चर्चा दो कारणों से
महत्वपूर्ण है। पहली तो शुक्ल जी के ‘कलावाद’ विरोध के अंतर्विरोधों को स्पष्ट
करने के लिए दूसरी हिंदी में ‘कलावाद’ संबंधी परवर्ती बहसों के पूर्वाभास
के रूप में भी। नामवर जी ने एक अर्थ में ठीक ही कहा था कि कलावाद और क्रोंचे का
विरोध ‘आचार्य का हवा में ही मुट्ठी मारना’ था, क्योंकि उस समय तक हिंदी साहित्य में कलावाद नाम से कोई आंदोलन था ही नहीं। तब
आखिर ऐसा क्या था कि उन्हें क्रोंचे की आलोचना करनी पड़ी। शुक्ल जी के सिद्धांत में
जो ज्ञान-दशा और भाव या रसदशा के अद्वैत के
रूप में परम एकता कल्पित की गयी थी और दूसरी ओर कबीर आदि संतों की वैयक्तिकता में
अन्तर्निहित स्वतंत्रता की घोषणा का जो निषेध था, इन दोनों पक्षों की आलोचना क्रोंचे के यहाँ थी। दूसरे
शब्दों में क्रोंचे ने कला की वैयक्तिकता में सार्वजनीनता दिखा कर उसे इतिहास में
और इतिहास के लिए बताया और कलात्मक व्यवहारों को एक भावात्मक या मनोवेगपूर्ण पैशन
में बदल दिया। शुक्ल जी की नैतिकता कलात्मक व्यवहार की नैतिकता नहीं थी बल्कि धर्म
की नैतिकता थी। यह नैतिकता पहले से ही संसार में वास्तविक है। नैतिकता अंतर्वस्तु
के रूप में पूर्वनिर्धारित संश्लेष है। यह नैतिक पूर्वनिर्धारित संश्लेष ही यथार्थ
है। इस नैतिक पूर्वनिर्धारित संश्लेष को क्रोंचे अस्वीकार नहीं करता और फिर भी कलात्मक
अन्तःप्रज्ञा की वैयक्तिकता की घोषणा करता है। फर्क इतना था कि शुक्ल अवतारवाद को
मनोवेगों का संगठनकर्ता मानते थे क्रोंचे इतिहासवाद को। ध्यान रखना चाहिए कि राम
परमब्रह्म का सगुण अवतार ज़रूर थे पर मसीह की तरह ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं। ग्राम्शी
ने क्रोंचे की शुद्ध इहलौकिकता में छुपे धार्मिक और अटकलपंथी दर्शन के सबसे भ्रमित
करने वाले स्वरूप का उद्घाटन किया था।नैतिकता और धर्मदर्शन की यह इहलौकिक एकता
शुक्ल जी के लिए उलझन पैदा करने वाली थी। क्रोंचे और शुक्ल दोनों अपनी भिन्न अवस्थितियों
में शिक्षित मध्यवर्ग के लिए एक व्यावहारिक विचारधारा का सिद्धांत बना रहे थे।शुक्ल
जी ने क्रोंचे की आलोचना मुख्यतः दो सन्दर्भों में की है। १. अन्तःप्रज्ञा के ज्ञानात्मक चरित्र को लेकर, २. आलोचना के लिए रस, अलंकार आदि की अनावश्यकता या
अनौचित्य को लेकर।
शुक्ल जी के अनुसार कला के अन्य रूपों के भीतर
साहित्य की गणना करने मात्र से पश्चिम में ऐसे ऐसे सिद्धांतों का निर्माण हो रहा
था जो केवल बाहरी रूप को ही कला मानता है। क्रोंचे के सिद्धांतों की ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि बताते हुए शुक्ल जी ने आधुनिक इटली की बेल-बूटों वाली नक्काशीदारी की परम्परा का उल्लेख किया है। उनके अनुसार ‘चित्रकारी, मूर्तिकारी, नक्काशी, बेल-बूटों की इमारती सजावट’ के कामों के लिए पुनर्जागरण काल से ही इटली प्रसिद्द रहा है। इन्हीं कामों के
बीच काव्य को जगह देने से काव्य को भी एक सजावटी वस्तु माना जाने लगा था। इन कलाओं
में जैसा अनुरंजन करने वाला सौन्दर्यविधान होता है वैसे ही सौन्दर्यविधान की
कल्पना काव्य के बारे में भी की जाने लगी थी। शुक्ल जी के अनुसार जैसे इन सजावटी
कलाओं का जीवन की किसी वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता वैसे ही माना जाने लगा
कि काव्य का भी वास्तविक जीवन से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। कलाकार या शिल्पकार
के मन की काल्पनिक उद्भावनाएँ रंग रूप में जैसे प्रस्फुटित होती हैं वैसे ही रूपों
और आकारों को वे बेलबूटों और नक्काशियों में अभिव्यंजित कर देते हैं। वे कल्पना की
स्वतंत्र सृष्टि होते हैं, सृष्टि के किसी खंड का अनुकरण नहीं। शुक्ल जी काव्य को अन्य कलाओं से पृथक
करते हुए उसकी अपनी पृथक सत्ता मानते हैं जिसकी अनिवार्य भिन्नता काव्य के अनुकरण-धर्मी चरित्र में है। जीवन के अनुकरण के रूप में
काव्य की यह शास्त्रीय परिभाषा अन्यत्र अभिव्यक्तिवाद के सन्दर्भ में आता था। वहां
काव्य जगत् की अभिव्यक्ति है अनुकरण नहीं। शुक्ल जगत् की अभिव्यक्ति को काव्य जबकि
मन की कल्पना की अभिव्यक्ति को क्रोंचे का ‘अभिव्यंजनावाद’ कहते हैं। अन्य कला रूपों से काव्य
की यह भिन्नता एक बहुत ही कमज़ोर तर्क पर आश्रित थी। इसका मतलब यह था कि शुक्ल कला
के अन्य रूपों को नितांत काल्पनिक और अयाथार्थमूलक मानते थे। अनुकरण कहने से स्वयं
शुक्ल के काव्य की सत्यता का दावा थोड़ा हल्का पड़ जा रहा था, जो कि अन्यथा अभिव्यक्तिवाद में ज्यादा मजबूत था।
ब्रह्म की अभिव्यक्ति होने से जगत् सत्य था और जगत् की अभिव्यक्ति के कारण काव्य
सत्य था। अनुकरण के अर्थ में सत्यता का दावा मलिन पड़ जाता है। प्लेटो के यहाँ
काव्य अनुकरण धर्मी होने के कारण सत्य से दूर था। बहरहाल शुक्ल जी ने कहा कि
बेलबूटों की सजावट वाली इसी “धारणा को बहुत दूर तक घसीटकर इसे शास्त्रीय रूप देने का सबसे प्रकांड प्रयास
इटली के क्रोंचे ने अपने सौंदर्यशास्त्र में किया जिसका प्रभाव केवल काव्य चर्चा
में ही नहीं, काव्य रचना में भी बहुत कुछ दिखाई
पड़ता है।”[27]
शुक्ल जी ने कहा कि क्रोंचे ने काव्य के मूल में कोई
सच्चा मार्मिक तथ्य, सच्ची भावानुभूति न मानकर ‘बाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति दोनों से परे जो
आत्मा है, उसकी निज की क्रिया’ कहा है। हमने पीछे देखा था कि क्रोंचे का ‘विश्वात्मा’ हीगेलीय परम का ही एक रूपांतरण था न कि जीवन और जगत् से स्वतंत्र ईसाई संत
भक्तों के किसी रहस्यवादी अर्थ में। यह विश्वात्मा पूर्णतः इहलौकिक थी। इस बात की
संभावना कम ही है कि शुक्ल क्रोंचे के ‘परम’ विश्वात्मा की वास्तविक परिभाषा से
अपरिचित रहे हों। ऐसी स्थिति में शुक्ल जी के द्वारा क्रोंचे की विश्वात्मा को
रहस्यवादी पारलौकिकता के साथ एकमेक करने का कारण अन्यत्र था। शुक्ल जी के अनुसार यह
एक ओर तो कल्पना को असीम शक्ति प्रदान करता है और स्वयं ज्ञान सदृश्य बता कर कविता
को जीवन से दूर करता है दूसरी ओर धार्मिक इल्हामी रहस्यभावना का प्रचार भी करता है।शुक्ल
जी ने बीसवीं सदी की इस ‘प्रभावी’ प्रवृत्ति को रोमैंटिक आंदोलन की ‘शुद्ध अन्तःप्रज्ञा’, ‘कल्पना की अतिशयता’ और ‘कला कला के लिए’ जैसी धारणाओं को जिलाने का प्रयास
माना। इस प्रकार शुक्ल जी ‘कल्पना’, ‘अभिव्यंजना’ या ‘स्वयंप्रकाशज्ञान’ आदि धारणाओं की आलोचना करते हुए
मुख्यतः रोमैंटिक आंदोलन में उभरे कलावाद की आलोचना करते हैं। क्रोंचे के ‘स्वयंप्रकाश ज्ञान’ या ‘अन्तःप्रज्ञा के रूप में कला’ की धारणाओं को शुक्ल जी एक भिन्न अर्थ प्रदान करते हैं। क्रोंचे की
अन्तःप्रज्ञा मूलतः भावात्मक थी जिसमें बुद्धि अनिवार्यतः घुली मिली रहती है ,इस बात को शुक्ल जी स्पष्टतः सामने नहीं रखते। शुक्ल
जी के अनुसार “स्वयंप्रकाश ज्ञान का अभिप्राय है
मन में आप से आप- बिना बुद्धि की क्रिया या सोच
विचार के- उठी हुई मूर्त भावना, जिसकी वास्तविकता अवास्तविकता का कोई सवाल नहीं है।”[28]
हमने पीछे देखा कि क्रोंचे के यहाँ संवेदनात्मक ज्ञान
के रूप में ‘अन्तःप्रज्ञा’ ज्ञान का ही एक रूप है। यह बिना बुद्धि की क्रिया
नहीं है। इसलिए क्रोंचे ने इसे रोमैंटिक शुद्ध अन्तःप्रज्ञा से अलग किया है। कल्पना और ज्ञान के मामले में शुक्ल जी का अपना मत
क्रोंचे से बहुत भिन्न नहीं है। शुक्ल जी ज्ञान या बुद्धि तथा भाव या हृदय के
सामंजस्य या संश्लेष को इस अर्थ में देखते थे कि बुद्धि स्वतंत्र रूप से ज्ञान
सम्पादन करे और हृदय स्वतंत्र रूप से भाव प्रदर्शन। दोनों एक दूसरे के कार्य में
हस्तक्षेप न करे। अन्तःकरण का स्वयं ज्ञान स्वरूप होना उन्हें स्वीकार नहीं था।
क्रोंचे दर्शन को जिस प्रकार अन्तःप्रज्ञा से अलग करता है और कल्पना में विचार और
बिम्ब का तादात्म बताता है उसे शुक्ल जी को अस्वीकार करना असंभव था, क्योंकि क्रोंचे ने शुक्ल जी के ही अर्थों में बुद्धि
और भाव की स्वतंत्रता और भिन्नता दोनों को स्पष्ट किया है। पर संबंधों की व्याख्या
दोनों में अलग है। शुक्ल जी के अनुसार प्रतिभा या कल्पना इन्द्रियज अनुभवों या
प्रत्यक्ष अनुभवों में इन्द्रियं द्वारा ‘प्राप्त सामग्री’ के भिन्न-भिन्न रूपों का समन्वय करती है। इन्द्रियों में मन भी
शामिल है और वह दरअस्ल ‘जड़ बुद्धि’ है। इस प्रकार जड़ बुद्धि और शुद्ध बुद्धि का द्वैत
प्रत्याक्षानुभव में बना रहता है। यह द्वैत जिस बाहरी एकता से बंधा है वह शुक्ल जी
के यहाँ भी ‘विश्वात्मा’, अकर्ता और सर्वगत स्वरूप है। जगत् के अनेक तथ्य जो
प्रत्याक्षनुभव से बाहर हैं और स्थूल बुद्धि को प्रत्यक्ष नहीं होते वहां
शुद्धबुद्धि अपनी ‘सूक्ष्म क्रिया’ द्वारा विशेष मनन और चिंतन द्वारा उसका निरूपण करती
है और पीछे प्रतिभा या कल्पना जड़बुद्धि के बदले अनुमान के इशारे पर काम करती है।
जड़बुद्धि या मन की संवेदनाएं वह कच्चा माल है जिसके सहारे कल्पना या प्रतिभा काव्य
रचना में प्रवृत्त होती है। प्रतिभा या कल्पना कुछ मूल भाव रूपी वर्गों में कच्चे
माल को व्यवस्थित करती है जिससे कविता बनती है। इस प्रकार शुक्ल जी के लिए भी
कल्पना या प्रतिभा कलात्मक पूर्वनिर्धारित संश्लेष है। लेकिन इस शुद्ध मनोविज्ञानी
धारणा में बुद्धि या ज्ञान का योगदान नहीं है। दूसरी ओर क्रोंचे के लिए प्रतिभा या
कल्पना या अन्तःप्रज्ञा विचार या संवेदनात्मक ज्ञान और अनुभव या संवेदनाओं की
आतंरिक एकता से अभिन्न है।
शुक्ल जी ने निश्चित रूप से प्रतिभा या कल्पना के
बारे में जो धारणा प्रस्तुत की है वह अभिनवगुप्त की प्रतिभा संबंधी धारणा का ही
आधुनिक रूप है। अभिनवगुप्त के यहाँ प्रतिभा का क्या मतलब था इसे संक्षेप में समझ
लेना चाहिए। आनन्दवर्धन के अनुसार प्रतिभा वह शक्ति है जो ध्वन्यार्थ से स्पंदित
काव्यकृति को उत्पन्न करती है। बिना प्रतिभा के कोई महाकवि नहीं हो सकता। प्रतिभा
कवि और सहृदय दोनों में ज़रूरी है। यह प्रमातृनिष्ठ अनुभव है। इसकी उपलब्धि
वस्तुनिष्ठ रूप से नहीं हो सकती। अभिनवगुप्त ने कवि-प्रतिभा को प्रज्ञात्मक सामर्थ्य (बुद्धि) माना है जो नवोन्मेषशालिनी है। यह खुद को “असंख्य रूपों में प्रदर्शित करती है और पुराने विषयों
के प्रस्तुतीकरण में भी व्यंगार्थों की विविधता को प्रकट करती है।”[29] प्रज्ञात्मक सामर्थ्य होकर भी यह
अनुमान या तर्कशक्ति का विषय नहीं है। स्पष्टतः प्रतिभा को बुद्धि मानते हुए भी
दर्शन या विज्ञान की तार्किकता से इसे भिन्न माना गया है। अभिनवगुप्त कहते हैं कि
प्रतिभा ‘अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा’ है। सुन्दर काव्य की रचना में इस दृष्टि का केवल
अनुभव किया जा सकता है। सामान्य प्रज्ञा से भिन्न यह
प्रतिभा ‘आस्वाद्यस्थायी भाव’ को ध्वनित करने वाली वाक्य-रचना(संघटना) में पर्यवसित होती है। इस प्रकार
कह सकते हैं कि प्रतिभा अभिव्यंजित हो काव्य होती है। अगर ‘स्थायीभाव’ को आत्मा की ‘विशेषावस्था’ के रूप में कुछ क्षणों के लिए स्वीकार कर लिया जाये( यद्यपि ‘स्थायी भाव’ की किसी मनोवैज्ञानिक धारणा का
क्रोंचे विरोध करता है) तो प्रतिभा और अन्तःप्रज्ञा में
अंतर करना मुश्किल हो जाएगा। ‘सामर्थ्य’ के रूप में हम क्रोंचे के ‘वाइटल ओर्गानिस्म’ जैसी धारणा को भी प्रतिभा की धारणा
में शामिल देख सकते हैं। पाठक के हृदय में यह दृष्टि सहसा उद्भासित होती है।
शुक्ल जी के यहाँ प्रज्ञात्मक प्रतिभा अनुभवगम्य होने
के नाते शुद्ध हृदय का विषय हो गयी और उसका ज्ञानात्मक स्वरूप पीछे चला गया। यह
बुद्धि की सामर्थ्य नहीं रह गयी। इस प्रकार प्रतिभा के रूप में अनुभव और बुद्धि की
एकता में अनुभव या बुद्धि की स्वतंत्रता का ज्ञानात्मक पक्ष शुक्ल जी के यहाँ
धूमिल हो गया। अभिनवगुप्त के शैवाद्वैत्वाद या अभिव्यक्तिवाद या आभासवाद की
केन्द्रीय स्थापनाओं से प्रतिभा संबंधिनी धारणा का अनिवार्य संबंध था। विषयता की
चेतना के बारे में ‘अभिव्यक्तिवाद’ में कोई संदेह नहीं है। विषयता का संबंध चाहे
प्रत्यक्ष उपलब्ध वस्तु से हो या फिर स्मरण और कल्पना का विषय बन कर। इस चेतना में
दो तत्त्व हैं- १. ज्ञान का साधन (प्रमाण) जो चैतन्य का बहिर्मुखी प्रकाश है जिसे हम चित् या बुद्धि कहते हैं। इससे वह
बाह्य वस्तु पर प्रकाश भेजता है। परन्तु जड़ प्रकृति का परिणाम होने से
अद्वैतवेदांत आदि में बुद्धि को भी जड़ कहा गया है। यह जड़बुद्धि भीतर से आने वाली
चेतना (आत्मा) के प्रकाश का और बाह्य पदार्थ के प्रतिबिम्ब की जड़
मिलनभूमि मात्र है। परन्तु आभासवादियों के मत से जो स्वयं प्रकाश शून्य हो वह
दूसरों को प्रकाशित नहीं कर सकता। इसलिए यहाँ स्वयं चित् का प्रकाश है। यह वस्तुओं
को प्रकाशित करने वाली, विश्व चैतन्य की परिमित अभिव्यक्ति
है। यह ‘स्वयंप्रकाश’ है। यह विषय की ओर उन्मुख होती है और अपने प्रतिबिम्ब
को ग्रहण करती है। पहला तत्त्व अर्थात् चैतन्य का बहिर्मुखी प्रकाश, उसके अनन्तर चेतना का प्रतिबिम्बग्रहण। यह उसकी
प्रभावित स्थिति है। अनुभव की स्थिति में या तो बाह्य पदार्थ का प्रतिबिम्ब या फिर
स्मृति या कल्पना में अंतर वस्तु का प्रतिबिम्ब। विषयता की इस चेतना को ही
शास्त्रीय शब्दावली में प्रतिभा कहते हैं। गणेश त्र्यं. देशपांडे के अनुसार “ विषयता की इस चेतना की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। यह चैतन्य के अंतर्मुखी प्रकाश पर आश्रित है। चैतन्य
का यह अंतर्मुखी प्रकाश बुद्धि में बहिर्मुखी प्रकाश से मिल जाता है और उसे
नियंत्रित करता है। नियंत्रण करने वाला अंतर्मुखी प्रकाश महेश्वर (विश्वात्मा) का प्रकाश है। यह स्वतंत्र चिति है जो स्वप्न एवं कल्पना के सहित सम्पूर्ण
विषयता को प्रदर्शित करती है। यह कल्पनाशील चित्त है जो काव्य में प्रस्तुत तत्त्वों
के संस्थान को चित्रित करता है। यह स्वतंत्र इच्छा से युक्त है क्योंकि यह इच्छा
मात्र से वस्तुओं को उत्पन्न करने वाले योगी की भांति इस विश्व को अभिव्यक्त करता
है।”[30] इस प्रकार प्रतिभा चैतन्य का
बहिर्मुखी प्रकाश है जो उसके अंतर्मुखी प्रकाश पर अवलंबित है। इस अर्थ में प्रतिभा
स्वयं विश्वात्मा से अभिन्न है। इसलिए व्यक्ति का अनुभव आभासवाद में विश्वात्मा का
ही अनुभव है और आत्मा से अभिन्न रूप से जब साक्षात्कार किया जाता है तब प्रतिभा
सद्विद्या ही है। सद्विद्या आभासवाद में विश्वात्मा का वह तत्त्व है जिसमें क्रिया
की प्रधानता है। इसलिए आनन्दवर्धन ने लिखा था : ‘अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः| यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते ||’
प्रतिभा के सबंध में आभासवाद की इस व्याख्या के आधार
पर कवि के काव्यकर्म की वैयक्तिकता या सार्वभौम वैयक्तिकता को तथा उसके ज्ञानात्मक
आधार को यदि शुक्ल जी स्वीकार करते तो फिर कबीर आदि संतों के काव्य को नकारना उनके
लिए मुश्किल हो जाता। प्रतिभा स्वातंत्र्य शक्ति से उत्पन्न होती है। अभिनव के लिए
कवि के स्वातंत्र्य का प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण था। आभासवाद का यह वस्तुनिष्ठ
भाववाद क्रोंचे के भाववाद के बहुत करीब था। क्रोंचे के सौंदर्यशास्त्र की आलोचना
में शुक्ल जी बार- बार शब्द-शक्ति विवेचन पर जोर देते हैं। वाच्यार्थ से भिन्न
कविता नहीं होती। परन्तु इसकी सार्थकता उस व्यंग्य वस्तु से है जिसे वह ध्वनित
करती है। इस प्रक्रिया में वह मुख्यतः कविता की व्याख्या और आलोचना में भाषा के
पक्ष विवेचन के लिए और व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में इसकी उपयोगिता को सामने
रख रहे थे। शुक्ल जी लिखते हैं: “शब्द शक्ति, रस और अलंकार ये विषय विभाग काव्य
समीक्षा के लिए इतने उपयोगी हैं कि इनको अंतर्भूत करके संसार की नई पुरानी सब
प्रकार की कविताओं ओ बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक और स्वच्छ आलोचना हो सकती है।”[31] व्यावहारिक समीक्षा और काव्य के
वैज्ञानिक विवेचन पद्धति का विकास शुक्ल जी के सुझाए रस-अलंकार के विभागों को लेकर तो उतनी विकसित नहीं हो
पायी परन्तु इटली में क्रोंचे की ‘रूचि’ आधारित व्याख्या की आलोचना शब्द-शक्ति विवेचन के ढंग पर ज़रूर विकसित हुई।[32]
शुक्ल जी क्रोंचे के पृथकता के द्वंद्व की कोई सार्थक
आलोचना नहीं कर पाए। कवि-कलाकार से लेकर सहृदय पाठक तक कला
की अस्वादपरक एकता तथा रस निष्पत्ति और सतोद्रेक की अभिन्नता और एकता कलाकर्म की
प्रक्रिया पर ध्यान नहीं दे पाती। दूसरी ओर क्रोंचे के यहाँ कलाकर्म की सारी वैयक्तिकता
और आध्यात्मिक क्रियाकलाप की एकता को संश्लेष के संश्लेष के नाम पर परम इतिहासवाद
में निःशेष कर दिया जाता है। इस प्रकार क्रोंचे के यहाँ जो वृतात्त्मक प्रक्रिया
है वह हमेशा नवीन तो होती रहती है और इस अर्थ में क्रोंचे उसके दुहराव को ‘क्रांतिकारी’ भी कहता है लेकिन वह स्थिति परम इतिहास के रूप में पूर्वनिर्धारित संश्लेष ही
रह जाती है। ग्राम्शी द्वारा क्रोंचे की आलोचना में उसकी स्वतःस्फूर्तता का
स्वीकार भी शामिल है। उस आलोचना के विस्तार में जाने का यहाँ अवकाश नहीं है। शुक्ल
जी और क्रोंचे दोनों ही कलाकर्म को मनोवेगों (पैशन) में सीमित करते हैं।
[18] बेनेदित्तो क्रोंचे, द एसेंस ऑफ़ एस्थेटिक्स, (अन.)
डगलस अन्सेली. पृष्ठ-
३. लन्दन: विलियम हेन्मन, १९२१.
[22]वही. पृष्ठ-
6. “...[intuitive
or sensible knowledge] it aims at
claiming the autonomy of this more simple and elementary form of knowledge,
which has been compared to the dream (the dream, and, not the sleep) of the
theoretic life, in respect to which philosophy would be the waking.”
“Feeling, or state of the soul is not a particular content, but the whole
universe seen sub specie intuitionis; and outside it there is no other content
conceivable that is not also a different form of the intuitive form; not
thoughts, which are the whole universe sub specie cogitationis; not physical
things and mathematical beings, which are the whole universe sub specie
schematismi et abstractionis; not wills, which are the whole universe sub
specie volitionis.”
[26]क्रोंचे यहाँ उत्पाद के रूप में कला को श्रम के ही अलग अलग
क्षणों की प्रक्रियागत एकता के रूप में देखता है. इस अर्थ में कला आध्यात्मिक श्रम का उपयोग मूल्य है. क्रोंचे के बारे में ग्राम्शी ठीक ही कहते हैं कि उसका
पृथकता का दर्शन एक गैरपूँजीवादी समाज की कल्पना के लिए ही सही है. आलोचना के लिए देखें ग्राम्शी, फर्दर सेलेक्संस फ्रॉम प्रिज़न नोटबुक्स, ख़ास तौर से ‘द फिलोसफी ऑफ़ बेन्देत्तो क्रोंचे’.
(Q 8,10) सं.,अनु. डेरेक बुथमन. आकार,
डेल्ही- २०१४.
[29] गणेश त्र्यं. देशपांडे,
अभिनवगुप्त. अनु.
मिथिलेश चतुर्वेदी; पृष्ठ-१०३.. साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली- १९९५.
[32] डेला वोल्पे आदि
मार्क्सवादी आलोचकों ने क्रोंचे की आलोचना शब्द-शक्ति विवेचन की तर्ज पर किया है. देखें ‘क्रिटिक ऑफ़ टेस्ट’, गैल्वानो डेला
वोल्पे.
वर्सो, लन्दन-
१९९१.
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