अ. बुल्के की रामकथा : आकर्षण और इतिहास
फ़ादर
कामिल बुल्के को केदारनाथ सिंह तुलसी के हनुमान् की संज्ञा देते हैं। यह एक अद्भुत
बिम्ब है। आखिर क्या सोचकर कवि केदारनाथ ऐसा कहते हैं? भक्ति के आदर्श हनुमान्!
तुलसीदास से पहले भक्त के रूप में हनुमान् की कोई विशेष छवि नहीं थी। महाकवि तुलसी
का ही प्रताप था कि उन्होंने प्रतापी हनुमान् को भक्त शिरोमणि में बदल दिया! खुद
राम के चरित में “अग्या सम न सुसाहिब सेवा” के भक्ति आदर्श को चरितार्थ करने वाले
हनुमान्! आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले हनुमान्! माता सीता के भी परम सेवक
और हृदय में युगल भगवान् की छवि हमेशा धारण करने वाले हनुमान् खुद भी उस चित्र में
शामिल हो गए थे। भक्त से स्वयं लोकमानस के भगवान् में बदल जाने वाले हनुमान्। चिर
सानिध्य के आदर्श। यह स्वयं तुलसी की आत्म छवि थी। तुलसीदास को स्वयं के आदर्श पर
कितना विश्वास था इसका पता हमें ‘विनयपत्रिका’ या ‘हनुमन्बाहुक’ जैसी रचनाओं से
चलता है। भक्त की यह आत्म छवि तुलसीदास के द्वारा उत्तर भारत की हिंदी पट्टी को
दिया गया अनुपम और अद्वितीय उपहार था। शुक्लजी ने भक्ति के इसी आदर्श को
सैद्धांतिक रूप दिया था। जिस सेना की सहायता से अन्धकार पर विजय पानी थी उस सेना
के सबसे मधुर चरित्र हनुमान् थे। भरत भले ही राजा के आदर्श थे पर साधारण मनुष्यों
के तो हनुमान् ही थे। जो सेना भक्ति के धागे से बंधी होगी वही चिरविजयी होगी!
सच्चाई का धर्मचक्र हमेशा गतिशील रहेगा अगर शासक भरत जैसा भक्त हो और जनता के हृदय
में हमेशा भरत मिलाप का दृश्य। भक्ति के लिए आत्मदैन्य का चरमबोध और एक मिशनरी
व्यक्तित्व दोनों जरूरी हैं। शुक्ल जिसे भक्ति का सैद्धांतिक आधार प्रदान कर रहे
थे उसे बुल्के ने जीवन में उतार लिया था। परन्तु दोनों भिन्न दिशाओं से चलकर इस
आदर्श तक पहुंचे थे। शुक्ल भारतीय आत्म की खोज करते हुए और बुल्के ईसाई आत्म की
तलाश में चलते हुए। दोनों ही नैतिकता और सार्वभौमिकता का स्वयं में एक अनिवार्य
संबंध मानते थे। व्यावहार की नैतिकता स्वभावतः सार्वभौमिक मूल्यों की तरफ ले जाने
वाली होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि दोनों में फर्क नहीं है। शुक्ल होते तो बुल्के की
आलोचना करुणा और दुःख के अतिवाद के सन्दर्भ में करते। जबकि बुल्के शुक्ल के रसवाद
की हरसंभव आलोचना में रत थे। दोनों के अवतारवाद के आदर्श में अंतर था। बुल्के के लिए
ईश्वर मनुष्य के रूप में था, केवल लीला या अभिनय का पात्र नहीं। शुक्ल के लिए
बाहरी विश्व का प्रपंच रसों की व्यवस्था ही है, जहाँ स्वयं रस स्वरूप ईश्वर है।
बुल्के ईश्वर की इस रसवादी व्याख्या से संतुष्ट नहीं थे। उनका विश्वास था कि
सांसारिक व्यावहार में एक ऐसी समाज व्यवस्था संभव है जहाँ करुणा और प्रेम के सहारे
ईश्वर का राज्य वास्तविक हो। बुल्के की आस्था में एक ‘सांप्रदायिक गंध’ थी, जिसे
शुक्लजी हमेशा की तरह अपनी आलोचना का निशाना बनाते। परन्तु बुल्के ने जितनी सेवा
चर्च के लिए की थी, उतनी ही भक्ति रामकथा, तुलसी और हिंदी की भी की थी। बुल्के के
लिए इन दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं था। शुक्ल इस चरित्र की आलोचना कैसे करते यह
सोचना ज्यादा कठिन नहीं है। शुक्लजी का विश्वास आधुनिक- पूर्व के सामाजिक सम्बंधों
की सामूहिकता और उसकी बनी बनाई व्यवस्था की क्रियाशीलता में था। सर्वथा नई
व्यवस्था शुक्ल को वास्तविक और व्यावहारिक नहीं लगती थी। हमने देखा था कि विल्सन, मोनिर
विलियम्स या ग्रियर्सन के यहाँ भी करुणा, नैतिकता और संघबद्ध धर्म की समरूपता के
चलते बौद्ध और ईसाई धर्मों का एक नैकट्य निरुपित किया गया था। सामान्यतः भक्ति
बौद्ध ज्ञानवाद में करुणामय ईश्वर का संयोग था जिसका वास्तविक मनुष्य रूप ईसामसीह
में उन्हें दिखाई देता था। ग्रियर्सन, शुक्ल जी और बुल्के तीनों वैष्णव भक्ति और
तुलसीदास की सर्वोच्चता के प्रति एकमत से सहमत हैं। सबसे श्रेष्ठ भाव के रूप में
करुणा को नकारना किसी के लिए संभव नहीं था। ईश्वर के अनंत करुणानिधान तुलसी और
भवभूति दोनों का आदर्श था। शुक्ल व्यवहार में अद्वैत को स्वीकार्य नहीं मानते थे।
शुक्लजी के लिए अद्वैत प्रक्रिया का निष्कर्ष है स्वयं प्रक्रिया में अद्वैत नहीं
हो सकता। शुक्ल रस निष्पत्ति में आलाम्बनत्व धर्म की सार्वभौमिकता को स्वीकार करते
थे और इसलिए साधारणीकरण के किसी सम्प्रदायवाद के खिलाफ थे। क्योंकि वहां आश्रय के
तादात्म से साधारणीकरण संभव माना जाता है। प्रक्रिया पर जोर देने से शुक्ल जी के
यहाँ आश्रय और पाठक या सहृदय के ध्रुवीकरण से तो रस सिद्धांत को मुक्ति तो मिली
लेकिन वहां से वास्तविक मनुष्य गायब हो गया। वास्तविक, क्रियाशील, व्यावहारिक
मनुष्य केवल भावों की रस निष्पत्ति से संतुष्ट नहीं हो सकता था, उसे वास्तविक
मुक्ति भी चाहिए थी। यह मुक्ति शुक्लजी के लिए नैतिकता और धर्म नियमों के क्षेत्र
में ही संभव थी। राजनीतिक जीवन और साहित्य का क्षेत्र इन दोनों के बीच संबंध
शुक्लजी के लिए केवल पैशन का था, यह हमने पीछे देखा है। बुल्के के लिए जीवन, धर्म
और कर्म तीनों की एकता उन्हें वास्तविक जीवन में अनंत करुणानिधान का सन्देश लगती
थी। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में संत कवि की भूमिका में गीदो गैज़ेल की
कविताएँ और उनका संत जीवन चरित फ्लेमिश-डच सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी आंदोलन में
बहुत प्रभावशाली भूमिका निभाता था। कामिल बुल्के का युवा जीवन इस सांस्कृतिक
नेतृत्व से अभिभूत था।
गीदो गैज़ेल प्रगीत और प्रकृति के कवि
थे। नवरोमानवाद और आध्यात्मिकता के साथ-साथ बीसवीं शताब्दी के अंवागार्द कवियों पर
भी उनका काफी प्रभाव था। सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों में अर्थ की तलाश, एक ‘पूज्य
बुद्धि’ और मननशील मन की मांग करती है। गीदो की कविताएँ इन दोनों का समन्वय करती
थीं। मध्यवर्गीय परिवार में पले-बढ़े गीदो के पिता एक कुशल माली थे। ईसाई परिवेश और
कृषक जीवन का मधुर सौन्दर्य इन दोनों के बीच गीदो की आरंभिक अनुभूतियों का निर्माण
हुआ था। परिवार को लेकर और खासकर अपनी माता को लेकर गीदो अनन्य प्रेम और श्रद्धा
रखते थे। फ्लेमिश आन्दोलन से जुड़ने के क्रम में ही गीदो के छात्र जीवन में उच्च
आदर्शों के क्रियान्वयन के लिए जीवन के कठोर निर्णय का वक़्त भी उनके सामने आया।
पिता के निर्देश में उन्हें ईश्वर का निर्देश मिला और उन्होंने पुरोहित का जीवन
अपने लिए चुन लिया। कविता, साहित्य और मातृभाषा के सम्मान की लड़ाई तथा पुरोहित
कर्म की एकता उन्हें ईश्वर का संकेत मालूम पड़ती थी। गीदो हमेशा
पुरोहित-कवि-फ्लेमिश के रूप में नौजवान कवियों, देशप्रेमियों और पुरोहितों के बीच
लोकप्रिय रहे थे। उनके लिए कला, ‘कला नहीं बल्कि ईश्वर की भेंट’ थी। यंत्रणाओं और
दुखों के बीच कला गीदो के लिए एक फलदायी क्रिया थी। करुण, शांत और आस्थावान
फ्लेमिश-डच कृषक जीवन के प्रगीत लोगों में प्रेरणा और सुख का संचार करती थी। कविता
के अलावा गैज़ेल ने पत्रकारिता, अनुवाद और लोकगीतों के संग्रह का काम भी किया था।
उनकी तुलना कई बार अंगेज कवि हॉपकिंस के साथ भी होती है। हॉपकिंस के साथ गैज़ेल के
व्यक्तित्व का मेल केवल प्रगीतकार और पुरोहिती का ही नहीं बल्कि यौन भावनाओं के
संकट का भी है। दोनों ही एक सारसंग्रही प्रयोगकर्ता भी थे। गैज़ेल की विश्वदृष्टि
में एक सर्ववादी चेतना और प्रयोग का साहस देख चर्च के उच्च पुरोहित वर्ग में एक
विरोध भी था। प्रथम विश्वयुद्ध के अनंतर फ्लेमिश राष्ट्रवादी आन्दोलन और अवांगर्द
कविता आन्दोलन के प्रेरणास्रोत के रूप में गैज़ेल जितना स्थानीयता से जुड़े थे उतने
वैश्विक भी थे। गीदो की दो कविताएँ उनके काव्य संसार का कुछ कुछ परिचय दे सकती हैं
:
“मैं
था/ नहीं तब/ और, “तुम हो,/ मेरे बच्चे”/ ईश्वर ने कहा,/ और वह देखो!/ मैं हूँ!”
दूसरा उदाहरण -
सरल
है बहुत, वादा करना/ और बोना देश के बाहर खूबसूरत शब्द/ जैसे, खूब सवेरे बोलना/
मुर्गों का, ओह ! कितना अच्छा लगता/ महज शब्द के उच्चारित करने से नहीं/ फ़ायदा
होगा अपने फ्लैंडर्स का ;/ जो चाहता है मदद करना हमारे लोगों की/ उसे प्रजनन का
दुःख उठाना होगा।[1]
गीदों के इस व्यक्तित्व का बुल्के के
अपने जीवन पर तुलसी से कम प्रभाव नहीं था। ऐसा भी कहा जा सकता है कि बुल्के के लिए
गीदों प्रेम और तुलसी प्रेम अलग- अलग नहीं थे। कृषक जीवन और ईसाई आस्था के बीच
पले-बढ़े बुल्के को गीदो की कविताओं में स्वयं की भावनाएं ही प्रतिबिंबित दिखती थीं।
बुल्के अपने आरम्भिक जीवन को याद करते हुए हमेशा कहते थे कि “पिता से मुझे मिला
जीवन की गुरुता का विशिष्ट बोध, वत्सल माता से मिली प्रफुल्लित व्यावहारगत
स्वप्निलता”। गरीब और असहायों के प्रति असीम करुणा का बोध उनको मध्यवर्गीय कृषक
जीवन के यथार्थ के करीब ले जाता था। उनके लिए पूरा गाँव एक संयुक्त परिवार की तरह
ही था, बाद में एक वृहत्तर फ्लेमिश संस्कृति भी उन्हें एक बड़े संयुक्त परिवार की
संस्कृति की तरह दिखती थी। अपने गाँव के
संस्मरण में बुल्के अपने ‘मसीहाई लोगों’ को लक्ष्य करते हुए लिखते हैं : “वे दुःख
को चुपचाप सहते हैं क्योंकि मसीह का क्रॉस उनके लिए जीवंत वास्तविकता है। उनके
जीवन के सब दिन ईश्वर के सान्निध्य में व्यतीत होते हैं और उनकी कठिनाइयाँ ईश्वर
में लीन हो जाती हैं... वे कतई रहस्यवादी नहीं हैं... उनमें जीवन के प्रति उदासीनता नहीं है। ... सृष्टि से
प्यार करने के चलते उनका जीवन सहज हो जाता है और वे सृष्टि के रहस्य समझ जाते हैं।”[2] इन
‘मसीही लोगों’ में बुल्के मध्यकाल की झलक देखते हैं। बालोचित भोलेपन की यह
जीवनदृष्टि ऐसी है जिसमें ‘ईश्वर और जगत, प्रकृति और भगवत् कृपा में कोई द्वंद्व
नहीं’ है। विद्यार्थी जीवन के आरम्भ से ही संत पौलुस के पत्रों में उनकी असीम रूचि
थी। भारत आने के पहले उन्होंने आइन्स्टीन के सापेक्षतावाद और उच्च गणित का भी
विशेष अध्ययन किया था। जर्मन भाषा के किसी ग्रन्थ में मानस के कुछ उद्धृत अंशों को
पढ़कर उन्हें एक अद्वितीय अनुभव हुआ और भारत के विषय में सबकुछ जान लेने की इच्छा
जाग गयी। “जब से मैंने जर्मन भाषा में अनूदित हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ रामचरितमानस
से उद्धृत अंश पढ़े हैं, तब से मैं भारत के विषय में सबकुछ जान लेना चाहता हूँ। अरे
हाँ, उन अंशों का सारांश था- पृथ्वी पर उसी व्यक्ति का जीवन धन्य है जिसको देखकर
उनका पिता हर्षित हो। पिता पुत्र के सबंध की इतनी मर्मिक गहन अनुभूति अन्य किसी
साहित्य में नहीं देखी है।”[3]
हिंदी और तुलसीसेवा के काम का ही एक
विस्तार बुल्के की लम्बी साइकिल यात्राएँ भी थी। रांची के आसपास के आदिवासी इलाकों
में बुल्के अपने साइकिल के साथ निकल जाते, जहाँ वे ईसा और तुलसी के सन्देश सुनाते
और उनकी रोजमर्रा की समस्याओं और कष्टों के समाधान का प्रयास करते। तथाकथित
भोले-भाले, निरीह, सौम्य, सहज प्राकृतिक जीवन में रचे-बसे इन आदिवासियों में
बुल्के को अपने गाँव के लोगों की छवि दिखती थी और वह स्वयं उनसे प्रेरणा ग्रहण
करते थे। धीरे-धीरे झारखण्ड की कई बोलियों और भाषाओं के अध्ययन के साथ- साथ
आदिवासी संस्कृति के अध्ययन के लिए बुल्के स्वयं एक शोध संस्था में बदलते गए। ये
सारे काम उन्हें अपने पुरोहिती, धार्मिक कामों से अलग नहीं लगते थे। संघ भी बुल्के
की इच्छाओं का कभी अनादर नहीं करता था। मूल ग्रीक से बाइबिल के ओल्ड और न्यू
टेस्टामेंट का अनुवाद बुल्के ने अपनी आत्मा का पूरा जोर लगाकर किया था। अपने
अनुवादों को संघ के बाकी पुरोहितों या भाइयों को वह सुनाते और उनकी प्रतिक्रिया के
बिना आगे नहीं बढ़ते थे। बाइबिल के हिंदी अनुवादों का इतिहास कम से कम डेढ़ सौ साल
पुराना तो था ही। परन्तु उन अनुवादों में बाइबिल के उच्च साहित्यिक गुणों का पूरा
निदर्शन नहीं होता था। उनमें ज्यादातर कामचलाऊ प्रयास थे। बुल्के के लिए बाइबिल की
आस्था उसके उच्च कलात्मक मूल्यों की आस्था भी थी। उन्हें विश्वास था कि मसीह का
सन्देश व्यावहारिक रूप से भी प्रेम और करुणा से इतना भरा है कि एक बार उन भावों का
सम्प्रेषण हो जाये तो कोई भी उसे अपने हृदय से नहीं निकाल सकता। बुल्के को अलग-अलग
शहरों के संघ बंधुओं से बाइबिल के अनुवाद की श्रेष्ठता और उसकी सहज संप्रेषणीयता
का सन्देश लगातार मिलता रहता था। आगे चलकर बुल्के की मृत्यु के बाद उनके स्मृति
ग्रन्थ के लिए शमशेर बहादुर सिंह ने दिनेश्वर प्रसाद को संबोधित करते हुए ‘एक
पत्र’ लिखा था। दिनेश्वर प्रसाद इसे ‘संस्मरणात्मक- आशंसात्मक’ पत्र की तरह याद करते
हैं। शमशेर और बुल्के का परिचय इलाहबाद में ही शायद डा. रघुवंश के कारण हुआ था।
शमशेर के अनुसार बुल्के, रघुवंश के बहुत ‘घनिष्ठ और हार्दिक विद्वान् मित्र’ थे।
शमशेर लिखते हैं कि हिंदी के विद्वान मित्रों का संपर्क और स्वयं की “उनकी अपनी
(एडवांस्ड) साहित्यिक सुरुचि, लगन और अनथक श्रम ने उन्हें (बुल्के) हिंदी साहित्य
में दीक्षित किया था, विशेषकर भक्ति साहित्य और रामचरितमानस के अनेक गूढ़ तत्वों
में। अगर मैं यह कहूँ कि भारतीय परिवेश में रामचरितमानस उनके लिए बाइबिल के न्यू
टेस्टामेंट का दर्पण बन गया था, तो मैं शायद बहुत गलत न हूँगा।”[6] शमशेर
बुल्के के ‘एडवांस्ड साहित्यिक सुरुचि’ से बखूबी परिचित थे। स्वयं शमशेर बाइबिल कई
हिस्सों का साहित्यिक अनुवाद करना चाहते थे। “एक बार यूनानी भाषा सीखने का बाल
प्रयास करते हुए एक पाठ में बाइबिल के उद्धृत अंश पढ़कर तीव्र इच्छा हुई थी कि इस
आध्यात्मिक ग्रन्थ का आस्वादन तो मूल में ही किया जाये, तभी संतोष हो सकता है।”[7] शमशेर
की यह आकांक्षा तो पूरी नहीं हो पाई पर बुल्के के अनुवाद से उन्हें लगभग मूल को
पढ़ने जैसा ‘सुख और संतोष’ मिलता था।
निश्चित रूप से शमशेर को यह ‘सुख और
संतोष’ स्वयं बाइबिल के पवित्र और महान् होने के बदले उसकी ‘प्रवाहमयता,
सरसता
और हृदय को छूने वाली’ साहित्यिक विशेषताओं के कारण मिलता था, शमशेर का ‘मन तृप्त
हो जाता’ था। वह इसी पत्र में लिखते हैं कि उन्होंने कई बार बुल्के के अनुवाद पढ़े
हैं और बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है। इन अनुवादों से, “ईसामसीह का पूरा शहीदी
चरित्र आँखों के सामने साकार हो उठता है। कैसी घोर विरोधी परिस्थितियों में
कठमुल्ला, ढोंगी, पाखंडी तथाकथित धर्माचारियों के समक्ष मसीह की खरी शुद्ध आत्मा
सूर्य के प्रकाश की तरह चमकती है। हिंदी में यह सब एक सफल अनुवाद के कारण ही संभव
हुआ है।”[8] यह
बाइबिल की साहित्यिक श्रेष्ठता के प्रति एक साहित्यिक आस्था थी। साहित्य के रूप
में धर्मग्रन्थ के संपूर्ण इहलौकीकरण का यह प्रयास स्वयं आधुनिकतावाद की एक प्रमुख
विशेषता थी। शमशेर और मुक्तिबोध दोनों ही मानस के उच्च साहित्यिक गुणों से परिचित
थे। मुक्तिबोध के लिए मानस का सर्वश्रेष्ठ हिस्सा वह है जहाँ वह सामंती समाज की
सीमाओं के भीतर मनुष्यता का विकास दिखाते हैं। मुक्तिबोध लिखते हैं, “तत्कालीन
मानव संबंध, विश्वदृष्टि तथा जीवन मूल्यों के सर्वोच्च प्रतीक राम की मानवता हमें
प्रभावित करती है। तुलसीदासजी तथा रामचंद्रजी की वह सचेष्ट आन्तरिकता (जो तत्कालीन
आदर्शों से बनी हुई थी) हम पर छा जाती है। वे नियम-विधान, वे आचार-विचार, अब आज
त्याज्य हो चुके हैं; किन्तु उनके भीतर जो तत्कालीन मानव-संबंध हैं उनको कहीं भी
भंग न करते हुए, राम ने निषाद और गुह से भी आलिंगन किया, शबरी के बेर खाये, केवट
से दोस्ती की, वनवासी असभ्यों को गले लगाया- तत्कालीन मानव- संबंधों का वास्तविक
निर्वाह उन्होंने अपने इन्हीं आदर्श- क्षणों में किया। उनसे वे मानव संबंध अधिक घनीभूत
ही हुए। निषाद निषाद ही रहा, गुह गुह ही, और राम का रामत्व अपने संपूर्ण सामंती
मानवादर्शों में जगमगा उठा। तत्कालीन मानव-संबंधों के घेरे के भीतर मानवता की
जितनी भी सर्वोच्चता संभव थी, उतनी तुलसीदास के राम में समा गयी। इसलिए तत्कालीन
समाज के आदर्श चरित्र राम हैं। राम की इस आदर्शमयी आन्तरिकता के चित्र = उनकी
भीतरी मानवता के शिखर- हमें आज भी द्रवीभूत करते हैं।”[9]
शुक्लजी के यहाँ साहित्यिकता और
धार्मिकता की पृथकता और समानांतरता एक ही आचार- संहिता के दो पक्ष थे। जब धार्मिक
ग्रन्थ के रूप में मानस पर गलत नैतिकता के समर्थन का आरोप लगता तो वह साहित्यिकता
की बात करते थे और जब साहित्यिकता के आधार पर किसी को ख़ारिज करना होता तो नैतिक
आचार-संहिता की बात करते थे। इन दोनों आचार संहिताओं की एकता कबीर की आलोचना में
सबसे स्पष्ट थी। बुल्के के यहाँ दो भिन्न आचार संहिताओं का प्रशन नहीं था। वहां
‘कला नहीं ईश्वर की देन’ ही महत्वपूर्ण थी। कला और साहित्य की एडवांस्ड रुचियों
में मानवतावादी विचारों की यह समकालीनता हिंदी में आधुनिकतावाद और पश्चिमी
मार्क्सवाद की मानवतावादी धारा के साथ जुड़ी भी थी। यह न केवल स्व-भाव था और न केवल
प्र-भाव। यह स्वाभाव और प्रभाव की वैश्विकता भी थी। बुल्के के परिमल प्रेम को इसी
सन्दर्भ में देखा जा सकता है। बुल्के शुद्ध आत्मा के प्रकाश की वास्तविकता मसीह के
सांसारिक राज्य में देखते थे। तुलसी की युगीन सीमा और श्रेष्ठता दोनों ही बुल्के
के लिए इसी बात में थी कि तुलसी के साहित्य के भीतर वह सबकुछ मौजूद था जो
स्वाभाविक रूप से मसीह को प्राप्त करने वाला है। तुलसी के यहाँ मसीह के यथार्थ का
स्वप्न था। बुल्के के लिए यह यथार्थ स्वप्न से भी ज्यादा वैभवशाली और कारुणिक है।
बुल्के के उच्च मूल्य वाले साहित्यिक अनुवादों में यही आस्था थी।
फ़िलहाल हम उनके शोध प्रबंध की ओर वापस
लौटते हैं। हमने देखा था कि रामकथा को लेकर बुल्के की प्रेरणा तीन तत्वों से बनी
थी- हिंदी प्रेम, तुलसी के प्रति श्रद्धा और डा. धीरेन्द्र वर्मा की उदारता। संघ
से शोध की अनुमति मिलते ही बुल्के इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंचे। शोध के विषय के
रूप में डा. धीरेन्द्र वर्मा ने उन्हें मध्यकालीन ब्रजभाषा साहित्य पर काम करने का
सुझाव दिया। बुल्के इस सुझाव को सुनकर चुप रह गए। धीरेन्द्र वर्म समझ गए थे कि यह
विषय बुल्के की आत्मा के अनुरूप न था। उन्हें पता था कि बुल्के तुलसी से प्रेम
करते हैं। इसलिए उन्होंने तुरंत ही दूसरा विषय सुझाया और कहा कि आप मानस की रामकथा
पर काम कीजिये। माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में काम आरम्भ करने के बाद बुल्के ने
रामकथा सम्बन्धी इतनी सामग्री जुटा ली कि ‘भूमिका’ को ही पूर्ण शोध बनाना पड़ा। इस
प्रकार ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ के रूप में हिंदी में लिखा पहला शोध प्रबंध
सामने आया।
‘रामकथा : उत्पति और विकास’ लगातार
संशोधित और परिवर्धित होता रहा। सन् १९४९ में शोध प्रबंध जमा करने के बाद भी
बुल्के रामकथा और रामभक्ति संबंधी सामने आने वाली हर नई जानकारी या उसके इतिहास को
लेकर किसी नई प्रस्तावना का वैज्ञानिक विश्लेषण भी नए संस्करणों में जोड़ते चले गए।
रामकथा के विकास को इतिहास और भूगोल के इतने बड़े फलक पर शोध की वैज्ञानिक
वस्तुनिष्ठता और साहित्यिकता की पहचान के साथ विश्लेषण बुल्के से पहले किसी ने
नहीं किया था। कृष्ण चरित और कृष्णभक्ति को लेकर प्राच्यविद्याविदों के बीच जितनी
बहस हुई थी और उसके इतिहास निरूपण का जितना प्रयास हुआ था, उस हिसाब से रामकथा और
रामभक्ति के विकास का निरूपण नहीं हुआ था। अकारण नहीं कि धीरेन्द्र वर्मा इसे
‘रामकथा का विश्वकोश’ कहते थे। शोध में बुल्के ने रामकथा के ऐतिहासिक विकासक्रम के
निरूपण और मूल रामकथा संबंधी कई पुराने पूर्वग्रहपूर्ण निष्कर्षों से अपनी असहमति
व्यक्त की है। बुल्के लिखते हैं कि रामकथा के मूलस्रोत संबंधी मतों में मूल का पता
लगाने के लिए प्रायः विद्वानों द्वारा ‘दो या तीन स्वतंत्र वृत्तांतों’ की कल्पना
कर ली जाती है। बुल्के के अनुसार इस प्रवृत्ति के मूल में दशरथ जातक संबंधी डा.
वेबर का मत था। पुराने मतों का उल्लेख करते हुए बुल्के लिखते हैं : “रामकथा का मूल
रूप बौद्ध दशरथ- जातक के गद्य में सुरक्षित है; इस जातक में सीता हरण और युद्ध
वर्णन का अभाव है। अतः इन दोनों का आधार संभवतः होमर के काव्य में ढूंढना चाहिए,
यह डा. वेबर का विचार है। श्री दिनेशचन्द्र सेन की धारणा है कि वाल्मीकि ने पहले
पहल (दशरथ, रावण तथा हनुमान् संबंधी) तीन नितांत स्वतंत्र वृत्तांत मिलाकर रामकथा
की सृष्टि की है। डा. यकोबी के अनुसार रामायण की कथावस्तु के स्पष्टतया दो
स्वतंत्र भाग हैं- प्रथम भाग अयोध्या से संबंध रखता है और ऐतिहासिक घटनाओं पर
निर्भर है; द्वितीय भाग की आधिकारिक कथावस्तु (सीताहरण तथा रावणवध) का मूल रूप
वैदिक साहित्य में विद्यमान है। सीता, राम तथा रावण का व्यक्तित्व क्रमशः वैदिक
सीता (कृषि की अधिष्ठात्री देवी), इंद्र तथा वृत्रासुर से विकसित हुआ है। सीताहरण
का मूल स्रोत प्राणियों द्वारा गायों का अपहरण है तथा रावणवध वृत्तासुर- वध का
विकसित रूप मात्र है।”[10]
बुल्के इन दो या तीन स्वतंत्र
वृत्तांतों के सिद्धांत के बदले रामकथा की समस्त आधिकारिक कथावस्तु, न केवल राम का
निष्कासन वरन् सीताहरण और रावणवध का भी एक ‘मूल ऐतिहासिक आधार’ मानना स्वाभाविक
बताते हैं। इस प्रकार बुल्के के लिए एक मूल ऐतिहासिक घटना के आख्यान चरित काव्यों
के आधार पर वाल्मीकि ने अपनी रचना की थी। बौद्ध त्रिपिटकों की ‘एकाध गाथाएं’ और
महाभारत में द्रोण तथा शांतिपर्व की अत्यंत संक्षिप्त रामकथाएं उनके अनुसार
वाल्मीकि-पूर्व प्रचलित रामकथा संबंधी आख्यान काव्य पर आधारित हैं। इनमें से स्वयं
कोई भी मूल कथावस्तु नहीं है। ‘मूल ऐतिहासिक घटना’ से विकसित होते राम के चरित्र
पर बाद में बौद्ध और भागवत धर्मों का प्रभाव पड़ा था। बौद्ध रामकथाओं में ‘दशरथ
जातक की समस्या’ पर बुल्के ने विशेष ध्यान दिया है। उनके अनुसार ‘दशरथ जातक की
रामकथा न केवल ब्राह्मण रामकथा का विकृत रूप है, वरन् उसका रचनाकाल वाल्मीकि के
बहुत सी शताब्दियों बाद माना जाना चाहिए।”[11]
बुल्के वाल्मीकि पूर्व रामकथा आख्यान को मूलतः ब्राह्मणीय रामकथा मानते हैं। इस
मूल की विकृति दशरथ जातक की रामकथा है। संक्षिप्त और गद्यात्मक होने के चलते
बुल्के इसपर वाल्मीकिकृत रामायण की कोई छाप नहीं देख पाते। इस आधार पर उन्होंने ये
अनुमान लगाया कि यह वाल्मीकि रामायण पर नहीं बल्कि उसके पूर्व के रामाख्यान काव्य
पर आधारित हो सकता है। इस प्रकार मूल प्राचीन ऐतिहासिक घटना से निकला मूल ब्राह्मण
आख्यान काव्य और उसे महाकाव्यात्मक संगठन देने वाले हुए आदिकवि वाल्मीकि : बुल्के
ने रामकथा की उत्पत्ति का निरूपण इसी क्रम में किया है। मूल ऐतिहासिक घटना संबंधी
उनकी मान्यता इतनी प्रबल थी और उसमें उन्हें इतना विश्वास था कि वह अयोध्या की
खुदाई से इसके निश्चित प्रमाण मिलने की आशा रखते थे। ‘मानस कौमुदी’ में बुल्के
लिखते हैं “राम संबंधी प्राचीन गाथा साहित्य का आरम्भ ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर
हुआ होगा...। यदि प्राचीन अयोध्या की खुदाई की जाए, तो यह सिद्ध हो जाएगा कि नवीं
शताब्दी ईस्वी पूर्व में वहां एक नगर था। हाल में अपने देश के विख्यात
पुरातत्त्वज्ञ डा. हंसमुख धीरज सांकलिया ने ‘रामायण : मिथ ऑर रियलिटी’ नामक पुस्तक
में यह विचार प्रकट किया है कि कम से कम आठ सौ ई.पू. तक अयोध्या बसायी जा चुकी थी।”[12]
हम स्पष्टतः देखते हैं कि ऐतिहासिक
चरितकाव्यों की ऐतिहासिकता के निरूपण का प्रयास देशी भाषा साहित्यों के इतिहास से
होते हुए एक ठेठ ऐतिहासिक घटना के अनुमान तक पहुँच चुका था। मध्यकाल के ऐतिहासिक
चरितकाव्यों के आधार पर इतिहास की वास्तविक घटनाओं तक पहुँचने के इस मार्ग की
आलोचना उसी समय ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’ में द्विवेदीजी कर रहे थे। जहाँ
द्विवेदी कथा की संरचना और मोटिव के सहारे आख्यान काव्यों से इतिहास की पुनर्रचना
के बदले आख्यान काव्यों की ऐतिहासिक पुनर्रचना का प्रश्न सामने रखते हैं। बुल्के
के सामने समस्या यह थी कि रामकथा के इतिहास में वाल्मीकि के रामायण की कथा का
मूलस्रोत न तो वेदों में दिख रहा था, न जातक कथाओं में और न ही किसी ज्ञात
ऐतिहासिक घटना में। प्राचीन इतिहास के इस धुंधलके के भीतर उन्होंने यही अनुमान
स्थिर किया कि वाल्मीकि के रामायण का जो ढांचा प्राचीन और अर्वाचीन, देशी विदेशी
रामायणों की मूलभूत एकता बनाने वाला है, वह किसी वास्तविक मूल ऐतिहासिक घटना पर
आधारित है और जिसे वाल्मीकि ने अपने पूर्व प्रचलित लोक आख्यान काव्य से ग्रहण किया
है। बुल्के के लिए यह सर्वाधिक विज्ञानसम्मत अनुमान था। एक वास्तविक ऐतिहासिक घटना
का अनुमान जहाँ राम को अयोध्या से निकाला जाना, सीताहरण और रावण विजय मूलतः
ऐतिहासिक घटनाएँ थीं। ठीक उसी तरह जैसे पृथ्वीराजरासो की मूल ऐतिहासिक घटनाओं की
तलाश वैज्ञानिक पाठ निर्धारणों के ज़रिये किया जा रहा था। ‘मूल ऐतिहासिकता’ की
रक्षा के लिए हनुमान् के आदिवासी या मूल निवासी उद्गम की कल्पना बुल्के के लिए
असंगत नहीं थी। ‘आर्य-अनार्य’ युद्ध के रूपक के रूप में राम कथा की व्याख्या पहले
से ही हो रही थी, वैसे ही जैसे पृथ्वीराजरासो का संबंध ‘हिन्दू-मुसलमान’ संघर्ष का
अनिवार्य रूपक मान लिया गया था। हनुमान् ‘वानर गोत्रीय’ आदिवासी थे जिन्हें आगे
चलकर रामकथा के अन्य आदिवासियों के साथ सचमुच का वानर मान लिया गया था। प्रचलित
रामायणों में हनुमान् के ‘वानरत्व- विषयक विशेषणों’ का बाहुल्य देखकर वह इस अनुमान
पर पहुंचे थे कि हनुमान् संबंधी यह धारणा वाल्मीकि के समय के पूर्व ही मान्यता पा
चुकी थी।[13]
उनके अनुसार प्रारंभ में हनुमान् को जो वायुपुत्र कहा गया वही उसकी कथा का आधार है।
बुल्के वायुपुत्र शब्द के अनार्य मूल की ओर ध्यान दिलाते हैं जहाँ इसका अर्थ
ऐन्द्रजालिक अथवा विद्याधर है। सुमग्ग जातक में वायुस्स पुत्त नामक विद्याधर का
उल्लेख है जो वास्तव में जादूगर है। अन्यत्र भी इसका अर्थ जादूगर है जो हनुमान् के
तीव्र बुद्धि संपन्न होने का एक प्रतीक भी है।[14]
बुल्के के अनुसार हनुमान् के जन्म की कोई ऐसी कथा नहीं मिलती जो वाल्मीकि रामायण
की कथा से बहुत स्वतंत्र और अलग रूप से निर्मित हुई हो। ‘वानर गोत्रीय’ का अर्थ यह
है कि जिस मध्य भारतीय आदिवासी समाज के हनुमान् थे, उनका टोटेम ‘वानर’ था। झारखण्ड
के उरांव, मुंडा आदि आदिवासी समाजों में ‘हेलेमान’ या ‘गाड़ी’ जैसे टोटेम से उन्हें
अपनी धारणा को बल मिलता था। वाल्मीकि कृत रामायण से विकसित हनुमान् के चरित्र का
विकासक्रम कुछ यूँ है- वाल्मीकि कृत
आदिरामायण में सुग्रीव के पराक्रमी तथा बुद्धिमान मंत्री (बुद्धिमत्ता और पराक्रम
के मूल रूप में ) उसके बाद ‘चिरंजीवत्व’ (वरदानों में सबसे प्राचीन हनुमान् की
कीर्ति से सम्बंधित), ब्रह्मचर्य (प्राचीनतम उल्लेख स्कन्द पुराण में ), शैव अवतार
से होते हुए मध्यकालीन भक्ति में रामभक्त के रूप में पूर्ण विकसित चरित्र। इन
विशेषणों का मूल स्रोत भी बुल्के के अनुसार आदिरामायण ही है परन्तु परवर्ती
साहित्य में बढ़ते क्रम में है। हनुमान् की अंतिम विशेषता उनका देवत्व है। बुल्के
दिखाते है कि ईसा की आठवीं शताब्दी के अनंतर हनुमान् को रुद्रावतार माना जाने लगा
था। इसी के साथ ‘हनुमन् भक्ति’ की भावना का भी विकास शुरू हुआ जिसके प्रारंभिक
साक्ष्य शैव ग्रंथों में ही उपलब्ध हैं। दसवीं से पंद्रहवीं शताब्दी के बीच हनुमन्
भक्ति का पूर्ण विकास हुआ। पंद्रहवीं शताब्दी के बाद हनुमान् का ‘संकटमोचन’ रूप
सबसे लोकप्रिय हुआ। अर्वाचीन साहित्य में उनकी महिमा क्रमशः बढ़ती गयी और उन्हें
‘पापमोचक, मुक्तिदाता भगवान्’ की उपाधि मिलती गयी। बुल्के इसमें तुलसी के
महत्वपूर्ण योगदान को रेखांकित करते हैं (संकट सोच विमोचनी मूरती)। संकटमोचक,
मुक्तिदाता, मंत्रदाता रूप का संबंध बुल्के प्राचीन ‘यक्षपूजा’ से जोड़ते हैं।
बुल्के के लिए अत्यंत प्राचीन और गाँव- गाँव प्रचलित ‘यक्षपूजा’ की लोकप्रियता के
साथ हनुमान् की लोकप्रियता का बनना स्वाभाविक था। बुल्के लिखते हैं “इस
अत्यंत प्राचीन पूजा पद्धति से संबंध हो जाने पर हनुमान् की लोकप्रियता
बहुत ही बढ़ गयी। और उस समय तक जिस उद्देश्य से और जिस रूप में यक्षों की पूजा होती
रही अब उसी उद्देश्य और उसी रूप में महावीर हनुमान् की भी पूजा होने लगी। हनुमान्
के संकटमोचन और द्वारपाल वाला रूप वीरपूजा से संबंध रखता है। प्राचीन वीरपूजा और
हनुमत्पूजा के उद्देश्यों में जो सादृश्य है वह उपर्युक्त विकास की वास्तविकता को
प्रमाणित करता है।”[15]
बुल्के के अनुसार हनुमान् के चरित्र
के विकास में भक्ति और लोकपूजा रूपों का यह अद्भुत मेल जो पंद्रहवीं शताब्दी के
बाद हुआ इन सब के मूल में वाल्मीकिकृत रामायण के कुछ मूल तत्त्व हैं। इसी प्रकार
रामायण के अन्य चरित्रों और घटनाओं का भी विकास, विस्तार और विकृति के मूल तत्वों
की एकता उन्होंने वाल्मीकि रामायण से ही निर्धारित की है। हनुमान् के मामले में
रामकथा से पृथक किसी और कथा परंपरा का वाल्मीकि-पूर्व रूप के निर्धारण को बुल्के
आवश्यक मानते हैं। और इस प्रकार हनुमान् भी एक ऐतिहासिक चरित्र ठहरते हैं।
बुल्के के पास एक आधुनिक और वैज्ञानिक
शोध पद्धति थी। इस पद्धति के सहारे वह धर्म-मतों और कथाओं की विविधता को स्वीकार
करते हुए उस विविधता के भीतर एकत्व स्थापित करने वाले एक मूल ढांचे की खोज करते हैं।
मूल ढांचे की यह खोज इसके इहलौकिक कारण की तलाश थी। रामकथा की व्यापकता और भारतीय
उपमहाद्वीप के साथ-साथ दक्षिण पूर्व के एशियाई देशों में मिलने वाली इसकी प्रचुर
विविधता को नकारना किसी के लिए भी संभव न था। रामकथा के आधार पर विकसित रामकथा का
ठोस वस्तुगत आधार इतिहास में जरूर होना चाहिए। बुल्के इतिहास के इसी प्रश्न के साथ
शोध में प्रवृत्त हुए थे। शोध की ओर प्रवृत्त करने वाले तीन तत्त्वों में तुलसी के
प्रति अगाध श्रद्धा शायद सबसे महत्वपूर्ण थी और उन्होंने शोध भी शुरू किया था मानस
की रामकथा पर ही। पर भूमिका के लिए इकट्ठी की गयी सामग्री ने उनके शोध प्रश्न को
नए प्रकाश से आलोकित कर दिया। रामकथा की उत्पत्ति और विकास का यह दीर्घ इतिहास
उसकी दीर्घकालीन लोकप्रियता और व्यापकता का स्वयं प्रमाण थी। बौद्ध जातकों आदि में
जो स्वीकार्य ऐतिहासिक आख्यान के मूल तत्त्वों से विकृति थी उसी कारण उनकी
लोकप्रियता धीरे धीरे कम होती गयी, बुल्के को अपने इस अनुमान की निरर्थकता का बोध
शायद था। इसलिए अपने अनुमान की पुष्टि के लिए उन्होंने अलोकप्रियता के दो और कारण
गिनाये। एक उनकी भाषा (पाली, चीनी आदि) दूसरी इनकी विधा (पद्य)! सारतः यह प्रमाणित
हुआ कि मूलकथा ब्राह्मणीय कथा थी, जैसे जैसे ब्राह्मणीय धर्म स्वयं लोकप्रिय
वैष्णव धर्म में बदलता गया वैसे वैसे रामकथा से रामभक्ति कथा के रूप में वह विकसित
होता गया। बुल्के का हिंदी प्रेम उनके संस्कृत प्रेम से अलग नहीं था। उन्हें
भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा के आपसी ‘एकत्व’ का अहसास था। हिंदी को वह
संस्कृत की पुत्री ही मानते थे। संस्कृत केन्द्रित भारतीयता बुल्के को कल्पित
प्रतीत नहीं हुई। विविधताएँ उनके लिए एक संस्कृत केंद्र से संकेंद्रित वृत्तों के
रूप में विकसित होती गयी थी। शोधकार्य की सामग्री जो अधिकांशतः संस्कृत में ही
उपलब्ध थी, उनके सामने बुल्के को पाली या चीनी की अलोकप्रियता भी एकदम स्वाभाविक
लगती थी। वाल्मीकि रामायण के राम के चरित्र में बुद्ध के प्रभाव को बुल्के
अस्वीकार नहीं करते परन्तु वह प्रभाव वाल्मीकि की साहित्यिक प्रतिभा में निहित था
जिसने बुद्ध के लोकप्रिय करुण रूप को राम के चरित्र में समाहित कर लिया था।
महाभारत के ‘बुद्ध राम संवाद’ की तरह वाल्मीकि रामायण में कहीं भी बुद्ध का कोई
चरित्र नहीं है। केवल एक बार बुद्ध का उल्लेख हुआ है ‘जाबालि’ वृत्तान्त के
अंतर्गत जहाँ राम बुद्ध को चोर और नास्तिक कहते हैं।[16] इसके
अलावा बुद्ध संबंधी श्लोक न तो गौड़ीय पाठ में मिलता है और न ही पश्चिमोत्तरीय पाठ
में। “अतः आदि रामायण में न तो बुद्ध का कोई उल्लेख हुआ था और न बौद्ध धर्म के
प्रत्यक्ष प्रभाव का कहीं भी असंदिग्ध निर्देश मिलता है।”[17]
परोक्ष प्रभाव के प्रश्न का निराकरण उन्होंने दो अनुमानों के आधार पर किया।
महाभारत में रामायण की अपेक्षा जो कहीं अधिक ‘कटुभाव, उग्र रणोत्सुकता, घोर युद्ध,
अदमनीय विद्वेष’ आदि दिखाई देते हैं उसका कारण बौद्ध धर्म का प्रभाव नहीं वरन्
उसकी भौगौलिक विशिष्ट अवस्थिति है। महाभारत की घटना पश्चिम में हुई थी जबकि रामायण
की कौशल प्रदेश में, ‘जहाँ सभ्यता और संस्कृति का विकास आगे बढ़ चुका था’। इस तरह
करुणा और अहिंसा जो कि सभ्यता और संस्कृति के आगे बढ़े हुए भाव हैं, वे आदिकवि को
बौद्धों के प्रभाव के चलते नहीं वरन् स्वाभाविक रूप से प्राप्त था! दूसरा अनुमान
और भी महत्त्वपूर्ण है। बुल्के कहते हैं कि रामायण के रचनाकाल में कौशल में बौद्ध
धर्म का पर्याप्त प्रचार हो गया था। वह लिखते हैं: “अतः यह असंभव नहीं कि वाल्मीकि
ब्राह्मण धर्म के प्रभाव में रहते हुए भी परोक्ष रूप से बौद्ध आदर्श से प्रभावित
हुए थे। सीता का हिंसा के विरुद्ध भाषण (रौद्रं पर प्राणाभि हिंसनम् आदि ), जो
बौद्ध अहिंसा का स्मरण दिलाता है, प्रक्षिप्त माना जा सकता है। लेकिन राम का
अत्यंत शांत और कोमल स्वाभाव, उनकी सौम्यता आदि ध्यान में रखकर स्वीकार करना पड़ता
है कि वे मुनि पहले हैं, क्षत्रिय बाद में। अतः इनके चरित्र चित्रण में किंचित
बौद्ध प्रभाव देखना निर्मूल कल्पना नहीं प्रतीत होती है।”[18] इस
प्रकार बुल्के राम के चरित्र पर ‘किंचित् बौद्ध प्रभाव’ स्वीकार करते हुए दशरथ
जातक की समस्या का जो समाधान प्रस्तुत करते हैं, वह बुल्के के आतंरिक अंतर्विरोधों
को भी स्पष्ट करता है। भारत के लोकप्रिय धार्मिक रूपों के बीच बौद्ध धर्म को ‘मूल
भारतीयता’ के प्रश्न से जोड़ने वाली एकदम विपरीत प्रवृत्ति का पता हमें अम्बेडकर के
यहाँ मिलता है। इस विषय पर थोड़ी और चर्चा हम आगे करेंगे।
वाल्मीकि कृत आदि रामायण से विकसित
होती रामकथा का सर्वोच्च रूप रामभक्ति और तुलसीदास में बुल्के दिखाते हैं। अनेक
रामायण उस एक रामायण का विकास है जो स्वयं लोक आख्यान के रूप में एक ऐतिहासिक घटना
के सुदृढ़ आधार पर विकसित हुआ था। एक प्रकार से यह महाकाव्यात्मक एकता थी। इस एकता
के वाहक बुल्के के अनुसार ‘काव्योपजीवी कुशीलव’ होते थे। इन कुशीलवों का काम होता
था कि वे आदि रामायण की कथा समस्त देश में घूम घूमकर प्रचारित करें और इसी के
सहारे जीविकोपार्जन करें। आधुनिक विद्वान् इसे संस्कृत शास्त्रीय काव्य की
सार्वदेशिक संस्कृति से जोड़कर देखते हैं।[19]
शेल्डन पोलॉक संस्कृत की सार्वदेशिक संस्कृति को राज्य और काव्य के संबंधों के
माध्यम से देखने की कोशिश करते हैं। संस्कृत काव्य और राज्य की सार्वदेशिक
संस्कृति के साथ साथ प्राकृत और अपभ्रंश की अर्द्ध सार्वदेशिक संस्कृतियों का
प्रभाव हज़ार ईस्वी के आसपास देशी भाषाओं की ‘स्थानीयता और सार्वदेशिकता’ की
आत्माभिव्यक्ति के दबाव के चलते समाप्त हो गया। पोलॉक इसे महाकाव्यों की स्थानीयता
के साथ बनने वाली देशी भाषाओं की सहस्त्राब्दी के रूप में व्याख्यायित करते हैं।
बुल्के ने भी ध्यान दिलाया था कि आधुनिक भारतीय भाषाओं के पहले पहल लिखे गए
काव्यों में रामकथा या रामायण ही थी। बुल्के की अपेक्षा पोलॉक अपने तथ्यों को
ज्यादा ठोस और वस्तुनिष्ठ बताते हैं, जहाँ वे काव्य के साथ साथ दक्षिण पूर्व एशिया
में विस्तृत शिलालेखों और अभिलेखों का साक्ष्य भी प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार
काव्य और राज्य के सम्मिलित इतिहास के लिए पोलॉक के पास ज्यादा ठोस आधार है, जिसके
सहारे वह धर्म के इतिहास से मुक्त इतिहास दृष्टि का विकास करना चाहते हैं। बुल्के
ने आधुनिक भारतीय भाषाओं में रामकथा की व्यापकता का कारण भक्ति के विकास को बताया
था। बुल्के की रामकथा के विकास का द्वितीय सोपान वह था जहाँ रामकथा का आदर्श,
क्षत्रिय चरित्र मात्र न रहकर विष्णु की अवतारलीला के रूप में परिणत हो गया था।
बौद्धों और जैनियों के साहित्य को छोड़कर बुल्के राम के इस रूप को सर्वस्वीकृत
मानते थे। परन्तु इस द्वितीय सोपान में जनता की धार्मिक चेतना के भीतर राम के लिए
कोई विशेष आग्रह न था। न ही इस समय तक रामभक्ति का अविर्भाव हुआ था। धार्मिक
साहित्य की अपेक्षा इस दूसरे सोपान में तत्कालीन ललित साहित्य के भीतर ही रामकथा
की व्यापकता और लोकप्रियता मिलती है। ललित साहित्य अधिकाशतः ‘शास्त्रीय संस्कृत
काव्य’ की परंपरा थी। यहाँ राम का चरित्र साहित्यिक था, धार्मिक नहीं। बुल्के
ध्यान दिलाते हैं कि “रामभक्ति के आविर्भाव के पूर्व रामकथा का यह साहित्यिक रूप
विदेश में फैल गया और उसपर बाद में रामभक्ति का प्रभाव नहीं पड़ा, इसलिए समस्त
विदेशी रामकथा साहित्य में रामभक्ति का प्रायः अभाव है।”[20] इस
तरह विदेशों में रामकथा का प्रसार धार्मिक कम साहित्यिक ज्यादा था।
रामकथा के विस्तार को कुछ विद्वान एक ही कथा का
अलग-अलग संस्कृतियों में इम्प्रोवाईजेशन होना बताते हैं, जिसमे राजनीतिक सत्ता और
लोक संस्कृति दोनों की भूमिका थी। कुशीलवों के कव्योपजीवी वर्ग के साथ
पांडुलिपियों की नक़ल की तकनीक, राज्य निर्मित शिलालेखों- अभोलेखों का परम्परित
आदर्श मॉडल आदि मिलकर कथाओं का एक सुनिश्चित तंत्र बनाती थी। लोकमानस के बीच अगर
कथा के धार्मिक रूपों का अभाव था भी तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि साहित्य नितांत
अधार्मिक था। कथाओं का सुनिश्चित तंत्र लोकमानस, सत्ता और काव्य के रिश्तों को
बनाने वाले एक सक्रिय काव्योपजीवी वर्ग पर निर्भर करता था। इस वर्ग का
जीविकोपार्जन मुख्यतः राज्यसत्ता या धर्म संस्था पर निर्भर करता था और कहना न होगा
कि बदले में इन सत्ता संस्थाओं को अपनी जनस्वीकृति और लोकप्रियता के लिए इन वर्गों
पर निर्भर होना पड़ता था। इसलिए राज्य और धर्म संस्था के अपने हितों से भी ये कथाएं
अछूती नहीं थीं, उनमें प्रक्षेप और परिवर्तन होता रहता था और कहीं-कहीं एकदम नए
रूपों का निर्माण हो गया था।
रामकथा की लोकप्रियता आरम्भ से ही
इतनी थी कि उसे विष्णु का अवतार, बौद्ध धर्म में बोधिसत्व तथा जैन धर्म में आठवें
बलदेव की तरह स्वीकार किया गया था। संस्कृत शास्त्रीय ललित-साहित्य के भीतर
वाल्मीकि की कथा का साहित्यिक रूपांतरण और उसका विदेशों में विस्तार और अंत में
भक्ति के साथ जुड़कर लोकप्रिय धार्मिकता के सर्वोच्च रूप में विकसित होना। संक्षेप
में रामकथा की उत्पत्ति और विस्तार की कहानी यही थी। इस विकास की मौलिक एकता के
दोनों ध्रुवों पर, रामकथा के विकास, प्रसार और विविधता को आतंरिक एकता और संगति
प्रदान करने वाले दो महाकवि थे। यह नेहरू युगीन अनेकता में एकता के मॉडल से अभिन्न
है। अकारण नहीं कि बुल्के हिंदी भाषा का एक ठोस संस्कृत आधारित मानक बनाने के
प्रबल पक्षधर थे।
ब. हिन्दू धर्म और अवतारवाद
बुल्के बराबर कहा करते थे कि वर्षों
तक संस्कृत और हिंदी साहित्य पढ़ते-पढ़ते उनका मन पूरी तरह भारतीय हो गया है। लोगों
की नजरों में बुल्के आधुनिक संत की तरह थे। आधुनिक भारत के निर्माण का उद्देश्य
बुल्के के अनुसार प्राचीन और नवीन का समन्वय होना चाहिए। यह बात उन्होंने ‘हिंदी
के प्रति हिंदी भाषियों का कर्तव्य’ बतलाते हुए कही थी। भाषा आन्दोलनों की उग्रता
को लक्ष्य करते हुए उन्होंने कहा कि यह उग्रता निरे अंग्रेजी विरोध के कारण है।
भाषा का सम्मान और मानसिक सांस्कृतिक जागरण एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते।
उन्होंने कहा कि अहिंसक सत्याग्रह हमारा कर्तव्य है। हिंदी भाषा उनके लिए एक
‘संगठित शक्ति’ थी। उत्तर भारत के विभिन्न बोलियों के सम्मान की लड़ाई को बुल्के
वहीं तक स्वीकार करते थे जहाँ तक यह लड़ाई हिंदी भाषा की ‘संगठित शक्ति’ को बढ़ाने
में मददगार हो। उन्होंने कहा कि हिंदी की ‘संगठित शक्ति’ अगर बोलियों में बिखर
जाये तो उसका परिणाम उत्तर भारत के लिए बहुत घातक होगा। हिंदी भाषा और साहित्य के
पिछले चार सौ सालों के इतिहास में इस ‘संगठित शक्ति’ का इतिहास भी वह देखते थे।
फ्लेमिश जातीयता की तरह विकसित होती एक हिंदी जातीयता ! नए पुराने के समन्वय का
निर्णय उनके लिए कभी उग्र नहीं हो सकता था। उन्होंने कहा कि भारत में इतिहास कभी
भी जड़ नहीं था और न ही कभी किसी रूढ़िगत जड़ता की जगह ही भारतीय इतिहास में रही है।
बुल्के के लिए नये पुराने के निर्णय का आधार कालिदास के इन शब्दों में था-
‘पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्। संत परीक्ष्य अंतरद्
भंजते मूढ़ पर प्रत्ययनेवबुद्धः’, अर्थात् पुराना हो जाने से ही न तो कोई काव्य
अच्छा हो जाता है और न ही नया होने से ही बुरा हो जाता है। समझदार लोग दोनों को
परखकर किसी एक को अपनाते हैं। जो मूर्ख है वही दूसरों के कहने पर चलता है। इस तरह
प्राचीन की परीक्षा और आधुनिकता के बीच वह कोई विरोध नहीं मानते थे। अतीत के भंडार
से “किसी काल विशेष के कुछ ही सिद्धांत निकालकर उन्हें भारतीयता की एकमात्र
प्रतिनिधि उपलब्धि ठहराना, भारत की शताब्दियों तक निरंतर आगे बढ़ती हुई उदार
संस्कृति के प्रति घोर अन्याय ही है।”[21]
संस्कृति के प्रति इसी उदार दृष्टि से ही उन्होंने रामकथा की उत्पत्ति और विकास का
निरूपण किया था। जातीयता की संगठक शक्ति के रूप में रामकथा का इतिहास भारतीय
संस्कृति की एक उदार विश्व दृष्टि का भी विकास था। भारतीय संस्कृति की इस उदार
विश्वदृष्टि में स्वयं को नवीन करते चलने की अपार क्षमता है। प्रेमचंद के बारे में
बुल्के ने कहा कि उनकी कहानी कला का मूल स्रोत तो विदेशी है किन्तु उन्होंने उसे
अपनी मौलिक प्रतिभा के सांचे में ढालकर एक स्वाभाविक भारतीय रूप प्रदान किया है।
प्रेमचन्द की इस कहानी कला के मूल स्रोत अर्थात् यथार्थवादी कहानी कला को सम्बोधत
करते हुए उन्होंने लिखा कि बहुत से यथार्थवादी उपन्यासों में जीवन की क्रूरता, देश
की कुंठा और मनुष्य की पाशविक वृत्तियों का चित्रण मात्र किया जाता है। इसे वह
उद्देश्यहीन यथार्थवाद कहते हैं और “इस प्रकार का उद्देश्यहीन यथार्थवाद भारत की
साहित्यिक परंपरा से मेल नहीं खाता। यथार्थ को दिशा देना, कुंठा के अंधकार से
निकलने का मार्ग दिखाना, मनुष्य को पशुतुल्य धरातल से ऊपर उठाना, यह भारतीय
दृष्टिकोण के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है।”[22] बुल्के के लिए सोद्देश्य यथार्थवाद की भारतीय
परंपरा थी ‘कीरति भनिति भूति भली सोई..’। भारतीय साहित्य के इस स्वाभाविक विकास की
गति अर्थात् सोद्देश्य यथार्थवाद की उदार विश्वदृष्टि को ही वह प्रेमचंद में नवीन होता देख रहे थे।
साहित्य की तरह संस्कृति और धर्म के
प्रति बुल्के की उदार विश्वदृष्टि को भी हम उन्हीं के शब्दों में ‘सोद्देश्य
यथार्थवाद’ की दृष्टि कह सकते हैं। अपनी इसी दृष्टि से बुल्के अवतारवाद की भारतीय
विचारधारा को समझने का प्रयास करते थे। अवतार का भी एक निश्चित उद्देश्य था। वह
उद्देश्य था धर्म की स्थापना। धर्म की स्थापना के उद्देश्य से अवतारों की इच्छा को
बुल्के ने भारतीय जनता की वास्तविक इच्छाओं का स्वप्न कहा था। इस तरह बुल्के के
लिए राम की भक्ति ‘निर्बलों की आह’ को संगठित करने वाली धार्मिक विचारधारा का
प्रतिनिधित्व करती है, क्योंकि इस भक्ति में एक सोद्देश्य यथार्थवाद है। निस्संदेह
बुल्के के लिए यह सोद्देश्य यथार्थवाद प्रेमचंद के ठीक विपरीत एक धार्मिक
व्यावहारिक विचारधारा थी। बुल्के ने हिंदी विभागों से भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास
‘चित्रलेखा’ को इसीलिए हटाने का अनुरोध किया था, क्योंकि वहां कुमारगिरी जैसे योगी
का चित्रलेखा के सामने झुक जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। बुल्के के लिए
ब्रह्मचर्य का आदर्श एक उच्च आदर्श था और स्त्री सौन्दर्य के सामने उसकी पराजय
उनके अनुसार बीए के छात्रों को गलत सन्देश देती थी, इसलिए पाठ्यक्रम से उसे हटाना
जरूरी था! अवतारवाद की विचारधारा के विकास में कृष्णभक्ति के योगदान को
बुल्के-सीधे सीधे नकार नहीं सकते थे। राधा कृष्ण की रासलीलाओं और अवतारवाद की
नैतिकता के बीच का अंतर्विरोध बुल्के के लिए ठीक वैसी ही उलझन पैदा करने वाला था
जैसी ग्रियर्सन या शुक्ल जी के यहाँ। सामान्यतः हिन्दू धर्म के बारे में बुल्के का
विचार डा. राधाकृष्ण के विचारों से अभिन्न है। वह ईसाई धर्म की तरह ही हिन्दू धर्म
को भी एक विशेष जीवन व्यवहार की दृष्टि मानते थे। अंतर केवल उसकी परिणति का है।
बुल्के हिन्दूओं के जीवन व्यवहार को स्वभावतः ईसाई धर्म में पर्यवसित होता हुआ
देखते थे।
पिछले तीन हज़ार सालों से निरंतर
विकसित होते हिन्दू धर्म को, वह यहाँ के लाखों हिन्दुओं की निरंतर विकसित होती
धार्मिकता की तलाश की तरह देखते हैं। इस दीर्घ इतिहास में उन्हें किसी ऐसी
केंद्रीय सत्ता (अथॉरिटी) का अभाव मिलता है जो नई प्रवृत्तियों और व्यवहारों की
जाँच कर सके। जबतक कोई नया धर्मगुरु खुलकर वेदों को नहीं नकारता तब तक वह मोक्ष के
नए मार्ग और उस नए मार्ग के अपने अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म के भीतर जगह पा
जाता था। बुल्के कहते हैं कि समन्वय की इसी क्षमता के सहारे वेदों का खुलकर विरोध
करने वाले बौद्ध और जैन धर्म भी आजकल हिन्दूवाद की शाखा मात्र में बदल गए हैं। इस
प्रकार यह हिन्दू धर्म असंख्य मतों और पंथों और धार्मिक व्यवहारों से युक्त एक
जटिल व्यवस्था के रूप में प्रकट होती है। बुल्के देखते थे कि पढ़े लिखे हिन्दुओं के
बीच भी हिन्दू धर्म की पहचान को लेकर कोई मतैक्य नहीं था। एक लोकप्रिय राष्ट्रीय
पत्रिका के पत्राचार कॉलम की एक बहस का हवाला बुल्के देते हैं, जहाँ हिन्दू धर्म
के बारे में व्यक्तिगत विचारों पर एक लम्बी बहस हुई थी। उस लम्बी बहस का अंतिम
निर्णय था : हिन्दू एक ऐसा व्यक्ति है जिसका जन्म हिन्दू परिवार में हुआ है और
जिसने कभी खुलकर अपने धर्म का परित्याग नहीं किया है।[23] उनके
यहाँ हिन्दू धर्म की इस अपरिभाषेय संश्लिष्टता का इतिहास पहले के
प्राच्यविद्याविदों के वर्णन से बहुत भिन्न नहीं थी। ई.पू. की तीसरी और दूसरी
सस्त्राब्दियों में आर्यों का भारत आगमन हुआ। इन आर्यों ने अपने साथ
‘प्रकृति-पूजक’ धर्म भी साथ लाया। आर्यों की जो शाखा यूरोप पहुंची थी उनका धर्म भी
मुख्यतः ‘प्रकृति पूजा’ ही था। आरंभिक ऋग्वेद की सुन्दर ऋचाओं से होते हुए बाद के
तीनों वेद मिल कर हिन्दुओं के दूसरे पवित्र ग्रंथों का आधार बनते हैं। बुल्के का
सुझाव है कि बाद के तीनों वेदों की प्रकृति को बेहतर ढंग से समझने के लिए हमें
उत्तर भारत में आर्य और अनार्य आबादियों की आपसदारी के परिणाम के रूप में उन्हें
देखना चाहिए।
बुल्के लिखते हैं कि आरंभिक आर्यों
में मुख्यतः तीन श्रेणियां थीं: पुजारियों की, आधिकारिक योद्धाओं की और सामान्य
कबीलीयाई मनुष्यों की। उत्तर भारत में पहले से रह रही जनता के संपर्क और उनपर विजय
के दौरान धीरे-धीरे ये श्रेणियां कठोर होती गयीं और उन्हें धार्मिक मान्यता भी
मिलती गयी। ब्राह्मणीय कर्मकांडों के आसपास पुरोहित वर्ग ने एक विशेषाधिकार संपन्न
स्थिति हासिल कर लिया। इन कर्मकांडों के विधि-निर्देशों और धार्मिक अर्थों के
निर्देश के लिए ब्राह्मण ग्रन्थ लिखे गए। यहाँ पहली बार हिन्दू धर्म की आरंभिक
गाथाओं का संकलन मिलता है। पुरोहितों के अलावा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों
के कठोर बन्धन निर्धारित हुए। शूद्र अधिकांशतः अनार्य जनता थी जो सेवा कार्यों के
निमित्त सामाजिक संरचना में शामिल कर लिए गए थे। इनमें में अनेक ऐसे थे जिन्हें
जाति बाह्य भी समझा जाता था।[24] जाति
का नियम शादी के नियमों से बंधा था। इसके अलावा खान-पान और व्यवसाय के कठोर नियम
थे। अपनी जाति के बाहर शादी और व्यवसाय का स्वप्न देखना, हिन्दू व्यवस्था के भीतर
संभव नहीं था और जाति बाह्य होने के डर से धर्मान्तरण हमेशा से मुश्किल रहा है।
बुल्के लिखते हैं कि सामाजिक व्यवस्था में जातिवाद इतनी गहराई तक व्याप्त है कि
इसे बदलने में अभी बहुत वक़्त लगेगा।
जन्म-जन्मान्तर तक व्याप्त कर्म-बंधन
का सिद्धांत ब्राह्मण ग्रंथों के पुनर्जन्म की मान्यता से विकसित होता गया था।
उनके अनुसार कर्म-बंधन का यह सिद्धांत व्यावहारिक रूप से लगभग हर हिन्दू मानता है।
कर्म-बंधन का यह सिद्धांत कहता है कि किसी का वर्तमान अस्तित्व अपने सभी सुखों और
दुखों के साथ पूर्वजन्म के कर्मों का फल है और भविष्य के जन्म का आधार। असंख्य
आत्माएं पुनर्जन्म के इस बंधन में भटक रही हैं और इसकी न तो कोई शुरुआत है और न ही
कोई अंत। परन्तु कुछ लोग हमेशा ही इस भवचक्र से मुक्ति पाते रहेंगे। बुल्के लिखते
हैं कि इस प्रकार यह सिद्धांत संपूर्ण ब्रह्मांड को एक नैतिक सिद्धांत के अधीन
करता है जहाँ हर अच्छे काम को पुरस्कृत और बुरे काम को दण्डित होना पड़ता है। इस
ब्रह्मांडीय नियम के अन्दर देवता भी शामिल हैं। दर्शनों में इस कर्म बंधन पर
अंतहीन बहसें हुई हैं। पर लगभग सभी इस बात पर सहमत हैं कि आत्मानुशासन या ईश्वर के
आशीर्वाद से प्राप्त आत्मज्ञान से मुक्ति संभव है। बुल्के ने महसूस किया था कि
पुनर्जन्म के इस बंधन का सिद्धांत बहुत हताशाजनक है। उन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय
के अपने एक विद्यार्थी का एक संस्मरण सुनाया जिसने बुल्के के सामने द्रवित हृदय से
अपने पापों का ज़िक्र किया और अंत में कहा कि उसने अपना यह जन्म गँवा दिया है, और
अब इसकी भरपाई इस जन्म में संभव नहीं। हताशाजनक इस सिद्धांत के कारण वर्तमान जन्म
ही अंतिम जन्म है, इसकी कल्पना से ही लोग डरते हैं। अपने पापों के प्रति इतने सचेत
लेकिन पश्चाताप की कोई आशा नहीं। इस प्रकार हिन्दुओं की जीवन दृष्टि में एक चरम
निराशावाद की झलक दिखती है।
बुल्के ने लिखा कि असंख्य
देवी-देवताओं के बीच एक ही परमात्मा पर विश्वास केवल शिक्षित हिन्दुओं के बीच
मान्य है। पर इन शिक्षितों के बीच बहुत कम ऐसे हैं जो शंकर को समझने का दावा कर
सकते हैं, परन्तु शंकर की तरह ही वे एक निर्वैयक्तिक परमात्मा पर विश्वास करते हैं।
अलग-अलग ईश्वर उस एक ही ब्रह्म के निरूपण हैं। भक्त कवियों के आधिभौतिक सार को वह
इन शब्दों में रखते हैं : “जब वे अटकल लगते हैं तो उनका झुकाव अद्वैतवाद की तरफ
होता है, लेकिन उनकी तीव्र धार्मिक अन्तःप्रज्ञा हमेशा एक वैयक्तिक ईश्वर की ओर
उन्हें खींच लेती है।”[25] ईसा
पूर्व छठी शताब्दी में उठे आस्तिक आन्दोलन के परिणामस्वरूप भगवद्गीता का जन्म होता
है जिसे वे हिन्दुओं की सबसे पवित्र और लोकप्रिय पुस्तक मानते हैं। उनके अनुसार
भगवद्गीता की अद्वैतवादी व्याख्याओं से हटकर जब हम उसका पूर्वग्रहहीन पाठ करते
हैं, तो पाते हैं कि वहां कृष्ण के प्रति वैयक्तिक भक्ति और आत्मसमर्पण है, जो
पूर्वजन्म के चक्र से मुक्ति का मार्ग दिखाता है। पुराणों की अपेक्षा भगवद्गीता
में उच्च नैतिक मूल्यों की केन्द्रीयता है। बुल्के लिखते हैं कि एक गंभीर हिन्दू
ने उन्हें कभी कहा था कि भारत में कृष्ण को इतना सम्मान और इतनी भक्ति कभी नहीं
मिलती अगर वह पहली बार अपनी गोपाल लीलाओं के द्वारा जाना जाता। दक्षिण भारत के शैव
संतों की शिव आराधनाओं में भी भगवद्गीता की तरह गंभीर और सच्ची आध्यात्मिकता के
दर्शन होते हैं। बाद में यह सच्ची धार्मिकता रामभक्ति में ही सबसे सुन्दर और
हृदयग्राही रूप ग्रहण करती है। इन सबके अलावा हिन्दू धर्म का मतलब हजारों की
संख्या में घूमने वाले साधु-संन्यासियों, हजारों मंदिरों, सैकड़ों तीर्थों और लाखों
भक्त हिन्दू स्त्रियों के दैनिक व्रतों और उपवासों के ज़िक्र के बिना अधूरा है।
हजारों की संख्या में घूमने वाले और आम लोगों के दान पर निर्भर रहने वाले साधु
आधुनिक हिन्दू धर्म की एक दुखद प्रवृत्ति को व्यक्त करते हैं। बुल्के के अनुसार
भारत में एक ‘शिक्षित हिन्दू पुरोहित वर्ग’ का अभाव बहुत खटकने वाली बात है।
निष्कर्षतः बुल्के मानते हैं कि ईश्वर
की खोज का जैसा भावावेगपूर्ण इतिहास हिंदुस्तान में मिलता है। उतना शायद विश्व के
किसी देश में नहीं। परन्तु दूसरी ओर भारत के ऋषियों और ज्ञानियों ने हमेशा इस बात
पर जोर दिया कि परमात्मा की प्रकृति को पूरी तरह जानने में मनुष्य की बुद्धि अक्षम
है। महाभारत में कहा गया है कि शास्त्र और परंपरा हमें कई परस्पर विरुद्ध कथनों के
सामने ला खड़ा करते हैं, हर ऋषि के पास अपना कोई भिन्न सिद्धांत है और धर्म का
रहस्य गुहा में छिपा है। हिन्दू धर्म के इस संशयवाद को बुल्के आधुनिक हिन्दुओं में
भी पैठा हुआ देखते हैं। भारत में व्याप्त धार्मिक तटस्थतावाद के लिए बुल्के आंशिक
रूप से इस संशयवाद को जिम्मेदार ठहराते हैं। सभी धर्म समान रूप से अच्छे हैं, सारी
नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं आदि निष्कर्ष इसी धार्मिक संशयवाद का परिणाम है।[26]
अवतारवाद और रामभक्ति दो ऐसी चीजें
हैं जो उनके अनुसार आधुनिक हिन्दू धर्म को एक करती है। अवतारवाद की भावना बुल्के
के लिए एक वैयक्तिक ईश्वर की चाह की भावना थी। दूसरे शब्दों में एक सच्चे
एकेश्वरवादी धर्म की आन्तरिकता का इतिहास अवतारवाद का इतिहास है। हमने पीछे देखा
कि शुक्ल जी के व्यावहारिक उभयस्वरूप ब्रह्म के सिद्धांत से उन्हें तोष नहीं था।
भक्ति कविता में उन्होंने भक्तों की इस प्रबल आकांक्षा की ओर ध्यान दिलाया था।
अवतार की इसी प्रबल आकांक्षा के कारण तुलसीदास पिछले कवियों से अलग थे। अनुमान और
दर्शन में भले ही तुलसी ‘सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा’ कहते हों लेकिन वहां
वैयक्तिक राम का आग्रह इतना प्रबल है कि कभी-कभी राम अपना परब्रह्म रूप छोड़कर
मनुष्यों की तरह वास्तविक सुख-दुःख का अनुभव करने लगते हैं। यह महज लीला का आनंद
नहीं है। वरन् वास्तविक मनुष्य में वास्तव होने की वेदना है। रामकथा सच्चे अवतार
का पूर्वस्वप्न है। यह भारतीय ईसाइयत का आतंरिक इतिहास था जो वास्तव में तुलसीदास
का हाथ पकड़कर ईसाइयत की वैश्विकता पा लेगा। बुल्के अवतारवाद के विकास में
कृष्णभक्ति की प्रकृति पर विस्तार से चर्चा करते हैं। कृष्णभक्ति की अनैतिकता अन्य
प्राच्यविद्याविदों और शुक्ल जी के साथ-साथ बुल्के की आलोचना का केंद्र बनी रही।
इन नैतिक मूल्यों का संबंध समाज में यौनिकता के गहरे स्तरों से था, जिसे हमने द्विवेदी जी की चर्चा के दौरान पीछे देखा
है। बुल्के एकदम शुक्ल जी की तरह ही रामभक्ति पर कृष्णभक्ति के प्रभावों की आलोचना
करते हैं। राम-सीता की माधुर्य भक्ति में राम और सीता के चरित्र की विकृति बुल्के
के अनुसार खुद हिन्दू अवतारवाद की अवधारणा में अन्तर्निहित है। दूसरी ओर दार्शनिक
व्याख्याओं के लिए जितने शास्त्र उपलब्ध हैं, वे सभी कृष्णभक्ति पर केन्द्रित हैं।
कृष्णभक्ति से जुड़े इन दार्शनिक ग्रंथों में अवतारवाद को लीलावाद में बदल दिया है।
शुक्ल इसी को ‘लोकमंगल की सिद्धावस्था’ कहते थे। बुल्के के अनुसार कृष्णभक्ति की
दार्शनिक व्याख्याओं में नैतिकता की रक्षा का ऐसा प्रयास पहले भी हुआ था, लेकिन वह
कभी भी प्रभावी नहीं हो सका। इसका कारण है कि भारतीय अवतारवाद की धारणा में
नैतिकता और धार्मिकता के बीच हमेशा ही एक जरूरी पार्थक्य बनाये रखा गया है। ईश्वर
का सत्-चित्-आनंद रूप जब धार्मिक व्यावहार के लिए प्रयुक्त होता है तब उसमें
विकृति आती है। यहाँ नैतिक-अनैतिक के निर्णय का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता, क्योंकि
सच्चिदानंद स्वरूप ईश्वर नैतिक-अनैतिक निर्णय से बाहर है। कहा जा सकता है कि
व्यावहारिक सत्य के रूप में बुल्के के लिए मसीह का चरित्र सत्-चित्-आनंद स्वरूप
नहीं बल्कि ‘सत्-चित्-वेदना’ के स्वरूप में वास्तविक होता है।
अवतार के जिम्मे कई अनैतिक कार्यों का
ज़िक्र स्वयं महाभारत में था। कृष्ण का चरित्र वहां पूरी तरह नैतिक नहीं बना रहता।
गीता में अवतार के दो उद्देश्य बताये गए हैं। पहला ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण,
दूसरा भक्त की मुक्ति। बाद की कृष्णाश्रयी धाराओं में पहली को छोड़ केवल दूसरी पर
ध्यान दिया गया। जबकि बुल्के कहते हैं कि ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण ही मुक्ति
का रास्ता है। इसे छोड़ कर मोक्ष पर ध्यान लगाना नैतिकता और धार्मिकता के अलगाव को
जन्म देना। दूसरे शब्दों में कहें तो पूर्ण समर्पण की नैतिकता मूल और आरंभिक है,
उसे छोड़ कर सीधे मोक्ष पर ध्यान लगाने से विकृति आती है। मोक्ष एक प्रक्रिया है
जिसकी पहली शर्त है पूर्ण समर्पण। यह पूर्ण समर्पण एक उच्च नैतिक मूल्यों वाले
शहीदी चरित्र में मसीह ने वास्तव किया था।
वेदना
और करुणा की कथाओं में मसीह के चरित्र का सार है। बुल्के पुनर्जागरण या पुनरुथान
के मसीही शहादत को गोस्पेल की कथाओं में अभिव्यक्त मानते थे। इसलिए वहां दैनिक
व्यावहारिक नैतिकता पर जोर था। हमने देखा था कि कृषक जीवन और औद्योगिक जीवन की
विकृतियों के बीच वह मसीही करुणा का प्रचार ज़रूरी मानते थे। कारीगरी (आर्टीजनशिप)
वाले सामाजिक सम्बन्धों से बनने वाली सामूहिकता में वह जीवन का आदर्श देखते हैं।
गोस्पेल की कथाओं की कारुणिकता में अवतारवाद का सार देखना, जेसुइटपंथियों की अपनी
मान्यता थी। वे जेसुइट सम्प्रदाय से थे और बाइबिल या न्यूटेस्टामेंट की
साहित्यिकता के महत्त्व को जानते थे। कहने का अर्थ यह है कि बुल्के मसीही अवतारवाद
की एक भिन्न परम्परा से आते थे। सामूहिक परिवार सामुदायिक जीवन की पहली पाठशाला
मानी जाती है और इस जीवन के रोज़मर्रा के दृश्यों में करुणा की असंख्य
अभिव्यक्तियाँ होती हैं। इस जीवन में मसीही करुणा सीमेंट की तरह काम करती है।
बुल्के साहित्यिकता का उद्देश्य इस जीवन में मसीही करुणा के प्रचार प्रसार में
देखते थे। मसीही अवतारवाद की इसी वैश्विकता के प्रचार के लिए बुल्के स्वयं मिशनरी
कार्यों का एक आदर्श स्थापित कर रहे थे।[27]
बुल्के का मानस उनके शब्दों में पूर्ण भारतीय हो गया था। इसी भारतीय मानस से वह
भारतीय अवतारवाद की आलोचना करते हैं। परहित और विश्वमानवतावाद की विचारधारा चालीस
और पचास के दशक में जोर-शोर से प्रचारित हुई थी। १९५६ के बाद रूसी कम्युनिस्ट
पार्टी की आत्मालोचनाओं से भी इस विचारधारा को काफी बल मिला था। जीवन-जगत में
हिंसा के विकृत और बर्बर रूपों को सामने कर सामाजिक व्यवस्था के रूप में औद्योगिक
सभ्यता या पूंजीवादी सभ्यता से मुक्ति के सारे प्रयासों को निरर्थक घोषित किया
जाने लगा था। पूँजी के भीतर एक बेहतर दुनिया की संभावना के लिए जेसुइट मिशनरी भी
अपनी मसीहाई करुणा को लेकर बहुत सक्रिय थी। मसीही अवतारवाद के करुण पक्ष को लेकर
संघों में समर्पित पुजारियों का एक नया दल उत्साहित होकर लग गया था। यह ईसाई धर्म
की व्यावहारिकता और ईश्वर के राज्य के विकल्प का प्रचार करने में सबसे आगे था। ये
मिशनरी उच्च नैतिक मूल्यों को सामने रख समाज में शान्ति और सुख की वास्तविकता के
स्वप्न को यथार्थ करने की कोशिश कर रहे थे। इस मानवतावादी धार्मिक विचारधारा का
प्रचार मार्क्सवाद को भी प्रभावित कर रहा था। ऐसे ही वक़्त में आरंभिक मार्क्स की
रचनाओं को आधार बना कर पश्चिमी मार्क्सवाद की एक प्रवृत्ति के रूप में, मानवतावादी
मार्क्सवाद का भी जन्म हुआ था। करुणा की सार्वभौमिकता का आधार श्रम के अपने अलगाव
में निहित था। ‘आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों’ में मार्क्स ने पहली बार अमूर्त
मनुष्य के बदले जीते-जागते श्रमशील मनुष्य की पूर्णता को दर्शन के केंद्र में लाया
था। मनुष्य का अपने प्रजातीय सत्ता से अलगाव की व्याख्याओं में मनुष्य के आदिम
अलगाव की व्याख्या देख, ईसाई धार्मिक विचारधारा ने मार्क्स की व्याख्याओं में
अन्तर्निहित नैतिकता को ईसाई नैतिकता से एक कर दिया। इस वैचारिक परिदृश्य में ही
एक करुण और अहिंसक मार्क्सवाद की कल्पना के लिए भी अवकाश मिल गया था। बुल्के
व्यक्तिवाद या मसीह की वैक्तिकता की धारणा में हिंसा का पूर्ण निषेध देखते थे।
पूंजीवादी व्यक्तिवादी विचारधारों की आलोचना के साथ-साथ वह दैवीय हिंसा की धारणा
के भी आलोचक थे। बुल्के संघ के उद्देश्यों को यथार्थवादी मानते थे। संघ के भीतर
व्यक्तिवाद की रक्षा को वह सत्य से जोड़ कर ही देखते थे। मसीह के करुण सन्देश की
वास्तविकता का प्रचार-प्रसार कभी भी उन्हें व्यक्तिस्वातंत्र्य के आड़े आने वाला
प्रतीत नहीं हुआ। बल्कि उन्हें लगता था कि संघ के भीतर ही व्यक्तिस्वातंत्र्य का
सर्वोत्तम रूप सामने आता है। यहाँ स्वतंत्र सत्य के बल से संगठित होती है और
अन्दर-बाहर का द्वैत पूर्णतः मिट जाता है। धार्मिकता और नैतिकता का यह संयोग
उन्हें ईसाई नैतिकता की स्वाभाविक वैश्विकता प्रतीत होती थी। फ्लेमिश और भारतीय
बुर्जुआजी के चरित्र की एकता में बुल्के को जनता के कष्टों के बीज दिखाई देते थे।
जनता के कष्टों से निजात के लिए साधन और साध्य दोनों की पवित्रता आवशयक थी। हिंसा
को नैतिक रूप से स्वीकार करना बुल्के के लिए असंभव था। साधन और साध्य दोनों की
पवित्रता में वह धार्मिकता और नैतिकता की एकता देखते थे।
हिन्दू अवतारवाद में साध्य की
पवित्रता से साधन की नैतिकता तय होती है। बुल्के ‘अंत भला तो सब भला’ के विचार को
नहीं स्वीकार करते। साधन की अपवित्रता से साध्य भी अपवित्र हो जाता है। साध्य तभी
न्यायसंगत हो सकता है जब साधन भी न्यायसंगत हो। साधन और साध्य की इस प्राकृत-कानूनवादी
व्याख्या को बुल्के मसीही अवतारवाद की मौलिकता मानते थे। तुलसी के यहाँ हिंसा और
युद्ध के बदले आत्मसमर्पण की केन्द्रीयता थी। बुल्के ने कई ऐसे प्रसंगों का ज़िक्र
किया है जहाँ तुलसी हिंसा को आत्मसमर्पण की नैतिक सीमा में मोक्ष का कारण बना देते
हैं। हिंसा को मुक्ति का कारण बताकर उसे नैतिक बनाने के इस प्रयास में बुल्के
भारतीय अवतारवाद की सीमा देखते थे। बुल्के ने भारतीय अवतारवाद और ईसाई मसीही
अवतारवाद (इनकार्नेशन) के बीच पांच समानताएं गिनाई हैं:-[28]
१.
मसीही और भारतीय दोनों
अवतारों का मतलब है- धरती पर ईश्वर का मुक्त प्रवेश।
२.
दोनों तंत्र यह बताते
हैं कि इस मुक्त प्रवेश से ईश्वर अपना पारब्रह्म चरित्र नहीं खोता। अर्थात् उसकी
पारलौकिकता या सर्वभूतात्मकता का लोप नहीं हो जाता। उसका ईश्वरत्व अविकृत रहता है।
३.
दोनों तंत्र अवतार के
उद्देश्यों में अभिन्न हैं- ‘धर्मसंस्थाप्नाय’। दोनों तंत्रों में ईश्वर के
परमप्रेमनिधान और अनंतकरुणानिधान रूप को बहुत महत्त्व दिया गया है। वह मनुष्य की
मुक्ति के लिए अवतरित होते हैं और मुक्ति को सरल बना देते हैं। भगवान् मनुष्य का
सुखदाता, सखा और सहचर हो जाता है।
४.
परमदयालु करुणानिधान के
प्रति पूर्ण समर्पण और अवतार के प्रति प्रेममयी श्रद्धा या भक्ति दोनों तंत्रों
में है।
५.
मोक्ष का अर्थ दोनों
जगह अनंतकाल तक भगवान् के साथ आनन्दमय सान्निध्य में है। (बुल्के के अनुसार यह
शंकर की वही बात है जहां ‘आत्मचेतना’ लुप्त हो जाती है।)
दोनों
तंत्रों के बीच मौलिक अंतर इस प्रकार है:-
१.
नर प्रकृति के यथार्थ
को लेकर:
भारतीय
अवतार की परम्परा को वह ईसाई धर्म में ‘ईशदर्शन’ (थेईफैनी) की परम्परा की तरह
देखते हैं। मसीह पूर्ण ईश्वर और पूर्ण मनुष्य दोनों है; पवित्र त्रित्व का दूसरा
व्यक्ति जो ईश्वर और नर प्रकृति को अवधारणा में एक करता है। नर प्रकृति बनती है
वास्तविक आत्मा और शरीर से, उसे दुःख या पीड़ा की वास्तविक अनुभूति होती है। वह
सीमित और ससीम है। भारतीय अवतार नर प्रकृति के क्षेत्र में कभी वास्तविक नहीं होता।
उसका शरीर, जब वह नर रूप में आता है, तब भी वास्तविक हाड़-मांस से बना शरीर नहीं
होता बल्कि शुद्ध आध्यात्मिक पदार्थ का बना होता है। इसलिए वह प्रकृति के नियमों
से बाहर होता है। वह वास्तविक मनुष्य नहीं होता। इसलिए उसकी सारी पीड़ा, सारे सुख
और उसके सारे नैतिक-अनैतिक कर्म सब अभिनय में बदल जाते हैं। अवतार वहां लीला मात्र
है। तुलसीदास के यहाँ भी अक्सर इस बात पर जोर दिया गया है कि राम स्वयं कष्ट नहीं
भोग रहे बल्कि मंच के अभिनेता की तरह अनुभूतियों का प्रदर्शन मात्र कर रहे हैं और
शब्द कह रहे हैं। बुल्के तुलसी को उद्धृत करते हैं:-
भगत हेतु भगवान् प्रभु,
राम धरेउ तनु-भूप।
किये चरित पावन परम
प्राकृत नर अनुरूप।।
जथा अनेक वेश धरि नृत्य
करइ कर करेई ।
सोई सोई भाव देखावाइ,
आपुन होइ न सोइ।।
पर
बुल्के के अनुसार लोकप्रिय विश्वास में यही चला आया है कि राम का वास्तव में जन्म
हुआ था। वह मनुष्यों के बीच जिंदा थे और उन्हीं के बीच उनकी मृत्यु हुई। एक मौके
पर तो तुलसी भी अपना दर्शन भूल गए और कहा कि भगतों के हित राम ने अनेक कष्ट झेले
हैं:-
राम भगत हित नर तनु धारी।
सहि संकट किए साधु सुखारी।।
हिन्दू
दर्शन में यह सर्वस्वीकृत है कि ईश्वर कभी वास्तविक मनुष्य नहीं हो सकता। उसकी
प्रकृति कभी नर प्रकृति नहीं हो सकती। अपने इस निष्कर्ष के समर्थन में उन्होंने
हिन्दू दर्शन के विख्यात विद्वान् राधाकृष्णन को उद्धृत किया: “एक कष्ट भोगता
ईश्वर, काँटों के ताज का देवता कभी धार्मिक आत्मा को संतोष प्रदान नहीं कर सकता।”
बुल्के इस मत से पूरी तरह असहमत हैं और कहते हैं कि पिछली बीस सदियों का इतिहास
गवाह है कि एक कष्ट भोगता ईश्वर धार्मिक आत्मा को शांति दे सकता है।
बुल्के आगे लिखते हैं कि “क्रिसमस की
कहानियां मनुष्यों के हृदय को ज्यादा आसानी से पकड़ लेती हैं बनिस्पत पुनरुथान के
आख्यान के; गुड़ फ्राइडे का भावेग मनुष्य हृदय पर अपनी छाप कहीं गहरे छोड़ता है,
बनिस्पत ईस्टर सन्डे की महिमा के; ईसाई श्रद्धा सलीब से ज्यादा प्रेरित होती है
बनिस्पत मसीह के चमत्कारों से; महान् परीक्षाओं के वक़्त हमें शान्ति स्वर्ग के
विचारों से नहीं बल्कि कलवारी के सलीब से मिलती है; सलीब हमें आंसू बहाने पर मजबूर
करता है न केवल प्रेम के बल्कि सहानुभूति और करुणा के भी।”[29]
जेसुइट मत के साथ-साथ यह बुल्के का अपना अनुभूतिगम्य ईसाई धर्म है। यहाँ चमत्कार
या पुनरुत्थान के बदले सहानुभूति और करुणा का जीवन मसीही अवतार के केंद्र में है।
ईश्वरीय प्रेम पूरी तरह मसीही अवतार में ही प्रकट होता है। वहां मनुष्य के लिए
मनुष्य की तरह मसीह खुद पीड़ा सहता हुआ मनुष्य के जीवन के साथ है। उस मनुष्य के लिए
जिसे उसने ‘कुछ नहीं’ से पैदा किया। कृष्ण के चरित्र में ऐसा कुछ नहीं है।
आत्मविसर्जन वाला भारतीय प्रेम का आदर्श भी ईसा में ही है।
२.
मोक्ष या उद्धार की
प्रकृति:
अ)
ईसा ने नरप्रकृति धारण
किया और सलीब पर अपने बलिदान द्वारा पाप और मृत्यु से इसे मुक्ति प्रदान किया।
इससे मनुष्यों की आत्मा और उसका शरीर दोनों उच्चतर भूमि तक उठ गए और वह दैवीय जीवन
में भागीदारी के योग्य हो गए। दैवीय जीवन में भागीदारी को बुल्के ईश्वर के चिर
सान्निध्य की तरह देखते हैं। भारतीय अवतार तंत्र में नर प्रकृति के उद्धार की जगह
नहीं है और न ही वहां शरीर के पुनरुत्थान की महिमा है। “जैसे ईश्वर मनुष्य नहीं हो
सकते वैसे ही मनुष्य (यानी कि मानव प्रकृति) भी कभी ईश्वरत्व नहीं पा सकती।
आ)
ईसा ने एक बार विश्व का
उद्धार कर हमेशा के लिए उसका उद्धार कर दिया और अंत में सब कुछ ईसा में वापस स्थित
हो जाएगा। वह मनुष्य इतिहास का संहार है। दूसरी ओर हिन्दू अवतार तंत्र में विश्व
अनादि और अनंत है। वहां अवतारों की ज़रूरत हमेशा बनी रहेगी। अनंत काल तक उसका हर
कल्प में आविर्भाव होता रहेगा और हर बार कुछ आत्माएं पुनर्जन्म के बंधन से मुक्ति
पाते रहेंगे। भवबंधन में पड़े असंख्य जीवों के साथ यह प्रक्रिया चलती रहेगी।
३.
नैतिक और धार्मिक
चरित्र:
अ)
नीतिशास्त्र: स्वयं नर
प्रकृति में ईसा का जीवन नैतिक जीवन का आदर्श है। इस अर्थ में कर्तव्य के नियमों
के पालन का वह जीता जागता उदाहरण है। क्योंकि वह ईश्वर का अवतार था इसलिए पापी
नहीं हो सकता था। इस प्रकार वह प्रकृति और चुनाव दोनों ही स्थितियों में पाप-मुक्त
था। “आखिर कौन मुझ पर पाप का आरोप लगाएगा?” भारतीय अवतार तंत्र में ईश्वर स्वयं
धर्म के अनुपालन से स्वतंत्र है। वह पाप-पुण्य से परे है। वह स्वयं नैतिक मानदंडो
से ऊपर और स्वतंत्र है। बुल्के उदाहरण देते हैं- परशुराम ने क्षत्रियों से बदला
लेने के लिए २१ बार उनकी हत्या की, वाल्मीकि की कविता में राम का चरित्र उदात्त है
पर बाद के प्रक्षेपों और अन्तःक्षेपों में कई बातें उसके चरित्र से जुड़ गयी जो
न्यायसांगत नहीं है, जैसे बालि-वध, सीता की अग्नि-परीक्षा आदि। बाद के भक्ति
सम्प्रदायों में उन्हें कृष्ण का अनुकरणकर्ता दिखाया गया। कृष्ण का गोपियों के साथ
रास कहीं से भी नैतिक नहीं। बुद्ध अवतार तो गलत शिक्षाओं के प्रचार के लिए ही माना
गया है। बुल्के लिखते हैं कि धर्म और नीतिशास्त्र का अलगाव भारतीय अवतारवाद का
‘खतरनाक सिद्धांत’ है। भक्ति संप्रदाय के सिद्धान्त में भी इस अलगाव की व्याख्या
मिलती है। इस पृथकता के कारण ही कई सारे भक्ति संप्रदाय भ्रष्टाचार के गढ़ बनते गए।
इसकी स्वीकृति स्वयं रामानुज के यहाँ है। रामानुज ने कहा था कि यह सही है विष्णु
को बारिश से बचने के लिए अपने सहयोगियों के साथ शिव-मंदिर में शरण लेनी पड़ी थी, पर
इसका यह मतलब नहीं कि भक्त भी शैवों की मदद ले। रामानुज ने कहा अगर राजा अपनी किसी
गणिका के साथ सम्भोग करता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि राजा की पतिव्रता स्त्री भी
अपने किसी सभासद से सम्भोग कर सकती है। गोविन्दाचार्य ने इसका मतलब बताते हुए कहा
कि राजा या भगवान् कोई काम करते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि भक्त भी वैसा ही काम
करने को स्वतंत्र है। भक्त हर काम में भगवान् का अनुकरण नहीं कर सकता। बुल्के
रामानुज सम्प्रदाय की उस अद्भुत मान्यता का उल्लेख करते है, जहाँ भक्त भगवान् या
उनके भक्त को प्रसन्न करने के लिए पाप करता है। रामानुज के अनुरंजन के लिए एक
महिला अपना शरीर भी बेचने को तैयार हो जाती है। उसका तर्क था कि “रामानुज जैसे
अतिथि के सम्मान के लिए मैं व्याभिचार को भी प्रस्स्तुत हूँ... मैं अपना शरीर बीच
कर उस शरीर से उनकी भक्ति करुँगी। क्योंकि स्वयं भगवान् ने कहा है कि- मेरे लिए
किये जाने वाले तुम्हारे पाप भी पुण्य हो जाते हैं, जबकि मेरे सन्दर्भ से हीन
तुम्हारे सरे गुण भी व्याभिचार मात्र हो जाते हैं।” पतिव्रत और स्त्रीधर्म के इस
दुहरे चरित्र को भारतीय भक्ति में और इस प्रकार हिन्दू अवतार तंत्र में जगह
प्राप्त है। भारतीय अवतार तंत्र में हर जगह इस धार्मिक और नैतिक द्वैत का पता
मिलता है।
आ)
धार्मिकता: वास्तविक
मनुष्य की तरह ईसा के पास स्वयं की एक अपनी धार्मिकता है। वह पापमुक्त है फिर भी
ईश्वर की प्रार्थना करता है। वह सभी वस्तुओं में स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित
करता है। “मैं पिता से आया हूँ”, “मैं पिता में हूँ”, “मैं पिता के पास जाता हूँ”।
भारतीय अवतार तंत्र में अवतार के लिए स्वयं साधना की जगह नहीं है। इसलिए वह
मनुष्यों की साधना या उसके आध्यात्मिक जीवन की वास्तविक प्रेरणा नहीं हो सकता। न
ही धार्मिक और न ही नैतिक आचरण में।
४.
ऐतिहासिकता:
ईसा
एक ठेठ ऐतिहासिक चरित्र है और गोस्पेल की कहानियों में उसके जीवन के ऐतिहासिक
तथ्यों का पता मिलता है। बुल्के कहते हैं कि ईसा के चरित्र को मिथ बनाने का प्रयास
धर्म के दुश्मनों का है ताकि ईसायत को धर्म के नाम पर बुरा-भला कहा जा सके। दूसरी
ओर भारतीय अवतार तंत्र में अवतार की सारी कहानियाँ मिथ हैं। बुल्के राम, परशुराम
या कृष्ण की ऐतिहासिकता को अस्वीकार न करते हुए भी इनकी कथाओं को बाद की कल्पना और
विकास बताया है। इन चरित्रों ने खुद को कभी दैवीय नहीं कहा। रामकथा के ऐतिहासिक
विकास का निरूपण कर उन्होंने स्वयं इन कहानियों के विकास समझने की कोशिश की थी। इन
कहानियों के बदलाव या फेर-फार के पीछे बुल्के किसी ठोस ऐतिहासिक चेतना का अभाव
पाते हैं। अर्थात् इन कहानियों में ऐतिहासिकता की रक्षा के लिए किसी ठोस केन्द्रीय
सत्ता का आभाव है।
बुल्के
भारतीय अवतारों की कल्पना में एक सच्ची धार्मिक अन्तःप्रेरणा देखते हैं। एक शुद्ध
और सहज मानवीय आकांक्षा, जहाँ ईश्वर मनुष्यों के पापमय, दुखमय, कष्टमय जीवन के
उद्धार के निमित्त ही धरा-धाम पर अवतरित होता है। यद्यपि यह सही है कि अवतार की
कहानियाँ मिथकीय हैं और उनमें ऐतिहासिकता का अभाव है परन्तु “यह वासना, यह
अन्तःप्रेरणा, ईश्वर के प्रति यह विश्वास, यह आस्था गलत नहीं है, ईश्वर के अवतार
की आकांक्षा में वे सही थे। यहाँ तक कि उनके मिथ भी पूरी तरह गलत नहीं हैं; वे सभी
ईसा मसीह में वास्तव हुई हैं। उनके (भारतीयों के) सबसे सुन्दर स्वप्न की अपेक्षा
यह यथार्थ कहीं ज्यादा उदात्त है- ईश्वर पूर्ण रूप से मनुष्य बन कर सारी पीड़ा को
वास्तव में भोगता हुआ अपनी मृत्यु के बाद सभी मनुष्यों का उद्धार संभव करता है। यह
हम पर निर्भर है कि हम अगाध श्रद्धा और सच्ची सहानुभूति के सहारे दिखा पायें कि
उनके स्वप्नों का यथार्थ ही हमारा ईसा मसीह है।”[30]
अंबेडकर के लिए धर्म और धम्म के बीच
सबसे बड़ा फर्क नैतिकता को लेकर ही था। हिन्दुवाद में धर्म और नैतिकता का अलगाव था
जबकि धम्म और कुछ नहीं नैतिकता थी। बौद्ध धर्म नैतिकता की सार्वभौमिकता और
भिक्षु-संघ के रूप में नए समाज का निर्माण, इन दोनों को साथ-साथ लेकर चलता है।
अंबेडकर धम्म या बुद्धवाद को ‘प्रज्ञा और करुणा’ पर आधारित समानता की वैश्विक
संस्कृति का वास्तविक इहलौकीकरण मानते हैं। वहां कोई ईश्वर या अवतार नहीं है। वह
शुद्ध विश्वबंधुत्व है जो कि नैतिकता है और वही धम्म है। अंबेडकर भक्ति को
राजनीतिक जीवन में ‘व्यक्ति-पूजा’ की प्रवृत्ति की तरह देखते हैं जिसका अंतिम रूप
तानाशाही है। उनके अनुसार किसी के प्रति हमारी अगाध श्रद्धा एक चीज़ है लेकिन उसकी
आज्ञा का पालन बिलकुल दूसरी चीज़। श्रद्धा किसी उच्च आदर्श के शरीर रूप के प्रति
होती है और यह महत्वपूर्ण चीज़ है, जबकि उसका आज्ञापालक होना दासत्व है।[32] हमने
पीछे देखा था कि बौद्ध धर्म में हृदय के आभाव और उसके शुष्क बुद्धिवाद को कारण बता
कर उसकी लोकप्रियता के ह्रास को समझा गया था। अंबेडकर को बौद्ध पुनरुत्थान के लिए
लोकप्रियता एक बड़ी चुनौती लगती थी। बौद्ध भिक्खु संघ के आदर्श विकास के लिए क्या
ज़रूरी था और क्यों ज़रूरी था, इसे अंबेडकर स्पष्ट करते हुए सबसे पहली और सबसे
महत्वपूर्ण चीज़ बताते हैं- एक बौद्ध बाइबिल का लिखा जाना। दूसरी चीज़ है भिक्खु संघ
के उद्देश्य, संगठन और उद्देश्यों को बदलना और तीसरी एक विश्व बौद्ध मिशन की
स्थापना। ये सब बातें वह भिक्खु संघ के सदस्यों को संबोधित करते हुए कह रहे थे।
अंबेडकर कहते हैं कि हर महान् धर्म आस्था या विश्वास पर टिका है। लेकिन आस्था केवल
शुद्ध विमर्श या अमूर्त्त डॉग्मा पर नहीं टिक सकती। शुष्क सिद्धांत कथनों से आस्था
पैदा नहीं होती और बिना आस्था के धर्म का प्रचार संभव नहीं होता। कल्पना को टिकने
के लिए कुछ न कुछ चाहिए- मसलन कोई मिथक, कोई महाकाव्य या गोस्पेल (जीवनचरित या
लीलाचारित)। ‘जिसे पत्रकारिता की भाषा में कहानी कहते हैं’। अमूर्त्त विश्वासों को
मूर्त्त किये बिना या किसी रसमय साहित्यिक अभिव्यक्ति के बिना आस्था का टिकना
मुश्किल है। इसलिए अंबेडकर को पुराने धम्मपद के बदले एक सरस, प्रवाहमयी,
हृदयग्राही और एक ‘सम्मोहिनी शक्ति’ से युक्त, हर जगह अपने साथ रखने सकने योग्य,
सुवह्य ‘बुद्ध चरित’ की सख्त ज़रूरत महसूस हो रही थी। वह एक ऐसे ‘बुद्ध-चरित’ में
चार चीजें आवश्यक मानते थे। :- १.बुद्ध का संक्षिप्त जीवन परिचय, २. चीनी धम्मपद,३.
बुद्ध के कुछ प्रमुख संवाद, ४. बौद्ध उत्सव, जन्म-मृत्यु, विवाह आदि के संस्कार।
बाइबिल के गोस्पेल के उच्च साहित्यिक गुणों के बारे में हमने पीछे चर्चा की थी और
आस्था के महत्त्व को भी रेखांकित किया था। साहित्यिक आस्था एक चीज़ है और धार्मिक
एकदम दूसरी। अंबेडकर धर्म के प्रचार के लिए आस्था और आस्था के लिए साहित्यिकता की
भूमिका दोनों महत्वपूर्ण मानते थे। साहित्यिकता धार्मिक आस्था के सन्दर्भ में यहाँ
वैसे ही है जैसे बुल्के के लिए। दूसरे शब्दों में, अंबेडकर को भी ‘धर्म की रसात्मक
अभिव्यक्ति’ की ज़रूरत महसूस हो रही थी। इस अर्थ में यह भक्ति साहित्य था, और धर्म
का प्रचार भक्ति के बिना असम्भव था। भक्ति एक ‘सम्मोहिनी शक्ति’ थी, जो खुद धर्म के
वशीभूत थी। बाइबिल का यह रूप बुद्ध को लगभग अवतार बनाता है। ऐतिहासिक तो बुद्ध थे
ही।
भिक्खु संन्यासी या साधु की तरह संसार
से विरक्त रहने वाला व्यक्ति नहीं होता बल्कि इसी जीवन के भीतर संघर्षरत होता है।
इस जीवन के अतिरिक्त उसे किसी पारलौकिकता की कामना नहीं होती। बुल्के जिस अर्थ में
कर्मबन्धन और पुनर्जन्म के विश्वास के कारण कर्म की निष्कामता को हिंन्दु धर्म और
अवतारवाद का दोष मानते थे, अंबेडकर भी उन्हीं अर्थों में ‘मुक्ति की इहलौकिकता’ के
लिए एक ही जीवन और उसी जीवन में मुक्ति के बौद्ध-मत को संघ के भिक्खु का आदर्श
बताते हैं। मुक्ति के लिए केवल पैशन नहीं बल्कि धर्म के संगठित प्रचार की सक्रियता
ज़रूरी थी। वास्तव में एक नए समाज का निर्माण उनका उद्देश्य था। बुद्ध को इन्हीं
अर्थों में संघ की ज़रूरत महसूस हुई थी। अंबेडकर कहते हैं कि साधारण मनुष्य केवल
आस्था के सहारे मुक्ति नहीं पा सकता। उसे वास्तविक सामाजिकता में बदलने के लिए ही
संघ की स्थापना की गयी है। एक ऐसा मॉडल समाज जससे सामान्य जन प्रेरणा पा सके,
शिक्षा पा सकें और धम्म की वास्तविकता में उनकी आस्था दृढ़ होती जाये। दूसरे शब्दों
में कहें, तो बौद्ध धर्म का इहलौकिक समाजीकरण संभव हो पाए। यह संपूर्ण धर्मान्तरित
सक्रिय समाज का आदर्श बन सके। इसी आवश्यकता के चलते बुद्ध ने संघ की स्थापना की और
उसे विनय के नियमों से बाँध दिया। विनय के नियम संघ के सामाजिक जीवन की नैतिक
आचार-संहिता थी।
अंबेडकर
कहते हैं कि इसके अलावा भी संघ का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य था। वह संघ को बौद्धिकों
का एक ऐसा संगठन बनाना चाहते थे जो साधारण जनों का सच्चा और निष्पक्ष निर्देशन कर
सके। संघ सक्रिय बौद्धिकों का संगठन था। इन बौद्धिकों का काम शुद्ध मनन-चिंतन करना
नहीं बल्कि समाज सेवा और धम्म की सच्ची शिक्षा का प्रचार करना है। ये दोनों काम
अलग-अलग संभव नहीं हैं। उसी प्रकार वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के बिना धम्म की
रक्षा और उसका प्रसार असम्भव है। भिक्खु अपने समय के ज्ञान-विज्ञान के अधुनातन
निष्कर्षों का और उसकी प्रामाणिकता और सत्यता का प्रचार कर, मिथ्या विचारधाराओं के
धुंध को जनता के चित्त से दूर करता है। उनका कहना था कि इस महती उद्देश्य के लिए
बुद्ध भिक्खुओं के लिए संपत्ति का निषेध करते हैं। बुद्ध जानते थे कि स्वतंत्र
चिंतन और निष्पक्ष विचारों के लिए सबसे बड़ी बाधा संपत्ति थी। जनता की स्वतंत्र
सेवा के लिए संपत्ति का त्याग बहुत ज़रूरी था। बुद्ध भिक्खुओं को शादी न करने और
आजीवन ब्रह्मचर्य के पालन का निर्देश भी इसी सेवा के लिए देते थे। हालाँकि संघ में
स्त्री और पुरुष की समानता का सिद्धांत था। अंबेडकर ब्रह्मचर्य के उच्च आदर्श और
स्त्री-पुरुष समानता के सिद्धांत के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं देखते थे। वैसे भी
बुद्ध के समय तक स्त्रियों को भी संपत्ति माना जाने लगा था!
बौद्धिकों के सक्रिय संगठन के मॉडल के
लिए ही वह जेसुइट संघ से सीखने की सलाह दे रहे थे। अंबेडकर लिखते हैं कि पीड़ित
मानवता की सेवा के लिए अगर आज कोई कुछ करना चाहता है तो उसके सामने ‘राम कृष्ण
मिशन’ को छोड़ कर और कोई रास्ता नहीं मिलता। ऐसे में संघ की आवश्यकता समाज के अंदर
महसूस भी हो रही है लेकिन कोई और उदाहरण समाज के सामने नहीं है। ईसाई मिशनरियों के
वह खिलाफ थे क्योंकि वहां भी ईश्वर मौजूद था। धम्म के सिवा विश्वमानवता के सामने
कोई और रास्ता संभव नहीं दिख रहा था। इसलिए अंबेडकर हजारों श्रद्धालुओं के बदले
थोड़े लेकिन आस्थावान-विद्वान्-सक्रिय भिक्खुओं की परम आवश्यकता को सामने रह रहे थे।
उच्च शिक्षित ऐसे भिक्खुओं की एक छवि हम बुल्के में भी देखते हैं जिसकी तरफ
अंबेडकर इशारा कर रहे थे। क्या यह केवल संयोग है कि केदारनाथ सिंह के भक्त हनुमान्
और अंबेडकर के उच्च शिक्षित भिक्षु दोनों रूपों में बुल्के की छवि हमारे सामने
प्रकट होती है !
बुल्के के लिए नैतिकता पूरी तरह
धार्मिक थी। वह राज्य के विकास के साथ इसी धार्मिकता को स्वर्ग के राज्य में
रूपांतरित देखना चाहते थे। अंबेडकर की तरह यहाँ भी नैतिकता और धार्मिकता में कोई
फर्क नहीं था। धर्म स्वयं में पवित्र और सार्वजनीन नैतिकता है। विश्वबंधुत्व स्वयं
नैतिकता है। विश्वबंधुत्व की इस पवित्र नैतिकता के दर्शन बुल्के को तुलसी के मानस
में होता है। वह बुद्ध के बदले उत्तरभारत की जनता के बीच इस पवित्र सामान
आचार-संहिता की पूर्व-उपस्थिति और उसके सर्वोत्तम विकास का पूर्व-स्वप्न तुलसीदास
के यहाँ देखते हैं। उनके लिए तुलसी स्वयं एक आश्चर्य थे। वैसे ही जैसे इवोर ब्राउन
के लिए शेक्सपियर।[33]
[1] फ़ादर क्विराइन, गीदो गैज़ेल, डा. बुल्के स्मृति ग्रन्थ (सं. दिनेश्वर
प्रसाद और श्रवण कुमार गोस्वामी), पृष्ट २१२-२१३, डा. बुल्के स्मृति ग्रन्थ समिति,
रांची, १९८७
[2] फ़ादर कामिल बुल्के : भारतीय संस्कृति के अन्वेषक, शैल सक्सेना, पृष्ठ १७,
प्रिय साहित्य सदन, दिल्ली, २०१४
[3] वही, पृष्ठ ३४
[4] वही, पृष्ठ ३७
[5] बुल्के, ‘एक ईसाई की आस्था, हिंदी प्रेम और तुलसी’, हिंदी चेतना,
अंक- जुलाई-अगस्त २००९, पृष्ठ- ३३
[6] बुल्के स्मृति ग्रन्थ, पृष्ट ४३८
[7] वही.
[8] वही, पृष्ठ ४४०
[9] समाज और साहित्य, मुक्तिबोध रचनावली, खंड पांच, पृष्ठ ५४-५५
[10] रामकथा, कामिल बुल्के, पृष्ठ ५७९; हिंदी परिषद् प्रकाशन, इलाहबाद
विश्वविद्यालय, इलाहबाद– २०१२
[11] वही, पृष्ठ ५८१
[12] मानस कौमुदी, डा. कामिल बुल्के, डा. दिनेश्वर प्रसाद; पृष्ठ ४-५, अनुपम
प्रकाशन, पटना – १९८४
[13] रामकथा, पृष्ठ ५३४
[14] हनुमान् की जन्मकथा, बुल्के, हिंदी अनुशीलन,
वर्ष ३, अंक ३, २००७ विक्रमी
[15] रामकथा, पृष्ठ ५४९
[16] वही, पृष्ठ ७८
[17] वही
[18] वही
[19] देखें शेल्डन पोलॉक, द लैंग्वेज ऑफ़ द गॉड्स इन द वर्ल्ड ऑफ़ मेन, विशेष रूप
से अध्याय पांच, यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया प्रेस, लन्दन २००६
[20] रामकथा, पृष्ठ ५९१
[21] बुल्के, हिंदी के प्रति हिंदी भाषियों का कर्तव्य, पृष्ठ ४०
[22] वही
[23] रामकथा एंड अदर एसेज, कामिल बुल्के, (सं.) डा. दिनेश्वर प्रसाद, पृष्ठ
१५८, वाणी प्रकाशन, दिल्ली २०१०
[24] बुल्के लिखते हैं कि इन जाति बाह्य वर्गों के आधुनिक उत्तराधिकारी करीब
पचास मिलियन की आबादी वाले हैं. बीस मिलियन से अधिक आबादी उन जनजातियों की है
जिन्हें आर्य जीत नहीं पाए और जो आने वाली अनेक सदियों तक खुद क आर्यों के संपर्क
से दूर जंगलों में अपने आप को बचाती और रहती आ रही हैं. जनजातियों या आदिवासियों
की इतिहास विहीन छवि बुल्के के लिए भी मान्य थी. इसके हिसाब से ही वह आदिवासियों
की समस्याओं पर विचार करते हैं. देखें, वही, पृष्ठ-१५७
[25] वही, पृष्ठ- १६०
[26] “I have often tried to make them realise their resposibility towards
the truth by saying; “You believe in rebirth, I believe that there is no
rebirth, one of us is wrong.” When they hear this they are shocked, shake their
head and answer: “It is not as simple as all that.””
pp 162
[27] यह बात ध्यान देने लायक है कि ग्राम्शी जेसुइट ईसायत को लोकप्रिय जनता के
लिए शुद्ध नार्कोटिक कहते हैं. देखें: प्रिज़न नोटबुक्स. पृष्ठ-३३८.
[28] अवतार एंड इनकार्नेशन, रामकथा एंड अदर एसेज,
कामिल बुल्के, (सं.) डा. दिनेश्वर प्रसाद, पृष्ठ -१६८-१९४. वाणी प्रकाशन, दिल्ली
२०१०
[29] वही- १७८.
[30] वही.
[31] “We want fewer Bhikkhus and we
want Bhikkhus highly educated, Bhikkhu Sangha must borrow some
of the features of the Christian priest-hood particularly the Jesuists.
Christianity has spread in Asia through service-educational and medical. This
is possible because the Christian priest is not merely versed in religious lore
but because he is also versed in Arts and Science.” B.R.
Ambedkar in Buddha and Future of His Religion.Published in
May 1950 Vaishaka issue of the Maha Bodhi Society journal.
(http://www.clearviewproject.org/engagedbuddhistwriting/buddhaandthefutureof.html)
[33] रामकथा एंड अदर एसेस. पृष्ठ-१४४.
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