आरम्भ: क्या है आरम्भ
इतिहास लेखन में ‘उद्भव’ या ‘शुरुआत’ का प्रश्न हमेशा ही
उलझनों से भरा होता है | हम जिसे हिंदी साहित्य का आदिकाल कहते हैं वह भी ऐसे ही
‘शुरुआत’ या ‘आरम्भ’ के सवालों से जुड़ा है | हर शुरुआत के साथ यह डर होता है कि
उससे भी पहले का कोई साक्ष्य उसे अपने पद से च्युत कर देगा | और इस तरह हम उस गलत
रास्ते भी जा सकते हैं जो यह मानता है कि कोई ‘शुरुआत’ होती ही नहीं है | क्योंकि
हर कृति की कोई पूर्ववर्तिनी कृति होगी और उसकी भी पूर्ववर्तिनी कोई और, और इस
प्रकार ‘शुरुआत’ हमेशा आविष्कृत होने की प्रक्रिया में स्थगित होती रहेगी | सांख्य दर्शन का ‘सत्कार्यवाद’ इसी तरह की एक
दार्शनिक प्रपत्ति है| इसके अनुसार हर
प्रभाव कारण में पहले से ही उपस्थित होता है, चाहे वह एक संभावना के रूप में ही हो
| और इसीलिए कोई भी प्रभाव एक दम से नया नहीं हो सकता है. दूसरी ओर
न्याय-वैशेषिकों के यहाँ ‘असत्कार्यवाद’ या ‘आरम्भवाद’ के रूप में ऐसी मान्यता है
जहाँ प्रभाव कारण से भिन्न माना जाता है और हर प्रभाव नया आरंभ होता है | इन दोनों
तरह की दार्शनिक मान्यताओं में आरंभ का प्रश्न या कारणत्व की व्याख्या दो विपरीत
छोरों में स्थित है. लेकिन इन दोनों स्थितिओं का संश्लेष हमें ‘आरम्भ’ के प्रश्न
की बेहतर समझदारी दे सकता है | दरअसल शुरुआत ‘विरुद्धों की एकता’ को दिखाता है,
जितना ‘होने’ की उतना ही ‘न होने’ की भी | प्रभाव कारण में पहले से उपस्थित भी
रहता है और नहीं भी; यह संभावनाओं का वास्तविक होना भी है और एक नयी शुरुआत भी |[1]
शुरुआत की अवधारणा इतिहास में एक विकासात्मक प्रतिदर्श के
अनुसार ही तय होती आयी है| आम तौर पर ये माना जाता है कि साहित्यिक परम्पराएं एक
विकसनशील रूख दिखाती हैं | किसी साहित्यिक प्रवृत्ति/विधा/कृति आदि के पीछे
असफलताओं या गुमनामी का एक लंबा पूर्व इतिहास शामिल होता है | यह मान्यता संस्कृति
के दूसरे क्षेत्रों से हू-ब-हू उधार ली गयी होती है | मसलन सूर के पदों के बारे
में आचार्य शुक्ल की यह मान्यता कि ‘चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली साहित्यिक
रचना होने पर भी ये इतने सुडौल और परिमार्जित हैं’ कि ‘सूरसागर किसी चली आती हुई
गीतकाव्य परम्परा का – चाहे वह मौखिक ही रही हो – पूर्ण विकास प्रतीत होता है’|[2]
और आगे के इतिहास लेखकों और आलोचकों ने भी इस विकासात्मक प्रतिदर्श का समर्थन ही
किया है |
लेकिन क्या साहित्य में हमेशा ऐसा होता है? यथार्थवादी
चित्रकला के इतिहास की तरह क्या हम साहित्य में भी वैज्ञानिक- जैविक विकास की
अवधारणा का उपयोग कर सकते हैं? वस्तुओं के प्रदर्शन की एक तार्तमिक शैली जैसी
यथार्थवादी चित्रकला में विकसित हुई जहाँ कलाकार लगातार दक्षता प्राप्त करते गए,
साहित्य में कई बार ऐसी पद्धति नहीं अपनायी जाती|[3]
साहित्य इतिहास में यह प्रतिदर्श काम नहीं करता | हम इतिहास के किसी मोड़ पर
श्रेष्ठ और प्रौढ़ (प्रौढ़ शब्द में भी एक जैवकीय धारणा अन्तर्निहित है!) रचनाओं को
सामने पाते ही उसकी परम्परा ढूंढने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाने लग जाते हैं | मसलन
कबीर को सामने पाकर हम नाथों की परम्परा में उन्हें ‘फिट इन’ करने लगते हैं, जोगी
की कुल परंपरा में शामिल कर लेते हैं | यह मानते हुए भी कि कबीर हू-ब-हू नाथपंथी
नहीं थे महिमा ‘कबीरनाथ’ की ही बखानी जाने लगती है |[4]इस
प्रकार की परम्पराएं केवल आधुनिक काल की निर्मितियां नहीं हैं बल्कि प्राक्-आधुनिक
समय में भी बनायी और खोजी गयीं थीं| कबीर के बारे में ऐसी कितनी ही बनायी गयी
परम्पराओं का मनोरंजक उद्घाटन पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अपनी किताब कबीर की
कविता और उनका समय में किया है|
ऐसे ही विकासात्मक इतिहास के प्रतिदर्श को अपनाने के कारण
भाषाओं के आगे बढ़ी हुई ‘अवस्थाओं’ का ज़िक्र किया जाता है| संस्कृत, प्राकृत ,पाली,
अपभ्रंश की सुगम नैसेनी लंबे समय तक भाषाओं के अध्ययन का आधार रही है| एक लंबे समय
तक ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के प्रभाव में हमारे भाषा वैज्ञानिक भी आधुनिक भारतीय
आर्य भाषाओं को संस्कृत की पुत्रियां सिद्ध करते रहे| इनके अनुसार एक आदिभाषा होती
है जिससे किसी भाषा परिवार की सारी भाषाएं उत्पन्न होती हैं| ‘हिन्दी’ भाषा
अपभ्रंश से उत्पन्न हुई है, अपभ्रंश प्राकृत से और प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई है|
हम यह मान ही नहीं पाते कि इतिहास के किसी खास मोड़ पर, किसी
खास क्षण में कुछ रचनाएँ ‘परम्परा के नैरंतर्य में एक विस्फोट’ की तरह होती हैं|
और यह विस्फोट ही एक नए आरम्भ का सूचक होता है | शुरुआत ऐसे ही क्रम-भंगों से तय
होती है | इस बात को नज़रंदाज़ करने के कारण हम विरोधाभासों के शिकार होते रहे हैं|
एक तरफ हर चीज़ को परम्परा का सहज विकास साबित करना चाहते हैं और दूसरी ओर ‘पहली
कहानी’, ‘पहली कविता’, ‘पहला उपन्यास’ खोजने की जिद भी रखते हैं | और दोनों ही
स्थितिओं में हम यह पता करना भूल जाते हैं कि रचनारत व्यक्ति और उसका समाज उन
चीजों को कैसे ग्रहण कर रहा था| कई बार जिसे हम शुरुआत मान बैठते हैं उसे रचना
करने वाला परंपरा का अंग ही मानता होता है और जिसे हम किसी परंपरा का सहज विकास
साबित करना चाहते हैं उसे तत्कालीन समाज नयी शुरुआत मानता होता है| इसीलिए कई बार आरंभ या शुरुआत वास्तव में
परम्परा के अन्वेषकों द्वारा चुन लिया जाना ही होता है| परम्परा की खोज नए आरम्भ
को इतिहास में खोज लेती है. वो किसी एक शुरुआत को मिटा के दूसरे को सामने रखती है.
चुनिन्दा चयनों से नयी शुरुआत होती है. या फिर नए आरम्भ को ख़ारिज किया जाता है और
हर चीज़ को पहले से ही उपस्थित सिद्ध किया जाता है| आदिमता की प्रेरणा और भ्रान्ति
से वह संस्कृतियों, परम्पराओं (जैसे राष्ट्र ही को लीजिए) को बनाती हैं| या फिर
किसी सांस्कृतिक शुरुआत को किसी खास परम्परा तक ही सीमित कर देती है- और यह भी जोर
देती है कि कोई खास शुरुआत ही सफल रही है और परम्परा में संरक्षित रही है इसीलिए
वही सही है| अन्य परम्पराओं का निषेध ऎसी शुरुआतों को पैदा करता है|
लेकिन इससे टकराए बिना काम भी नहीं चलता है| इतिहासलेखन के लिए काल निर्धारण और
आरम्भ के प्रश्नों से जूझना ज़रूरी है|
परम्परा के क्रमिक विकास की पहचान और परम्पराओं की खोज
जितनी ज़रूरी है उतनी ही ज़रूरी है परम्पराओं के नैरंतर्य में क्रम भंग को पहचानना|
हिंदी साहित्य के इतिहास को ज़्यादातर एक क्रम में ही देखा गया है , क्रम-भंगों पर
कम ही ध्यान दिया गया है| जबकि हिंदी और भारत की अन्य आधुनिक भाषाओं का साहित्य
में प्रयोग शुरू होना अपने आप में ही परम्परा में एक विस्फोट है| इस शुरुआत को
किसी भी जैवकीय विकास की धारणा से नहीं समझा जा सकता है| देशी भाषाओं को साहित्यिक
अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना एक ऐसी प्रक्रिया है जो थोड़े बहुत काल भेद से पूरे
यूरेशिया में शुरू हुई थी| इस परिघटना को शेल्डन पोलक देश्यभाषाकरण(vernacularization) कहते हैं| देश्यभाषाकरण की यह प्रक्रिया संस्कृति और सत्ता के संबंधों में भी
एक नयी शुरुआत थी| लेकिन अपनी क्षेत्रीय भिन्नताओं के साथ इस प्रक्रिया को
उत्प्रेरित करने वाले कारणों का निर्धारण अभी भी संतोषजनक नहीं है| भारतीय
उपमहाद्वीप और यूरोप में साथ साथ शुरू होने वाली इस प्रक्रिया में कुछ ऐसे बुनयादी
भेद हैं कि पश्चिमी या यूरोपीय इतिहास के सम्बन्ध में दिए गए सिद्धांतों और
व्याख्याओं को भारतीय उपमहाद्वीप पर लागू करते ही बात गलत और उथले निष्कर्षों तक
पहुँच जाती है| बहरहाल आगे इसकी चर्चा किंचित विस्तार से की जाएगी| यहाँ जो
महत्वपूर्ण है वह है हिंदी साहित्य के आरम्भ के लिए एक स्पष्ट विभाजक रेखा के रूप
में ‘देश्यभाषाकरण’ को पहचानना|
दक्षिण भारत की भाषाओं के विपरीत इस प्रक्रिया की शुरुआत
उत्तर भारत में कुछ देर से हुई| दक्षिण में तमिल भाषा का साहित्य में प्रयोग सबसे
पहले शुरू हुआ था| संगम युग के बाद एक लंबे समय तक तमिल साहित्य संस्कृत के मुकाबले
कम लिखा गया और फिर उसमे करीब आठवीं
शताब्दी इसवी के आसपास[5]
नया उभार मिलता है| इसके कोई दो शताब्दिओं के अंतर पर तेलगु और कन्नड़ साहित्य के
शुरू होने के आरंभिक प्रमाण मिलते हैं | और फिर १३वीं शताब्दी में मराठी भाषा का लीलाचरित्र
(१२७८) हमारे सामने आता है| इसी के
आसपास पाक पट्टन में बाबा फरीद (इसवी सन १२६५) अपनी रचनाओं के साथ हमें दिखाई पड़ने
लगते हैं| उधर दिल्ली में खुसरो मियां (१२५३-१३२५) अपनी हिन्दवी रचनाओं को लिए
मिलते हैं| जौनपुर में कोई १०० साल के भीतर मुल्ला दाउद (१३७९) ने अवधी में चंदायन
लिख डाला और इनसे थोड़े सालों बाद ही विद्यापति(१३६०-१४५०) ने अपनी मैथिली में
कोमलकान्त पदावली लिखी | इसी तरह हम देखते हैं कि ग्वालयरी महाभारत के साथ
विष्णुदास (१४३५) स्थानीय महाकाव्य का सृजन कर रहे थे| और इसी के समानांतर कबीर
आदि संतों की कविताएँ जनमानस तक पहुँचने लगी थी| इस तरह दक्षिण भारतीय भाषाओं से
कोई तीन शताब्दी के बाद हिंदी भाषा में साहित्य सृजन की अविरल परंपरा की शुरुआत
होती है| इस देरी के कारणों में फिलहाल न जाते हुए इतना ही कहना है कि हिंदी
साहित्य की वास्तविक शुरुआत इतिहास में एक ऐसा क्षण है जब सम्पूर्ण यूरेशिया में
सर्वदेशीय संस्कृत या लैटिन भाषाओं को विस्थापित कर देश्यभाषाओं में साहित्यिक
अभिव्यक्तियां होने लगी| इस प्रकार ‘देश्यभाषाकरण’ की वृहत्तर प्रक्रिया में हिंदी
साहित्य की अपनी विशिष्टताओं को रेखांकित करते हुए हिंदी साहित्य के आरम्भ पर
चर्चा होनी चाहिए| हिंदी साहित्य के आदिकाल को जो आमतौर पर १००० इसवी से १४०० इसवी
तक माना जाता है, उसे हजारीप्रसाद द्विवेदी अपभ्रंश साहित्य का ही बढ़ाव मानते हैं
और हिंदी साहित्य की वास्तविक शुरुआत भक्तिकाल से मानते हैं| इस मान्यता के गंभीर
निहितार्थ हैं|
द्विवेदी जी का मानना है कि :
“दसवीं शताब्दी तक लोकभाषा का जो साहित्य प्राप्त होता है
वह परिनिष्ठित अपभ्रंश का ही साहित्य है,
उसमें हिंदी भाषा का रूप स्पष्ट नहीं हुआ है| परन्तु दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक
के समय में लोकभाषा में लिखित जो साहित्य उपलब्ध हुआ है उसमें परिनिष्ठित अपभ्रंश
से कुछ आगे बढ़ी हुई भाषा का रूप दिखाई देता है| ... वस्तुतः छंद, काव्यरूप,
काव्यगत रूढ़ियों और वक्तव्य वस्तु की दृष्टि से दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक का
लोकभाषा का साहित्य परिनिष्ठित अपभ्रंश में प्राप्त साहित्य का ही बढ़ाव है, यद्यपि
उसकी भाषा उक्त अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न है| इसलिए दसवीं से चौदहवीं शताब्दी के
उपलब्ध लोकभाषा साहित्य को अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न भाषा का साहित्य कहा जा सकता है|
वस्तुतः वह हिंदी की आधुनिक बोलियों में से किसी-किसी के पूर्व रूप में ही उपलब्ध
होता है| यही कारण है कि हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखक दसवीं शताब्दी से इस
साहित्य का आरम्भ स्वीकार करते हैं|”[6]
लेकिन अपने ‘भक्ति-साहित्य’ अध्याय के उपशीर्षक में साफ़
लिखते हैं ‘वास्तविक हिंदी साहित्य का आरम्भ’ | और कारण बताते हैं -
“इस प्रकार पंद्रहवीं शताब्दी के बाद सचमुच का लोकभाषा का
साहित्य बना| भाषा इसकी वास्तविक और सच्ची है, शैली सहज और प्रसन्न|”[7]
इन कथनों के साथ ‘भूमिका’ का वह
प्रसिद्ध कथन कि
“...भारतीय पांडित्य ईसा की एक सहस्त्राब्दी बाद आचार-विचार
और भाषा के क्षेत्र में स्वभावतः ही लोक की ओर झुक गया था; यदि अगली शताब्दियों
में भारतीय इतिहास की अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना, अर्थात इस्लाम का प्रमुख विस्तार,
न भी घटी होती तो भी वह इसी रास्ते जाता| उसके भीतर की शक्ति उसे इसी स्वाभाविक
विकास की ओर ठेले लिए जा रही थी|”[8]
इन कथनों से यह तय है कि द्विवेदी जी के लिए लोक की ओर
‘स्वभाविक’ झुकाव की प्रक्रिया हजार इसवी के आस पास निर्णायक मोड़ पर पहुँच गयी थी
और इसी समय से अपभ्रंश से किंचित भिन्न ‘हिंदी की आधुनिक बोलियों में किसी-किसी के
पूर्व रूप’ वाली भाषा में लोक साहित्य की
रचना होने लगी थी इसीलिए हिंदी साहित्य के आदि काल की शुरुआत हजार इसवी से मानी जाती
है| लेकिन वास्तविक लोक साहित्य का आरम्भ तो भक्ति- साहित्य से ही हुआ था| अर्थात
वास्तविक लोक साहित्य और लोक भाषा तो भक्ति साहित्य से ही आरम्भ हुई लेकिन इस
आरम्भ की पृष्ठभूमि हजार इसवी के बाद से ही बनने लगी थी| इस मान्यता में दो भिन्न
लेकिन पूरक अंतर्दृष्टियों का उन्मेष है| जैसा कि शुरू में ही कहा गया था कि आरम्भ
के प्रश्न पर सांख्य दर्शन के ‘सत्कार्यवाद’ और न्याय-वैशेषिकों के ‘असत्कार्यवाद’
के संश्लेष से हम विरुद्धों की एकता वाली एक द्वंद्वात्मक इतिहास दृष्टि पा सकते हैं,
जहाँ परम्परा और परम्परा भंग दोनों ही महत्वपूर्ण हो जाता है| अब तक द्विवेदी जी
की बात करते हुए परम्परा के महत्व को ही केन्द्रीयता मिली है| लेकिन हमें ध्यान
देना चाहिए कि ‘वास्तविक हिंदी साहित्य का आरम्भ’ कह कर वह इतिहास में क्रमभंग को
ही रेखांकित कर रहे थे| यह ज़रूर है की ऐसा करते हुए भी वह अपभ्रंश के साहित्य को
भी लोक भाषा का साहित्य मानते हैं | और यह
मानते हैं कि भाषा की दृष्टि से भले ही वह हिंदी से भिन्न है लेकिन आगे की
साहित्यिक परम्परा अपने काव्यरूपों , कथानक रूढ़ियों , छंदों आदि की दृष्टि से इस काल
के साहित्यिक रिक्थ का इस्तेमाल करती है| लेकिन फिर दूसरी जगह यह भी कहते हैं कि:
“... यद्यपि साहित्य की दृष्टि से यह काल बहुत कुछ अपभ्रंश
काल का ही बढ़ाव है, पर भाषा की दृष्टि से यह परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई
भाषा की सूचना लेकर आता है| इसमें भावी हिंदी भाषा और उसके काव्यरूप अंकुरित हुए हैं|”[9]
इस प्रकार मिला जुला कर वह भाषा और काव्यरूप दोनों ही
दृष्टि से हजार इसवी से लेकर चौदह सौ इसवी तक के काल को हिंदी साहित्य का आदिकाल
कहते हैं| फिर वास्तविक हिंदी साहित्य के आरम्भ का मतलब क्या है? और क्या अपभ्रंश
सचमुच लोक भाषा थी? तो फिर भक्ति-साहित्य के वास्तविक लोक-साहित्य होने का मतलब
क्या है?
अगर अपभ्रंश लोक भाषा थी और उसमें रचित साहित्य लोक साहित्य
था तो फिर ‘उक्ति व्यक्ति प्रकरण’ में पायी जाने वाली भाषा कौन सी थी? बाबा फरीद ,
अमीर खुसरो और विद्यापति की भाषा कौन सी थी! स्वयं द्विवेदी जी ने नोट किया है कि
‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ की भाषा से तत्कालीन बनारसी भाषा के स्वरुप पर अच्छा प्रकाश पड़ता है| “डॉ॰
मोतीचन्द्र ने ‘संपूर्णानंद-अभिनन्दन-ग्रन्थ’ में एक लेख लिख कर यह बताया है कि इस
पुस्तक में तत्कालीन काशी की भाषा का रूप पाया जाता है| ‘वेद पढ़ब, स्मृति अभ्यासिब,
पुराण देखब, धर्म करब’ , यह बारहवीं शताब्दी की बनारसी भाषा का नमूना है|... इसी
प्रकार ‘छात्रु गाऊँ या’ में छात्र शब्द किसी अपभ्रंश पुस्तक की भाषा के सामान
‘छत्तु’ नहीं बन गया|... इस पुस्तक से और भी बहुत सी बातों का पता चलता है|
महत्वपूर्ण यह है कि उस समय इस भाषा में कथा-कहानी का साहित्य रचित होने लगा था|”[10]
जिस प्रकार काशी की तत्कालीन भाषा अपभ्रंश की आगे बढ़ी हुई भाषा नहीं बल्कि
गुणात्मक रूप से भिन्न भाषा है और वास्तविक लोकभाषा है, उसी प्रकार विद्यापति की
मैथलि और खुसरो कि हिन्दुई तथा दाउद की अवधी भी अपभ्रंश से भिन्न और वास्तविक लोक
भाषाएँ थीं| चौदहवीं शताब्दी के आस-पास से दरअसल इन्हीं भाषाओं में साहित्यिक
अभिव्यक्तिओं की परंपरा मिलनी शुरू होती है जो अन्यथा अपभ्रंश की ‘अर्द्ध- सार्वत्रिकता’
से दबी चली आयीं थीं| लेकिन द्विवेजी की यह मान्यता है कि उस समय का जो भी लोक
साहित्य मिलता है वह अपभ्रंश या उसकी बढ़ी हुई अवस्था वाली भाषा में ही मिलता है इसलिए
वह भी लोक साहित्य ही है!
असल में द्विवेदीजी यहाँ एक दुविधा के शिकार हैं| एक तरफ तो
उनको इस बात का पूरी तरह अनुमान था कि अपभ्रंश से इतर लोक भाषा का साहित्य भी रचा
जा रहा था लेकिन वह आज हमारे पास ठीक-ठीक उसी रूप में उपलब्ध नहीं है, इसीलिए उसके
बारे में किंचित आभास देनेवाले अपभ्रंश भाषा के साहित्य को भी वह लोक साहित्य मान
बैठते हैं| चूँकि हजार इसवी के आस-पास भारत का पांडित्य ‘स्वभावतः’ ही लोक की ओर
झुक गया था ,इसलिए भी हजार इसवी के बाद ‘लोक साहित्य’ की प्रतिष्ठा के साथ हिंदी
साहित्य या हिंदी जाति के साहित्य की शुरुआत बताकर वह उस क्रांतिकारी परिवर्तन को
अपने इतिहास का आधार बना रहे थे| इस क्रम में वह इस बात को कुछ देर के लिए नज़रंदाज़
कर जाते हैं कि ‘भारतीय चिंता की प्राणधारा’ आचार,विचार और भाषा के क्षेत्र में
जिस तरह लोक की ओर झुक गयी थी उसमे अपभ्रंश की ‘अर्द्ध सार्वत्रिक संस्कृति’ (quasi cosmopolitan culture) ने करीब तीन शताब्दियों तक प्रतिगामी भूमिका ही निभाई|[11]
यह अकारण नहीं है कि दक्षिण भारतीय भाषाओं ने उत्तर भारत की अपेक्षा पहले ही अपनी
क्रांतिकारी भूमिका अदा कर दी थी| दक्षिण भारतीय भाषाओं ने संस्कृत की सार्वत्रिक
संस्कृति से अपने को पहले ही मुक्त कर लिया था, लेकिन उत्तर भारतीय ‘लितराती’ पर
अपभ्रंश और संस्कृत की संस्कृति का लोक प्रदर्शनों और मौखिक साहित्यों में तो कुछ हद
तक ‘देश्यभाषाकरण’ हो गया था परन्तु उन्हें लिखित और प्रभावी भूमिका में आने में
कुछ वक्त लगा | काल के इस अंतराल में वह अंतर्विरोध तीव्रतर होता गया जिसके कारण
अंततः देशीभाषाओं ने अपनी वर्त्तमान स्थिति प्राप्त की| और इस प्रकार साहित्यिक
अभिव्यक्ति का एक सर्वथा नया ही सूत्र हमारे सामने आता है| इस सूत्र ने पुरानी
सांस्कृतिक राजनीति को बदल दिया| इस आत्माभिव्यक्ति के अग्रदूत संत कवियों के सिवा
और कौन हो सकते थे! कहना न होगा कि द्विवेदी जी इसीलिए वास्तविक हिंदी साहित्य का
आरम्भ भक्ति–साहित्य से मानते हैं|
मध्यकाल का मुख्य अंतर्विरोध लोक और शास्त्र का अंतर्विरोध
था | इसी अंतर्विरोध में लोक ने शास्त्र को अपनी ओर झुका लिया | और इसी वजह से
देशी भाषाओं में रचनाएँ शुरू हुईं| इस हिसाब से भारतीय प्राणधारा का वास्तविक
विकास है भक्ति साहित्य| इसीलिए हिंदी साहित्य की वास्तविक शुरुआत है
भक्ति-साहित्य , न कि वीरगाथाएं | और “ इस तरह वह(द्विवेदीजी) विद्यापति की समस्या
का भी समाधान ढूंढ निकालते हैं, जिन्हें आचार्य शुक्ल ने वीरगाथा काल के फुटकल
खाते में डाल रखा था| विद्यापति असंदिग्ध रूप से आधुनिक भाषाओं में ‘लिरिक’ के
पहले महान कवि थे |... द्विवेदी जी की दृष्टि में विद्यापति संक्रमण काल के ऐसे
महत्वपूर्ण कवि हैं जिनका एक पाँव अपनी अवहट्ट कृति ‘कीर्तिलता’ के कारण आदिकाल
में है तो दूसरा देशी भाषा में लिखित राधा कृष्ण लीला के सरस पदों की पदावली के
कारण भक्ति-काव्य में| इस प्रकार द्विवेदी जी की इतिहास योजना में विद्यापति हिंदी
साहित्य की प्राणधारा के मुख्य प्रवाह में हैं|”[12]
ध्यान देने योग्य बात है कि विद्यापति अपने अवहट्ट कृति ‘कीर्तिलता’ के कारण
‘आदिकाल’ में हैं जबकि देशी भाषा की ‘पदावली’ के कारण भक्ति-काव्य में | तो फिर
हिंदी साहित्य का आदिकाल अवहट्ट का काल हुआ या हिंदी का!
इसीलिए वास्तविक हिंदी साहित्य का आरंभ उस क्रम भंग से ही
तय होगा जो ‘देश्यभाषाकरण’ को अपना एक्सक्लूसिव आधार बनाता है| प्राणधारा की खोज
तो अवहट्ट/ अपभ्रंश से होते हुए प्राकृत और संस्कृत तक चली जाती है| यह अकारण नहीं
कि ‘भूमिका’ के लंबे परिशिष्ट में संस्कृत ,पाली , प्राकृत, अपभ्रंश के साहित्य का
अध्ययन शामिल है| और साथ ही ‘संक्षेप में वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्यों का परिचय
करा देने की चेष्टा की गयी है’ ताकि ‘हिंदी साहित्य को सम्पूर्ण भारतीय साहित्य से
विछिन्न करके न देखा जाए’| यह एक महती आवश्यकता थी जिसे द्विवेदी जी ने पूरा किया
| विद्वानों ने उनकी इस प्राणधारा के विकास को तो लक्षित किया लेकिन उनके यहाँ
इतिहास में क्रमभंग को ‘वास्तविक आरम्भ’ कहा गया है,इस पर कम ही चर्चा हुई|
लेकिन प्रश्न यह भी है कि लोक और शास्त्र का यह मुख्य
अंतर्विरोध क्या एक ही समय में जावा, सुमात्रा, श्रीलंका, और दक्षिण भारत से लेकर
जर्मनी, फ़्रांस, इंग्लैंड, और स्पेन आदि तमाम जगहों के ‘मध्यकाल’ की अनन्य विशेषता
थी? क्या इसी मुख्य(primary) अंतर्विरोध ने इन सभी जगहों पर हजार सहस्त्राब्दी के
आस-पास ‘देश्यभाषाकरण’ की प्रक्रिया को जन्म दिया? अगर देश्यभाषाकरण की यह
प्रक्रिया सम्पूर्ण यूरेशिया में एक समकालिक प्रक्रिया थी तो कोई न कोई एक बड़ा
परिवर्तन ऐसा घटित हो रहा था जिसने इसके लिए उचित कारक मुहैय्या किये| दक्षिण
एशिया और यूरोप में साथ-साथ होने वाली इस प्रक्रिया में कई संरचनात्मक समानताएँ तो
थीं लेकिन कई मौलिक अंतर भी थे| विद्वानों ने इसके कारणों की बहुत सारी व्याख्याएं
की हैं| फिलहाल इस सवाल को यहीं छोड़ कर हम यह देखने की केवल कोशिश करते है कि
भारतीय चिंता की प्राणधारा के ‘स्व-भाव’ के विकास से ‘चार आने’ वाले ‘प्र-भाव’ का
क्या रिश्ता था, और हिंदी साहित्य के आरम्भ सम्बन्धी विवाद में उससे किस प्रकार की
समझदारी मिलती है|
इस ‘चार आने’ वाले प्रभाव के बारे में नामवर सिंह ने ‘दूसरी
परंपरा की खोज’ में कुछ प्रकाश डाला है|
उन्होंने इरफ़ान हबीब के हवाले से दिखाया कि तुर्कों के भारत आने से भले ही
कोई युग परिवर्तन नहीं हुआ लेकिन तकनीकी और प्रौद्योगिकी परिवर्तन अवश्य हुए|
तुर्कों के शासन के समय भारत में वस्त्र उद्योग, सिंचाई , कागज , चुम्बकीय
कुतुबनुमा , समय सूचक उपकरण तथा घुड़सवार सेना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में उल्लेखनीय
विकास हुआ| इन परिवर्तनों से शिल्प और कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिला,व्यापारिक
गतिविधियां भी तीव्र हुई| ‘ नयी तकनीक में कुशल दक्ष कारीगर प्राप्त करने की ललक
ने व्यक्तिगत नौकरी लागू करने को प्रोत्साहन किया होगा| कागज़ के प्रचलन से अखिल
भारतीय बाजार के विकास में मदद मिली होगी|’ और इन परिवर्तनों के कारण “ भारतीय
समाज के सामंती ढांचे के अंदर व्यापारिक पूँजीवाद की दिशा में अवश्य ही कुछ
उल्लेखनीय परिवर्तन हुए होंगे, जो देर सवेर सामजिक संबंधों को प्रभावित करते हुए
सांस्कृतिक-साहित्यिक परिवर्तन के लिए भी पृष्ठभूमि तैयार कर सके होंगे”|[13]इन
परिवर्तनों ने निश्चित रूप से भक्ति आंदोलन के लिए आधार भूमि का निर्माण किया
होगा| इसके साथ-साथ सामाजिक स्थिति में सुधार की आशा से धर्मांतरण भी हुए होंगे |[14]इनसे
हिंदू जाति व्यवस्था में भी जगह जगह विश्रृंखलता के लक्षण दिखाई पड़े और दूसरी ओर
उसे ज्यादा कठोर बनाने के भी प्रयत्न हुए| लेकिन इसके साथ-साथ जो एक बात और हुई वह
थी तुर्क सत्ता के साथ उस स्पेस का निर्माण जिसने पहले से चली आती हुई संस्कृति के
स्थानीकरण और राज्यसत्ता के क्षेत्रीकरण के साथ साथ होने वाले ‘देश्यभाषाकरण’ की
अवरुद्ध प्रक्रिया को अपने भिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण मुक्त कर दिया|
यह सही है कि ‘इतिहास को नीचे से देखना’ बहुत ही ज़रूरी है और एक स्तर पर
पुराने इतिहास लेखन से एक क्रांतिकारी मुक्ति भी है ,परन्तु फिर भी हमें पेरी
एंडरसन की इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि:
“आज जब ‘इतिहास को नीचे से देखना’ मार्क्सवादी और गैर
मार्क्सवादी दोनों ही समूहों के लिए एक आवश्यक शर्त हो गया है, और इसने अतीत की
हमारी समझदारी को बहुत फायदा भी पहुंचाया है ,
हमें ऐतिहासिक भौतिकवाद के उस मूलभूत स्वयंसिद्धि को भूलना नहीं
चाहिए: कि वर्गों के बीच की सेकुलर लड़ाई
अंततः समाज के राजनैतिक स्तर पर ही समाप्त होती है न कि आर्थिक या सामाजिक स्तर
पर| दूसरे शब्दों में , यह राज्य का निर्माण और ध्वंस ही होता है जिसमे उत्पादन के
आधारभूत परिवर्तनों की मुहर लगी होती है... एक ‘ऊपर से बनता इतिहास’ ... इसलिए
‘नीचे से बनते इतिहास’ से कम आवश्यक नहीं है.”[15]अन्यत्र
भी वह लिखता है कि : “... पूंजीवाद-पूर्व की उत्पादन पद्धतियाँ राजनीतिक , कानूनी
और विचारधारात्मक अधिरचनाओं से हो कर ही परिभाषित हो सकती है क्योंकि इनसे ही
अर्थेतर बाध्यताएं निर्धारित होती हैं जो उन्हें विशिष्ट बनाती हैं”|[16]
इसीलिए राजनीति के चरित्र के साथ संस्कृति के सम्बन्ध को
अनदेखा नहीं किया जा सकता | तुर्क सत्ता के आगमन ने पहले से बन रहे राज्य की
संरचनाओं में क्या क्या परिवर्तन किये उसके विस्तार में न जाते हुए केवल हम यह
देखने का प्रयास करेंगे कि स्थानीय राज्यों के उदय के साथ साथ जो क्षेत्रीय और
अंतरक्षेत्रीय संस्कृतियों के बनने और स्वीकार किये जाने के बीच का द्वंद्व था
उसमे तुर्क सत्ता या सल्तनत काल में क्या परिवर्तन हुए|
उत्तर भारत
में तीसरी शताब्दी के आस-पास राजकीय अभिलेखों की भाषा के रूप में संस्कृत ने प्राकृत
को पूरी तरह से विस्थापित कर दिया था| जबकि दक्षिण भारत में यह कार्य चौथी शताब्दी
के उत्तरार्द्ध में संपन्न हुआ|[17] गुप्त काल के उत्तरार्द्ध तक संस्कृत पूरे
भारतीय उपमहाद्वीप में शिलालेखों की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी थी| इसके
साक्ष्य भारत के बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया में भी उपलब्ध होते हैं और पांचवीं
शताब्दी में जावा ,कम्बोडिया,विएतनाम, लाओस आदि में भी अभिलेखों की भाषा संस्कृत
ही हो गयी थी|[18]इन
सारी जगहों पर एक विशिष्ट प्रकार की शैली का इस्तेमाल किया जाता था और अलंकृत
काव्य की रूढ़ियां भी प्रयुक्त होती थीं| इन शिला लेखों की शैली और भाषा का
पार-क्षेत्रीय(trans
local/supra-local)
संस्कृति और राजनीति से एक गहरा रिश्ता दिखता है| गुप्तोत्तर काल की करीब दो और
तीन शताब्दिओं के भीतर दक्षिण भारत में द्विभाषिक अभिलेखों के प्रमाण मिलने लगते
हैं| इन अभिलेखों या दानपत्रों आदि में पहले तो संस्कृत में एक लंबी प्रशस्ति होती
है| जो राजा द्वारा पूजित देवता के आह्वान से शुरू होकर उनके उद्भव मिथक तक
पहुंचती थी और सम्बंधित राजवंश का ऊँचा स्थान प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया
जाता था| पूर्ववर्ती राजाओं का सम्बन्ध बहुधा पुराणों या महाकाव्यों के वीरनायकों से जोड़
दिया जाता था, जिसके फलस्वरूप वह वंश या तो सूर्य वंशी हो जाता था या चंद्र वंशी
या ऐसा ही कोई और वंश. द्विभाषी अभिलेखों में खास तौर पर दानपत्रों आदि में आखिरी
हिस्सा जो साधारण लोगों को सीधे संबोधित होता था उसमे स्थानीय भाषाओं का प्रयोग
किया जाने लगा था| अभिलेखों आदि में इस प्रकार देशी भाषाओं के साक्ष्य को पोलोक
देशी भाषाओं का लेखीकरण(literization) कहते
हैं|[19]इस
लेखीकरण की शुरुआत स्थानीय राज्य- निर्माण की प्रक्रिया के साथ-साथ ही हुइ थी खास
तौर पर ७०० इसवी सन के आस पास|
अभिलेखों
की भाषा में होने वाले ये परिवर्तन शासन के बदलते स्वरुप से कुछ न कुछ ताल्लुक
रखते हैं| संस्कृत भाषा के साथ केवल ब्राह्मण धर्म के संरक्षण और उसका वरदहस्त
प्राप्त करने का मामला ही न था| क्योंकि गुप्त-काल के अनंतर संस्कृत ब्राह्मणीय
धर्मों के अलावा बौद्ध- जैन आदि विभिन्न ब्रह्मणेत्तर धर्मों की भाषा भी स्वीकृत हो चुकी थी| ज्ञान
के विमर्श की भाषा के रूप में संस्कृत की सार्वत्रिक स्वीकृति और उसका
अभिजन-शासकीय कार्यों तथा काव्य की भाषा के रूप में स्वीकृति एक पारदेशीय घटना थी
जिसे शेल्डन पोलक ‘संस्कृत कॉस्मोपोलिस’ का निर्माण कहते हैं| जब प्रारंभ में
द्विभाषिक अभिलेखों का मिलना शुरू होता है तब भी उनमें संस्कृत की सांस्कृतिक सार्वत्रिकता
का ही बोलबाला था| लेकिन लेखीकरण की प्रक्रिया ने उन देशी भाषाओं को एक ऐसी स्थिति
में पहुँचाया जहाँ से वो साहित्यिक भाषाओं के रूप में स्वीकृति पा सकीं| इस तरह
नितांत अभिलेखीय या सूचनात्मक कार्यों से साहित्य और काव्य की भाषा तक का सफर तय
करने में हर जगह इन भाषाओं को कमोबेश दो से लेकर पांच-छह शताब्दियों का वक्त लग
गया| ध्यान देने लायक है कि इसी प्रक्रिया के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में
छोटे-छोटे स्थानीय राज्यों ने सत्ता के स्थानीकरण के साथ-साथ विचारधारात्मक और
धार्मिक क्षेत्रीयता को भी अंतरावलंबित तरीके से मजबूत किया| फिर चाहे वह तांत्रिक
मतों की राजकीय स्वीकृति हो,[20]या
इसी तरह से देवी पूजा आदि स्थानीय पूजा-पद्धतियों की स्वीकृति हो जो कि एक
पारक्षेत्रीय(translocal) स्वरुप ग्रहण कर रही थी| विभिन्न धार्मिक मतों के सहारे
होने वाली इन प्रक्रियाओं की बड़ी समृद्ध व्याख्या हमें द्विवेदी जी की ‘मध्यकालीन
साधना’ नामक पुस्तक में मिलती है| वह ‘लोक की ओर झुकना’ वाली अपनी अत्यंत
महत्वपूर्ण मान्यता दरअसल मध्यकाल की साधना पद्धतियों के अपने इसी विषद् अध्ययन के
आधार पर पेश करते हैं| इन विचारधारात्मक परिवर्तनों में लगातार एक पार-क्षेत्रीय
मुहावरे को गढ़ने की कोशिश भी थी| स्थानीय दबावों को हमेशा आर्येतर मुहावरों में न
भी कहा जाए तो भी “क्षेत्रीय तत्वों ने अपना रूपाकार एक तरफ तो स्थानीय पद्धतियों
के समेकन से तैयार किया दूसरी ओर उसने पार-क्षेत्रीय प्रतीकों और मुहावरों को भी
ग्रहण किया|”[21]
और इन स्थानीय समाजों और संस्कृतियों के प्रभावी होने के दर्ज आंकड़ें भी हमें
पर्याप्त मात्रा में मिलने शुरू हो जाते हैं| किसी क्षेत्र की विभिन्न धार्मिक और
विचारधारात्मक अभिव्यक्तियाँ इस क्षेत्र की राजनीति, अर्थनीति, और समाज के जटिल
संबंधों से गूँथ सी गयीं थीं| उनके अंतर्संबंधों की अभिव्यक्तियों का माध्यम भाषा
ही थी| और इसी काल में यह अकारण न था कि क्षेत्रीय भाषाओं के लेखीकरण की प्रक्रिया
भी शुरू हुई|[22]क्षेत्रीय
समाजों के इस रूपग्रहण की प्रक्रिया अनिवार्यतः इनके भीतर से शुरू हुई थीं| और
इसके पीछे क्षेत्रीय स्तर पर काम करने वाले कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और सामजिक कारक
थे| इन कारकों में सबसे प्रभावशाली था “ विभिन्न प्रादेशिक स्तरों पर राज्य
निर्माण की परिघटना, स्थानीय से क्षेत्रीय और क्षेत्रीय से पारक्षेत्रीय|”[23]इस
परिघटना ने क्षेत्रीय भाषाओं के लेखीकरण की जो प्रक्रिया शुरू की उसको साहित्यिक
अभिव्यक्ति तक आने में लंबा वक्त लगा था, क्योंकि साहित्य के भीतर पारक्षेत्रीय या
सार्वत्रिक साहित्यिक संस्कृति का ही महत्व बना रहा और इसको अभिव्यक्त करने की
भाषा के रूप में मुख्यतः संस्कृत और गौणतः प्राकृत और अपभ्रंश के त्रिभाषा विभाग
को ही मान्यता प्राप्त रही| ध्यान देने वाली बात यह है कि जहाँ दक्षिण भारत की
द्रविड़ भाषाओं ने उपरोक्त परिघटना को अपनी अभिव्यक्ति जल्द ही प्रदान कर दिया उत्तरभारत
की भाषाओं को ऐसा करने में ज्यादा लंबा वक्त लगा| और यहीं आकर तुर्क सत्ता की
प्रतिष्ठा और एक भिन्न सांस्कृतिक वातावरण का महत्त्व उत्तर भारत के देश्यभाषाकरण
की प्रक्रिया में मालूम देता है| द्विवेदी जी ने संस्कृतेतर अपभ्रंश भाषा के
साहित्यिक प्रयोगों को लक्षित करते हुए इसे ही एक लिहाज से देश्यभाषाकरण मान लिया
था| और इसलिए यह अकारण न था कि अपभ्रंश के साहित्य को वह लोक साहित्य ही समझते
रहे| क्योंकि भीतर से शुरू हुई स्थानीकरण की परम्परा को वह अपभ्रंश के माध्यम से
व्यक्त होता देख रहे थे| यही कारण था कि वह
नयी राज्य व्यवस्था और संस्कृति के आगमन के प्रभाव को उत्तर-भारत के खास
सन्दर्भ में उतना महत्त्व न दे पाए|
यह एक रोचक
बात है कि स्थानीयता के पारक्षेत्रीय चरित्र को अभिव्यक्त करने के लिए संस्कृत की
शैली और संस्कृत महाकाव्यों के देश-बोध(epic-space) को जहाँ
दक्षिण भारतीय भाषाओं के देश्यभाषाकरण के पहले चरण में (जिसे शेल्डन पोलक cosmopolitan vernacularization कहते हैं) स्थानीय रंग देने की कोशिशें हुईं[24],वहीं
उत्तर भारत के देश्यभाषाकरण की प्रक्रिया में यह चरण कहीं भी प्रभावी रूप से
दृष्टिगोचर नहीं हुआ| अपभ्रंश महाकाव्यों में धार्मिक और सांप्रदायिक कथानक तो हैं
लेकिन संस्कृत महाकाव्यों के स्थानीकरण का सर्वथा अभाव है| पश्चिमी भारत में
अपभ्रंश और राज्य का सम्बन्ध जैन धर्म के संरक्षण के साथ साथ स्पष्ट था| और यह
संस्कृत के मुहावरों से ज्यादा भिन्न नहीं था|
दूसरी ओर
जैसा की अन्यत्र संकेत किया गया है दक्षिण भारतीय भाषाओं के द्रविड़ भाषा परिवार से
सम्बंधित होने के कारण और संस्कृत भाषा परिवार से दूर होने के कारण उन्हें वो मौक़ा
आसानी से मिल गया जो उत्तर भारत की भाषाओं को नहीं मिला| इस कारण भी शायद मध्यदेश
में देशी भाषाओं और उनकी पोलिटी के स्थापित होने में कुछ देर हुई| इस मामले में भी
मध्यदेश द्विवेदी जी के शब्दों में ज्यादा रक्षणशील ही रहा| इस रक्षणशीलता और सार्वत्रिक
संस्कृति के मुहावरों तथा उसकी राजनीति को एक बड़ा झटका तुर्क शासन की स्थापना से
मिला| इनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि चूँकि संस्कृत या प्राकृत/अपभ्रंश की परम्परा से
भिन्न थी इसलिए इस नए माहौल ने ‘देश्यभाषाकरण’ को बल प्रदान किया| यह बात भी
गौरतलब है कि मध्यदेशीय ‘देश्यभाषाकरण’ ज़्यादातर स्थानीय दरबारों के बाहर ही बाहर
विकसित हुआ और बहुत बाद तक उन्हें दरबारों में संरक्षण नहीं मिला| खास तौर पर पूरे
भक्ति काल की भावना तो ‘संतन को कहाँ सिकरी सो काम’ वाली ही रही और एक तरीके से
राज्यसत्ता के विरोध में ही समृद्ध हुई| शेल्डन पोलक की मान्यता के विपरीत हिंदी
साहित्य की शुरुआत पर धार्मिक कारकों का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है| और इस
मामले में द्विवेदी जी की धार्मिक प्रेरणा वाली बात ज्यादा सही मालूम पड़ती है| और
एक तरह से तथाकथित अशिक्षित ‘लितराती’ के नए वर्ग ने सूफी और भक्ति आंदोलन के
ज़रिये इस साहित्य के आरंभिक काल का निर्माण किया| इस अशिक्षित ‘लितराती’ ने
संस्कृत की ‘सांस्कृतिक संस्कृति’ का सबसे पुरजोर विरोध किया था|
इस प्रकार
हिंदी साहित्य के आरम्भ का प्रश्न एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया से जुड़ा है और किसी भी
तरह का सामान्यीकरण हमें गलत रास्ते ले जा सकता है| हजारी प्रसाद द्विवेदी ने
मध्यकालीन धर्म-साधनाओं ,नाथों, सिद्धों, तांत्रिकों, कौलमार्गियों तथा स्थानीय
पूजा-पद्धतिओं और विभिन्न आर्येतर और वेद विरोधी संप्रदायों के अपने विश्लेषण तथा
साथ ही साथ अपभ्रंश साहित्य के विषद् अध्ययन से उत्पन्न अंतर्दृष्टि से उस व्यापक
परिवर्तन का पता लगाया था और उसे हिंदी साहित्य के उद्भव के प्रश्न से जोड़ा था
जिसे वह लोक की ओर झुकाव कहते है| ‘लोक’ तथा ‘शास्त्र’ या दूसरे शब्दों में कहें
तो ‘स्थानीय’ और ‘पार-स्थानीय’ के अंतर्संबंधों को बखूबी पहचानते हुए उन्होंने
हिंदी साहित्य के आरम्भ विषयक विवाद को एक ज़रूरी और सही दिशा प्रदान की थी|
२.२ भाषा और
साहित्य का सम्बन्ध: उत्ति विसेसा कब्बो भाषा जा होई सा होदु
नौवीं
दसवीं शताब्दी में हुए राजशेखर का प्रसिद्ध नाटक है कर्पूरमंजरी| नाटक में
सूत्रधार सवाल करता है कि संस्कृत को छोड़ कर कवि ने प्राकृत में रचना क्यों की?
ता
किं किंत्ति संक्किअं परिहरिअ पउदबंधे पउट्टो कई?
और परिपार्श्विक उसका जवाब देते हुए कहता है कि-
अत्थणिबेसा
ते ज्जेब्ब सद्दा से ज्जेब्ब परिणमंतावि |
उत्तिविसेसा कब्बो भाषा जा होई सा होदु ||
अर्थात कविता तो उक्ति विशेष होती है चाहे भाषा कोई भी
क्यों न हो| तो क्या नौवीं- दसवीं शताब्दी तक काव्य की भाषा के रूप में सारी
भाषाएँ समान रूप से स्वीकार्य हो चुकी थीं? हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘भूमिका’ में
साफ़ तौर पर यह माना है कि दसवीं- ग्यारहवीं शताब्दी तक काव्य –भाषा का बंधन इतना
ढ़ीला हो गया था कि कोई भी अपनी भाषा में
काव्य रचना कर सकता था| इस मान्यता के पीछे भी यह मान्यता शामिल थी कि अपभ्रंश
भाषा लोक भाषा ही थी|[25]चूँकि
दसवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक जो भी साहित्य मिलता है उसका अधिकांश
अपभ्रंश में ही है इसीलिए यह भी मान लिया गया कि तब तक देशी भाषाएँ दरअसल अपना रूप
स्थिर ही नहीं कर पायीं थी और उनका उद्भव हुआ ही नहीं था| अपभ्रंश की केंचुली अभी
उतर ही रही थी| इसलिए देशी भाषाओं के
स्थानीय भेद से कुछ-कुछ शब्द तो अपभ्रंश ने ग्रहण करने शुरू किये थे लेकिन ‘भाषा
के विकास की अपभ्रंश अवस्था’ अभी समाप्त नहीं हुई थी और वह देशी भाषाओं में
परिवर्तित नहीं हुई थी| और इसलिए अपभ्रंश का साहित्य भी लोक भाषा का साहित्य था
इसलिए उस दौर का “शायद ही कोई उल्लेखयोग्य संस्कृत भाषा का अलन्कारशास्त्री हो
जिसने संस्कृत की कविताओं के साथ-ही-साथ प्राकृत और तत्कालीन प्रचलित लोक भाषा की
कविताओं का विवेचन न किया हो|”[26]तो
क्या काव्य-भाषा की मुक्ति की यह धारणा वास्तव में बन गयी थी?
पिछले
परिच्छेद में हमने देखा था कि गुप्त काल के पहले भारतीय उपमहाद्वीप में अभिलेखों
की भाषा अधिकांश में प्राकृत ही थी| लंबे समय तक हमें साहित्यिक प्राकृत और
संस्कृत के मिले-जुले अंशों वाले अभिलेख मिलते हैं| संस्कृत का प्रभाव पश्चिमोत्तर
भारत में सबसे पहले दिखाई पड़ता है| इससे पहले संस्कृत मुख्यतः धार्मिक और पवित्र घेरे
की भाषा (language of
sacral sphere) थी| इसके
विपरीत दरबारी अभिलेखों तथा साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए प्राकृत का इस्तेमाल होता
था| सातवाहनों के समय यह परंपरा अपने सबसे अच्छे रूप में हमें दिखाई देती है| लेकिन धीरे-धीरे प्राकृत की जगह संस्कृत ने
राजनीति और साहित्य की भाषा के रूप में अपने आप को स्थापित कर लिया| इस प्रक्रिया
में वैय्याकरणों और उनके राजनैतिक संरक्षण का बड़ा हाथ था| संस्कृत के सबसे पहले
प्रयोग शकों के यहाँ और उससे पहले सिथियो-पार्थियन तथा कुषाण शासकों के यहाँ ही
दिखाई पड़ते हैं| ईसा की पहली शताब्दी के पहले चौथाई के शकषोडस् के मथुरा अभिलेख
में क्लासिक संस्कृत के शार्दूलविक्रीडित छंद का प्रयोग दिखाई पड़ता है| शक क्षत्रप
रूद्रदमन का जूनागढ़ अभिलेख(१५० ईसवी सन्) अलंकृत संस्कृत काव्य शैली का अच्छा
उदाहारण पेश करता है|[27]पहले-
पहल पश्चिमोत्तर भारत में संस्कृत को संरक्षण विदेशी शासकों के यहाँ ही मिला और
फिर धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता देश के अन्य हिस्सों में बढ़ी| अश्वघोष जो संस्कृत
में काव्य रचना करने वाले पहले –पहले लेखकों में था,पाटलिपुत्र छोड़ कर कुषाण शासक
कनिष्क के दरबार में चला गया था| इसी के साथ विदेशी शासकों के दरबार में संस्कृत
को लोकप्रियता असंदिग्ध रूप से वैय्याकरणों के प्रभाव में मिली थी|[28]लेकिन
देश के बाकी हिस्सों में यह प्रभाव काफी मंथर गति से पहुंचा और इसमे करीब दो से
तीन शताब्दिओं का वक्त लग गया| लेकिन हमें वैय्याकरणों और दरबारों के सम्बन्ध में और
उनका संस्कृत के प्रसार में योगदान के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं| चाहे वह सातवाहनों
के दरबार में सर्ववर्मा की उपस्थिति हो या फिर महाभाष्यकार पातंजलि का पुष्यमित्र
शुंग के अश्वमेध यज्ञ में हिस्सा लेने का प्रसंग हो या फिर सर्वतात का अश्वमेध
यज्ञ करना हो|[29]
संस्कृत की
इस नई सांस्कृतिक व्यवस्था को वेदेतर जैनों और बौद्धों ने भी स्वीकार कर लिया था|
सामजिक आधारों की बहुलता ने संस्कृत को राजनैतिक और साहित्यिक विमर्शों के क्षेत्र
में एक सार्वदेशिकता प्रदान की| हम यह नहीं कह सकते कि संस्कृत केवल ब्राह्मणीय
संस्कारों की भाषा थी और ब्राह्मण धर्म के उत्थान और धर्मग्रंथों की स्वीकार्यता
के कारण अभिव्यक्ति के अन्य रूपों पर उसको वरीयता मिली| पहली शताब्दी के अनंतर और
खास कर गुप्त काल में काव्य की भाषा के रूप में संस्कृत की क्लासिकी परंपरा
स्थापित हो चुकी थी| और शेल्डन पोलक के शब्दों में कहें तो भारतीय परंपरा में
‘काव्य’ की शुरुआत ही तब हुई जब ‘देवों की भाषा ने मनुष्यों की दुनिया में प्रवेश
किया’|
काव्य की भाषा
के रूप में संस्कृत की स्वीकृति और ‘काव्य’ का आरंभ एक दूसरे से जुड़ी हुई घटना है|
काव्य के आरंभिक रूप की खोज कुछ विद्वान वेदों में भी करते हैं | यह बात सही है कि
वेदों में ‘कवि’ शब्द का एकाधिक बार प्रयोग हुआ है| परन्तु वहाँ कवि शब्द काव्य
रचना करने वाले के अर्थ में नहीं है| यास्क ने कवि शब्द का अर्थ करते हुए कहा है
कि कवि वह है जो ‘अनदेखे को देख सकता है’| कवि कर्त्ता होता है और स्वम्भू होता
है| वह इस महान लीला की कल्पना करता है और तत्क्षण खुद को अपनी सर्जना में
अभिव्यक्त करता है| वह शुद्ध है और अपनी चेतना से सम्पूर्ण विश्व को आच्छादित किये
है| यह कवि ऋषि से भी बढ़ कर होता है | कवि होने के लिए ऋषि होना आवश्यक है लेकिन
हर ऋषि कवि नहीं होता| ‘कवि’ द्रष्टा है और साक्षात् कर्त्ता है उसमे प्रत्यक्ष
अंतर्दृष्टि होती है| जबकि ऋषि ‘कवि’/’द्रष्टा’ से सुने हुए सत्य को जानता है|
मंत्र द्रष्टा ऋषि या कवि स्वतः प्रमाण ज्ञान को अनुभूत करते थे| ये कवि संस्कृत
काव्यों के रचयिता से नितांत भिन्न हैं| लेकिन ऐसा भी नहीं है कि काव्य का कोई
संबंध वैदिक मन्त्रों से नहीं है| काव्य की सबसे पहली कृति के रूप में वैदिक
मन्त्रों को देखा ही जा सकता है| लेकिन संस्कृत काव्यशास्त्र की परम्परा में वैदिक
श्रुतियों को काव्य से पृथक् ही देखा गया है| वह शास्त्र और काव्य के विभाजन को
स्वीकार करता है| इसलिए उस परम्परा में आदि कवि बाल्मीकि ही हैं, कोई वैदिक ऋषि
नहीं| अपनी काव्यमीमांसा में राजशेखर ने काव्यपुरुष की उत्पत्ति और काव्य का जो
विस्तृत परिचय दिया है वह काव्यशास्त्र की लंबी परंपरा में स्वीकृत काव्य के अर्थ
को स्पष्टतः व्याख्यायित करता है|
अन्य
शास्त्रों से अलग काव्यशास्त्र की परंपरा के स्पष्ट प्रमाण हमें सातवीं शताब्दी के
भामह से पहले नहीं मिलाते |काव्यालंकार में भामह ने अपने कई पूर्ववर्तियों के
संकेत दिए हैं लेकिन दुर्भाग्यवश उनमें से किसी की कृति हमें उपलब्ध नहीं हैं| भरत
के ‘नाट्यशास्त्र’ के पहले की रचनाओं का केवल परम्परा से चला आता अनुमान ही है|
बहरहाल भामह और उसके बाद के काव्यशास्त्रियों ने काव्य की परिभाषा, उसकी आत्मा,
काव्य की भाषा आदि पर विस्तृत विचार किया है| कई उपलब्ध भाषाओं में कौन सी भाषा
काव्य के लिए प्रयुक्त होती थी और प्रयुक्त होनी चाहिए थी इसका उल्लेख लगभग हर
काव्यशास्त्री ने किया है| भामह ने काव्य को गद्य या पद्य में और संस्कृत, प्राकृत
या अपभ्रंश भाषा में होना स्वीकार किया है|[30]
एक या दो पीढ़ी बाद के दंडी ने भी अन्य बातों में भामह से असहमति व्यक्त करते हुए
भी थोड़े बहुत अंतर से इन्हीं तीन भाषाओं तक काव्य को सीमित रखा है| दंडी ने
अपभ्रंश शब्द की थोड़ी व्याख्या की है लेकिन प्राकृत शब्द की व्याख्या नहीं दी है|[31]
लेकिन दंडी ने प्राकृत भाषा के क्षेत्रीय भेदों की चर्चा की है और महाराष्ट्री
प्राकृत को काव्य रचना के लिए सबसे उपयुक्त बताया है (महाराष्ट्राश्रयाम् भाषाम्
प्रकृष्टम् प्राकृतं विदुः ;काव्यादर्श-१.३४) तथा नाटकों के पात्रों की बातचीत में
शौरसेनी, गौड़ी, लाटी और इसी प्रकार की अन्य भाषाएँ प्रयोग में लायी जा सकती हैं|
(काव्यादर्श-१.३५) यहाँ यह लक्षित किया जा सकता है कि महाराष्ट्री के अतिरिक्त
शौरसेन, गौड़, लाट या अन्य प्रदेशों की प्राकृत (जिन्हें टीकाकार रत्नश्रीज्ञान
‘सामान्यभाषा’ कहता है) काव्य में गौण या द्वितीयक महत्व की ही थीं| भोज ने आगे चल
कर इसी बात को और भी पुरजोर तरीके से उठाया और कहा कि ये गौण प्रयोग केवल
अनुकरणात्मक ही होंगे| किसी नाटक या काव्य में क्षेत्रीयता के निदर्शन के लिए अथवा
भिन्न- भिन्न सामाजिक स्तर के पात्रों के लिए इन भाषाओं का प्रयोग निर्देशित किया
गया है| हमें महाराष्ट्री प्राकृत को छोड़ कर और किसी भी प्राकृत में पूरी की पूरी रचना
नहीं मिलती है| (कर्पूरमंजरी एक अपवाद है जो शौरसेनी प्राकृत में लिखा गया है|
लेकिन शौरसेनी आदि प्राकृत का ढांचा महाराष्ट्री प्राकृत का ही था , थोड़े बहुत
भेदों के साथ) दंडी ने भामह के काव्य वर्गीकरण में मिश्र काव्य का समावेश करते हुए
संस्कृत, विभिन्न प्राकृतों और अपभ्रंश की मिली- जुली भाषा वाले साहित्य को उसमें
समाहित कर लिया | इस मिली जुली भाषा में प्राथमिक भाषा संस्कृत या महाराष्ट्री
प्राकृत ही हो सकती थी बाकी सारे अनुप्रयोग अनुकरणात्मक ही हो सकते थे| मिश्र
काव्य के साथ प्राकृत ‘कथा’ को भी दंडी ने शामिल कर लिया था| (काव्यादर्श-१.३२,३७
)
अपभ्रंश की
व्युत्पत्ति बताते हुए दंडी ने लिखा कि काव्य में आभीरादि की भाषा को अपभ्रंश नाम
से अभिहित किया जाता है और शास्त्र में संस्कृत से इतर कोई प्रयोग अपभ्रंश कहा
जाता है|[32]महाभाष्यकार
ने संस्कृत के गौः जैसे शब्दों के लोक में प्रचलित गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका
आदि अपशब्द या असाधु शब्दों को अपभ्रंश कहा है| नामवर सिंह का मानना है कि दंडी ने
शास्त्र में संस्कृत से इतर प्रयोगों को अपभ्रंश कह कर इसी ओर इशारा किया है| यहाँ
शास्त्र से दंडी का अभिप्राय व्याकरण शास्त्र से है|[33]लेकिन
ऐसा प्रतीत होता है कि काव्यमीमांसा या श्रृंगारप्रकाश आदि में काव्य और शास्त्र
का जो भेद किया गया है दंडी ने भी कुछ उसी अर्थ में संभवतः शास्त्र शब्द का प्रयोग
किया है| अपभ्रंश का अपभ्रष्ट और हीनतर प्रयोग के अर्थ को ‘अमरकोश’(५वीं
शताब्दी?)में भी पुष्ट किया गया है|( अपभ्रंशोऽपशब्दः ...१.६.३५४) कोई दो शताब्दी
बाद कुमारिल ने भी अपनी ‘तन्त्रवर्तिका’ में ‘अपभ्रष्ट’(?) भाषा में लिखे बौद्धों
और जैनों के शास्त्रों को मिथ्या मानते हुए लिखा है कि असत्य भाषा या असाधुभाषा,
मगध या दक्षिणात्य भाषा या उनके और भी अपभ्रंश रूपों में लिखा होकर ये ग्रन्थ सत्य
को कैसे व्यक्त कर सकते हैं| ( तन्त्रवर्तिका-१.३.१२)[34]ध्यातव्य
है कि कुमारिलभट्ट ये सब सातवीं शताब्दी में लिख रहे थे और तब तक बौद्धों और
जैनियों का विपुल साहित्य संस्कृत भाषा में आ चुका था| इस प्रकार शब्द और भाषा
दोनों के सन्दर्भ में दंडी की अपभ्रंश संबंधी व्याख्या बहुत महत्वपूर्ण है|
आभीरादि की भाषा ने कैसे साहित्यिक भाषा के रूप में अस्तित्व ग्रहण किया इसका कोई
प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे पास नहीं है| लेकिन यह निश्चित है कि पश्चिम की आभीरोक्ति
के साहित्यिक रूप का ज्ञान दक्षिण के दंडी को था| इसलिए अपभ्रंश की देशव्यापी
स्वीकृति स्पष्ट है| लेकिन थी यह गौण महत्व वाली ही| परन्तु कालिदास के
‘विक्रमोर्वशी’ के चतुर्थ अंक में हमें जो अपभ्रंश का नमूना मिलता है, उसको छोड़ कर
उस अपभ्रंश का कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य हमारे पास नहीं है| [35]विद्वानों
ने नाट्यशास्त्र के ३२वें अध्याय में छंदों के उदहारण स्वरुप जो कवितायें उद्धृत
हुई हैं उनमें उस ‘आभीरोक्ति’ अपभ्रंश की कतिपय विशेषताएं लक्षित ज़रूर की हैं|
लेकिन इन सभी जगहों पर यह अपभ्रंश काव्य की मूल भाषा के रूप में नहीं बल्कि उदाहरण स्वरूप आयी अनुकरणात्मक भाषा ही है|
अपभ्रंश भाषा को साहित्य के उपयुक्त शुद्ध भाषा का दर्ज़ा प्राप्त करने में १२वीं
शताब्दी तक का वक्त लग गया| १२ वीं शताब्दी के वाग्भट् ने अपभ्रंश को विभिन्न
क्षेत्रों में बोली जाने वाली शुद्ध भाषा कहा है| (इति भाषास चतस्रोऽपि यान्ति
काव्यस्य कायताम्... अपभ्रंशस तु यस शुद्धं तत्तद्देशेषु भाषितम्-
वाग्भटलान्कार-२.१-३) शुद्धता की यह
स्थापना परिपाटीबद्ध और व्याकरण शास्त्र से बंधी भाषा के लिए थी| किसी समय लोक से
संबंधित अपभ्रंश की पार-क्षेत्रीय स्वीकृति बिना संस्कृत या प्राकृत के मुहावरों
को अपनाये नहीं हो सकती थी| इसके कुछ क्षेत्रीय भेद तो थे लेकिन काव्य-भाषा के रूप
में वह स्वीकृति त्रिभाषा फॉर्मूले के अंदर ही थी| इतना तो तय है कि अपभ्रंश लोक
भाषा न थी|
इन तीन
भाषाओं के अतिरिक्त कहीं-कहीं बड्डकथा( वृहत्कथा) की भाषा पैशाची का भी उल्लेख
मिलता है| इसे ‘भूतभाषा’ भी कहा जाता था और विद्वानों ने इस भाषा को प्राकृत का ही
एक भेद स्वीकार किया है| यह किस क्षेत्र से सम्बंधित थी इसको लेकर भी विवाद है| इस
भाषा में रचित किसी ग्रन्थ का अभी तक पता नहीं चला है|
भामह और
दंडी से कोई तीन शताब्दी पूर्व भरत के नाट्यशास्त्र में भी तीन भाषाओं का उल्लेख
मिलता है| संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की जगह देशभाषा| भरत ने प्राकृत पाठ का
लक्षण बताते हुए लिखा कि जब संस्कृत पाठ ही विपर्यस्त यानी संस्कारगुण से रहित हो
जाता है तो प्राकृत कहलाता है, जिसकी अनेक और भिन्न- भिन्न अवस्थाएं होतीं हैं|[36]
विशेषतः नाट्य प्रयोग में वह तीन प्रकार की होती हैं- १.समान शब्द(संस्कृत के समान)
२.विभ्रष्ट (इस वर्ग की प्राकृत में वे पद गिने जाते हैं जिनके वर्ण संधि में बदल
जाते हैं और संख्या में भी कम पड़ जाते हैं) और ३. देशी|[37]
यहाँ विभ्रष्ट शब्द को ही नामवर सिंह अपभ्रंश मानते हैं|[38]
लेकिन भरत ने देशी भाषाओं की चर्चा के क्रम में ही एक चौथी भाषा का ज़िक्र भी किया
है जिसे वह ‘विभाषा’ कहते हैं| सहकार, आभीर, चंडाल, द्रमिल, आन्ध्र और हीन वनेचरों
में इसका प्रयोग होता है| [39]
जिस उकारबहुला आभीर भाषा से अपभ्रंश का सम्बन्ध जोड़ा जाता है वह इसी विभाषा वर्ग
की भाषा है| (१७.५५,१७.६६) यहाँ भी ध्यान देने लायक है कि बोलियों के इन सभी
प्रवर्गों का इस्तेमाल नाटकों में नितांत अनुकरणात्मक प्रयोगों तक ही सीमित किया
गया है| पात्रों के सामाजिक स्तर या स्थान भेद के अनुसार इन का प्रयोग नाटक में करना
चाहिए, ऐसा भरत का स्पष्ट निर्देश है| इनमें से किसी को भी नाट्य रचना की प्राथमिक
भाषा होने का गौरव नहीं है|
काव्य भाषा
या साहित्यिक भाषा के रूप में तीन भाषाओं के सीमित प्रयोग को सिद्धांतकारों ने
लगातार और बहुत बाद तक निरुपित किया है| कहीं कहीं हमें षड्भाषा का भी उल्लेख
मिलता है| नौवीं शताब्दी के आस-पास रुद्रट ने छः भाषाओं का उल्लेख किया है| यहाँ
केवल यह किया गया है कि प्राकृत को महाराष्ट्री प्राकृत से अभिन्न मानते हुए
शौरसेनी और मागधी को पृथक लक्षणों वाली भाषा के रूप में गिना गया है और उन्हें
संस्कृत,प्राकृत, अपभ्रंश और पैशाची के साथ रखा गया है|[40]
अतः षड्भाषा का यह उल्लेख तीन भाषाओं के पुराने नियम में कोई बदलाव नहीं लाता| अगर
छः भाषाओं को मान भी लिया जाए तो भी यह काव्य में भाषाओं का सीमित प्रयोग ही है|
इसी सीमित भाषा-प्रयोग का निर्देश एक शताब्दी बाद के राजशेखर ने अपनी काव्यमीमांसा
में भी दिया है| काव्यमीमांसा में जिस काव्यपुरुष की चर्चा है उसका मुख संस्कृत का
है, बाहू प्राकृत का(महाराष्ट्री प्राकृत?) जंघाएँ अपभ्रंश की , पद पैशाची का और
उसकी छाती मिश्र भाषा (नाटकों में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृत आदि) की है|
(काव्यमीमांसा-४८.२५-२६) आगे वह कहता है कि कोई विषय संस्कृत में सबसे अच्छी तरह
कहा जा सकता है कोई प्राकृत में तो कोई अपभ्रंश या पैशाची में : कोई-कोई दो या तीन
या चारों भाषाओं में| जिस लेखक की तीव्र बुद्धि इनमें विभेद करती है उसकी
प्रसिद्धि सारे जगत में व्याप्त होती है|
इसलिए
कर्पूरमंजरी का ‘भाषा जा होई सा होदु’ वाला कथन सीमित भाषा प्रयोगों के बीच चुनाव
को ही बताता है| किसी भी उपलब्ध भाषा के प्रयोग को नहीं| राजशेखर के एक शताब्दी
बाद के भोज ने अपने ‘श्रृंगारप्रकाश’ में इसी मान्यता का समर्थन किया है| तमिल प्रदेश
के शारदातनय ने १२ वीं शताब्दी के अपने ‘भावप्रकाश’ में भी इस
संस्कृत(प्राकृत/अपभ्रंश) की साहित्यिक संस्कृति को अपना पूरा समर्थन दिया है| [41]इतना
तो तय है की बहिष्कृत भाषाओं में स्वतः ही कोई ऐसा दोष न था कि उसमे काव्य रचना हो
ही नहीं सकती थी| लेकिन संस्कृत(प्राकृत/अपभ्रंश) की जो सार्वत्रिक संस्कृति बन
गयी थी उसमे ये भाषाएँ बहिष्कृत होने को बाध्य थीं|
इस साहित्यिक
रूढ़ि का पालन कवियों ने भी बखूबी किया था और यह केवल काव्यशास्त्रियों तक ही सीमित
नहीं थी|७७९ इसवी में रचित उद्योतन सूरि की ‘कुवलयमाला’ में संस्कृत, प्राकृत और
अपभ्रंश को ही काव्य भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है|[42]यहाँ
उद्योतन सूरि महाराष्ट्री प्राकृत के अलावा अन्य दो भाषाओं का प्रयोग वहीं करता है
जहां ‘कोऊहलेण’ या कुतूहलवश स्थानीय संवादों को व्यक्त करना होता है| उसने विभिन्न
स्थानीय भाषाओं और बोलियों के वास्तविक उदाहरण देकर यह तो ज़रूर दिखा दिया कि
साहित्य में प्रयुक्त होने की संभावना से युक्त अन्य भाषाएँ भी वर्त्तमान थीं|
विजयपुर(बीजापुर?) के बाजार में कथानायक ने लोगों को सोलह विभिन्न देश भाषाओं का
प्रयोग करते सुना| इनमे से प्रत्येक संवाद का नमूना सूरि ने अपने ग्रन्थ में दिया
है| हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लक्ष्य किया है कि इनमें से कई प्रयोग बाद में
हेमचंद्र की ‘देशीनाममाला’ और ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ में भी मिलते हैं| मथुरा के
अनाथालय में कोढ़ियों और अपाहिजों की भाषा में मिलने वाले ‘अच्छइ’ ,‘आछ’ जैसे
प्रयोग बारहवीं शताब्दी की भाषा में मिल जाते हैं| [43]इस
प्रकार यह तय है कि ८ वीं शताब्दी में भी देशीभाषाओं का चलन था और अपभ्रंश की
परवर्ती अवस्था से उनके उद्भव की व्याख्या का प्रयास गलत है| साथ ही यह भी तय है
कि साहित्यिक भाषा के रूप में उन देशी भाषाओं का प्रयोग अपभ्रंश (संस्कृत/प्राकृत)
की सार्वत्रिक संस्कृति के पतन के साथ ही हो सका| कुवलयमाला में मिलने वाले ये
प्रयोग भी नक़ल या अनुकरण ही हैं , साहित्य में द्वितीयक महत्व ही रखते हैं| खुद
साहित्य के लिए इन भाषाओं का प्रयोग नहीं हो सकता था| साहित्य की प्राथमिक भाषा
निश्चित रूप से तीन भाषा प्रयोगों तक ही सीमित था|
इस लिहाज
से पैशाची वृहद्कथा(बड्डकथा) के उद्भव की कहानी बड़ी मनोरंजक और अर्थ पूर्ण है| एक
बार सातवाहन राजा( द्विवेदी जी इसे हाल से अभिन्न मानते हैं[44])
जलक्रीड़ा के समय संस्कृत न बोल पाने के कारण लज्जित हुए और प्रतिज्ञा कर बैठे कि
जब तक धारावाहिक रूप से संस्कृत बोलने और लिखने नहीं लगेंगे तब तक बाहर मुँह न
दिखाएँगे | मंत्री गुणाढ्य पंडित को बुलाया गया |उन्होंने छह वर्ष में राजा को
संस्कृत सिखा देने की प्रतिज्ञा की| लेकिन एक दूसरे पंडित सर्ववर्मा ने इस दुष्कर
कार्य को छह महीने में ही पूरा करने का व्रत ले लिया| गुणाढ्य पंडित ने दावा किया
कि यह असंभव है| सर्ववर्मा ने इस कठिन कार्य को शिव के पुत्र कार्तिकेय की दया पर
छोड़ दिया |कार्त्तिकेय के आशीर्वाद से उसने ‘कातन्त्र’ जिसे कुमार्व्याकरण भी कहा
जाता है, की रचना कर डाली | इस प्रकार वह अपने कार्य में सफल रहा और छः महीने बाद
राजा धारा प्रवाह संस्कृत बोलने लगे, पर गुणाढ्य पंडित को अपनी प्रतिज्ञा के
अनुसार भाषात्रयी में मौन हो जाना पड़ा| संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश को छोड़ कर
पैशाची में उन्हें रचना करना पड़ा |( भाषात्रये भविष्यामि मौनी... पैशाचिम्
अनअपभ्रंशसंस्कृतप्राकृतां शृतः ) ‘कागज़ का काम सूखे चमड़े से लिया गया और स्याही
का काम पशुओं के रक्त से | पिशाचों की बस्ती में और मिल भी क्या सकता था! कथा जब
पूरी हुई तो गुणाढ्य पंडित शिष्यों सहित फिर राजधानी लौट आये | स्वयं तो नगर के
उपकंठ में ही रुक गए, पर शिष्यों के हाथ ग्रन्थ को राजा के पास भिजवा दिया| राजा
ने सब जान सुन कर कहा-
पिशाची
वाग मषी रक्तं मौनोन्मत्तश्च लेखकः |
इति
राजा ब्रवीत का वा वस्तुसारविचारणा ||
(वृहत्कथामंजरी १/८७)’
कहानी में त्रिभाषा प्रयोग में मौन होना और फिर राजा द्वारा
पैशाची की रचना को वस्तुसार से रहित मानना साहित्यिक भाषा के सीमित प्रयोगों की
स्वीकृति का एक और प्रमाण है| आगे चल कर ‘संदेश रासक’ में अब्दुर्रहमान का खुद को
‘संस्कृत, प्राकृत, पैशाची’ की परम्परा से जोड़ना भाषा-विषयक पुराने रूढ़िबद्ध
संस्कारों और संस्कृत(प्राकृत/अपभ्रंश) की सार्वत्रिक संस्कृति का ही प्रभाव मानना
चाहिए|(सन्देश रासक १.४-६)
भाषा के
साथ साथ इनमें लिखे जाने वाले साहित्य के रूप और विधाएं भी बहुत हद तक रूढ़ हो गयीं
थीं| विशिष्ट प्रकार के काव्य के लिए विशिष्ट प्रकार की भाषा ही स्वीकार थी|
महाकाव्य और आख्यायिका केवल संस्कृत में ही लिखे जाते थे| स्कंधक और गाहा के लिए
प्राकृत रूढ़ हो गयी थी| रासो/रासक या अवस्कंधक अपभ्रंश में ही लिखे गए| ‘गाहाबंध’
कहने से जहां प्राकृत का बोध होता था ,दूहा/दोहा कहने से ही अपभ्रंश का भान होने
लगा था| आगे चल कर यह परंपरा देशी भाषाओं में भी मान्य हो गयी थी| कृष्णकाव्य और
श्रृंगार मुक्तकों के लिए ब्रज तथा राम-काव्य और चरित काव्यों के लिए अवधी भाषा के
प्रयोग की लंबी परम्परा रही है| इनके अपवाद भी हैं लेकिन एक सामान्य नियम की तरह
कवियों ने इनका ज़्यादातर पालन ही किया था|
अतः ‘भाषा
जा होई सा होदु’ को सिद्धांत कथन मान कर अपभ्रंश साहित्य की भाषा को लोकभाषा मानना
और फिर उसकी लोक-परक व्याख्या करना पूरी तरह सही नहीं प्रतीत होता|
२.३ एक बड़े आलोक की
संभावना: देशीभाषा-साहित्य के आरंभिक रूपों की खोज.
‘हिंदी
साहित्य का आदिकाल’ के अपने पहले व्याख्यान में द्विवेदी जी ने तत्कालीन उपलब्ध अपभ्रंश
साहित्य की चर्चा की है| उन्होंने बताया है कि पिशेल का यह अनुमान कि अपभ्रंश का
विपुल साहित्य खो गया है ,को उत्साही अनुसंधानकर्ताओं ने अपने अथक प्रयासों से गलत
साबित कर दिया है और विवेच्यकाल के कई अपभ्रंश ग्रन्थ अब हमारे सामने हैं| लेकिन
“चौदहवीं शताब्दी से पहले की भाषा का रूप हिंदी-भाषी प्रदेशों में क्या और कैसा
था, इसका निर्णय करने योग्य साहित्य”(पृष्ठ-२४) उपलब्ध नहीं है| पुराने हस्तलेखों
और शिला लेखों से उस भाषा का पता चल सकता था पर दुर्भाग्यवश वह भी नहीं है| एक बार
जब हिंदी साहित्य के आदिकाल का निर्धारण दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक कर लिया गया
तो फिर यह आवश्यक था कि उस काल की साहित्यिक प्रवृत्ति और उस काल की मुख्य
प्रेरणादायक वस्तु को भी स्पष्ट किया जाए| हमने पिछले परिच्छेदों में देखा है कि
हिंदी साहित्य का आरंभिक उपलब्ध साहित्य इतिहास की उस बड़ी घटना की ओर इशारा करता
है जिसे ‘देश्यभाषाकरण’ कहते हैं| और यह प्रक्रिया ही हिंदी के आरंभिक उपलब्ध साहित्य
की उपलब्धता सुनिश्चित करती है| या ऐसा कहें कि देशी भाषाओं में साहित्य की
उपलब्धता ही देश्यभाषाकरण की प्रक्रिया को सूचित करती है| इसके बावजूद हम उस दौर
के पहले के हिंदी साहित्य की विषय-वस्तु और उसके काव्य रूप की खोज करते हैं
क्योंकि यह आने वाले वक्त के साहित्य की परम्परा को समझने में हमारी मदद करता है| भक्ति-साहित्य
की रूढ़ि मुक्त चेतना ने गुणात्मक रूप से भिन्न साहित्य हमारे सामने रखा |इस भिन्न
साहित्य ने अपनी पूर्ववर्ती परम्पराओं में से किसका चयन किया और क्यों किया यह
जानने के लिए भी विवेच्य काल के साहित्यिक रूपों की खोज आवश्यक है| परन्तु परम्परा
निर्धारण के लिए दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक लगभग अनुपलब्ध हिंदी साहित्य के काव्य
रूपों का निर्धारण इतिहास की एक बड़ी समस्या थी| शुक्ल जी ने अपने तरीके से उसे हल
भी कर दिया था| लेकिन भक्ति-काव्य का स्वरूप वीरगाथाओं से तय नहीं हो सकता था और न
ही किसी ‘प्रतिक्रियावाद’ से| इस समस्या को एक सही इतिहास-दृष्टि से हल करने की
कोशिश की हजारी प्रसाद द्विवेदी ने| द्विवेदी जी ने अपभ्रंश के उपलब्ध साहित्य के
अध्ययन और ऐतिहासिक परिवर्तन की मूल प्रक्रिया और दिशा की पहचान के सहारे स्वरूप
निर्धारण की इस महती आवश्यकता को पूरा करने की कोशिश की है| द्विवेदी जी के ही
शब्दों में-
“यद्यपि हमने अपभ्रंश की अनेक रचनाओं की चर्चा की है और
हमारा मत है कि ये रचनाएँ आदिकालीन हिंदी-साहित्य के काव्यरूपों के अनुमान में
सहायक हैं; परन्तु यह सत्य है कि जिन प्रदेशों में आगे चल कर ब्रजभाषा, अवधी, और
खड़ी बोली का साहित्य लिखा जाने लगा, उन प्रदेशों की बहुत ही थोड़ी रचनाएँ हमें
मिलती हैं –बहुत ही थोड़ी | फिर भी मात्रा और विस्तार में अत्यंत अल्प इन रचनाओं का
भी बहुत महत्व है, इन थोड़ी रचनाओं ने भी विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया
है और अनेक विद्वानों ने इसके मूल रूप को समझने का प्रयास भी किया है| यह साहित्य
अपभ्रंश कवि द्वारा निबद्ध उस अकिंचना सुन्दरी के समान है, जिसके सिर पर एक
फटी-पुरानी कमली थी, गले में दस-बीस गुरियों की माला थी, फिर भी उसका सौंदर्य ऐसा
मनोहर था कि गोष्ठ के रसिकों को कितनी ही बार उठा-बैठी करने को बाध्य होना पड़ा –
सिरि
जरखंडी लोअड़ी गलि मणि अड़ा न बीस |
तोवि गोट्ठड़ा
कराविआ मुद्धए उटठबईस ||”[45]
दूसरे
व्याख्यान में द्विवेदी जी उन कारणों की पड़ताल करते हैं जिनके कारण विवेच्य काल
में देशी-भाषा के साहित्य के सम्बन्ध में कोई विशेष सूचना नहीं मिलती| “ इस बात का
निर्णय करना कठिन है कि अवधी और ब्रजभाषा क्षेत्र में उत्पन्न और वहीं की भाषा
बोलने वालों ने किस प्रकार के साहित्य की रचना की थी, जिसका परवर्ती विकास अवधी और
ब्रजभाषा के साहित्यिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि दसवीं से चौदहवीं शताब्दी के भीतर इन
क्षेत्रों में कोई रचना हुई भी हो तो उसका प्रामाणिक रूप हमें प्राप्त
नहीं|”(पृष्ठ-२६)इसलिए वह अपने इतिहास के लिए मध्य देश के पार्श्ववर्ती प्रदेशों
से प्राप्त साहित्यिक ग्रंथों तथा पूर्ववर्ती और परवर्ती रचनाओं के काव्यरूपों का
अध्ययन कर हिंदी के आदिकाल के काव्यरूपों का अंदाजा लगाने की कोशिश करते हैं|और इस
प्रकार आदिकालीन हिंदी साहित्य के इतिहासलेखन के लिए एक प्राविधि की तलाश उनके
अनुमान की पद्धतियों और निष्कर्षों के बीच से ही तय होती है| उन्होंने इस कारण भी
विवेच्य काल के अध्ययन के लिए तमाम श्रेणी की रचनाओं की उपयोगिता पर बल दिया| और
शुक्ल जी के इतिहास को लक्ष्य करते हुए कहा कि “ केवल संयोगवश इधर-उधर से उपलब्ध
प्रमाणों के बल पर किसी बात को अमुक का प्रभाव और किसी को अमुक ऐतिहासिक घटना की
प्रतिक्रया कह कर व्याख्या कर देना न बहुत उचित है न बहुत हितकर|”(पृष्ठ-२६)
इसी प्रकार
उस काल के महात्माओं और कवियों के नाम से प्रक्षिप्त और प्रचलित रचनाओं तथा
किंवदंतियों के धैर्यपूर्वक परीक्षण की बात भी कही| साहित्यिक इतिहास में
प्रामाणिकता का महत्व तो है ही साथ-साथ प्रक्षिप्तों के इतिहास और उनके ऐतिहासिक
कारणों की पड़ताल भी उतनी ही ज़रूरी है| जिन कवियों की रचनाओं को जनता की व्यापक
लोकप्रियता मिलती है उनमें जनता के चित्त
का विशेष प्रतिबिम्बन होता है| फलतः जन सामान्य उन रचनाओं में अपने विशेष सन्दर्भ
ढूँढता जाता है और अपनी आकांक्षाओं को जोड़ता भी जाता है| समय-समय पर होने वाले ये
परिवर्तन बड़े गूढ़ ऐतिहासिक सत्यों की पहचान छुपाये रहते हैं| इन पहचानों में उस
काल-विशेष की छाप होती है| उन्हें पढ़ने की कोशिश इतिहास लेखन की अनिवार्य शर्त है|
द्विवेदी जी ने इतिहास लेखन में प्रामाणिकता की समस्या को एक वृहत्तर अर्थ देकर
इतिहास की छूटी हुई और भूली हुई कड़ियों को जोड़ने और उन्हें पुनर्रचित करने का
प्रयास किया| और इस पुनर्रचना के केंद्र में थी किसी काल के ‘सम्पूर्ण मनुष्य’ को
उद्भासित करने की चाह| इसने इतिहासलेखन के उद्देश्य को एक नया आधार दिया| परम्परा
के पाठ को नयी दृष्टि दी|
“न तो हमें परम्परा से प्रचलित बातों को सहज ही अस्वीकार कर
देना चाहिए और न उनकी परीक्षा किये बिना उन्हें ग्रहण ही कर लेना चाहिए| इस अंधकार
युग को प्रकाशित करने योग्य जो भी चिंगारी मिल जाये, उसे सावधानी से जिलाए रखना
कर्त्तव्य है; क्योंकि वह बहुत बड़े आलोक की संभावना लेकर आई होती है, उसके पेट में
केवल उस युग के रसिक हृदय की धड़कन का ही नहीं; केवल सुशिक्षित चित्त के संयत और
सुचिंतित वाक्पाटव का ही नहीं ,बल्कि उस युग के संपूर्ण मनुष्य को उद्भासित करने
की क्षमता छिपी होती है|... साहित्य की दृष्टि से, भाषा की दृष्टि से या सामाजिक
गति की दृष्टि से उसमें किसी न किसी महत्वपूर्ण तथ्य के मिल जाने की संभावना होती
है|”[46]
इस काल की पुस्तकें मुख्यतः तीन प्रकार से रक्षित हुई हैं|
१) राजाश्रय पाकर और राजकीय पुस्तकालयों में सुरक्षित रहकर |२) सुसंगठित धर्म
सम्प्रदाय का आश्रय पाकर और मठों, विहारों, आदि के पुस्तकालयों में शरण पा कर|३)
जनता का प्रेम और प्रोत्साहन पाकर| द्विवेदी जी ने स्पष्ट किया है की इन तीनों में
जो सबसे प्रबल साधन था वह राजाश्रय ही था| इस प्रकार उन्होंने राज्याश्रय और
साहित्यिक संस्कृति के मजबूत रिश्तों को समझ लिया था| भारतीय सन्दर्भ में हमने जो
संस्कृत की सार्वत्रिक संस्कृत और उसके साथ राज्य के अंतर्संबंधों की चर्चा पहले
की है उसकी पहचान द्विवेदी जी को थी| आगे उन्होंने राज्याश्रय के चरित्र की चर्चा
करते वक्त ध्यान दिलाया है कि ‘देशीभाषाओं’ को जैसा संरक्षण पश्चिम भारत में मिला
वह मध्यदेश में नहीं मिला| इसलिए भी जैसा कि हम पहले कह आये हैं यहाँ देशीभाषाओं
की रचनाएँ सामने नहीं आतीं और हमें देश्यभाषाकरण के पहले चरण का अभाव मिलता है|
दरअसल मामला सिर्फ संरक्षित हो पाने का नहीं है| बल्कि देशीभाषाओं में साहित्य के
न लिखे जाने का भी था| काव्य-भाषा की जो संस्कृति त्रिभाषा(या षड्भाषा) को स्वीकार
करती आयी थी उसकी ‘पोलिटी’ में जो आधारभूत परिवर्तन क्षेत्रीय राज्यों के निर्माण
के साथ-साथ अन्यत्र हुआ ,मध्यदेश में वह नहीं हो पाया| द्विवेदी जी ने लिखा कि उस
काल की जो पुस्तकें हिंदू धर्म और हिंदू नरेशों के संरक्षण से बची हैं, वे अधिकांश
संस्कृत में हैं|[47]संस्कृत
में हैं क्योंकि संस्कृत की सार्वत्रिक संस्कृति को उनसे किसी विरोध का सामना नहीं
करना पड़ा| जबकि दक्षिण भारत में उस काल में ही देश्यभाषा की एक विरोधी पोलिटी का
निर्माण हुआ , भले ही उसका पहला चरण संस्कृत की सार्वत्रिक संस्कृति के मुहावरों
को ही अपनाकर विकसित हुआ हो|
संस्कृति और राजनीति के इस सम्बन्ध को द्विवेदी जी गहड़वार
राज्य में इस प्रकार दिखाते हैं-
“गहड़वार-राजाओं के विषय में कई प्रकार के विश्वास विद्वानों
में प्रचलित हैं| कुछ लोग उन्हें दक्षिण से आया बताते हैं और कुछ लोग पश्चिम से|
इतना प्रायः निश्चित है कि ये लोग बाहर से आये थे और बाहर से आने वाले अन्य लोगों
की भाँति वे भी स्थानीय जनता से अपने को भिन्न समझते रहे और अपनी श्रेष्ठता सिद्ध
करने का प्रयास करते रहे|बहुत दिन तक इस दरबार में देशी भाषा के साहित्य को कोई
प्रश्रय नहीं मिला| वे लोग वैदिक संस्कृति के उपासक थे और बाहर से बुला बुला कर
अनेक ब्राह्मण-वंशों को दान देकर काशी में बसा रहे थे| संस्कृत को इन्होंने बहुत
प्रोत्साहन दिया| जिस प्रकार गौड़ देश के पाल, गुजरात के सोलंकी, और मालवा के परमार
देशभाषा को प्रोत्साहन दे रहे थे, वैसा इस दरबार में नहीं हुआ| इस उपेक्षा का एक
कारण तो यही जान पड़ता है कि ये लोग बाहर से आये हुए थे और देशीय जनता के साथ
दीर्घकाल तक एक नहीं हो पाए थे| दूसरा कारण यह हो सकता है कि मध्यदेश में जिस
संरक्षणशील धार्मिक विचारधारा की प्रतिष्ठा थी, उसमें संस्कृतभाषा और वर्जनशील
ब्राह्मण व्यवस्था से अधिकाधिक चिपटे रहना स्थानीय जनता की दृष्टि में ऊँचा उठने
का साधन था”[48]
संस्कृत भाषा और ब्राह्मण धर्म के सीधे रिश्तों की भारतीय
साहित्य में निर्मिति एक विशेष इतिहास दृष्टि ने की थी और यह दृष्टि औपनिवेशिक
शासकों और प्राच्यविदों के द्वारा बनाई गयी थी|[49]थोड़े
समय के लिए यह मान भी लिया जाए कि गहरवाड़ों ने
ब्राह्मण धर्म से अपने आप को जोड़ कर संस्कृत को प्रोत्साहित किया और इसी
कारण देशभाषा को प्रोत्साहित नहीं किया| तो ऐसा क्यूँ है कि ठीक उसी वक्त दक्षिण
भारतीय राज्यों ने ब्राह्मणों को बड़े-बड़े अग्रहार भी दिए और राजकीय संरक्षण भी
दिया और फिर भी देश्यभाषाओं को प्रोत्साहित किया? अगर ब्राह्मणों के साथ संस्कृत का रिश्ता
ऐसा ही था तो मालवा के परमार राजपूतों ने या ग्वालियर के राज्य ने देशी भाषाओं को
प्रोत्साहित क्यों किया? राजपूतों के साथ ब्राह्मणों के गठजोड़ को तो कई
इतिहासकारों ने स्पष्ट दिखाया है| फिर सोलंकिओं ने ब्राह्मणों के खिलाफ जाकर देशी
भाषाओं को संरक्षण क्यों दिया? इससे पता चलता है कि ब्राह्मणों और संस्कृत भाषा का
विवेच्य काल में कोई अनिवार्य रिश्ता नहीं था| ध्यान देने लायक है कि एक तरफ तो
ब्राह्मणों के संरक्षण के कारण देश भाषाओं को दबाया जाना साबित किया जाता है दूसरी
ओर अपभ्रंश में संस्कृत शब्दों की प्रमुखता या ‘तत्समीकरण’ की प्रक्रिया को
ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान से जोड़ कर देशी भाषाओं के विकास के सबसे प्रमुख
अभिलक्षण की व्याख्या भी की जाती है! अतः हमें ‘देश्यभाषाकरण’ की इस धार्मिक
व्याख्या से बाहर निकलना होगा|
द्विवेदीजी
चूँकि कई बार देशी भाषाओं से अपभ्रंश का निर्देश करते हैं इसलिए गहड़वारों के
उपरोक्त उदहारण में देशभाषा का मतलब अपभ्रंश से भी है| द्विवेदी जी ने गहड़वार-राजा
गोविन्दचंद्र के समय से इस वंश का झुकाव देशी भाषाओं की ओर होना स्वीकार किया है|
इन्हीं गोविन्दचंद्र के सभापंडित दामोदरभट्ट ने राजकुमारों को काशी-कान्यकुब्ज की
भाषा सिखाने के उद्देश्य से ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ की रचना की थी| इससे यह अनुमान
किया जाता है कि राजकुमारों को घर के भीतर किसी और भाषा बोलने का अभ्यास था| इससे
गहड़वारों का कहीं बाहर से आना सिद्ध होता है| परन्तु ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ में देश
भाषा की शिक्षा देना एक बात है और साहित्य के लिए देशी भाषाओं को प्रोत्साहित करना
और संरक्षण देना दूसरी बात| राजकुमारों के घर की भाषा चाहे जो भी हो उन्हें देशी
भाषाओं की शिक्षा संस्कृत के माध्यम से ही दी जा रही थी| यह केवल राज काज के
कार्यों में सहायता के लिए औपचारिक शिक्षा थी| वरना राजकुमारों के घर की भाषा में
ही साहित्य कहाँ लिखा जा रहा था! उनके घर की भाषा भी वैसे ही काव्य के क्षेत्र से
बहिष्कृत थी जैसे कान्यकुब्ज की देशी भाषा|
उसी
कान्यकुब्ज के दरबार में विद्याधर एक मंत्री थे| द्विवेदी जी ने इसे
‘प्राकृतपैङ्लम्’ के विद्याधर से अभिन्न माना है| इनकी कुछ रचनाएँ
‘प्राकृतपैङ्लम्’ में मिल जाती हैं-“जो यह बताती है कि जयचंद्र के दरबार में
विद्वान मंत्रिगण भी देश भाषा में रचना करते थे|”(वही पृष्ठ-३१) इन विद्याधर की एक
राज्स्तुतिपरक रचना का प्राकृतपैङ्लम् से एक उदहारण दिया गया है-
भअ भंजिअ
बङ्गा भग्गु कलिंगा
तेलंगा
रण मुक्कि चले|
मरहट्ठा
दिट्ठा लग्गिअ कट्ठा
सोरट्ठा
पाअ पले ||
चंपारण
केपा पव्वय झंपा
ओत्था
ओत्थी जीव हरे |
काशीसर
राणा किअउ पआणा
विज्जाहर
भण मंतिवरे ||
_
प्राकृतपैङ्लम्,२४४.
इस पद की भाषा निश्चित रूप से अपभ्रंश है|[50]इसलिए
‘देशभाषा में रचना करते थे’ कहने का मतलब हुआ अपभ्रंश में रचना करते थे| अतः यहाँ
स्पष्टतः द्विवेदी जी अपभ्रंश को देश भाषा मान रहे हैं| सो इतना तो तय है कि यह
राजकीय संरक्षण फिर एक बार ‘भाषात्रयी’ के उस सार्वत्रिक कोड से बाहर नहीं जा पाया
है| इसलिए “ इतना उदार और प्रभावशाली मंत्री देशी भाषा में कविता लिखता था, यही इस
बात का सुबूत है कि आखिरी दिनों में गाहड़वाल- दरबार में और दरबारों की भाँति
भाषा-कविता का सम्मान होने लगा था|” अपभ्रंश कविता के विषय में ही ठीक है |
अजमेर के
चौहान वंश में ‘बीसलदेव’ का कवि होना और भाषा कवियों का संरक्षक होना अनुश्रुतियों
में चला आ रहा है| ‘बीसलदेव’ अपभ्रंश नाम है और वह अपने को ‘कविबांधव’ भी कहता था|
उसके राज्य में कोई जगडूसाहू (वसाह जगडुक) बड़े प्रसिद्ध दानी थे और इनकी दान की
प्रशंसा में कुछ पद्य प्रचलित हैं जो पुरातन प्रबंध संग्रह और ‘उपदेशतरंगिणी’ में
मिल जाते हैं| उसी प्रकार कालिंजर के चंदेलों के अंतिम प्रतापी राजा परमाल के
दरबार में प्रसिद्ध वीर आल्हा-ऊदल हुए थे| द्विवेदी जी ने अनुमान किया है कि
पृथ्वीराज से उसकी लड़ाई सन् ११८२ इसवी में हुई थी और सन १२०३ में वह कुतुबुद्दीन
से लड़ा था| ‘इन बीस वर्षों के भीतर ही कभी जाग्निक का वह ओजपूर्ण काव्य लिखा गया
होगा, जो बहुत दिनों तक आल्हा और ऊदल की स्मृति में लोक कंठ में जीता रहा और बहुत
दिनों तक अपने क्षेत्र में ही सीमित बना रहा|’ कई सौ वर्षों बाद अत्यंत परिवर्तित
रूप में संकलित इस रचना से भी पता चलता है कि चंदेलों के दरबार में भाषा कविता का
सम्मान होता था| परन्तु यह अनुमान ही अनुमान की बात है| वीरता और ओज की पुरानी
स्मृतियों को भाटों और चारणों के बाद की पीढ़ियों ने अपने हिसाब से पुनर्रचित किया
था| हो सकता है काव्य जनता के चित्त के सहारे उन्हीं की बोली में लंबे समय तक
परिवर्तित रूपों में बना रहा हो| ऎसी बहुतेरी लोकगाथाएं जनता में प्रचलित रही आयीं
हैं, लेकिन इनसे किसी ऐतिहासिक काल में ‘भाषा-कवि’ के सम्मान होने का अनुमान जितना
सच हो सकता है उतना ही सच यह भी हो सकता कि भाषा-कवि का राज्याश्रय में सम्मान न
होने के कारण ही उसे केवल जनता के लोकचित्त में ही सुरक्षा और संरक्षण मिल पाया|
बहरहाल
मालवा और गुजरात में भी उस समय जो राजकीय संरक्षण मिला था वह भी अपभ्रंश को ही
मिला था| कुमारपाल और हेमचंद्र का संबंध भी इस संरक्षण को पुष्ट ही करता है|
गुजरात में जैन धर्म को भी राजकीय संरक्षण प्राप्त था| इसलिए भी अपभ्रंश की रचनाओं
को प्रोत्साहन और उनका संरक्षण वहाँ मिलता रहा था| मान्यखेट के राष्ट्रकूट भी
‘अपभ्रंश’ के संरक्षक थे और स्वयंभू तथा पुष्पदन्त जैसे कवियों की रचनाएँ वहीं
सुरक्षित रहीं|
पूर्वी
प्रदेशों में बौद्धों को पाल वंश का संरक्षण था और बौद्ध सिद्धों के चर्यागीत उनके
तथा बाद में नेपाल दरबारों का आश्रय पा कर सुरक्षित रह गए| परन्तु विद्वान अब इस
बात से सहमत हैं कि इन गीतों की भाषा का ढांचा शौरसेनी अपभ्रंश ही है और जिसमे
भोजपुरी, मैथिली, मगही आदि का थोड़ा स्थानीय प्रभाव शामिल है| यह प्रभाव इसलिए था
क्योंकि इनके रचयिता सिद्धों का सम्बन्ध नालंदा और विक्रमशिला जैसे विद्या-मठों से
था, जहां की स्थानीय भाषाओं का कुछ प्रभाव उनकी रचनाओं में आना स्वाभाविक ही है|
द्विवेदी
जी के अनुसार गहड़वारों के समय सारा हिंदी-भाषी क्षेत्र स्मार्त्त मतानुयायी था|
आगे भी जब उनका प्रभाव क्षीण हो गया और अजमेर ,कालिंजर आदि अधीनस्थ प्रान्तों में
स्वतंत्र राज्य स्थापित हो गए तब भी यहाँ स्मार्त्त मत ही प्रभावी रहा| परन्तु
“शैवमतानुयायी नाथ योगियों, रासेश्वर मत के मानने वालों,रस सिद्धों और मंत्र-तंत्र
में विश्वास करने वाले शाक्त साधकों का इन क्षेत्रों में बड़ा जोर था”|(पृष्ठ-३९)
परन्तु ये संगठित मत नहीं थे और जैनियों कि तरह इनका देश भाषा पर कोई विशेष अनुराग
भी नहीं था| और तो और उनके उपदेशमूलक वक्तव्यों में ‘साधारण जनता के सम्बन्ध में
बड़ी अवज्ञा का भाव है”(वही)| उनके अनुसार साधारणजन चौरासी लाख योनियों में भटकने
वाले, कामक्रोध के कीड़े, मायापंक में आपादमस्तक डूबे, अज्ञानीजीव –केवल घृणा करने
और तरस खाने योग्य ही हैं| और
“इस प्रकार जनता के प्रति अवज्ञा और घृणा का भाव रखने वाले
लोग लोकभाषा में कुछ लिखते भी हों तो वह लोक मनोहर हो नहीं सकता| कुछ थोड़ी सी
रचनाएँ इन योगियों की मिल जाती हैं; पर एक तो उन्हें जैन पुस्तकों के समान भंडारों
का आश्रय नहीं मिला, दूसरे वे आल्हा आदि की भांति लोकमनोहर भी नहीं हो सकीं| इनकी
रक्षा का भार सम्प्रदाय के कुछ अशिक्षित साधुओं के हाथों रहा| उन्होंने इन रचनाओं
को प्रामाणिक रूप में सुरक्षित रखने का प्रयत्न नहीं किया| जो कुछ भी साहित्य बचा
है , वह केवल इस बात की सूचना दे सकता है कि वह किस श्रेणी का रहा होगा और उसकी
प्राणवस्तु कैसी थी| परवर्ती साहित्य में इन योगियों का उल्लेख दो प्रकार से आया
है,१) सूफी कवियों की कथा में नाना प्रकार की सिद्धियों के आकर के रूप में और २)
सगुण या निर्गुण भक्त कवियों की पुस्तकों में खंडनों और प्रत्याख्यानों के विषय के
रूप में| दोनों ही बातें इनके प्रभाव की सूचना देती है|”[51]
यह
आश्चर्यजनक है कि जिस नाथ-योगियों की परम्परा का इतना विशदाख्यान कबीरादि संतों की
बानियों के सन्दर्भ में खुद द्विवेदी जी ने किया है, उन्हीं नाथों –जोगियों को ऊपर
एकदम से निकृष्ट बता रहे हैं और लोक विरोधी भी कह रहे हैं! द्विवेदी जी कि इस
विशेष इतिहास दृष्टि पर हम अगले अध्याय में थोड़ी चर्चा करेंगे| फिलवक्त देखते हैं
कि इसी व्याख्यान में अन्यत्र वह शैवमत के एक प्रधान और महत्वपूर्ण रूप नाथमत के
बारे में क्या कहते हैं-
“जैनधर्म से प्रभावित होने के कारण, आंशिक रूप से बौद्ध
साधना को आत्मसात करने के कारण, स्मार्त्तधर्म का आश्रय पाने के कारण और मुस्लिम
आक्रमण के रूप में विजातीय संस्कृति की उपस्थिति के कारण वह निर्गुन्पंथी, सहनशील
और उदासीन बना रहा| उसका आक्रामक रूप केवल जाति-व्यवस्था के प्रति, मायाजाल में
फंसे हुए दयनीय जीवों के प्रति और दुर्नीतिमूलक आचरणों के प्रति जीता रहा| नहीं तो
गोरक्षनाथ जैसे अक्खड़ साधक भी अपने शिष्यों को यही उपदेश दे गए हैं –
कोई वादी कोई विवादी जोगी को बाद ण करनां |
अरसठी
तीरथ समंद समानै यूँ जोगी को गुरुमषि जरनां ||
और-
हबकि
न बोलिबा, ठबकि न चलिबा, धीरै धरिबा पांव |
गरब
न करिबा, सहजैं रहिबा, भणँत गोरख रांव ||
अहिंसा में
इन लोगों का इतना ही दृढ़ विश्वास था जितना जैनों या वैष्णवों का|”[52]
इस प्रकार नाथों की अक्खड़ता और झाड़फटकार के साथ वैष्णव
प्रेम और अहिंसा के योग ने जो रचनाएँ दी वही द्विवेदी जी के लिए अभिप्रेय है और
महत्वपूर्ण भी | शैव और वैष्णव प्रभावों की एकता इस युग की बड़ी विशेषता थी| ऎसी ही
विशेषता विभिन्न वेदविरोधी और वेदानुयायी मतों को मानने वालों के यहाँ दिखाई देती
है| विशिष्ट अस्मिताओं के धारण की हमारी आधुनिक दृष्टि उस युग में ‘तरल अस्मिताओं’
की इस एक साथ उपस्थिति को समझने में अक्सर असफल होती है|[53]द्विवेदी
जी ने लिखा कि विद्यापति के पदों में शिव और विष्णु के मिश्र रूप का वर्णन देख कर
जो लोग अचरज करते हैं और कहते हैं कि वे शैव थे और वैष्णव नहीं हो सकते थे; दरअसल
वो उस काल की मनःस्थिति को नहीं जानते|[54]
धन हरी
धन हर धन
तब कला |
खन
पीतवसन खनहिं बघछला ||
शिव सिद्धिदाता थे और विष्णु भक्ति के आश्रय| गहडवाल-नरेश
अपने को माहेश्वर भी कहते थे और अपनी प्रशस्तियों में लक्ष्मी-नारायण की स्तुति भी
किया करते थे| “इसी सहनशील, उदार और अनाक्रामक धार्मिक मनोभाव की पृष्ठभूमि में
हिंदी साहित्य का आदिकाल लिखा गया| भक्ति के बीज अंकुरित और पल्लवित होने की यह
उपयुक्त भूमि थी|”[55]
इस सहनशील
बहुअस्मिताओं के निर्माण के कारण उस युग में होने वाले परिवर्तनों ने अन्य कारकों
से मिल कर उस युग की पूरी सामाजिक संरचना को विक्षोभों से भर दिया था| इस विक्षोभ
के एक महत्वपूर्ण पहलू के रूप में आगे का संत काव्य लिखा गया इसमें कोई शक नहीं|
इन परिवर्तनों ने राज्यस्तुतिमूलक वीरगाथात्मक रचनाओं और भट्टभणंतों की पतनशील
प्रवृतियों का विकास भक्ति काव्य में न होने दिया| हिंदी प्रदेश में देश्यभाषाकरण
ने खुद को उस विक्षोभ के अग्रगामी रूपों से जोड़ा, उससे प्रेरणा पायी और उसके सहारे
पल्लवित हुई | द्विवेदी जी ने आदिकालीन धर्म-मतों और सामाजिक व्यवस्था के बीच एक
फांक देखी थी| इसी फांक ने, इस दूरी ने उन धर्ममतों की अभिव्यक्ति को भी ‘रहस्य’
का पल्ला पकड़ने पर मजबूर किया था| आचारपालन और वंशशुद्धि की प्रेरणाओं ने उस युग
को छोड़ा न था, फलतः एक स्तर के बाद बाह्याचारखंडन और ‘यौनभावापन्न’ साधना की
अभिव्यक्ति ‘संकोचपूर्ण, द्विविधाग्रस्त, रहस्यनिर्माणपरक और उलटबांसी- जैसी
रचनाओं’ के माध्यम से होने लगी| परन्तु जब सामाजिक व्यवस्था और धर्म मत में विरोध
न रहा तो भक्ति काव्य में रहस्यात्मकता और संकोच भी गायब हो गए|
बहरहाल देशी
भाषाओं में रचित साहित्य की अनुपलब्धता के बावजूद द्विवेदी जी ने जिन-जिन
क्षेत्रों के सहारे साहित्यिक रूपों के निर्धारण का प्रयास किया है वह अपने आप में
बहुत मह्र्वापूर्ण है| इस क्रम में वह लगातार अपभ्रंश में रचित काव्य की ओर जाते
हैं| यह जानते हुए भी कि साहित्यिक अपभ्रंश देशभाषा नहीं थी आखिर वह अपभ्रंश की
रचनाओं की ओर क्यों जाते हैं? साहित्यिक अपभ्रंश से अलग हेमचंद्र के ‘ग्राम्य
अपभ्रंश’ में मिलने वाले पदों के प्रति द्विवेदी जी का अदम्य आकर्षण अकारण नहीं
है| हम भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भले ही यह मान लें कि वह ‘ग्राम्य अपभ्रंश’
हिंदी नहीं बल्कि अपभ्रंश ही है और उनमें मिलने वाले दोहे, पद आदि देश भाषा के
नहीं अपभ्रंश के ही उदाहरण हैं | परन्तु ये हमेशा ज़रूरी नहीं होता कि केवल लोकभाषा
में ही लोक साहित्य लिखा जाए| जिन थोड़े से उपलब्ध रूपों में पुरानी सार्वत्रिक
संस्कृति के काव्य रूपों और काव्य-संवेदनाओं से अलग हमें उस काल की सहज-सरल-सरस
चित्तवृत्ति का काव्यमय आभास मिलता है वो इन्हीं ‘ग्राम्य-अपभ्रंशों में सुरक्षित
है| दरअसल इसी में उस बड़े आलोक की संभावना है जो उस युग के सम्पूर्ण मनुष्य को
उद्भासित कर सकती है| इन थोड़े से उदाहरणों में ही द्विवेदी जी ‘ लोक जीवन के सरल
हृदयों को बिना किसी धार्मिक आग्रह के व्यक्त’ होता देखते हैं|’ “वचन-वक्रिमा,
अलंकरण चातुरी, शब्द गुम्फ, अनुप्रासों की छटा, यमकों की घटा, विकट पद बंध और
बुद्धि वैभव से अनुस्यूत उक्ति-विलास के
मनोरम कला जगत”[56]
वाले माघ, भारवी और श्री हर्ष के वाग्वैभव का संस्कृत साहित्य “बड़े-बड़े छंदों में
बंधी हुई कवि-प्रौढ़ोक्ति की दुरुहता और विद्वतग्राह्यता के कारण काव्यलक्षणों की
बारीकियों, शब्दशास्त्र के अनुशासन और उक्ति वैचित्र्य की मार्मिक जानकारी की
अपेक्षा रखती हैं; राजनीति के निपुण घात-प्रतिघातों, राज सभा के आभीजात गृहीत
कायदे-कानूनों, वस्त्रालन्करण की परिपाटी-विहित विच्छित्तियों और
माल्य-उपलेपन-अंगरागों की सहृदयजन-वांछित विधियों के ज्ञान की आवश्यकता चाहता है;
शोभा,विलास,कांति, हाव-भाव, विव्वोक, मोट्टयित, कुट्टमित,आदि अयत्नज और यत्नज
चेष्टाओं के भेदोपभेदों के रसास्वादन की आवश्यक शर्त मानता है”|[57]
स्वम्भू, त्रिभुवन और पुष्पदंत- जैसे कवियों की काव्य भाषा भले ही अपभ्रंश हैं
किन्तु हैं वो भी शास्त्रीय परम्परा के, संस्कृत-प्राकृत के पांडित्य-बोझ से दबे,
अलंकार, रस और पिंगल के ज्ञान से भरे ‘विकट बांध के कवि’| लेकिन ‘इसी
पांडित्यख्यापिनी, बुद्धि ग्राह्य, सावधान-पाठ्य मनोरम आभिजात्य काव्य के वातावरण
में’ ग्राम्य अपभ्रंश की इन ‘सहज-सुकुमार मर्मभेदी अव्याज्य-मनोहर कविताओं’ की
सीधी-सहज बात सहृदय के हृदय पर सीधी चोट करती है| यहाँ ‘अलंकरण के लिए कोई आयास
नहीं, वक्रभंगिमा के लिए दौड़-धूप नहीं, परिपाटी-विहित रसिकता की परवा नहीं,लीला
विलास विच्छितियों के लिए निपुण विवेचन की कोई खबर नहीं’[58]-ये
हैं वास्तव में –‘सरस मानस की सहज अभिव्यक्ति!’ कौन कहेगा कि ये लोकपरम्परा से
उपजी नहीं हैं! ये पंडितों के लिखे नहीं हैं,’पंडित वो हों भी तो पंडिताई से बहुत
ऊपर उठे हैं’-सहज साधक हैं! अकारण नहीं कि अपभ्रंश के इन उदाहरणों में ही वो झलक
द्विवेदी जी को दिखती है जो काव्य को लोक की ओर खींचे लिए जा रही थी|-
जइ
पुच्छह घर बड्डाइँ तो बड्डा घर ओइ
|
बिहलिअजण-अब्भुद्धरणु कंतु कडीरइ जोइ||
(भले मानस
तू अगर बड़े आदमियों के बड़े-बड़े महलों को पूछता है तो देख, बड़े महल वे हैं| पर ऐसे
महँ का घर पूछता है जो संकट-कातर लोगों के उद्धार का सामर्थ्य रखता है तो देख उस
कुटिया को जहां मेरा कन्त रहता है|)[59]
इन सरस
दोहों से द्विवेदी जी इतने प्रभावित हैं कि अपने ‘गप्पों’ में जब जहां मौक़ा मिलता
है, जब भी ग्राम्य जीवन का कोई उपयुक्त प्रसंग आता है, कोई उत्सवधर्मी मौक़ा आता
है, कोई सहज बात- दिल को छू लेने वाली बात करनी होती है, इन सरस भाव सिक्त दोहों
को किसी न किसी ग्राम्य सखी-सहेली या किसी मनमौजी चरित्र से गवाए बिना चूकते नहीं|
‘पुनर्नवा’ की मृणाल आर्यक की सेना छोड़ने की खबर से उद्वेलित है| अकेली पड़ गयी है|
सहानुभूतिवश सारा गांव ही उदास हो गया है| ग्राम-तरुणियाँ मृणाल के मनोरंजन का जो
भी उपाय करतीं, उनका प्रभाव उलटा ही पड़ता| समझ न पड़ता कि क्या किया जाए| ऐसे में
कार्त्तिक पूर्णिमा को ग्राम तरुणियों ने गोवर्धन-धारण की लीला का निश्चय किया|
“यह लीला बड़ी ही मनोहर थी| गोवर्धन-धारी कृष्ण एक हाथ में वंशी लिए हुए और दूसरे
हाथ की उंगली ऊपर किये खड़े थे| तरुणियाँ उनके चारों ओर उल्लसित होकर नाच रहीं थीं|
प्रायः सारा नृत्य अशिक्षित चरण-न्यास से बोझिल हो उठा था| वर्षा-नृत्य में
नूपुरों की झीनी ध्वनि उत्पन्न करने का उनका प्रयास बहुत सफल सिद्ध नहीं हो रहा
था| मृणाल पहले तो हंसती रही , पर एकाएक उसमें भावावेश आया और उन्मत्त भाव से थिरक
उठी| तरुणियों का उत्साह सौ गुना बढ़ गया, पर वो मृणाल के इशारे पर रुक गयीं| फिर
तो मृणाल की मेखला, नुपुर और कंकण-वाले के उग्पट क्वणन का ऐसा समा बंधा कि मूसलाधार
वर्षा का पूरा ध्वनि-चित्र उपस्थित हो गया|मृणाल देर तक भाव-मदिर नर्तन से अभिभूत
रही| फिर वह गोवर्धनधारी के पास आकार ठिठक गयी| उसके इशारे पर तरुणियाँ फिर नाचने
लगीं| मृणाल श्रांत होकर गोवर्धनधारी के पास त्रिभंगी मुद्रा में खडी हो गयी| अशिक्षित
चरणों का असंयत नृत्य पूरे वेग पर था| मृणाल की एक सखी गा उठी:
जइ पावउँ केरीसु पिउ कुडुआ इक्कु करीसु |
पाणिहिं णवइ सरावि जिउँ अंगेंगेहि पवसीसु ||
(कौनहु
विधि पिय पाउँ जो, कौतुक एक करेउँ |नव कलसी के नीर ज्यों, अंग-अंग पइसेउँ ||)”[60]
गीत
की इन पंक्तियों ने मृणाल को एक विचित्र प्रकार की व्याकुलता से भर दिया| रह-रह कर
उसके मन में वह गान आ जाता| कहना न होगा कि इस गान की योजना और उसका भावमय प्रभाव
द्विवेदी जी की ग्राम्य अपभ्रंश सम्बंधिनी दृष्टि का ही विस्तार है| ऐसे ही
भावावेश के एक क्षण में मंजुला ने भी हेमचंद्र के उसी ग्राम्य-अपभ्रंश का एक दोहा
गाया था| “ उस दिन वह वास्तविक ‘भावानुप्रवेश’ की अवस्था में थी| उसने संस्कृत का
श्लोक नहीं पढ़ा, प्राकृत की आर्या नहीं सुनाई, सुनाया ग्राम्य भाषा में प्रयुक्त
होने वाला विरह गीत (बिरहा) का अत्यंत मनोहर दोहा छंद| व्याकुल वाणी में उसने
सुनाया:
दुल्लह जण अणु राउ
गरु लज्ज परबस्सु प्राणु |
सहि मणु विसम सिणेह
बसु मरणु सरणु णहु आणु ||
(दुर्लभ जन अनुराग
बड़ि लज्जा परबस प्रान |
सखि मन विषम
सनेह-बस, मरन सरन, नहिं आन||)”[61]
और
दोहे का प्रभाव इतना कि देवरात जब कभी एकांत में होते उदास स्वर में इसे गुनगुना
उठते| फिर इन गीतों में व्यक्त होते विरोध की चेतना को द्विवेदी जी कैसे लक्ष्य न
करते| भावजगत के विद्रोह के संकेत को कैसे न देखते| इधर आचार्य पुरगोभिल
शास्त्र-चर्चा कर रहे थे, और उधर आभीर महिलाओं की मंडली कोई उद्दाम मनोहर नृत्य कर
रही थी| शास्त्र चर्चा खतम होते ही संयोगवश नृत्य भी रुक गया| “ परन्तु यह क्षण-भर
की शान्ति अचानक टूट गयी| एक युवती कोमल कंठ से अकेली ही कुछ सुनाने लगी| कंठ
मनोहर था, स्वर स्पष्ट था और जान पड़ता था कि वह जान बूझ कर प्रत्येक पद का स्पष्ट उच्चारण
करती जा रही थी| आचार्य पुरगोभिल के कान उसी ओर लग गए – बिना किसी चेष्टा व इच्छा
के| तरुणी ने एक-एक पद पर जोर देते हुए गाया:
सत्थर –लोय –निवारिय
पिय –उक्किंखिररिय,
मुअइ
धुअइ पुणु सुक्खइ
संगम वावरिय |
सुविणंतरि बि न लहइ सुहय पिय तण-फरसु |
को पुणु
रहसालिंगणु मोहणु मिलण-रसु ||
सो जलउ
सुवित्थरु सत्थरु पुरजन-वज्जणउ |
जो पिय जण मिलणु णिवारइ मारइ सज्जणउ ||
( शास्त्र और लोक से निवारित प्रिय के लिए उत्कंठित तरुणी
संगम के लिए व्याकुल होकर मर रही है, कांप रही है, सूख रही है| वह सपने में भी
सुभग प्रिय के शरीर का स्पर्श नहीं पा रही है, फिर प्रत्यक्ष गाढ़ आलिंगन के सुख और
मिलन के मोहन-रस की तो बात ही कहाँ उठती है! वह शास्त्र और पुरजनों का बरजना जल
जाए, जो प्रिय-मिलन का निवारण करता है और साजन को मार डालता है|)”[62]
और “
आचार्य पुरगोभिल ने अमात्य की तरफ देखा और मुस्कुराते हुए कहा, “ सुन लिया
धर्मावतार, हर गांव में, हर हाट में, हर गली में ये गाने सुनाइ देंगे| आज आप इसे केवल
भाव-लोक का विद्रोह कह कर टाल सकते हैं| पर लोक मानस में शुष्क धर्माचार और रूढ़
मान्यतायों के प्रति यह भाव-लोक का विद्रोह किसी दिन वस्तु-जगत् के विद्रोह का रूप
ले सकता है! “[63]क्या
यह गल्प में इतिहास की पुनर्निर्मिति नहीं है! अपभ्रंश कविता, आभीर महिलायें, और
शास्त्रों के बरजने की घोषणाएं| लोक की ओर झुकना और क्या है! इन समृद्ध, सहज और
मनोरम दोहों में अगर लोक काव्य और उनकी संवेदना की अनुगूँज है तो मानना होगा कि
हिंदी काव्य की प्राणधारा इनसे ज़रूर अनुप्राणित हैं| और इस प्रकार आदि कालीन
इतिहास लेखन इनको छोड़ कर नहीं चल सकता| ये वास्तव में ‘देश्यभाषाकरण’ की संवेदना
के अग्रदूत हैं| एक बड़े आलोक की संभावना!
[1] देखें,
देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय. व्हाट इस लिविंग एंड व्हाट इस डेड इन इंडियन फिलोसोफी,
पृष्ठ-९२-९३.पी.पी.एच.नई दिल्ली:२००१.;हालाँकि ये दोनों दार्शनिक प्रपत्तियां इस वस्तु
जगत की उत्पत्ति के कारण रूप में एक आदिम पदार्थ की कल्पना से निःसृत हुई है, फिर
भी अपने तर्क पद्धति में विपरीत रास्ता अख्तियार करती हुई यह भिन्न-भिन्न
क्षेत्रों में शुरुआत के प्रश्न संबंधी दृष्टिओं में भी अपना दखल रखती है.
[2] आचार्य
रामचंद्र शुक्ल. हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-१३१. प्रकाशन संस्थान, नई
दिल्ली:२००९. देखें आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी. हिंदी साहित्य का आदिकाल,
पृष्ठ-११७. बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् ,पटना:१९८०.
[3]
देखें, शेल्डन पोलक. द लैंगुएज़
ऑफ द गोड्स इन द वर्ल्ड ऑफ द मेन:संस्कृत कल्चर, एंड पॉवर इन प्रिमाडर्न इंडिया .पृष्ठ-
२८४. यूनिवर्सिटी ऑफ कलिफोर्निया प्रेस, लन्दन :२००६
[4]
देखें,
पुरुषोत्तम अग्रवाल. अकथ कहानी प्रेम की:कबीर की कविता और उनका समय.
पृष्ठ-१५७.राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली: २०१०.
[5]
देखें, शेल्डन पोलक. द लैंगुएज़
ऑफ द गोड्स इन द वर्ल्ड ऑफ द मेन:संस्कृत कल्चर, एंड पॉवर इन प्रिमाडर्न इंडिया .पृष्ठ-
२९१. यूनिवर्सिटी ऑफ कलिफोर्निया प्रेस, लन्दन :२००६
[6]
हजारी प्रसाद
द्विवेदी.हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास, पृष्ठ-३७.राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली:२००३.
[7]
वही, पृष्ठ-७१.
[8]
हजारी प्रसाद
द्विवेदी. हिंदी साहित्य की भूमिका , पृष्ठ-२५.राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली:२००६.
[9]
हजारी प्रसाद
द्विवेदी.हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास, पृष्ठ-५६.राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली:२००३.
[10]
हजारी प्रसाद
द्विवेदी. हिंदी साहित्य का आदिकाल, पृष्ठ-१९. बिहार- राष्ट्रभाषा- परिषद्,
पटना: १९८०.
[11]
देखें, शेल्डन पोलक. द लैंगुएज़
ऑफ द गोड्स इन द वर्ल्ड ऑफ द मेन:संस्कृत कल्चर, एंड पॉवर इन प्रिमाडर्न इंडिया .पृष्ठ-
३९०-९५. यूनिवर्सिटी ऑफ कलिफोर्निया प्रेस, लन्दन :२००६
[12]
नामवर सिंह. दूसरी
परंपरा की खोज . पृष्ठ-८२. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली:२००३.
[13]
नामवर सिंह. दूसरी
परंपरा की खोज . पृष्ठ-७५. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली:२००३
[14]
देखें रोमिला
थापर. पूर्वकालीन भारत:आरम्भ से १३०० ई. तक (अनु. आदित्य नारायण सिंह),
पृष्ठ-५२२-५३२.हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय. दिल्ली:
२००९.तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी. कबीर, (ग्रंथावली, खंड ४)की प्रस्तावना
में उन्होनें विस्तार से इस धर्मान्तरण की प्रक्रिया और उससे जाति-व्यवस्था पर पड़े
प्रभाव को रेखांकित किया है. उनकी इस प्रस्तावना की सारी बातों से आज सहमत नहीं
हुआ जा सकता लेकिन इस विषय में उनकी अंतर्दृष्टि बहुत महत्वपूर्ण है और इस दिशा
में इतिहासकारों ने भी अपनी सहमतियाँ मौके मौके पर व्यक्त की हैं.
[15]
पेरी एंडरसन.
द लिनिएजेस ऑफ द एब्सोल्युटिस्ट स्टेट , पृष्ठ-११. वरसो एडिसन, लन्दन: १९७९.
[16]
वही, पृष्ठ-
४०४
[17]
देखें डी.सी.
सरकार. इंडियन एपिग्राफी, पृष्ठ-४०. मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली: १९९६.
देखें रिचर्ड सोलोमन. इंडियन एपिग्राफी: ए गाइड टू द स्टडी ऑफ इन्स्क्रिप्सनस
इन संस्कृत, प्राकृत एंड द अदर इंडो-आर्यन लैंगुएजेस, पृष्ठ-९०-९२.न्यू योर्क
: १९९८.
[18]
देखें रिचर्ड
सोलोमन. इंडियन एपिग्राफी: ए गाइड टू द स्टडी ऑफ इन्स्क्रिप्सनस इन संस्कृत,
प्राकृत एंड द अदर इंडो-आर्यन लैंगुएजेस, पृष्ठ-९०-९२.न्यू योर्क : १९९८.
देखें शेल्डन पोलक. द लैंगुएज़ ऑफ द गोड्स इन द वर्ल्ड ऑफ द मेन:संस्कृत कल्चर,
एंड पॉवर इन प्रिमाडर्न इंडिया .पृष्ठ- १३०. यूनिवर्सिटी ऑफ कलिफोर्निया
प्रेस, लन्दन :२००६
[19]
देखें शेल्डन
पोलक. वही, पृष्ठ-४,५,२३-२५, १३२,२८३-८४ २८७,४९९.
[20] इसका एक
मनोरंजक और स्पष्ट उदाहरण राजशेखर की कर्पूरमंजरी में योगी भैरवानन्द की केंद्रीय
स्थिति है.साथ ही देखें बी. डी. चट्टोपाध्याय. दि मेकिंग ऑफ अर्ली मेडिएवल
इंडिया. अध्याय ‘रिलिजन इन अ रॉयल हाउसहोल्ड’, खास कर पृष्ठ-२२८. ओ.यू.पी. ,नई
दिल्ली:१९९४.
[21]
देखें बी. डी.
चट्टोपाध्याय. दि मेकिंग ऑफ अर्ली मेडिएवल इंडिया, पृष्ठ-३२. ओ.यू.पी. ,नई
दिल्ली:१९९४.
[22] देखें डी.सी.
सरकर. इंडियन एपिग्राफी, अध्याय-२.मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली: १९९६.
[23]
देखें बी. डी. चट्टोपाध्याय. वही,
पृष्ठ-३५.
[24]
देखें शेल्डन
पोलक वही, पृष्ठ- ३८३-३९७.
[25]
हजारी प्रसाद
द्विवेदी. हिंदी साहित्य की भूमिका , पृष्ठ-३२.राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली:२००६
[26] वही
[27]
देखें डी.सी.
सरकर. इंडियन एपिग्राफी, पृष्ठ-४१.मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली: १९९६
[28]
वही,
पृष्ठ-४१.
[29]
वही, पृष्ठ-४२.
[30]
शब्दार्थौ
सहितौ काव्यं गद्यपद्यं च तद्विधा|
संस्कृतं प्राकृतं चान्यदापभ्रंश इति त्रिधा
||(काव्यालंकार१.१६)
[31]
प्राकृत शब्द
की व्याख्या को लेकर विद्वानों में मतभेद है| प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति को
विद्वानों का एक वर्ग ‘प्रकृत’ से मानता है जो उनके लिए संस्कृत ही है|
प्रकृतिः संस्कृतम् | तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्
| (सिद्ध हेमशब्दानुशासन- ८.१.१)
प्रकृतिः संस्कृतम् | तत्र भवं प्राकृतम् उच्यते
| ( मार्कंडेय कृत प्राकृतसर्वस्व-
१.१)
प्रकृतेर आगतं प्राकृतम् | प्रकृतिः संस्कृतम्
| (दशरूपक की टीका में धनिक- २.६०)
प्राकृतेः
संस्कृताद् आगतं प्राकृतं |
(वाग्भटालन्कार २.२ की टीका में सिंहदेवगणिन्)
संस्कृतात्
प्राकृतं इष्टं ततोऽपभ्रंश भाषाणम् |( गीतगोविंद ४.२ की नारायण द्वारा रसिकसर्वस्व
टीका ) दूसरे वर्ग
के विद्वानों का मानना है की प्राकृत संस्कृत से वियुत्पन्न नहीं है और उससे पहले
की भाषा है| या उसका संबंध भी किसी मूल भाषा से उसी तरह है जैसा कि संस्कृत का| यह
प्राकृत व्याकरण आदि के संस्कार से रहित सहज भाषा है| इस श्रेणी के विद्वानों में
ज़्यादातर जैन पंडित हैं|
‘सकलजगजन्तूनां
व्याकरणादिभिरनाहित संस्कारः सहजो वचन-व्यापारः प्रकृतिः | तत्र भवं सैव प्राकृतम्
|... पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन् संस्करणत्संस्कृतमुच्यते|’ (रुद्रटकृत
काव्यालंकार की नमिसाधु द्वारा की गयी टीका २.१२)
गुलेरी जी ने ‘पुरानी हिंदी’ में इस विवाद
को यूँ हल किया है-
“ मालूम होता है कि प्रकृति शब्द के
अर्थ में भ्रम होने से तत आगतं, तदुद्भवा और ततः आदि की कल्पना हुई| प्रकृति का
अर्थ यहाँ उपादान कारक नहीं है| जैसे- भाष्यकार ने बहुत सुन्दर उदाहरण दिया हैकि
सोने से रुचक बनाता है, रुचक की आकृति को तोड़-मरोड़ कर कटक बनते हैं, कतकोन से फिर
खैर की लकड़ी के अंगारे के-से कुंडल बनाए जाते हैं, सोने का सोना रह जाता है, वैसे
भाषा से भाषा कभी नहीं गढ़ी गयी| यहाँ प्रकृति शब्द मीमांसा के रूढ़ अर्थ में लिया
जाना चाहिए| वहाँ पर प्रकृति और विकृति शब्द विशेष अर्थों में लिए गए हैं| साधारण,
नियम नमूना, माडल उत्सर्ग इस अर्थ में प्रकृति आता है, विशेष, अलौकिक, भिन्न,
अंतरित अपवाद के अर्थ में विकृति आता है| अग्निष्टोम यज्ञ प्रकृति है, दूसरे
सोमयाग उसकी विकृति हैं| इसका यह अर्थ नहीं कि और सोमयाग अग्निष्टोम से निकले हैं
या उनसे आये हैं| अग्निष्टोम की जो रीति है उससे दूसरे सोमयागों की रीति बहुत कुछ
मिलती और कुछ-कुछ भिन्न है, साधारण रीति प्रकृति में दिखा कर भेदों को विकृति में
गिन दिया है| पाणिनि ने भाषा(व्यवहार) की संस्कृत को प्रकृति मन कर वैदिक संस्कृत
को उसकी विकृति माना है, साधारण या उत्सर्ग नियम संस्कृत से मान कर वैदिक भाषा को अपवाद
बना दिया है वहाँ प्रकृति का उपादान कारण अर्थ मान कर क्या वैदिक भाषा को ‘तत आगत’
या ‘तदुद्भव’ कह सकते हैं, उलटी गंगा बहा सकते हैं?”(पुरानी हिंदी, पृष्ठ-८९-९०.)
[32]
आभीरादिगिरः
काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृता | शास्त्रे तु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् |(काव्यादर्श-
१.३६)
[33]
देखें नामवर
सिंह. हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, पृष्ठ-२१. लोकभारती प्रकाशन,
इलाहाबाद:२००२.
[34]
साथ ही देखें
शेल्डन पोलक, वही, पृष्ठ-५५-५६ और पाद संख्या ३६.
[35] उन छंदों की
भाषा को नामवर सिंह ने परिनिष्ठित अपभ्रंश के अत्यंत निकट का कहा है| देखें नामवर
सिंह. हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, पृष्ठ-३४-३६. लोकभारती
प्रकाशन, इलाहाबाद:२००२.
[37] त्रिविधं तच्च विज्ञेयम् नाट्ययोगे समासतः |
समानशब्दम्
विभ्रष्टम् देशीगतमथापि वा || (१७.३)
[38]
“भरत मुनि ने
समान शब्द के अतिरिक्त जिस विभ्रष्ट शब्द का प्रयोग किया है वह यही अपभ्रंश है|”हिंदी
के विकास में अपभ्रंश का योगदान, पृष्ठ-२१.
[39]
शकाराभीरचण्डालशबरद्रमिलान्ध्रजाः |
हीना
वनेचराणां च विभाषा नाटके स्मृताः ||(१७.४४)
[40] प्राकृत-संस्कृत-मागध-पिशाचभाषाश्च
सूरसेनी च
|
षष्टोऽत्र भूरिभेदो
देशविशेषादपभ्रम्शः ||
(साथ ही देखें रूद्रटकृत काव्यालंकार ,२.१ नमिसाधुकृत टीका.)
[41]
देखें शेल्डन
पोलक. वही, पृष्ठ-९५.
[42]
अपने ग्रन्थ
के शुरू में ही वह कहता है-पाइयभाषारइया मरहट्ठयदेसीवण्णयणिबद्धा| सुद्धा सयलकह
च्चिय तावसजिणसत्थवाहिल्ला || कोऊहलेण कत्थइ परवयणवसेण सक्कयणिबद्धा | किंचि
अवब्भंसकया दावियपेसायभासिल्ला ||(कुवलयमाला-१२-१३)
[43]
देखें हजारी
प्रसाद द्विवेदी. हिंदी साहित्य का आदिकाल, पृष्ठ- २१.बिहार- राष्ट्रभाषा-
परिषद्, पटना: १९८०.
[44]
वही, पृष्ठ-६०
[45]
हजारी प्रसाद
द्विवेदी. हिंदी साहित्य का आदिकाल, पृष्ठ- २४-२५.बिहार- राष्ट्रभाषा-
परिषद्, पटना: १९८०
[46]
वही,
पृष्ठ-२७.
[47] वही,
पृष्ठ-२७.
[48]
वही,
पृष्ठ-२९.
[49]
देखें निकोलस
डर्क्स. कास्ट्स ऑफ माइंड: कोलोनियालिज्म एंड द मेकिंग ऑफ मॉडर्न इंडिया,
‘इंट्रोडक्सन’ और ‘द टेक्स्चुअलाइजेसन ऑफ ट्रेडीसन: बायोग्राफी ऑफ एन आर्काईव’.
परमानेंट ब्लैक, दिल्ली: २०१०.
और साथ
ही शेल्डन पोलक, (वही. पृष्ठ-२८-२९.) “The presumed concomitance between
Sanskrit and Brahmanism on the one hand
and vernacularity and non-Brahmanism on the other does not hold for much
of the period under discussion. The vision of Sanskrit as a sacred language
“jealously preserved by Brahmans in their schools” may not be the pure illusion
of the colonial officer who gave it expression, yet it is undoubtedly something
that developed late in the history of language , when ,for reasons very likely
having to do with vernacularization itself, language options shrank for many
communities and Brahmanical society reasserted its archaic monopolization over
the language( the Catholic Church’s eventual monopolization of Latin is an
instructive parallel both historically and structurally). In most cases,
vernacular beginnings occurred independently of religious stimuli strictly
construed, and the greater portion of literature thereby created was produced
not at the monastery but at the court.”
[50] प्राकृतपैङ्लम्
की भाषा के लिए देखें डॉ. भोलाशंकर व्यास. प्राकृतपैङ्लम्: भाषा शास्त्रीय और
छन्दःशास्त्रीय अनुशीलन, प्राकृत-ग्रन्थ-परिषद् ग्रंथांक- ४,पृष्ठ-७०-९०.
प्राकृत ग्रन्थ परिषद् , वाराणसी: १९६२.
[51]
हजारी प्रसाद
द्विवेदी. हिंदी साहित्य का आदिकाल, पृष्ठ- ४०.बिहार- राष्ट्रभाषा- परिषद्,
पटना: १९८०
[52]
वही,पृष्ठ-४२.
[53] देखें डेविड
लौरेंज़न. ‘गोरखनाथ और कबीर में धार्मिक अस्मिता: हिंदू, मुसलमान, जोगी और संत’ निर्गुण संतों के स्वप्न में, अनुवादक-
धीरेन्द्र बहादुर सिंह; संपादक-पुरुषोत्तम अग्रवाल. राजकमल प्रकाशन, नई
दिल्ली:२०१०.
[54] हजारी प्रसाद
द्विवेदी. हिंदी साहित्य का आदिकाल,पृष्ठ-४३.
[55] वही.
[56]
देखें हजारी
प्रसाद द्विवेदी. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली,खंड-६. संपादक-मुकुंद
द्विवेदी, पृष्ठ-२९५. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली:२००७.
[57] वही,
पृष्ठ-२९५-२९६.
[58] वही,
पृष्ठ-३०१.
[59]
देखें हजारी
प्रसाद द्विवेदी. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली,खंड-६. संपादक-मुकुंद
द्विवेदी, पृष्ठ-३००. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली:२००७.
[60]
देखें हजारी
प्रसाद द्विवेदी. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली,खंड-२. संपादक-मुकुंद
द्विवेदी, पृष्ठ-११६. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली:२००७.
[61]
वही,
पृष्ठ-२४. दोहा हेमचंद्र ने अपने ग्राम्य-अपभ्रंश सम्बन्धी उदाहरण में दिया है| द्विवेदी
जी ने वहीं से इसे लिया| देखें हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली,खंड-२९७.
[62]
वही,पृष्ठ-१६५.
[63]
वही,पृष्ठ-१६६.
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