भारतेंदु और भक्ति


 १. नवजागरण और धर्मसुधार: भारतेंदु की समस्या

हजारीप्रसाद द्विवेदी सूरदास के सामाजिक आधार के बारे में लिखते हुए ध्यान दिलाते हैं कि वह एक ऐसे समाज से आये थे जहाँ का “गृहस्थ जीवन विलासिता का जीवन था, मिथ्याचार और फरेब का जीवन था और ‘यौवन-मद, जन-मद, धन-मद, विध-मद भारी’ का जीवन था।”[1] ठीक इन्हीं अर्थों में तो नहीं लेकिन भारतेंदु काशी के जिस परिवार से आये थे वहां का जीवन भी क्या ऐसा ही नहीं था? वैष्णव हृदय भारतेंदु का क्या यह भी एक पक्ष नहीं था? रामचंद्र शुक्ल भारतेंदु को प्राचीन और नवीन के संधिस्थल पर खड़े एक नए युग के प्रवर्तक के रूप में देखते थे। भारतेंदु की विशिष्टता बताते हुए शुक्ल जी लिखते हैं: “अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो वे पद्माकर, द्विजदेव की परंपरा में दिखाई पड़ते थे, दूसरी ओर बंग देश के माइकल और हेमचन्द्र की श्रेणी में। एक ओर तो राधा कृष्ण की भक्ति में झूलते हुए नई भक्तमाल गूँथते दिखाई देते थे, दूसरी ओर मंदिरों के अधिकारियों और टीकाधारी भक्तों के चरित्र की हंसी उड़ाते और मंदिरों, स्त्री शिक्षा, समाज सुधार आदि पर व्याख्यान देते पाए जाते थे। प्राचीन और नवीन का ही सुन्दर सामंजस्य भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य है। साहित्य के एक नवीन युग के आदि में प्रवर्तक के रूप में खड़े होकर उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि नए या बाहरी भावों को पचाकर इस प्रकार मिलाना चाहिए कि अपने ही साहित्य के विकसित अंग लगें। प्राचीन और नवीन के उस संधिकाल में जैसी शीतल कला का संचार अपेक्षित था वैसी ही शीतल कला के साथ भारतेंदु का उदय हुआ, इसमें संदेह नहीं।”[2] प्राचीन और नवीन के संधिस्थल पर खड़े भारतेंदु रीतिकाल और बांग्ला नवजागरण के संधिस्थल पर भी खड़े हैं। एक ओर भक्ति दूसरी ओर धर्म के बाह्याचार पर हमला और समाजसुधार भी। कहना न होगा कि शुक्ल जी ने भारतेंदु के संस्कृतिकर्म पर बांग्ला नवजागरण का प्रभाव विशेषकर बंग देश के साहित्यिक नवजागरण का प्रभाव लक्षित किया था। भारतेंदु के इस युगप्रवर्तक व्यक्तित्व का उन्मेष आगे चलकर रामविलास जी ने ‘१८५७ की राज्यक्रांति’ में स्थिर किया। भारतेंदु बांग्ला नवजागरण से प्रेरित भले ही रहे हों लेकिन उनकी अपनी जड़ें १८५७ में थीं और इन्हीं अर्थों में रामविलास जी ने भारतेंदु को साम्राज्यवाद- सामंतवाद विरोधी हिन्दी नवजागरण के पुरस्कर्ता के रूप में स्थापित करने की कोशिश की।
सन् १९४२ के राजनीतिक-सांस्कृतिक संकट के समय रामविलास जी ने हिंदी नवजागरण के नेता के रूप में भारतेंदु की ऐसी छवि गढ़ी जो तुलसीदास की परंपरा वाली सांस्कृतिक युगनायक की छवि थी। राष्ट्रीय एकता या जातीय एकता के सूत्रधार के रूप में रामविलास जी ने भारतेंदु का संबंध ‘१८५७ की राज्यक्रांति’ से और भी भली-भाँति पूर्वक दिखाने के लिए सन् १९८४ में ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ नामक एक नवीन लेख लिखकर अपनी पुरानी पुस्तक के आरम्भ में जोड़ा था। इस लेख में भारतेंदु के नवजागरण की परंपरा को उन्होंने जनजागरण की एक पुरानी परंपरा का एक खास दौर कहा। जनजागरण की यह पुरानी परंपरा दरअस्ल भक्ति आन्दोलन के ‘लोकजागरण’ की परंपरा है जिसका आरंभ तब हुआ था जब देशी भाषाओं में पहली बार साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ होने लगी थीं। रामविलास शर्मा इसे सामंतवाद-विरोधी परंपरा कहते हैं। दूसरी ओर पलासी की लड़ाई से १८५७ के ‘स्वाधीनता संग्राम’ तक जो युद्ध हुए वे मुख्यतः विदेशी शत्रुओं के खिलाफ हुए और इसलिए यह दूसरा जनजागरण मुख्यतः साम्राज्यवाद-विरोधी जनजागरण है। भारतेंदु या भारतेन्दुयुगीन रचनाकारों के यहाँ १८५७ के संग्राम का ‘स्पष्ट प्रशंसात्मक उल्लेख’ न मिलना इस परंपरा के निर्धारण पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह था। रामविलास जी ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा कि दो महत्वपूर्ण चीजें भारतेंदु युग का संबंध १८५७ से जोड़ती हैं:- १. राष्ट्रीय स्वाधीनता का उद्देश्य और २. अंग्रेजी राज के स्वरूप की पहचान। राष्ट्रीय स्वाधीनता का उद्देश्य था अंग्रेजों को सारे देश से निकालना और अंग्रेजी राज का स्वरूप था ‘धन का निष्कासन’। अंग्रेजी राज में भारतीय उद्योग धंधों और व्यापार का नाश हुआ था। अंग्रेजी राज ने जिस तरह यहाँ की देशी रियासतों को हड़पते हुए सारे देश पर अधिकार किया था, उसकी स्मृति लोगों के दिलो दिमाग में थी। यह स्मृति, “यह याद राष्ट्रीय एकता का भाव जगाने वाली थी”[3] इस प्रकार राष्ट्रीय एकता की भावना और आर्थिक दोहन के खिलाफ उद्‍बोधन भारतेंदु के साहित्य का संबंध १८५७ से जोड़ता है। भारतेंदु के सामने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष का एक राष्ट्रीय रूपक था। स्वदेशी और स्वाधीनता आपस में जुड़े हुए थे। रामविलास जी ने भारतेंदु को उद्धृत किया है: “जिस प्रकार अमेरिका उपनिवेशित होकर स्वाधीन हुई वैसे ही भारतवर्ष भी स्वाधीनता लाभ कर सकता है।”[4] आर्थिक स्वाधीनता की राह में देशी पूँजी का विकास, उसका संरक्षण, देशी उद्योगों का विकास और औद्योगिक विकास के निमित्त शिक्षा की नीतियों का निर्माण जरूरी था। भारतेंदु ने स्वदेशी के साथ साथ नौजवानों के लिए आधुनिक अर्थों में पॉलीटेकनिक शिक्षण के लिए एक शिल्प महाविद्यालय खोलने की आवश्यकता पर जोर दिया था। दादा भाई नौरोजी के धन-निष्कासन सिद्धांत का प्रभाव भारतेंदु पर गहरा था और उन्होंने दादा भाई नौरोजी के लेखों को हिंदी में धारावाहिक प्रकाशित किया था।
राष्ट्रीय एकता की भावना का सवाल जातीयता के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया से भी जुड़ा हुआ था। रामविलास जी ने १८५७ के भीतर कैसी ‘राष्ट्रीय चेतना’ बन रही थी इसकी भावना के लिए जुलाई १८५७ के अवध के एक इश्तहार का ज़िक्र किया है। इश्तहार में सिपाहियों से अपील की गयी है कि दिल्ली और लखनऊ को बचाने के लिए जरूरी है कि पूरब की ओर लगातार बढ़ते रहा जाये और फिरंगियों का पीछा कलकत्ते तक किया जाना चाहिए। रामविलास जी उद्धृत करते हैं: “ऐसा करने से दिल्ली और लखनऊ की रक्षा हो सकेगी... यदि सिपाही पूरब को नहीं जाते, तो नतीजा अच्छा न होगा।”[5] इश्तहार में कहा गया कि हिन्दू और मुसलमान दोनों को साथ-साथ मिलकर इस ‘नालायक कौम’ पर हमला करना चाहिए। रामविलास जी कहते हैं कि इस तरह यहाँ हिंदुस्तान केवल सीमित अर्थों में हिंदी भाषा प्रदेश ही न था बल्कि व्यापक अर्थों में वह सारा देश था। सारे देश की भावना सन् १८५८ में बेगम हजरत महल द्वारा जारी घोषणापत्र में भी है।
            हिंदी जाति की अवधारणा और नवजागरण की अवधारणा रामविलास जी के यहाँ एक दूसरे से जुड़ी है। व्यापारिक पूँजी (जिसे रामविलास जी व्यापारिक पूँजीवाद कहते हैं) के विकास के साथ जाति का विकास होता है। इस व्यापारिक पूँजी का जन्म सामंतवाद के गर्भ से होता है और सबसे पहले व्यापारिक पूँजी विनिमय से संबंधों में विकसित होती है। रामविलास जी बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के आसपास विनिमय और उत्पादन के संबंधों में होने वाले परिवर्तनों को नोट करते हैं। परिवर्तनों के केंद्र में वह प्रक्रिया थी जहाँ उत्पादन पेशगी धन लेकर होना शुरू होता है। ‘ददनी प्रथा’ का ज़िक्र करते हुए उन्होंने दिखाया कि कैसे व्यापारी अपने माल के लिए पहले से पेशगी की एक रकम देकर मजदूरों की श्रमशक्ति पर नियंत्रण स्थापित करता है। ‘बिक्री योग्य माल’ के उत्पादन की इस प्रक्रिया में पूंजीवाद के आगामी विकास के बीज निहित हैं। इसी प्रक्रिया के साथ जाति निर्माण की प्रक्रिया भी बाजारों के साथ शुरू हो जाती है। औद्योगिक क्रांति के बाद इस प्रक्रिया में जो सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है वह है औद्योगिक सर्वहारा के रूप में नए वर्ग का उदय। मैनेजर पांडेय की आलोचना करते हुए रामविलास जी लिखते है: “व्यापारिक पूंजीवाद के युग में जाति का निर्माण होता है, औद्योगिक पूंजीवाद के युग में यह जाति कायम रहती है। दोनों युगों की जाति में बहुत बड़ा अंतर यह है कि दूसरे युग में औद्योगिक सर्वहारा मौजूद है, पहले के युग में उसका अभाव है। व्यापारिक पूंजीवाद के युग में मुख्य अंतर्विरोध किसानों-कारीगरों तथा जमींदारों में होता है, औद्योगिक पूंजीवाद के युग में सर्वहारा और उद्योगपतियों में।”[6] रामविलास जी ने १९वीं सदी के भारतेंदु युग को बारहवीं- तेरहवीं सदी सदी में हुए लोकजागरण की परंपरा में ही देखा है। पांडेय जी की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा कि उन्नीसवीं सदी का भारत औद्योगिक क्रांति से काफी दूर था और अगर उन्नीसवीं सदी को आधुनिक काल की शुरुआत मान लिया जाएगा तो मानना पड़ेगा कि भारतेंदु के साहित्य में पूंजीपति वर्ग और औद्योगिक सर्वहारा के संघर्ष का कोई न कोई चित्रण जरूर मिलना चाहिए। और अगर ऐसा नहीं मिलता है तो यह मानना पड़ेगा कि ‘आधुनिक काल की शुरुआत तो हो गयी पर साहित्य में आधुनिकता का अकाल बना रहा।’ जबकि पूंजीवादी विकास की जो प्रक्रिया बारहवीं- तेरहवीं सदी में सामंतवाद के गर्भ से विकसित हुई थी, उन्नीसवीं शताब्दी में वही चली आ रही है- अंग्रेजों का काल उसको अवरुद्ध करता है पर वह रुक नहीं सकती। इसलिए प्रति क्रांतिकारी शक्ति के रूप में उपनिवेशवाद के भीतर से चली आती परंपरा में ही भारतेंदु युग नवजागरण की तरह है। बीच का युग ‘विस्मृतियों’ का युग नहीं था। वरन् शक्ति संतुलन में जागरण की शक्तियां सुसुप्त पड़ी थीं। १८५७ में वह सामाजिक- राजनीतिक जीवन में फिर से लोकशक्ति के रूप में उठ खड़ी हुई। इस प्रकार ‘हिंदी जाति’ का ही मानो ‘नवजागरण’ हुआ है। यह ‘हिंदी जाति’ विशिष्ट होकर भी राष्ट्र की संपूर्ण परिकल्पना है जिसका पता उस इश्तहार से भी चलता है जहाँ ‘सारे देश’ को संबोधित किया गया था।
            साहित्य में यह जागरण लोक बोलियों से अपनी ऊर्जा ग्रहण करता है। लोक बोलियों से विकसित हिंदी जातीयता १८५७ में उपनिवेश विरोधी चेतना के साथ मिलकर नवजागरण का रूप ग्रहण करती है। इसलिए यह हिंदी नवजागरण भी है। इस परिकल्पना में पूंजीवादी विकास की परिणति के बीज बारहवीं- तेरहवीं सदी में ही पड़ गए थे। अब साम्राज्यवाद- सामंतवाद विरोध का राष्ट्रीय चरित्र पूंजीवाद को पूर्ण विकसित करने में है। तब जाकर सर्वहारा की चेतना का उदय होगा। साहित्य के भीतर भारतेंदु युग ने उसी प्रक्रिया के नए अध्याय की शुरुआत की थी। अंग्रेजी राज को भारतेंदु ने ‘पैगम्बर चूसा’ की तरह देखा था। इसी पैगम्बर चूसा के खिलाफ देशी व्यापारियों को देशी पूंजीपति बनाने का उद्योग करना चाहिए, यही स्वदेशी का मर्म था। इन नए देशी पूंजीपतियों के विकास के लिए कुशल कामगारों की जरूरत थी और इसलिए जरूरी था कि शिल्प विद्यालय का निर्माण शिक्षा नीति में शामिल किया जाये। अंग्रेज परस्ती का जो स्वर भारतेंदु के यहाँ दिखाई देता है उसको रामविलास जी ने ‘गौण अंतर्विरोध’ माना है। इसी तरह साम्प्रदायिकता आदि के प्रश्न गौण अंतर्विरोध हैं। वह इन गौण अंतर्विरोधों की वस्तुमत्ता को प्रकट करते हुए कहते हैं: “भारतेंदु हरिश्चंद्र ने और उनके समकालीन लेखकों ने कई जगह अंग्रेजों की और अंग्रेजी राज की प्रशंसा की है। इस सन्दर्भ में याद रखना चाहिए कि १. रानी विक्टोरिया के घोषणापत्र से कुछ लोगों के मान में वास्तविक भ्रम पैदा हुआ था कि देश की दशा सुधार जाएगी; २. राजभक्ति का प्रदर्शन अधिकतर शाही खानदान के लोगों के प्रति होता था और उनसे अंग्रेज अधिकारियों को अलगाया जाता था; ३. राजभक्ति की आड़ में जनता की बदहाली पर ध्यान केन्द्रित किया जाता था और अंग्रेज ऐसी राजभक्ति को शक की निगाह से देखते थे.. आदि आदि।”[7] इसी तरह ‘हिंदी नई चाल में ढली’ कहकर भारतेंदु भाषा के बदले दरअस्ल साहित्य के नयेपन को दिखा रहे थे और साहित्य का यह नयापन मुख्य अंतर्विरोधों को प्रकट करने में है। लोकसाहित्य और मौखिक साहित्य में १८५७ की ओजस्विता चली आई थी और भारतेंदु युग के साहित्य में जो ऊर्जा, जो चमक, जो नयापन था वह उसी लोक और मौखिक साहित्य से प्रेरणा पाती थी। यह सारा साहित्य चूँकि अंग्रेजी कानूनों से बाहर था इसलिए भारतेंदु युग को यह सहज ही उपलब्ध था। यह सारा साहित्य विचारधारात्मक रूप से सुदीर्घ उपनिवेशवादी लूट की स्मृति और १८५७ में झलक उठने वाली उपनिवेश-विरोधी ‘जातीयता की स्मृति’ दोनों को अपने भीतर लिए थी। भारतेन्दुयुगीन साहित्य रणनीतिक रूप से कुछ ऐसी चीजें करता था जिससे वह अंग्रेजी कोप और कानून से बचा भी रहे और जातीय चेतना को एक आन्दोलनकारी रूप भी दे सके। रामविलास जी मैनेजर पांडेय की इसी बात की आलोचना करते हैं कि वह गौण विरोधों को ज्यादा महत्त्व देते हैं। प्रगतिशील आन्दोलन के आतंरिक अंतर्विरोधों को अस्वीकार तो रामविलास जी ने भी नहीं किया पर इसके चलते होने वाली गलतियों की तरफ उन्होंने इशारा जरूर किया था।
            भक्ति और रीति काल को दो आतंरिक प्रवृत्तियों के रूप में न देखकर जब दो भिन्न कालखंड मान लिया जाता है तब इतिहास-दृष्टि का एक भ्रामक रूप खड़ा होता है। भक्तिकाल में भक्ति मुख्य धारा थी और रीति गौण और रीति काल में रीति मुख्य धारा बन गयी और भक्ति गौण। इस प्रकार देखने पर पता चलता है कि लोकजागरण की प्रगतिशील धारा ख़त्म नहीं हो गयी थी या अवरुद्ध नहीं हो गयी थी बल्कि गौण धारा के रूप में चली आ रही थी। मैनेजर पांडेय के अनुसार बारहवीं सदी से आरम्भ होने वाला व्यापारिक पूँजी का विकास सफल नहीं हुआ और सामंती व्यवस्था जस की तस बनी रह गयी। समाज की सामंती अधिरचना और उसका आधार दोनों कमजोर जरूर हुए पर बने रहे। उनके अनुसार “भक्ति आंदोलन सामंती समाज में विकसित सौदागरी पूंजीवाद और जातीय निर्माण के फलस्वरूप उत्पन्न सामाजिक संबंधों की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है, रीतिकाल का साहित्य सामंत विरोधी सामाजिक संबंध (संबंधों) और सांस्कृतिक चेतना के अवरुद्ध होने का परिणाम तथा प्रमाण है।”[8] रामविलास जी इस अवरुद्ध होने के तर्क को स्वीकार नहीं करते उनके अनुसार यह शक्ति संतुलन सौदागरी पूंजीपति और जमींदारों के बीच का शक्ति संतुलन था। ऐसा नहीं था कि पूंजीवाद का विकास अवरुद्ध और निष्फल हो गया था। भक्ति से रीति में सांस्कृतिक जागरण का पर्यवसित होना एक ‘छोटी ट्रेजेडी’ है। अर्थात् गौण अंतर्विरोध है जबकि अंग्रेजी राज की स्थापना ‘बड़ी ट्रेजेडी’ है। इसलिए स्वाभाविक जातीय पूंजीवाद या भारतीय पूंजीवाद की गति अवरुद्ध होती है अंग्रेजी राज में। रामविलास जी पांडेय जी पर आरोप लगाते हैं कि उन्नीसवीं सदी में औद्योगिक क्रांति से शुरू होने वाली आधुनिकता एक ऐसी कल्पना है जो इस ‘बड़ी ट्रेजेडी’ को भूल जाती है, जबकि बड़ी ट्रेजेडी मुख्य अंतर्विरोध के कारण बनती है।
            रामविलास जी ने एंगेल्स के हवाले से दिखाने की कोशिश की है कि पूंजीवादी शासन की नींव डालने वालों को पूंजीवाद की सीमाओं के अन्दर ही देखना एक बड़ी भूल है। पुनर्जागरण के नेताओं और उनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व में पूंजीवाद की सीमा और उसका अतिरेक भी था। इस बात का जो लोग ध्यान नहीं रखते उनके यहाँ आधार और अधिरचना या वर्ग और साहित्य की यांत्रिक समझ होती है। भारतेंदु आदि साहित्यकारों के इस अतिरेक को चिह्नित करने के क्रम में ही रामविलास जी ‘मुख्य अंतर्विरोध’ के प्रतिबिम्ब को सामने रखते हैं। पूंजीवादी सीमाओं में नहीं बंधे होने का मतलब एंगेल्स के लिए मजदूर वर्ग की परंपरा के पूर्व पक्ष से है जहाँ एंगेल्स पुनर्जागरण के विश्वजनीन मूल्यों और प्राकृतिक विज्ञानों के क्रांतिकारी महत्त्व को रेखांकित करते हैं। ‘प्रकृति की द्वंद्वात्मकता’ में एंगेल्स ने यांत्रिक भौतिकवाद की आलोचना की है और दिखाया है कि अठारहवीं सदी में फ्रांसीसी यांत्रिक भौतिकवादियों ने भौतिकवाद के नाम से जिस विचारधारा का प्रचार किया उसका द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से विरोध है।[9] मजदूर वर्ग की विचारधारा का पुनर्जागरण से संबंध एंगेल्स उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में दिखा रहे थे। उन्होंने दिखाया कि जर्मन शास्त्रीय दर्शन में जो कुछ महान् था उन सबका सीधा वारिस जर्मन पूंजीपति वर्ग नहीं बल्कि जर्मन मजदूर वर्ग था। इसी तरह मार्क्स ने पूँजी-१ की भूमिका में जर्मन मजदूर वर्ग को जर्मन बुर्जुआ चिंतकों और विचारकों से ज्यादा ऊन्नत विचारधारात्मक चेतना से लैस बताया है। मार्क्स ने १८४८ से १८५२ की क्रांतियों और प्रतिक्रांतियों के विश्लेषण के बाद १८५७ के विद्रोह को भी ‘भारतीय स्वाधीनता आंदोलन’ की तरह विश्लेषित किया था। इन विश्लेषणों में बाद तक मार्क्स थोड़ा थोड़ा परिवर्तन करते रहे थे। परन्तु निश्चित रूप से औपनिवेशिक पूँजी के विस्तार और यूरोपीय क्रांतियों के आपसी रिश्तों को वह किसी यूरो केन्द्रित दृष्टि से नहीं देख रहे थे। मार्क्स के सामने मुख्य सवाल पूँजी के वैश्विक चरित्र और उसके खिलाफ विद्रोह की विशिष्टता को पहचानने का था। मार्क्स देख रहे थे कि इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग के आन्दोलन के लिए या यूरोप में मजदूर वर्ग के आन्दोलन के लिए उपनिवेशों के भीतर होने वाले विद्रोह की संभावनाओं का क्या महत्त्व था। १८४८ की महाद्वीपीय क्रांति की इंग्लैण्ड में होने वाली प्रतिक्रिया को मार्क्स इन शब्दों में सामने रखते हैं:- “जो लोग अभी भी कुछ वैज्ञानिक समझ का दावा करते थे और शासक वर्गों के मात्र सोफिस्ट्स या साइकोफैन्ट्स से कुछ ज्यादा होने की इच्छा रखते थे, उन लोगों ने सर्वहारा के दावे के साथ, जिसकी अनदेखी अब संभव नहीं थी, पूँजी के राजनीतिक अर्थशास्त्र के समन्वय की कोशिश की। इस प्रकार एक छिछला समन्वयवाद सामने आया जिसके सबसे बड़े प्रतिनिधि जॉन स्टुअर्ट मिल हैं। यह ‘बुर्जुआ’ अर्थशास्त्र के दिवालियेपन की घोषणा है।”[10] यह बात पूँजी की भूमिका में मार्क्स १८७३ में लिख रहे हैं। जर्मनी के बारे में लिखते हुए वह कहते हैं कि वहां पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के परिपक्व होने के पहले ही उसका शत्रुतापूर्ण चरित्र (एंटागोनिस्टिक) अपने को प्रकट कर चुका था। यह संभव हुआ था फ़्रांन्स और इंग्लैंड में होने वाले ऐतिहासिक संघर्षों के कारण।[11] इस तरह जर्मनी में बुर्जुआ अर्थशास्त्र केवल बुरी नकल के रूप में ही विकसित हो पाया क्योंकि जर्मन सर्वहारा के पास बुर्जुआ अर्थशास्त्र की सीमाओं की आलोचना उपलब्ध थी। ऐसे ही समय बुर्जुआ अर्थशास्त्र के रहनुमा दो समूहों में बंट गए। एक तरफ यांत्रिक और भौंड़ा अर्थशास्त्र बघारने वाले लोग थे, दूसरी ओर मिल के अनुयायी थे जिन्होंने असमाधेय के बीच संगति बिठानी चाही। पर ये सारे प्रयास असफल होने को बाध्य थे क्योंकि उनकी आलोचना पहले से ही वहाँ प्राप्त थी। मार्क्स लिखते हैं: “इसलिए जर्मन समाज के विशिष्ट ऐतिहासिक विकास ने किसी ‘बुर्जुआ’ अर्थशास्त्र के विकास को बाहर रखा परन्तु उसकी आलोचना को बाहर नहीं किया। जहाँ तक इस तरह की आलोचना एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, यह केवल उसी वर्ग का प्रतिनिधित्व कर सकती है जिसका ऐतिहासिक कार्यभार पूंजीवादी उत्पादन पद्धति को उखाड़ फेंकना और सभी वर्गों का अंतिम सफाया है- यानि सर्वहारा।”[12]
            भारतेंदु युग के बुर्जुआ अर्थशास्त्र में जॉन स्टुअर्ट मिल का कितना प्रभाव था, इसे दुहराने की जरूरत नहीं। ‘आलोचना’ के रूप में सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ अर्थशास्त्र की असंभाव्यता है। यह ‘आलोचना’ जर्मन मजदूर वर्ग को जितना अपने संघर्षों से प्राप्त थी, उतना ही फ़्रांस और इंग्लैण्ड के संघर्षों से भी। भारतेंदु की आलोचना जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है वह मजदूर वर्ग नहीं है। अंग्रेजों की विजय और लूट की स्मृति के साथ पूँजी की तथाकथित आदिम संचय की त्रासद स्मृति भी है। तथाकथित आदिम संचय अगर मजदूर वर्ग की परिस्थिति है तो यह स्मृति मूलतः मजदूर वर्ग की त्रासद स्मृति है। पर भारतेंदु युग के साहित्य को या भारतेंदु की रचनाओं में मिलने वाली आलोचना दृष्टि का जो पक्ष रामविलास जी सामने रखना चाहते हैं वह उस त्रासद स्मृति के साथ ‘बुर्जुआ अर्थशास्त्र’ की समन्वयकारी आलोचना है। इसलिए कह सकते हैं कि भारतेंदु युग का १८५७ की ‘आलोचना’ के साथ संबंध समन्वयकारी है। भारतेंदु के साहित्य में मिलने वाला दुचित्तापन इसी असमाधेय समंजन की कोशिश के चलते पैदा हुआ है। भारतेंदु के साहित्य में जहाँ इस समंजन का अतिरेक है वह उनका उज्ज्वल पक्ष है। दूसरे शब्दों में ‘स्वत्व निज भारत गहै’ या अस्मिता निर्माण या हिंदी जातीयता का जहाँ अतिरेक है, भारतेंदु का साहित्य वहीं उज्ज्वल है। ‘अंधेर नगरी’ के रूपक में हमें इस तरह का एक अतिरेक दिखाई देता है जहाँ ‘अंधेर नगरी’ राज्य सत्ता, हिंसा और न्याय के अनिवार्य संबंधों का रूपक है। भारतेंदु के प्रहसनों और व्यंग्यों में जहाँ कहीं इस असमाधेय समंजन का खोखलापन उजागर होता है भारतेंदु का वर्तमान अर्थ उन्हीं में माना जाना चाहिए।
            लोकजागरण की विचारधारा के रूप में भक्ति रामविलास जी के लिए भी वैष्णवता के अन्दर ही परिभाषित थी। अकारण नहीं कि भारतेंदु को वह तुलसी की परंपरा का नवजागरण मानते थे। भक्ति की इस विचारधारा के खिलाफ संतमत की विशिष्टताओं को वह नज़रअंदाज करते हैं। अगर संतमत कारीगरों और निम्नवर्गीय जनता का सांस्कृतिक और इसलिए राजनीतिक प्रयास था तो उसे केवल भाषा या बोलियों से बनने वाली ‘जातीय चेतना’ में निस्शेष नहीं किया जा सकता। कबीर आदि संतों के लोकजागरण से भारतेंदु के नवजागरण का संबंध रामविलास जी ने नहीं दिखाया है। कबीर आदि के यहाँ जो ज्योति दिखाई पड़ी थी उसे वैष्णव भक्ति की विचारधारा के बड़े प्रवाह में समझने से यह दिक्कत पैदा होती है। मुख्य अंतर्विरोध के भीतर जो शत्रुतापूर्ण क्षण हैं उसे दृष्टि से ओझल करने का काम ही प्रभुत्वशाली विचारधारा करती है। रामविलास जी पूँजी के अंतर्विरोधी चरित्र को तो देखते हैं, लेकिन यह नहीं देख पाते कि अंतर्विरोधों से ही वह गतिशील है। मार्क्स ने इन्हीं अर्थों में पूँजी को ‘गतिशील अंतर्विरोध’ कहा था। प्रभुत्वशाली विचारधारा भी अपने भीतर के अंतर्विरोधों से ही आगे बढ़ती है। भक्ति और रीति या निर्गुण या सगुण ऐसे ही अंतर्विरोध हैं। भारतेंदु युग भी अपने अंतर्विरोधी चरित्र से ही बन रहा था। उपनिवेशवाद का विरोध भी उपनिवेशवादी विकास का ही हिस्सा था। सामंतवाद से पूँजीवाद में संक्रमण केवल सामंतवाद विरोध के रूप में ही नहीं विकसित होता बल्कि वहाँ पूँजीवाद के अतिक्रमण की संभावना भी अन्तर्निहित होती है, जो बाद में पूँजी के विकास के दौरान पूंजी के सामाजिक संबंधों में बदल जाता है। थॉमस मुन्त्सज़र के नेतृत्व में हुए कृषक विद्रोह में एंगेल्स ने या मध्यकालीन विधर्मी आन्दोलनों में स्त्रियों की भूमिका दिखाने के क्रम में सिल्विया फेद्रिची ने इस अतिक्रमण को और पुनः पूँजी के सामाजिक संबंधों में रूपांतरण की प्रक्रिया को दिखाने की कोशिश की है।[13] पूंजीवाद की क्रान्तिकारी भूमिका पर जोर देने से उसकी प्रतिक्रांतिकारी भूमिका आँखों से ओझल हो जाती है। ‘इतिहास जैसा था वैसा पाने की’ कोशिश की यह अनिवार्य सीमा है। अंग्रेजी राज की लूट पूँजी की लूट थी। भारतीय आत्म या हिंदी जाति का आत्मबिम्बअंततः इस लूट को छिपाने वाली और उसे भुलाने वाली मोहक कल्पना थी। कहीं १८५७ से भारतेंदु युग का संबंध दिखाना भी एक मोहक कल्पना ही तो नहीं है!
            नामवर जी ने नवजागरण को रिनेसांस के बदले प्रबोधन या एनलाइटनमेंट की तरह देखने की बात कही थी और कहा था कि इस नवजागरण का १८५७ से कोई भी संबंध शिष्ट साहित्य में नहीं दिखाई पड़ता। रामविलास जी के लेख के दो साल बाद ‘आलोचना’ में नामवर जी ने ‘हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ नाम से एक लेख लिखा। उपरोक्त दो चीजें नामवर जी ने उसी लेख में कही हैं। उन्नीसवीं सदी के भारतीय नवजागरण को रिनेसांस कहने में कई दिक्कतें हैं। यूरोप में जिसे ‘रिनेसांस’, ‘रिफार्मेशन’ या ‘चिन्क्वेचेंतो’ आदि कहा जाता है वह पंद्रहवीं शताब्दी का नवजागरण था। पंद्रहवीं शताब्दी में भारत भी भक्ति आन्दोलन के रूप में एक जागरण से गुजर रहा था, इसलिए नामवर जी कहते हैं कि अगर उन्नीसवीं सदी के नवजागरण को रिनेसांस कहेंगे तब पंद्रहवी शताब्दी के भक्ति आन्दोलन को कौन सा जागरण कहेंगे? रामविलास जी इसीलिए एक को लोकजागरण और दूसरे को नवजागरण कहते हैं। नामवर जी लिखते हैं: “उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय नवजागरण को ‘रिनेसांस’ कहने में एक कठिनाई तो यह है कि इस युग के भारतीय विचारकों और साहित्यकारों के प्रेरणास्रोत यूरोप के पंद्रहवीं शताब्दी के चिन्तक और साहित्यकार न थे। बल्कि इसके विपरीत प्रेरणास्रोत के रूप में अधिकांश विचारक उस काल के थे जिसे यूरोप में ‘एनलाइटनमेंट’ का काल तथा उसके बाद का काल कहा जाता है। स्वयं बंकिम की सहानुभूति रूसो और प्रूधों के साथ थी और वे कोंत, जॉन स्टुअर्ट मिल तथा हर्बर्ट स्पेंसर से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं।”[14] इस प्रकार यह ‘नवजागरण’ ‘प्रबोधन’ की चेतना के तुल्य है, और इसलिए इसकी अंतर्वस्तु ‘लोकजागरण’ से भिन्न है। यद्यपि एक  में दूसरे की चेतना ‘अंशतः विद्यमान’ है पर नवजागरण लोकजागरण का पुनरुत्थान मात्र नहीं है। नवजागरण का नेतृत्व करने वाले मध्यवर्गीय थे। लोक के बीच से नहीं आने के चलते उनका सामान्य लोक जीवन से एक दुराव था और विचारों में लोकोन्मुख होकर भी व्यवहार में उनका लोक के साथ कोई तादात्म्य नहीं था। नवजागरण का प्रभाव शहरों तक सीमित था और इसलिए लोकजागरण की तुलना में इसका प्रसार भी सीमित था। नामवरजी इस नवजागरण को मुख्यतः सांस्कृतिक आन्दोलन के रूप में देखने की हिमायत करते हैं। पर सवाल यह है कि इस सांस्कृतिक आन्दोलन की राजनीति क्या थी?
            भारतेंदु के शब्दों में नामवर जी भारतीय नवजागरण की मूल समस्या ‘स्वत्व’ या ‘अस्मिता’ की समस्या बताते हैं। ध्यान रखने वाली बात है कि प्रबोधन या एनलाइटनमेंट की एक मूल समस्या अस्मिता की समस्या है। ‘प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता’ नामक अपनी किताब में एडोर्नो और हार्खइमर ने दिखाया है कि कैसे प्रबोधन या ज्ञान की शक्ति ने यथार्थ को मिथ बनाया और मिथकों को यथार्थ किया। एक पण्य-वस्तु के रूप में ज्ञान का उत्पादन और पुनरुत्पादन उन्नीसवीं सदी की विशेषता है। खासतौर से पूर्वी विद्या की मांग बाज़ार में बहुत थी। ज्ञान का विनिमय एक बड़े बाज़ार में हो रहा था और ज्ञान की संरचना और उसकी संपूर्णता एक फेटिसाइज्ड विश्वदृष्टि बनाती थी। भिन्नता है, इसलिए विनिमय है। हर चीज जो विनिमय में शामिल है मनुष्य की किसी न किसी जरूरत को पूरा करती है। ये जरूरतें ये, इच्छाएँ केवल पेट से पैदा नहीं होतीं, बल्कि कल्पनाओं से भी पैदा होती हैं। प्रबोधन की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के भीतर विज्ञान और धर्म दोनों ने मनुष्य के कल्पनाजगत की इच्छाओं को भी पूरा करने वाला बाज़ार बनाया। भिन्नताओं की वास्तविकताओं को छुपाने के लिए  या दूसरे शब्दों में कहें तो ज्ञान की वास्तविक जरूरत को छुपाने के लिए ज्ञान का एक भ्रम खड़ा किया जाता है। ठीक वैसे ही जैसे बुर्जुआ अर्थशास्त्र पूँजीवाद की अतार्किकता को ढंकने और दबाने की प्रक्रिया में ही बना था। प्राकृतिक विज्ञानों के भीतर से निकलने वाली दो तरह की विचारधाराओं की मांग बहुत थी। एक अट्ठारहवीं सदी में लोकप्रिय ‘यांत्रिक भौतिकवाद’ की विचारधारा और दूसरी जीवविज्ञान से आने वाला विकासवाद का सिद्धांत। राजनीतिक अर्थशास्त्र के लिए भारत में जॉन स्टुअर्ट मिल आदि लेखकों के बुर्जुआ अर्थशास्त्र का नया बाज़ार था। तर्क की सार्वभौमिकता को उसकी वास्तविक जरूरत से काटकर ‘अस्मिता निर्माण’ से जोड़ दिया गया। जो इतिहास मिथ के अंत का दावा करता था, वह स्वयं मिथ गढ़ने लगा। यह सब संभव हुआ उस विशाल जनसामान्य के भय के सहारे जिन्होंने अपने ऊपर अपना नियंत्रण खो दिया था। धर्म इस भय के सहारे विज्ञान की आलोचना करता था और विज्ञान धर्म की। प्रबोधन-पूर्व की परंपरा में जो आस्था या विश्वास और ज्ञान का अनिवार्य संबंध था, उसके सहारे धर्म आस्थाविहीन ज्ञान की आलोचना के द्वारा विशाल जनसामान्य की मुक्ति का कारोबार करता है।
            प्रबोधन की एक धारा आलोचनात्मक ज्ञान की धारा थी जिसकी आलोचना मार्क्स ने ‘आलोचनात्मक आलोचना की आलोचना’ कहकर की थी। भारतीय नवजागरण के भीतर आलोचनातमक ज्ञान की धारा को नामवर जी ने महत्वपूर्ण माना है। यह “आलोचनात्मक दृष्टि यूरोप के ‘प्राच्यविद्यावाद’ (ओरिएण्टलिज्म) के इस उपनिवेशी मायापाश को छिन्न करने की चेतावनी देती है।”[15] यह उपनिवेशी मायापाश पूँजी का मायापाश भी है। ज्ञान की पूँजी का मायापाश। जिसे हम प्राच्यविद्यावाद का मायापाश कह रहे हैं वह आलोचना-प्रत्यालोचना की एक तथाकथित लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में ही बन रहा था। इसलिए इस आलोचना-प्रत्यालोचना की प्रक्रिया की आलोचना के सन्दर्भ में ही हम उस आलोचनात्मक धारा की चर्चा कर सकते हैं और कहना न होगा कि यह एक राजनीतिक कर्म भी है। नामवर जी ने कहा कि भारतीय नवजागरण में ‘स्वत्व प्राप्ति’ का संबंध राजनीतिक मुक्ति से नहीं जोड़ा गया है। राजनीतिक स्वाधीनता अर्थात् ‘राजसत्ता पलटने के विचार को अंतर्गुहावास दे दिया गया’। इस तरह १८५७ या उसके पहले के किसान विद्रोहों के भीतर जो राजसत्ता पलटने का विचार था उसे भारतीय नवजागरण ने अंतर्गुहावास देने का काम किया। अतः भारतीय नवजागरण मुख्यतः सांस्कृतिक आलोचना ही थी। राजनीतिक आलोचना को गुहावास देने वाली सांस्कृतिक आलोचना। वह लिखते हैं: “सच तो यह है कि अधिकांश लेखक सुरक्षा, सुशासन, शिक्षा, उन्नति और शांति के लिए ब्रिटिश राज के प्रति उपकृत अनुभव करते हैं- विशेष रूप से मुगलों के शासन की तुलना में। इस प्रवृत्ति के अवशेष बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ जैसी राष्ट्रीय कही जाने वाली काव्य-कृति में भी मिलती है। यहाँ तक कि कभी-कभी तो नवजागरण के अनेक उन्नायक राजसत्ता के साथ सहयोग करते भी दिखाई पड़ते हैं। अब इसे कोई चाहे तो नवजागरण के उन्नायकों का मध्यवर्गीय अथवा भद्रलोक चरित्र कह ले, अथवा किसी संगठित राजनीतिक प्रतिरोध के अभाव के द्वारा इस निरुपायता की व्याख्या कर ले, किन्तु हर हालत में यह तथ्य विस्मृत न हो कि कुल मिलाकर था यह मूलतः नवजागरण ही- सांस्कृतिक नवजागरण, जिसे राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष का पूर्वरंग भले कह लें किन्तु उसका पर्याय न समझें।”[16] इसी सांस्कृतिक नवजागरण से वह ‘आत्मबिम्ब’ तैयार हुआ जिसके बिना राजनीतिक संघर्ष का वह रूप विकसित नहीं होता जो आगे चलकर वास्तव में हुआ। अज्ञेय की इस व्याख्या से नामवर जी सहमत हैं कि राजनीतिक-सामाजिक आधारों की वास्तविकता के बावजूद भद्रवर्गीय सांस्कृतिक आन्दोलन ने जो ‘आत्मबिम्ब’ रचा वह राजनीतिक स्वतंत्रता संघर्ष में हथियार बन गया। राजनीतिक स्वत्व प्राप्ति की जो चेतना इस प्रेरणाप्रद आत्मबिम्ब में अंतर्गुहावास कर रही थी आगे चलकर वही राजनीतिक स्वत्व प्राप्ति में उभरकर निज विकसित होती गयी। एक बार फिर ‘इतिहास जैसा था वैसा पाने’ की कोशिश में इतिहासवाद की विचारधारा सामने आ खड़ी होती है। इस इतिहासवाद की आलोचना ग्राम्शी ने भी की थी। खासतौर पर क्रोंचे के परम इतिहासवाद की आलोचना करते हुए। सवाल है कि संस्कृतिकर्म की राजनीति क्या है? दिमागी गुलामी से मुक्ति का संघर्ष और राजनैतिक मुक्ति का संघर्ष क्या इस तरह के अलगाव में रह सकता है? और अगर अलगाव है तो इस अलगाव को कैसे समझें? एक बार यह तय हो जाने पर कि उनका वर्ग क्या था हमें उसी के आलोक में उनके सांस्कृतिक प्रयासों की आलोचना करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, उनके अपने वर्गीय अंतर्विरोधों के आलोक में ही उसकी आलोचना संभव है। उपनिवेशवाद की मानसिक गुलामी के खिलाफ संघर्ष ज्ञान की सत्ता के खिलाफ संघर्ष है और शायद इसलिए नामवरजी कहते भी हैं कि यह संघर्ष राजनीतिक संघर्ष से ‘कम कठिन न था’। यूरोपीय ज्ञान के बरक्स भारतीय ज्ञान को स्थापित करने का संघर्ष ही यह संघर्ष था। “उपनिवेशवाद की छाया में भारतीय संस्कृति के लोप का खतरा था। इसलिए अपनी संस्कृति की रक्षा का प्रश्न स्वत्व-रक्षा का प्रश्न बन गया।”[17] सत्ता पलटने के विचार को अंतर्गुहावास देकर स्वत्व-प्राप्ति, स्वत्व-रक्षा का प्रश्न बन गया! और यह स्वत्व क्या था जिसकी रक्षा सांस्कृतिक मोर्चे पर नवजागरण के पुरस्कर्ता कर रहे थे- कल्पना या यथार्थ ? प्रबोधन ने ज्ञान का एक मिथ तैयार किया और चुपके से मिथकों को ज्ञान बना दिया। इस नवजागरण की एक बड़ी देन एक प्रति-इतिहास-दृष्टि का विकास है। नामवर जी लिखते हैं: “नवजागरण की एक बहुत बड़ी देन संभवतः वह इतिहासदृष्टि है जिससे अपने अतीत को शत्रु से मुक्त करके उसके विरुद्ध वर्तमान में इस्तेमाल करने की कला आती है और भविष्य के लिए स्वप्न दृष्टि भी मिलती है।”[18] अगर वास्तव में यह दृष्टि नवजागरण की देन है तो मानना पड़ेगा कि यह फासीवाद की इतिहासदृष्टि है। एक ऐसे मुस्लिम अतीत की कल्पना जहाँ मुस्लिम शत्रुओं से भारतीयता को मुक्त करके वर्तमान में उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है और इससे भविष्य की एक स्वप्न दृष्टि भी भी मिलती है। कहना न होगा कि प्रबोधन से निकली यह इतिहासदृष्टि अतार्किक नहीं थी क्योंकि यह संघर्ष की वास्तविकता का सबसे भ्रमित रूप खड़ा करती है। फासीवाद इस अर्थ में वर्ग संघर्ष का सबसे मिथकीय रूप है और अगर यह सही है तो स्वत्व-रक्षा में प्राप्त इस इतिहासदृष्टि को हम प्रतिक्रांति की इतिहासदृष्टि कह सकते हैं। भारतीयता का यह भ्रमित आत्मबिम्ब स्वयं को दो बनाकर ही गतिशील था। यही इतिहासदृष्टि आगे चलकर ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ की इतिहासदृष्टि के रूप में इतिहास का सबसे भव्य ढांचा खड़ा करती है। आत्मबिम्ब के इस विखंडन को लक्ष्य करते हुये नामवर जी ने लिखा: “हैरानी की बात है कि हिंदी प्रदेश का नवजागरण धर्म, इतिहास, भाषा सभी स्तरों पर दो टुकड़े हो गया। स्वत्व रक्षा के प्रयास धर्म तथा संप्रदाय की जमीन से किये गए।”[19]
            आत्मबिम्ब का यह दो होना लेखकों के दो वर्गों में प्रतिबिंबित हुआ। नामवर जी के अनुसार एक वर्ग अंग्रेजों का घोर विरोध करता है पर धर्म-संस्कृति और सामाजिक प्रथाओं के बारे में परंपरावादी है। दूसरा वर्ग अंग्रेजी राज के प्रति नरम रुख अपनाता है पर अन्य मामलों में या तो मूलगामी है या फिर सुधारवादी। लेखकों का पहला वर्ग भारतीय होने का दावा करता है जबकि नरमपंथी लेखक पश्चिमोन्मुख है। हिंदी नवजागरण के नेता ज्यादातर परंपरावादी हैं। जहाँ अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार ज्यादा हुआ वहां पश्चिमोन्मुख लेखक ज्यादा थे। दयानंद की अपेक्षा भारतेंदु का झुकाव केशवचंद्र सेन जैसे पश्चिमोन्मुख लेखकों या सुधारकों के प्रति था। ऐसा संभवतः वैष्णव भावुकता के चलते था। नामवर जी भारतेंदु में प्रखर बुद्धिवाद का अभाव पाते हैं पर उनकी रूमानियत को मानवतावाद की विचारधारा से जोड़ते हैं।
            नवजागरण के इस संश्लिष्ट चित्र को सामने रखने की कोशिश में नामवर जी एक ऐसी इतिहासदृष्टि विकसित कर रहे थे जो अतीत को उसके संपूर्ण अंतर्विरोधों में पाने की कोशिश करता है। अतीत को खुला छोड़ देने वाली यह इतिहासदृष्टि या एक संतुलित इतिहासदृष्टि का यह प्रयास खंड खंड बिम्बों की एक ऐसी गतिशीलता का भ्रम पैदा करती है जो इतिहासवाद की एक प्रमुख विशेषता रही है। इस पक्ष पर स्वयं नामवर जी का ध्यान था और आगे चलकर उन्होंने नवजागरण के इस मिथकीय चरित्र को स्वयं ही आलोचित किया। इस आलोचना में वह नवजागरण को प्रबोधन कहने के बदले ‘अभिज्ञान-काल’ कहना ज्यादा उपयुक्त मानते हैं। खुद ‘नवजागरण’ नाम को अंग्रेजों की कल्पना बताते हैं और उन्नीसवीं सदी को ‘स्मृति-भ्रंश’ का काल कहते हैं। यहाँ १८५७ से लेकर भारतेंदु और विवेकानंद सब एक मिथकीय चेतना के भीतर समाहित दिखते हैं। और जिसे भारतीय नवजागरण कहा जाता था उसे विपरीत जागरण मानते हैं। इसी विपरीत जागरण का नाम उन्होंने अभिज्ञान दिया।[20] डा. वीरभारत तलवार ने केवल हिन्दी नवजागरण को भारतीय नवजागरण की प्रतिक्रांतिकारी धारा कहा था वहीं नामवर जी अब पूरे भारतीय नवजागरण को ही विपरीत जागरण कह रहे हैं और बहुत हद तक सही कह रहे हैं।
            डा. तलवार ने अपनी ‘रस्साकशी’ में ‘हिंदी नवजागरण’ को एक भ्रामक पद बताया था। न तो इसका संबंध १८५७ से था, न मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन से और न ही जनवादी राष्ट्रवाद की किसी अवधारणा से। उनके अनुसार प्रबोधन के विवेकवाद तथा धर्मसुधार-समाज सुधार की मिली जुली प्रक्रिया के रूप में विकसित होते बंगाली या मराठी नवजागरण या भारतीय नवजागरण की प्रतिगामी धारा के रूप में विकसित होने वाले भारतेंदु आदि के सांस्कृतिक आन्दोलन को ‘हिंदी आन्दोलन’ कहना ठीक है। शिक्षित मध्यवर्ग के भीतर दो परस्पर विरोधी धाराओं की चर्चा डा. तलवार करते हैं। एक धारा विवेकवाद की धारा थी दूसरी सनातनी हिन्दू धर्म की धारा। महाराष्ट्र और बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने जिस नए धर्म और समाज सुधार को गति प्रदान की वह अपेक्षाकृत अधिक प्रगतिशील धारा थी। पश्चिमोत्तर युक्त प्रान्त के पूर्वी इलाके खासतौर पर बनारस, इलाहाबाद और बहुत हद तक पटना, कानपुर, भागलपुर आदि शहरों में विकसित नव-मध्यवर्ग इस प्रगतिशील धारा के साथ नहीं था। इसका सबसे बड़ा कारण अंग्रेजी शिक्षा का अभाव था। युक्त प्रान्त में कोई धारा प्रगतिशील भूमिका अदा कर रही थी तो वह केवल दयानंद सरस्वती की आर्यसमाजी धारा थी। इस आर्यसमाज का भी अपना जनाधार सनातनी पंडितों या ब्राह्मणों के यहाँ नहीं बल्कि नौकरीपेशा, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त वह भद्रवर्ग था जो अपने धर्म और संस्कारों के पिछड़ेपन को लेकर ग्लानिबोध से भरा था। इस वर्ग को अपनी पहचान आर्य समाज में दिखती थी। आर्य समाज के मूलवाद में तथा उसके तार्किक स्थूलवाद में आधुनिक होने का रास्ता दिखता था। ब्रह्मोसमाज और थियोसोफिकल सोसाइटी दो ऐसी संस्थाएं और थीं जो युक्त प्रान्त में धर्म और समाज सुधार का प्रयास कर रही थीं। परन्तु इसका प्रभाव बहुत सीमित था। आमतौर पर युक्तप्रांत में रहने वाले बंगाली अप्रवासी ही इनके सदस्य थे। हिंदी आन्दोलन के नेताओं ने इन दोनों धाराओं की आलोचना की है। इन्होंने दयानंद के मूलवाद की आलोचना अपनी परंपरावादी कर्मकांडी दृष्टि से की। इनके अनुसार, उपनिषद् या पुराण आदि अगर अप्रामाणिक भी हैं तब भी चूँकि लोक में स्वीकृत हैं, इसलिए उन्हें एकदम ख़ारिज करके कोई धर्म या समाजसुधार नहीं हो सकता। तलवार जी का कहना है कि अपनी लचर दलीलों की आड़ में ये लोग वस्तुतः स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह या आधुनिक जीवनशैली आदि की प्रगतिशीलता का विरोध कर रहे थे। यह विरोध आमतौर पर समुदाय की मान्यताओं को ही सामने रखकर किया जाता था। एक किस्म के बिरादरीवाद के भीतर से समझौता करते चलने के कारण हिंदी आन्दोलन के नेता अपने पारिवारिक या व्यक्तिगत जीवन के उथलपुथल से बचने की कोशिश करते हैं। धर्म इनके लिए सुधार का नहीं वरन् राजनीतिक हथकंडा मात्र था। धर्म की आड़ में ये मुस्लिम भद्रवर्ग को अपना प्रतियोगी साबित कर हिन्दू एकता की अपील करते ताकि इन्हें सरकारी नौकरियों में कुछ विशेषाधिकार मिल सके। तलवार जी के अनुसार मुस्लिम भद्रवर्ग इन हिंदी आन्दोलन के पुरस्कर्त्ताओं से कहीं ज्यादा प्रगतिशील था। उनके यहाँ आधुनिकता के प्रति ज्यादा खुली और विवेकसंपन्न दृष्टि थी और उन्होंने जोर देकर कहा कि हिंदी आन्दोलन को सर सैयद अहमद खां जैसे किसी सक्षम विवेकवादी व्यक्तित्व का नेतृत्व नहीं मिल पाया। हिंदी आन्दोलन और नेताओं के अंतर्विरोधों को दिखाते हुए तलवार जी ने भारतेंदु की छवि एक पतनशील हिन्दू रोमैंटिक की गढ़ी है। यहाँ भारतेंदु एक प्रतिनायक के रूप में नजर आते हैं।
            विवेकवादी इस धारा ने राष्ट्रीयता की जो धारणा गढ़ी वह मूलतः सांप्रदायिक थी। अंग्रेजी राज के खिलाफ अगर इनका संघर्ष समाज और धर्म सुधार को साथ-साथ रखने के बजाय उसमें अलगाव करता है बल्कि उनके खिलाफ जाकर संगठित होने का प्रयास करता है तो उसके सामने मुस्लिम भय पैदा करने के अलावा और कोई रास्ता संभव नहीं था। ‘हिंदी, नागरी और गोरक्षा’ आन्दोलन इसकी स्वभाविक परिणति थी। आगे चलकर उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में आकार ग्रहण करने वाली हिन्दू राष्ट्रवाद की यह पृष्ठभूमि है। इसके वेग में दयानंद ने भी साथ दिया क्योंकि उनमे भी पुनरुत्थानवाद के बीज थे। पूर्वी प्रदेशों की अपेक्षा आर्य समाज पंजाब में कहीं ज्यादा रेडिकल था। आर्य समाजियों की सदस्यता की संख्या पंजाब के मुकाबले युक्त प्रान्त में ज्यादा थी। पर वहां कोई गुणात्मक परिवर्तन संभव नहीं हुआ। और यह महज संख्याबल के रूप में ही बना रहा। इसका कारण उन्होंने पंजाब की भिन्न नृतत्त्वशास्त्रीय अवस्थिति में बताया है। पंजाब में ब्राह्मणों का प्रभाव कम था जिसका एक कारण मुसलमानों के साथ लम्बा संसर्ग और सिख धर्म आदि का प्रभाव भी था। इस तरह का कोई विश्लेषण पूर्वी प्रदेशों के बारे में नहीं किया गया जैसा कि बहुत पहले मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट से ही हजारीप्रसाद द्विवदी ने किया था। अर्थात् मध्ययुगीन सिख धर्म के प्रभावों की तरह कबीरपंथी आदि समुदायों के प्रभाव और वैष्णवता के अंतर्संबंधों की पड़ताल नहीं की गयी है। काशी के बुनकरों की एक हड़ताल का ज़िक्र रामविलास जी बार बार करते हैं जो १८३३ ई. में ही हुई थी। और इतिहासकार बेली के अनुसार यह वक़्त आर्थिक संकट का भी वक़्त था।
भद्रवर्ग का जो हिस्सा हिंदी आन्दोलन के साथ था उसे, जाति व्यवस्था की पुरानी मान्यता को बनाये रखने या उसे मजबूत करने की जरूरत क्या केवल नौकरियों में विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए थी या जाति व्यवस्था मात्र में आये एक मूलगामी सामाजिक संकट का वह प्रतिक्रियावादी रूपांतरण है? शहरों में आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियों के कारण और आसपास के इलाकों से प्रवासी मजदूरों का आगमन तथा बढ़ती वेश्यावृत्ति आदि के चलते शहरी सामाजिक संबंधों में भी उथल-पुथल थी। ऐसे समय में सामुदायिक या बिरादरी बोध ‘एका’ की भावना पैदा करती है। तलवार जी इस नव-भद्रवर्ग का अपने ही भीतर अलग-अलग खांचों में बंटे होने की बात करते हैं। अलग-अलग खांचों में बंटे होने के चलते यह भद्रवर्ग मध्यवर्ग की विचारधारा अर्थात् विवेकवाद या नवजागरण को प्राप्त नहीं कर पायी थी। वर्ग था लेकिन वर्ग की विचारधारा नहीं थी! खुद भारतेंदु के जीवन से हमें उस दौर की अस्थिरता का कुछ अंदाज़ा मिलता है। अस्थिरता और खांचों में बंटा मध्यवर्ग दरअस्ल संपूर्ण समाज में होने वाले एक आधारभूत परिवर्तन की ओर इशारा करता है। यह परिप्रेक्ष्य १८५७ की त्रासदी का भी है। ऐसी स्थिति में प्रिंट पूँजी के साथ बनने वाला यह सांस्कृतिक आन्दोलन था जहाँ स्वत्व रक्षा मुख्यतः अपने पुराने विशेषाधिकार की रक्षा थी। सामाजिक संबंधों में आये उथल पुथल के कारण उन्हें अपने विशेषाधिकार छिन जाने का खतरा साफ़ दिखाई दे रहा था। जहाँ अंग्रेजी शिक्षा थोड़ा पहले ही प्रसार पा चुकी थी वहाँ कुशल कारीगरों से लेकर अध्यापकों और प्रशासनिक अधिकारीयों के एक बड़े समूह ने अपना नया विशेषाधिकार पा लिया था। सामाजिक संबंधों में उनकी श्रेष्ठता उनके विवेकवाद के कारण बन चुकी थी। भारतेंदु के एक शुरूआती लेख ‘पब्लिक ओपिनियन’ के माध्यम से खांचों और जनमत की राजनीति को समझने की कोशिश आगे करेंगे।
            तलवार जी के अनुसार, दयानंद के विचारों के लिए पंजाब ज्यादा ग्रहणशील था क्योंकि वहां जाति व्यवस्था के बंधन पहले ही ढीले हो गए थे। युक्तप्रांत में जाति के बंधन जायदा कठोर थे। जिन अर्थों में द्विवेदी जी मध्य देश की रक्षणशीलता का जिक्र करते हैं, कुछ-कुछ उन्हीं अर्थों में। पर स्वयं दयानंद के विचारों में विवेकवाद-पुनरुत्थानवाद का दोरुखापन मिलता है। तलवार जी कहते हैं कि जिन स्थूल तर्कों से वह वेदों की ओर लौटने को कहते थे, आर्य भाषा, आर्य जाति और आर्य धर्म की बात करते थे, उसके कारण ही इनका झुकाव आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर होता गया। पर आर्य समाज के सामाजिक सुधारों और धर्म सुधारों की एकता के कारण वहां वह संभावना भी थी जिसके प्रभाव से आगे चलकर बहुत सारे कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भी निकले। प्रेमचंद, राहुल संकृत्यायन या गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे साहित्यकार और आन्दोलनकर्ता आर्य समाज के प्रभाव में थे। आर्य समाज तलवार जी के अनुसार वास्तविक सामाजिक परिवर्तनों का संवाहक और समाज में व्यक्ति से लेकर सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में गुणात्मक परिवर्तन लाने वाला इसलिए हो पाया क्योंकि वहां धर्मसुधार और समाज सुधार अलग-अलग नहीं था। दूसरी ओर हिंदी आंदोलन सांप्रदायिक, जातिवादी और स्त्रीविरोधी मूल्यों को ही समाज में फ़ैलाने में कामयाब हुआ। यह धारा अंग्रेजों को अर्जियां देकर नौकरी पाने वाले मध्यवर्ग की धारा थी।
            तलवार जी ने भारतेंदु की तर्कशीलता को बहुत निम्न कोटि का कहा है। भारतेंदु के चरित्र में शायद वह एक ‘लुम्पेन’ की छवि भी देखते हैं। पैसा उड़ाने की वृति, स्त्री के साथ व्यवहार और उनके संबंध, चारित्र्य बल का अभाव आदि आदि के सन्दर्भ में। वह कहते हैं कि भारतेंदु के चरित्र में वह सुदृढ़ता या सदाचारिता नहीं है जो समाजसुधार के लिए आवश्यक होती है। घर में पत्नी उन्हें कभी पसंद नहीं आई, और वह बाहर महफ़िलों में वाहवाही लूटते रहे। मर्दवादी दृष्टि भी उनमें कूट-कूटकर भरी थी। भारतेंदु के इस चरित्र की तुलना तलवार जी ने दो अन्य परम्परावादी सुधारकों से की है। एक बंगाल के राधाकांत देव और दूसरे पंजाब के श्रद्धाराम फुल्लौरी। यद्यपि ये दोनों भी भारतेंदु की तरह परंपरा की रक्षा में ही सुधार की ओर अग्रसर हुए थे लेकिन इन लोगों का चरित्र ज्यादा प्रगतिशील था। इन दोनों की तुलना में भारतेंदु का खलनायकत्व और भी अधिक उभरकर सामने आता है। सापेक्षिक प्रगतिशीलता के निर्धारण के क्रम में भारतेंदु अपने संपूर्ण जीवन व्यवहार में एक एंटी हीरो की तरह उभरते हैं, ठीक पुराने खलनायकों की तरह नहीं। एंटी हीरो के साथ दर्शक या पाठक की एक आत्मीयता भी जुड़ी रहती है, उसका चरित्र दिमाग में बस जाता है, लेकिन इसके चलते यथार्थ के ओझल होने का खतरा भी है। तलवार जी इसलिए कदम कदम पर उनकी साहित्यिक छवि के बरक्स उनके राजनैतिक- सांगठनिक जीवन व्यवहार से बनने वाली छवि को सामने मूर्तिमान करते जाते हैं।
            अपनी पूरी आलोचना में तलवार जी भारतेंदु की रचनाओं में मिलने वाले भाषायी लद्धड़पन और मंद तर्कशीलता की चर्चा तो करते हैं लेकिन वे भारतेंदु के व्यंग्यों पर चर्चा नहीं करते। क्या यह महज संयोग है कि भारतेंदु के प्रहसन ‘अंधेर नगरी’ का मंचन आज भी प्रगतिशील मूल्यों की प्रतिष्ठा ही करता है।भारतेंदु के व्यंग्यों या प्रहसनों में ऐसा क्या है जिसमें दुहराव के साथ नवीन होते चलने की क्षमता भी है। भारतेंदु के लेखों या प्रहसनों या रूपकों में जो कहीं-कहीं वर्णन या संवाद द्वारा व्यंग्य का तीखा बोध पैदा होता है, उसकी शक्ति उन्हें कहाँ से मिलती है? व्यंग्य की क्षमता स्वयं में उनकी सूक्ष्म निरिक्षण में समर्थ दृष्टि का प्रमाण है। पुराने सामाजिक संबंधों में परिवर्तन और तीव्र परिवर्तन के साथ साथ जो एक प्रहसन चल रहा था उसका बोध भारतेंदु को था। भद्रवर्ग के भीतर की विवेकवादी धारा का विकास भी हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा में ही हुआ। परन्तु ‘अंधेर नगरी’ क्या हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा वाला प्रहसन है या क्या यह केवल राष्ट्रवादी विचारधारा का वाहक है? ‘उमराव जान अदा’ में उभरकर सामने आने वाले सामाजिक सांस्कृतिक संक्षोभ या उस व्यापक ट्रेजेडी के सन्दर्भ में देखें तो भारतेंदु के व्यंग्य और प्रहसनों का अर्थ थोड़ा और उभरता है। मल्लिका या माधवी से भारतेंदु के संबंधों में क्या उस त्रासदी का सुराग भी नहीं है। वेश्यावृत्ति और पतनशील रइसों का संकट एक दूसरे से अलग नहीं था। उस समय की औपन्यासिक कृतियों में वेश्यावृत्ति का सन्दर्भ अवश्य आता है। आगे चलकर प्रेमचंद की सुमन बनारस में ही ‘सेवासदन’ का समाधान ढूंढ रही थी।
            भारतेंदु के व्यंग्यों पर रामविलास जी का ध्यान था। यह बात अलग है कि अधिकांश मौकों पर इनमें वह जातीय चेतना खोज निकालते है। बीस साल की उम्र में भारतेंदु ने एक लेख ‘लेवी प्राणलेवी’ नाम से लिखा था। रामविलास जी इसका उल्लेख करते हुए लिखते हैं “गवर्नर जनरल हिन्द के जिस दरबार का भारतेंदु ने वर्णन किया है, वह काशीराज के घर पर हुआ था। इसलिए भारतेंदु की सत्यप्रियता और भी सराहनीय है। वहां जो सज्जन लोगों के नाम लिख रहे थे उनका वर्णन यूँ किया है, ‘नाम लिखने वाले मुंशी बद्रीनाथ फूले-फाले अबा पहिने पगड़ी सजे पुराने दादुर की भांति इधर-उधर उछलते और शब्द करते फिरते थे।’ लोग किस तरह एक आनरेरी मजिस्ट्रेट के ‘सिट डौन’, ‘स्टैंड अप’ कहने से उठते और बैठ जाते थे, इसका उन्होंने बहुत ही नाटकीय वर्णन किया है। आनरेरी मजिस्ट्रेट का व्यवहार हवलदार का सा था, सिर्फ हाथ में एक लकड़ी की कसर थी। लोग कीमती पोशाक पहनकर गए थे। “सबके अंगों से पसीने की नदी बहती थी मानो श्रीयुत् को सब ‘अर्घ्यं पाद्यं’ देते थे।”... लोगों की उठा बैठी और बेहूदा कवायद को लक्ष्य करके लिखा था, “वाह-वाह दर्बार क्या था ‘कठपुतली का तमाशा’ था या बल्लमटेरों की ‘कबायद’ थी या बंदरों का नाच था या किसी पाप का फल भुगतना था या ‘फौजदारी की सजा’ थी।””[21]  काशी की इस सभा में खुद भारतेंदु भी बैठे थे, इस प्रकार यह भारतेंदु के वर्ग का प्रहसन भी था। पतनशील संस्कृति की आत्मालोचना के बिना यह संभव नहीं था। बात केवल उम्र की नहीं है, ठेठ वर्तमान में हस्तक्षेप और उसे बदलने का बोध जिन पतनशील स्थितियों का आत्म साक्षात्कार कर रहा था यह उसके प्रति एक स्वाभाविक स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी। यह तार्किक की नहीं बल्कि कलाकार की स्वतः स्फूर्तता थी। यह बात सही है कि भारतेंदु विचारों की तार्किकता के मामले में उन्नीस पड़ते थे, पर इस कमी को उनकी तीक्ष्ण वस्तुनिरीक्षण दृष्टि भर देती थी। जीवन स्थितियों की विडम्बना का बोध जितना गहरा था, बदलने का प्रयास उतना ही ऊर्जावान था। भारतेंदु स्वयं अपनी भी कहानी लिख रहे थे, ‘प्यारे हरिचंद की कहानी’ लिख रहे थे। भारतेंदु के प्रहसनों में किसी न किसी पात्र की भूमिका में हर जगह स्वयं भारतेंदु भी दिख जाते हैं। अपने वर्गीय अंतर्विरोधों का स्वबोध उनके यहाँ एलिगोरिकल हो जाता है। इस एलिगरी में ‘हिन्दू भारत’ की मधुर कल्पना थी इससे इनकार नहीं किया जा सकता। भाव जगत का वैष्णव प्रेम ‘हिन्दू भारत’ की कल्पना से प्रेम में बदलता गया।
 भारतेंदु की रचनाओं में विश्वदृष्टि की एकता खोजने पर हमें प्रभुत्वशाली विचारधाराओं की व्यवस्था ही मिलेगी। ज्ञान और व्यावहारिक सामान्य बोध के बीच एक सक्रिय संबंध बनाने के क्रम में ही उनका स्वाभाविक आवेग जिन व्यावहारिक धार्मिक विचारधाराओं में आत्मबिम्बित होता है, वे प्रभुत्वशाली विचारधाराएँ हैं। इन विचारधाराओं का निर्माण कहीं बाहर से नहीं हो रहा था बल्कि प्राच्यविद्याविदों की कल्पना के साथ परस्पर भागीदारी में बन रहा था। इन कल्पनाओं को यथार्थ रूप दे रही थी प्रिंट पूँजी के साथ विकसित होती ‘बुर्जुआ पब्लिक स्फीयर’ की क्रियाएँ। भारतेंदु की स्वाभाविक स्फूर्ति तत्काल ही एक फैंटेसी में बदलने लगती है और क्रियात्मक होना चाहती है। ऐसे ही समय प्राच्यविद्या के पंडितों के द्वारा जगाये गए मिथकीय प्रेत भी आकर सर पर सवार हो जाते हैं। प्राच्यवाद किसी प्रेत-विद्या से कम न था। देखना चाहिए कि भारतेंदु की रचनाओं में कहाँ प्रेतों की दुनिया में यथार्थ का हस्तक्षेप होता है। उनकी एलिगरी कहाँ स्थितियों के अतिरेक को अभिव्यक्त कर रही है, जैसे भारतेंदु की ‘अंधेर नगरी’ ऐन हमारे वक़्त में राज्यसत्ता का रूपक बन जाती है। यह रूपक राज्यसत्ता में अन्तर्निहित हिंसा की अनिवार्यता और न्याय के भ्रम का प्रहसन भी है।
.  धर्म सुधार पर विचार सभा

           ब्रह्मो समाज या दयानंद सरस्वती को खुद भारतेंदु कैसे देख रहे थे इसका पता हमें ‘स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन’[22] नामक एक व्यंग्य रूपक से चलता है। स्वामी दयानंद सरस्वती और केशवचंद्र सेन जब मरने के बाद स्वर्ग पहुंचे तो “वहाँ एक बेर बड़ा आन्दोलन हो गया”। मृत्यु के कुछ ही समय पहले लिखा गया यह व्यंग्य रूपक अपने समय के धर्म सुधार आंदोलनों के चरित्र की व्याख्या करता है। सबसे पहले इसका प्रकाशन कलकत्ते से निकलने वाली प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका ‘मित्र विलास’ (जून १८८५) में हुआ था। ब्रह्मो समाज और आर्य समाज के आन्दोलनों को भारतेंदु इस समय तक आकर एक तटस्थ आलोचकीय दृष्टि से देखने का प्रयास करने लगे थे। स्वर्ग में एकबारगी पैदा हुए इस आन्दोलन में मोटे तौर पर दो खेमे बन गए। एक इनका प्रशंसक था दूसरा निंदक। पहला लिबरल है, दूसरा कंजरवेटिव। इन दोनों खांचों में अनफिट एक तीसरा दल है जो वैष्णव आत्माओं का है। इस दल के संस्थापक तो लिबरल थे पर अब ये ‘रेडिकल्स क्या महा रेडिकल्स हो गए हैं’। निश्चित रूप से इन महा रेडिकल्स आत्माओं में हम स्वयं भारतेंदु को भी गिन सकते हैं। व्यासदेव एक ऐसे बुद्धिजीवी के रूप में सामने आते हैं जो किसी का भी पक्ष लेने से बचते हैं पर उनका मान दोनों खेमों में है। “बिचारे बूढ़े व्यासदेव को दोनों दल के लोग पकड़-पकड़ कर ले जाते और अपनी अपनी सभा का ‘चेयरमैन’ बनाते थे और बेचारे व्यास जी अपने प्राचीन अव्यवस्थित स्वभाव और शील के कारण जिसकी सभा में जाते थे वैसी ही वक्तृता कर देते थे।” लिबरलों की तुलना में कंजरवेटिव दल ज्यादा मजबूत था क्योंकि उन्हें स्वर्ग के जमींदारों का सहयोग प्राप्त था। कंजरवेटिव दल की आत्माएँ संकीर्ण कट्टरपंथी आत्माएँ थीं। ये आत्माएँ उन पुराने ज़माने के ऋषि मुनियों की आत्माएँ हैं जो “यज्ञ कर करके या तपस्या करके अपने-अपने शरीर को सुखा-सुखाकर और पच-पच कर मरके स्वर्ग गए हैं”। कर्मकांड और व्रत उपवास आदि को भारतेंदु वहीं तक सही मानते थे जहाँ तक वे शरीर को कष्ट न पहुँचाएँ। कठोर देह साधना करने वाले इन ऋषि मुनियों की आत्माएँ सुधारों के खिलाफ थीं और इनका साथ देने वाले जमींदारों में ‘उदार लोगों की बढ़ती’ से अपना मान-अभिमान और बल छिन जाने का डर था। लिबरल दल भक्तों की आत्माएँ या तो सार्वजानिक जीवन के उच्च मूल्यों या आदर्शों के संपादन के चलते या परमेश्वर की भक्ति से स्वर्ग में गयी थीं।
समाज सुधार और वैयक्तिक प्रेम मूलक भक्ति- लिबरल विश्वदृष्टि को भारतेंदु इसी परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं। रेडिकल वैष्णव दल भक्तों के लिए वैष्णव होने मात्र से ये चीजें पहले से ही उपलब्ध थीं। भारतेंदु के लिए वैष्णवता स्वाभाविक रूप से विश्वदृष्टि है। पर रेडिकल वैष्णव इस स्वाभाविक उदारता को राजनीतिक रूप देने वाले हैं। वैष्णव उदारता का और उसके भावावेग का राजनीतिकरण करने वाले महा रेडिकल। इस तरह भारतेंदु के लिए वैष्णवता की आधुनिक व्याख्या में समाज सुधार, वैयक्तिक प्रेम मूलक भक्ति और राजनीति तीनों का ‘एका’ है। इस एका के रेडिकल प्रयास के लिए जनमत या लोकमत का निर्माण आवश्यक है। भारतेंदु की रेडिकल वैष्णवता ही ‘सब उन्नति का मूल’ है। यह एक लोकप्रिय व्यावहारिक विचारधारा के रूप में आकर ग्रहण करने वाली वैष्णवता है। यह रेडिकल वैष्णवता धर्म का राजनीतिकरण है।
कंजरवेटिव दलभक्तों को देवताओं का समर्थन प्राप्त था। ये देवता ही स्वर्ग के जमींदार थे। अपने अपने तरीके से इन देवताओं ने कंजरवेटिव दल की स्थानीय शाखाएं भी खोल लीं और वहां इनके पक्ष में ‘प्रकाश सभाएँ’ होने लगीं। लिबरल दल वालों के पक्ष में केवल इस ‘हिन्दू स्वर्ग’ के लोग नहीं थे। “इधर ‘लिबरल’ लोगों की सूचना प्रचलित होने पर मुस्लमानी-स्वर्ग और जैन स्वर्ग तथा क्रिस्तानी स्वर्ग से पैगम्बर सिद्ध, मसीह प्रभृत हिन्दू स्वर्ग में उपस्थित हुए और ‘लिबरल’ सभा में योग देने लगे। बैकुंठ में चारों ओर इसकी धूम फैल गयी।” अलग अलग स्वर्ग विभिन्न धार्मिक पहचानों की ओर इशारा करता है। बैकुंठ हिन्दुओं का स्वर्ग है और यह नया धर्म आन्दोलन मुख्यतः हिन्दू धर्म की एक बड़ी पहचान के भीतर ही पैदा हुआ है। ‘हिन्दू’ शब्द प्रयोग के तीन निहितार्थ वसुधा डालमिया ने भारतेंदु युग के सन्दर्भ में नोट किये हैं।[23] पहला, एक प्राक् औपनिवेशिक ‘हिन्दू अर्थ’ जहाँ हिंदुस्तान का हर बाशिंदा शामिल था, दूसरा परस्पर भिन्न धार्मिक मतों और आस्थाओं की निकट अंतर्क्रिया के अर्थ को व्यक्त करता है जिसके आरंभिक साक्ष्य सल्तनत कालीन ऐतहासिक वृत्तांतों में मिलते हैं। यहाँ यह शब्द ‘तुर्क’ के समानांतर उपयोग में आया था और सामान्यतः मुसलमानों के बरखिलाफ उपयोग किया जाता था। आरम्भ में यह धार्मिक कम सामाजिक-राजनीतिक अर्थों में ज्यादा प्रयुक्त होता था। अंग्रेजी राज के साथ यह दूसरा अर्थ धर्म से अनिवार्यतः जुड़कर ‘हिन्दूवाद’ की विचारधारा में बदल गया। जेम्स मिल आदि के इतिहासों में ‘हिन्दूकाल’ और ‘मुसलमान काल’ की ऐतिहासिक कल्पना के साथ हिन्दू शब्द जुड़ गया था। भारतीय भी मुसलमानों को सामने कर ‘हिन्दू पीड़ित ग्रंथि’ के लिए इस शब्द का इस्तेमाल करने लगे। हिन्दू शब्द का तीसरा अर्थ राष्ट्र की अवधारणा से जुड़कर बन रहा था। आर्थिक राष्ट्रवाद और अंग्रेजी राज की यातना की साझी स्मृति से बनने वाले इस तीसरे अर्थ का मतलब था- ‘जो हिन्दुस्तान में रहे वह हिन्दू’। रामविलास जी भारतेंदु के यहाँ ‘हिन्दू’ शब्द प्रयोग को इन्हीं अर्थों में लेते थे। पर वसुधा डालमिया का कहना है कि यह तीसरा अर्थ दूसरे के व्यापक प्रभाव में था। तीनों अर्थों की अंतर्क्रिया के बारे में डालमिया ने लिखा: “तीसरा अर्थ या राष्ट्रवादी अर्थ, कभी भी अपने धार्मिक संकेतार्थों से पूरी तरह छुटकारा नहीं पा सका। इस पद की प्रयुक्ति उन्नीसवीं सदी में अस्थिर बनी रही और इसके मुख्तलिफ मायनों में आपसी जुड़ाव कायम रहा। बावजूद इसके, किसी प्रदत्त सन्दर्भ में ‘हिन्दू’ के प्राथमिक अर्थ को निर्धारित करना संभव है, यदि एक बार यह तय हो जाये कि इलाकाई, धार्मिक, राष्ट्रीय में से किस आधार पर यह पद प्रयोग में आ रहा है और ‘अन्य’ की भूमिका में किसे रखा जा रहा है; चाहे वह अन्य, जैसा कि पुरानी इलाकाई प्रयुक्ति में दिखता है, फारसी या तुर्की हो, या मुसलमान (जिसे इस ज़माने में भी कई बार समूह के हवाले से तुर्क ही कहा जाता है), या फिर अंततः औपनिवेशिक स्वामी, लेकिन यह बात दिमाग में रखना जरूरी है कि धार्मिक समुदाय को निर्दिष्ट करने वाली दूसरी प्रयुक्ति अत्यंत प्रभावी सन्दर्भ-बिंदु बनी रहती है।”[24]
            इस सन्दर्भ में देखें तो लिबरल दलों के समर्थन में शामिल ‘अन्य’ हिन्दू धर्म के सुधारवाद के समर्थक हैं और ‘सुधारों’ में छुपी वैश्विक भावनाओं को समर्थन देने पहुंचे हैं। कंजरवेटिव दलों की ‘अन्यता’ यहाँ नोट करने लायक है। इस अन्यता में सामंती जमींदार और कर्मकांडी ब्राह्मणवाद का ब्लाक है। जबकि लिबरल दृष्टि के आसपास एक ‘संयुक्त मोर्चे’ की कल्पना की गयी है। ध्यान रखना चाहिए कि भारतेंदु के रेडिकल वैष्णव इस ‘संयुक्त मोर्चे’ के बाहर हैं। उनका ‘एब्सटेनिज्म’ वैष्णव होने के चलते नहीं बल्कि रेडिकल या महा रेडिकल होने के चलते था। निश्चित रूप से स्वर्ग संसद का रूपक है और स्वर्ग का राजा ईश्वर निष्प्रभावी हो गया है और जनता स्वयं जनमत के द्वारा निर्णय स्थिर करने पर जोर देती है। जनमत के द्वारा ‘सेल्फ गवर्नमेंट’ का प्रयास सबसे पहले वैष्णव भक्तों ने किया था। और आज के लिबरल्स उसी को आगे बढ़ा रहे हैं। ईश्वर के पास दोनों दलों के लोगों ने जब अपने अपने मेमोरियल तैयार कर भेजे तो ईश्वर ने दोनों दलों के डेप्यूटेशन को बुलाकर कहा “बाबा अब तो तुमलोगों की ‘सैल्फगवर्नमेंट’ है। अब कौन हमको पूछता है, जो जिसकी जी में आता है करता है। अब चाहे वेद क्या संस्कृत का अक्षर भी स्वप्न में भी न देखा हो, पर धर्म विषय पर वाद करने लगते हैं। हम तो केवल अदालत या व्यवहार या स्त्रियों के शपथ खाने को ही मिलाये जाते हैं। किसी को हमारा डर है? कोई भी हमारा सच्चा ‘लायक’ है? भूत प्रेत ताजिया के इतना भी तो हमारा दर्जा नहीं बचा। हमको क्या काम चाहे बैकुंठ में कोई आवे।हम जानते हैं चारों लड़कों (सनक आदि) ने पहले से ही चाल बिगाड़ दी है। क्या हम अपने बिचारे जयविजय को फिर राक्षस बनवावें कि किसी का रोकटोक करें। चाहे सगुन मानो चाहे निर्गुन, चाहे द्वैत मानो चाहे अद्वैत हम अब न बोलेंगे। तुम जानो स्वर्ग जाने।”
            कंजरवेटिव दलभक्तों ने दयानंद और केशवचंद्र सेन पर क्या क्या आरोप लगाये यह देख लेना चाहिए। दयानंद को स्वर्ग में स्थान नहीं मिलना चाहिए क्योंकि १. इसने पुराणों की निंदा की; २. मूर्तिपूजा की निंदा की; ३. वेदों का अर्थ उल्टा-पुल्टा कर डाला; ४. दस नियोग करने की विधि निकाली; ५. देवताओं का अस्तित्व मिटाना चाहा (देवताओं यानि जमींदार?); ६. इसने धर्म विप्लव किया और आर्यावर्त को धर्म बहिर्मुख किया। पश्चिमोत्तर प्रान्त के प्रतिनिधि के रूप में ‘काशी के विश्वनाथ जी’ ने ‘उदयपुर के एकलिंग जी’ पर दयानंद के समर्थन का आरोप लगाया। विश्वनाथ जी कंजरवेटिव दलों की तरफ से यह आरोप लगा रहे थे। पूरब की अपेक्षा पश्चिमी इलाकों में आर्य समाज के प्रभाव की चर्चा के सन्दर्भ में एकलिंग जी का जवाब ध्यान देने लायक है। विश्वनाथ जी ने जब एकलिंग जी को धिक्कारते हुए लिबरलों के साथ मिल जाने को कहा तब एकलिंग जी ने कहा “भाई हमारा मतलब तुमलोग नहीं समझे हम उसकी बुरी बातों को न मानते, न उसका प्रचार करते, केवल अपने यहाँ के जंगल की सफाई का कुछ दिन उसको ठेका दिया, बीच में वह मर गया अब उसका माल मता ठिकाने रखवा दिया तो उसका बुरा किया”। यह एकलिंग जी फ़िलहाल स्वामी जी के दल के सभापति बने हैं। आखिर इन्होंने अपने यहाँ के किस ‘जंगल’ की सफाई का ठेका स्वामी जी को दिया था? यह जंगल छोटे-मोटे धार्मिक सम्प्रदायों और मतों का जंगल था। एकलिंगी जी और काशी के विश्वनाथ जी दोनों ही ब्राह्मणीकृत शैवमत के धार्मिक प्रतीक हैं, पर जहाँ काशी के विश्वनाथ शुरू से ही दयानंद के विरोधी थे वहीं एकलिंग जी रणनीतिक रूप से दयानंद के पास गए थे। यह संकीर्ण कट्टरपंथ के भीतर का विवाद था। यह बात गौर करने लायक है कि जगन्नाथपुरी में जब भैरव की मौजूदगी का विवाद भारतेंदु के सामने आया था, उस समय उन्होंने इस बात का प्रत्याख्यान किया था कि भैरव की प्रतिमा अनादिकाल से वहां है। भारतेंदु ने पुराण आदि से साक्ष्य देकर यह प्रमाणित किया कि कृष्ण ही एकमात्र उपास्य हैं। तलवार जी ने इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “किसी व्यक्ति ने ‘तहकीकातपुरी’ किताब किखकर बताया कि वहां पहले भैरों की पूजा होती थी। वैष्णवों ने उसकी मूर्ति उखाड़ फेंकी थी। बाद में पंडों ने जगन्नाथजी (विष्णु) के साथ भैरों को फिर से प्रतिष्ठित किया। यह मामला काशी धर्मसभा के सामने १८७० में आया। भारतेंदु ने धर्म संबंधी पुस्तक में ‘तहकीकात’ जैसे फारसी शब्द की आलोचना करते हुए विभिन्न धर्मग्रंथों से प्रमाण जुटाकर दो बातों पर जोर दिया। एक, इसका प्रमाण नहीं मिलता है कि वहां जगन्नाथजी के साथ पहले भैरों की भी मूर्ति थी जिसे वैष्णवों ने उखाड़ फेंका। दो, अगर वह थी भी, तो यह उचित था या नहीं- इसपर विचार होना चाहिए। भारतेंदु ने अपनी व्यवस्था देते हुए लिखा कि भैरों विष्णु से बहुत छोटा देवता है, इसलिए यह विष्णु के साथ बैठाया नहीं जा सकता। ‘दूसरे, भैरव कापालिकों के देवता हैं, उनका पूजन वैष्णव-स्मार्त सबको निषिद्ध है।’ गौरतलब है कि भारत में विभिन्न स्थानीय धर्मों के प्रति जितने असहिष्णु और फंडामेंटलिस्ट आर्यसमाजी थे, उतने ही काशी के सनातनी भी थे।”[25]
            स्थानीय धर्म-मतों के जंगल को साफ़ करने में आर्यसमाजियों और काशी के सनातनी पंडों के इस गठजोड़ से भारतेंदु भी वाकिफ थे। लेकिन आर्यसमाजियों के साथ उदयपुर के एकलिंग जी का मोर्चा कैसा था, इसे भी भारतेंदु बखूबी समझ रहे थे। स्थानीय मतों के साथ भारतेंदु का सम्बन्ध कैसा था, इसका पता उनके छोटे-छोटे यात्रा संस्मरणों से भी चलता है। ‘सरयू पार की यात्रा’[26] में मेंहदावल का हाल बयान करते हुए ‘प्राणनाथ’ के मज़हब का भारतेंदु आश्चर्य के साथ उल्लेख करते हैं। भारतेंदु के ही शब्दों में: “यहाँ एक प्राणनाथ का मज़हब है और दस बीस लोग उसके मानने वाले हैं। ये लोग एकादशी तीर्थ वगैरह को नहीं मानते और सुने सुनाये दो तीन श्लोक जो याद कर लिए हैं बस उसी पर चूर हों। ‘मदीनास्या शारदां शतं’ और ‘गोविन्द’ ‘गोकुलानंद मक्केश्वर’ यह श्लोक पढ़ के कहते हैं कि वेद में मक्का मदीने का वर्णन है। ऐसे ही बहुत वाहियात बात करते हैं और कोई कितना भी कहे कुछ सुनते नहीं। कहते हैं कि गोलोक का नाश है और गोलोक ऊपर एक ‘अखंड मण्डलाकार’ लोक है, उसमें मेरे कृष्ण हैं। इनका मज़हब एक प्राणनाथ नामक एक क्षत्री ने पन्ना में करीब तीन सौ बरस हुए चलाया था।” भारतेंदु इस अजीबो गरीब ‘मज़हब’ का कृष्ण से क्या संबंध है, यह सोचकर ताज्जुब में थे। इस ‘मज़हब’ के ग्रन्थ में भारतेंदु ने एक श्लोक बल्लभाचार्य का देखा तो उनका माथा और घूम गया। “कल मज़हब का हाल हमने नीचे लिखा था। उसका अच्छी तरह से हाल दरयाफ्त किया तो मालूम हुआ कि हमारे ही मज़हब की शाखा है। इनके ग्रंथों में हमने एक श्लोक श्री महाप्रभुजी की सुबोधिनी की कारिका का देखा, इसी से हमको संदेह हुआ। फिर हमने बहुत खोद खाद कर पूछा तो वह साफ़ मालूम हुआ कि इसी मत से यह मत निकला है क्योंकि एक बात वह और बोले कि हमारा मत श्री बल्लभाचारज की टीका में लिखा है। इन लोगों के उपास्य श्रीकृष्ण हैं और एकादशी, शालग्राम, मूर्तिपूजा, तीर्थ किसी को नहीं मानते। इनके पहिले आचार्य देवचंद जी थे, जो जाति के कायथ थे और दूसरे प्राणनाथ जी जो कच्छ के क्षत्री (भाटिया) थे हमारे ही मत की शाखा सही पर विचित्र मत है। वैष्णव होकर मूर्तिपूजा का खंडन करने वाले यही लोग सुने।” वर्णन से स्पष्ट है कि संत और निर्गुण पंथों के साथ वैष्णव विचारधारा के आदान-प्रदान का संश्लिष्ट इतिहास भारतेंदु के लिए ताज्जुब की चीज थी। पर इन सबके बीच आखिर उन्होंने इसके वैष्णव मूल का पता लगा लिया और वैष्णवता की इस धार्मिक विचारधारा में उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोधी होना भी शामिल मान लिया। भारतेंदु ने मूर्तिपूजा के समर्थन में बड़े बड़े लेख लिखे थे। इसलिए असंभव नहीं कि कृष्ण के प्रति प्रेममूलक भक्ति के लिए मूर्ति की जरूरत पर उन्होंने कुछ पूछा जरूर होगा लेकिन ‘कोई कितना भी कुछ कहे सुनते ही नहीं”। आगे चलकर ‘वैष्णवता और भारतवर्ष’ में वह बड़े विश्वास के साथ घोषित करते हैं कि “पहले तो कबीर, दादू, सिक्ख, बाउल आदि जितने पंथ हैं सब वैष्णवों की शाखा प्रशाखाएं हैं और भारतवर्ष इन पंथों से छाया हुआ है।”[27] तब वह वैष्णवता और लोकमतों और मध्यकालीन पंथों के भीतर पहले से सक्रिय एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का सामान्यीकरण कर उसका नाम ‘वैष्णव’ रख रहे थे। अकारण नहीं कि उसी लेख में वैष्णव व्यापकता को बताने के लिए प्रचलित ‘नामों’ का साक्ष्य पेश किया गया है। व्यक्तियों से लेकर व्रत और उपवासों तक। यह प्रभुत्वशाली सामान्य बोध की विचारधारा थी। द्विवेदी जी मध्यकालीन वैष्णवता को लोकधर्म कहते थे। भारतेंदु उन्नीसवीं सदी के लोकधर्मों को वैष्णव कहते हैं।
            कंजरवेटिव दलों की तरफ से केशवचंद्र सेन पर लगाये गए आरोप थे; १. वेद पुराण सबको मिटा डाला; २. क्रिस्तान मुस्लमान सबको हिन्दू बनाया; ३. खाने पीने का विचार कुछ न बाकी रखा; ४. मद्य की तो नदी बहा दी। आर्य समाजियों के ऊपर मुख्यतः आरोप ‘आर्यावर्त को धर्म बहिर्मुख’ करने का है। धर्म बहिर्मुख अर्थात् सनातन धर्म से विमुख। उन्होंने केवल धर्म के भीतर विप्लव किया परन्तु ब्रह्मो समाज ने तो ‘भारतवर्ष का सत्यानाश’ कर डाला। इन्होनें तो पुराणों के अलावा वेदों को भी मिटा डाला, ‘आर्यावर्त’ की जातीय पवित्रता नष्ट करके क्रिस्तान, मुसलमान जैसे ‘विदेशी तत्वों’ को घर में घुसा लिया। कट्टरपंथी कर्मकांडियों के लिए इनके साथ रणनीतिक तौर पर भी मोर्चा बनाने वाला कोई एकलिंग जी तैयार नहीं था। सनातनियों द्वारा किया गया यह बारीक भेद खुद लिबरल दलभक्तों के भीतर का भी अंतर्विरोध था।
            लिबरलों की सभा में भी दो दल हो गए थे। एक स्वामीजी के समर्थकों का दल था और एक केशव के समर्थकों का हिन्दू लिबरलों की आतंरिक एकता द्विविभाजित थी। दयानंद के समर्थकों के अनुसार स्वामी जी ने हिन्दुओं की आत्मा को जगाया था उन्हें स्फूर्त बनाया वरना तो आर्यावर्त के आलसी और मूर्ख मोहनिद्रा में ही निमग्न थे इस तरह मूर्ख और आलसी सामान्यजनों को ‘ब्राह्मणों के फंदे से छुड़ाया’। ब्राह्मणों की तुलना भारतेंदु ने ‘पादरियों’ से की है जो ‘व्यर्थ प्रजा का द्रव्य खाने वाले हैं’। आर्य समाज ने संस्थाकृत पुरोहितवाद पर हमला किया था जो भारतेंदु के लिए मूलतः जनता के पैसों पर पलने वाला परजीवी वर्ग लगता था। और तो और आधुनिक विज्ञान के आगे जो ‘आर्यों’ की नाक कटी जा रही थी उसे भी स्वामी जी ने बचा लिया। उन्होंने वेदों में भी रेल, तार, कमेटी, कचहरी आदि दिखाकर हिन्दुओं में आत्मसम्मान पैदा किया। दूसरी ओर केशव के समर्थकों का कहना था कि “धन्य केशव! तुम साक्षात दूसरे केशव हो। तुमने बंग देश की मनुष्य नदी के उस वेग को जो कृश्चन समुद्र में मिल जाने को उच्छलित हो रहा था, ज्ञान कर्म का निरादर करके परमेश्वर का निर्मल भक्ति मार्ग प्रचलित किया।” ‘ज्ञान कर्म का निरादर’ करके भी ‘निर्मल भक्ति मार्ग’ का जो प्रवर्तन केशव ने किया उससे ही ईसाई ‘अन्यता’ का सार्थक प्रतिरोध संभव हुआ। ‘मनुष्य नदी का आवेग’ भावावेग है। इसी बात को दूसरे शब्दों में कहें तो भाव जगत के स्वाभाविक वेग को भगवत् भक्ति की शुद्ध ‘अन्यता’ की ओर मोड़कर उसे विदेशी ईसाई ‘अन्यता’ के मार्ग पर जाने से रोक दिया। इस कार्य के लिए वेद पुराण सम्मत ‘ज्ञान-कर्म’ के मार्गों का निरादर अगर करना पड़ा तो भी वह उचित ही था। वैष्णव भक्ति के मध्यकालीन स्वरूप की जो व्याख्या आगे चलकर की गयी उसके आरंभिक चिह्न हम यहाँ देख सकते हैं। कहना न होगा कि भारतेंदु का अपना अनुभव भी यहाँ बोल रहा है।
            शास्त्रीय कंजरवेटिव पार्टी में देवताओं के अलावा यज्ञवल्क्य जैसे औपनिषदिक् ऋषि के साथ-साथ नारायण भट्ट, रघुनंद भट्टाचार्य, मंडन मिश्र जैसे निबंधकारों और टीकाकारों का जमघट भी था। इसके साथ साथ इस्लामी स्वर्ग से आये हुए कट्टरपंथी शिया लोगों का भी समर्थन उन्हें प्राप्त था। इस प्रकार कट्टरपंथ का देवताओं (जमींदारों), ब्राह्मणों (पादरियों), ज्ञानमार्गी औपनिषदिक् ऋषि, मध्ययुगीन निबंधकारों और विदेशी शिया लोगों का एक वैश्विक मोर्चा बन रहा था। दूसरी ओर लिबरल दल में चैतन्य प्रभृति आचार्य, दादू, नानक, कबीर प्रभृति भक्त और ज्ञानी लोग भी शामिल थे। इसके अलावा कंजरवेटिव दल के विद्रोहियों को भी लिबरलों ने अपने यहाँ जगह दी। ये विद्रोही थे अद्वैतवादी (या नववेदांती) भाष्यकार पंचदशीकार और कोई मिस्टर ब्रैडला। इन दोनों लोगों पर शुरू में कंजरवेटिव दल वालों ने बहुत हमले किये परन्तु अंत में इन्हें लिबरलों ने अपने यहाँ जगह दे दी। ध्यान रखना चाहिए कि भारतेंदु अपने संप्रदाय के अनुरूप अद्वैत वेदांत या मायावाद के घोर आलोचक थे। सन् १८७३ में हरिश्चंद्र मैगजीन के पहले ही अंक में भारतेंदु ने शांडिल्य भक्ति सूत्रों का अनुवाद ‘भक्ति सूत्र वैजयंती’ नाम से प्रकाशित किया। भूमिका में भारतेंदु लिखते हैं: “ देखो, आज वसंत पंचमी है, इससे बहुत से लोग आम के मौर वा फूलों के गुच्छे लेकर तुमसे मिलने आवेंगे तो मैं भी यह एक फूलों की वैजयंती माला बना कर लाया हूँ, अंगीकार करो; वैजयंती माला बनाने का यह हेतु है कि वनमाला होगी तो होली के खेल में अरुझैगी और इसके सिवाय इस वैजयंती से निश्चय करके ज्ञानादिक को जय करना है ; पर प्यारे! बहुत संभल कर यह माला पहरना , टूट न जाए , क्योंकि सूत कच्चा है और कलियाँ ताज़ी और कोमल हैं, इस से कुम्हलाने का भी भय है; जो हो इस वसंत पंचमी को त्योहारी मुझे यही दो कि इस सत्यानाशी ‘अहम्’ ब्रह्मवाद ‘ को पूर्णरूप से नाश करके और भी सब बातों में इस नव-वसंत में भारतवर्ष की सब आपत्तियों का बस अंत करो और अपने भक्तों के चित्त में नव पल्लव फिर से लहलहे करो, जो सदा एक रस रहैं।”[28] ‘एकरस’ भक्ति के लिए जरूरी है कि ज्ञानवाद अहम् ब्रह्मवाद को जड़ से उखाड़ फेंका जाये। कृष्ण को अर्पित अपनी वैजयंती माला से भारतेंदु ज्ञानादिक को जय करना चाहते हैं। एक ओर यह पुष्टिमार्गी परंपरा के ‘वीर वैष्णव’ भारतेंदु का प्रेम निवेदन है, दूसरी ओर ‘नव-वसंत’ में भारतवर्ष की सब आपत्तियों को नाश करने की सामर्थ्य रूपी ‘उपहारी’ का संकल्प भी है। ‘भारतेंदु भारतवर्ष की सब आपत्तियों’ को दूर करने की राह में एक बड़ी बाधा अद्वैत के ज्ञानवाद को मानते हैं। भक्ति का ‘एकरस’ पहले भी इसके प्रभाव से मुरझाता रहा है। भारतेंदु का संकल्प संप्रदाय के पुराने विरोधों के बावजूद बने रहने वाले इस अद्वैतवाद का पूर्ण सफाया करने का है। जबतक यह न मिटेगा प्रेममूला भक्ति के ‘कुम्हलाने का भय’ बना रहेगा। भक्ति सूत्रों में उपासना कांड को परम सिद्धि का हेतु बताया गया था। पर भारतेंदु देख रहे थे कि उपासना कांड का प्रचार विरल हो गया है। इसी प्रचार के निमित्त उन्होंने इन सूत्रों का भाषा में अर्थ प्रचार किया था। १८७३ में ही हरिश्चंद्र मैगजीन का एक सम्पादकीय निकला, जिसका शीर्षक था- ‘भक्ति ज्ञानादिक से क्यों बड़ी है’। इस लेख में भी उपासना मार्ग की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। तर्क और ज्ञान को कर्म की शुद्धि और उपासन की परम सिद्धि के रास्ते में केवल एक चरण बताया गया है। वसुधा डालमिया ने भारतेंदु के आरंभिक सांप्रदायिक प्रचार प्रसार के कार्यों में निर्गुनियों को बाहर रखने का उपक्रम नोट किया था।[29] यहाँ निर्गुनिए कबीर आदि ‘भक्त और ज्ञानी’ लिबरलों के समर्थक दिखाए गए हैं। वैष्णव भक्ति के राष्ट्रीय चरित्र में ये बाहर नहीं थे। उनकी एकता का आधार उनके ‘लिबरल मूल’ में है। सार्वजनिक उच्च भाव का संपादन और भक्ति इन दोनों के साथ अद्वैत वेदांती या ज्ञानादिक- सनातनी परंपरा के विद्रोहियों की जगह भी लिबरल दल पंथियों में थी।
            लिबरल वाले ही झगड़े के निपटारे की अर्जी परमेश्वर को देने गए थे। पर परमेश्वर अपनी प्रतीकात्मक हो गयी स्थिति से खुजलाये हुए थे। यह सर्वोच्च अदालत थी पर साथ ही साथ शक्तिहीन राष्ट्राध्यक्ष की कल्पना भी। जिस हिन्दू स्वर्ग के ये राष्ट्राध्यक्ष हैं वहां किसी किस्म की सेल्फ गवर्नमेंट चुनने की प्रणाली आ जाने से ईश्वर की एकाधिकारी शक्तियां छिन गयी हैं। लोग जनमत निर्माण के द्वारा सही और गलत की पहचान करने लगे थे। इसलिए थोड़ा खुजलाये तो रहते ही होंगे। ‘अब कौन हमको पूछता है...। तुम जानो स्वर्ग जाने।’ परन्तु संकट गहरा था। यद्यपि लिबरल लोगों की सभा भी धूमधाम से जम रही थी पर कंजरवेटिव दल पंथियों की सरकार में पैठ थी। देवता सब भी उनके साथ थे इसलिए परमेश्वर के पास जरूरी न्याय का प्रश्न उठाया गया था। न्याय कि इन दो महापुरुषों को स्वर्ग में जगह मिलनी चाहिए या नहीं? समाज में इनके नैतिक उच्च आदर्शों के अवमूल्यन का प्रचार कंजरवेटिव कर रहे हैं। इस प्रचार के कारण जनता अपनी नज़रों से पहचानने में सक्षम नहीं है। ऐसी स्थिति स्वर्ग में पहले नहीं आई थी। नई स्थितियों के नए मानदंड क्या होंगे। ज़ाहिर है न्याय और नैतिकता को एक वैश्विक स्वीकृति चाहिए इसलिए परमेश्वर ने इस विषय पर विचार के लिए जो कमिटी चुनी वह गौर करने लायक है। इस ‘सिलेक्ट कमिटी’ में “राजा राममोहन राय, व्यास देव, टोडरमल, कबीर प्रभृति भिन्न-भिन्न मत के लोग चुने गए। मुसलमानी- स्वर्ग से के ‘इमाम’, क्रिस्तानी से लूथर, जैनी से पारसनाथ, बौद्धों से नागार्जुन और अफ्रीका से सिटोवायों के बाप को” चुना गया। हिन्दू स्वर्ग से नवजागरण के अग्रदूत व्यासदेव जैसे बौद्धिक/लेखक, टोडरमल जैसे राजनीतिज्ञ और धर्म-मर्मज्ञ, कबीर जैसे ज्ञानी-भक्त। प्राचीनों में केवल व्यास देव हैं, बाकी दो ‘मध्यकाल’ के और एक ‘आधुनिक’ काल के व्यक्ति हैं। उधर यूरोपीय नवजागरण/धर्मसुधार के प्रणेता लूथर को भी बुलाया गया है। और बौद्धों की तरफ से परम निषेधवादी नागार्जुन भी हैं। पर ये अफ्रीका के सिटोवायों! धर्मों की अस्मिता के साथ-साथ यह अफ़्रीकी स्वर्ग! निश्चित रूप से अफ्रीका की छवि प्राचीन आदिवासी संस्कृति वाले एक ‘काले’ महादेश के रूप में गढ़ी गयी थी। यह अफ़्रीकी स्वर्ग संभवतः आदिवासी धार्मिक मान्यताओं की ओर इशारा करता है। यह भी ध्यान देने लायक है कि राजा राममोहन राय, लूथर और कबीर इन तीनों के साथ ‘नवजागरण’ की कोई न कोई परिकल्पना ठेठ समकालीन विमर्शों के केंद्र में भी है। कई अर्थों में अकबर द्वारा आयोजित होने वाली ‘सुलह-ए-कुल’ जैसी धर्म सभाओं की एक मोहक कल्पना भी भारतेंदु को रही होगी। टोडरमल की उपस्थिति अकारण नहीं है।
            अकबर को लेकर भारतेंदु की इतिहासदृष्टि कैसी थी, इसकी एक झलक हमें १८८४ में छपी उनकी  ‘बादशाह दर्पण’ की भूमिका में दिखती है। इस ग्रन्थ में उन लोगों का चरित्र-चित्रण किया गया था “जिन्होंने हमलोगों को गुलाम बनाना आरम्भ किया। इसमें उन मस्त हाथियों के छोटे-छोटे चित्र हैं जिन्होंने भारत के लहलहाते हुए कमलवन को उजाड़कर-पैर से कुचलकर छिन्न-भिन्न कर दिया। मुहम्मद, महमूद, अलाउद्दीन, अकबर और औरंगजेब आदि इनमें मुख्य हैं। प्यारे भोले हिन्दू भाइयों! अकबर का नाम सुनकर आपलोग चौंकिए मत। यह ऐसा बद्धिमान शत्रु था कि उसके बुद्धिबल से आजतक आपलोग उसको मित्र समझते हैं। किन्तु वह ऐसा ही नहीं। उसकी नीति अंग्रेजों की भांति गूढ़ थी। मूर्ख औरंगजेब उसको समझा नहीं, नहीं तो आज दिन हिंदुस्तान मुस्लमान होता। हिन्दू-मुस्लमान में खाना-पीना, ब्याह-शादी कभी चल गयी होती। अंग्रेजों को जो बात नहीं सूझी वह इसको सूझी थी।”[30] निश्चित रूप ‘बुद्धिमान’ दुश्मन से सीखने को बहुत कुछ मिलता है। अकबर की दीन-ए-इलाही के प्रयोग से भारतेंदु भी बहुत कुछ सीख रहे थे। मध्यकालीन इतिहास के बारे में मुस्लिम शत्रु की छवि का निर्माण प्राच्यविद्याविदों के द्वारा किया जा रहा था। इलियट आदि इतिहासकारों ने जो दृष्टि विकसित की उसका प्रभाव बहुत गहरा था। पर इस इतिहासलेखन के साथ साथ भारतेंदु के कुछ देशी स्रोत भी थे। अलग-अलग महापुरुषों की चरितावली लिखने की प्रेरणा भारतेंदु ने जितना अपनी वैष्णव भक्ति की परंपरा से पाया था उतना ही इस्लामी इतिहास लेखन की परंपरा से भी। ‘बादशाहदर्पण’ की भूमिका में भारतेंदु लिखते हैं: “मेरे प्रमातामह राय गिरधरलाल साहब, जो यवनी विद्या के बड़े भारी पंडित और काशीस्थ दिल्ली के शाहजादों के मुख्य दीवान थे, उनकी इच्छा से दिल्ली के प्रसिद्ध विद्वान सैय्यद अहमद ने एक ऐसा चक्र बनाया था जिसमें तैमूर से लेकर शाह आलाम तक सब बादशाहों के नाम आदि लिखे थे। उस फारसी ग्रन्थ से बहुत सी बाते इसमें ली गयी हैं। इस कारण तैमूर पूर्व के बादशाहों का वर्णन इतना पूरा नहीं है जितना तैमूर के पीछे है। फिर मेरे मातामह राय खिरोधरलाल ने बहादुर शाह के काल के आरम्भ तक शेष वृत्त संग्रह किया।”[31]
अरुणदेव जी अपने एक लेख में भारतेंदु के आरंभिक अकबर प्रेम का ज़िक्र किया है। १८७२-७४ के आसपास भारतेंदु अकबर को महान् शासक मानते थे, जबकि औरंगजेब को हिन्दुओं का दुश्मन नंबर एक। भारतेंदु ने औरंगजेब की तुलना में अकबर की महानता को प्रमाणित करने के लिए रामदास कछवाहे के एक श्लोक को अपना आधार बनाया है। इस श्लोक का भावार्थ भारतेंदु के शब्दों में इस प्रकार है: “जो समुद्र से मेरु तक पृथ्वी को पालता है, जो मृत्यु से गउओं की रक्षा करता है, जिसने तीर्थ और व्यापार से कर छुड़ा दिए, जिसने पुराण सुने, जो सूर्य का नाम जपता, जो योग धारण करता है और गंगाजल छोड़कर पानी नहीं पीता उस जलालुद्दीन की जय..; अंग वंग कलिंग सिलहट तिपुरा कामत (कामटी?) कामरूप अंध कर्णाटक लाट द्रविड़ महाराष्ट्र द्वारका चोल पांड्या भोट मारवाड़ उड़ीसा मल्ल खुरासान कंदहार जम्बू काशी ढाका बलख बदखशाँ और काबुल को जो शासन करता है। कलियुग की महिमा से घटते हुए वेद गउ द्विज और धर्म की रक्षा को सगुन शरीर जिसने धारण किया है उस अप्रमेय पुरुष अकबर शाह को हम नमस्कार करते हैं।”[32] यही अकबर १८८४ में औरंगजेब से ज्यादा शातिर और बुद्धिमान शत्रु में बदल गया। ‘कालचक्र’ के निहितार्थों में यह फेरबदल भारतेंदु पर मुस्लिम विदेशीपन और हिन्दू शत्रुता के सम्पूर्ण ब्लॉक बनाने की रणनीति के दबाव के कारण था और ‘पुरावृति’ की मिथकीयता में भी। हिन्दुओं को ‘महामोहनास्त्र’ के सहारे पहले भी वश में किया गया था। यह एक बारीक चाल थी। अकबर की इस चाल को अंग्रेज भी नहीं समझ पा रहे थे। भारतेंदु की यह प्रतिक्रिया औपनिवेशिक इतिहासलेखन के दबाव में थी। १८७३ में जब भारतेंदु ने शिवप्रसाद की किताब ‘इतिहासतिमिरनाशक’ के तीसरे खंड की आलोचना की थी तो उनके सामने मुस्लिम शासन की बर्बरता और अंग्रेजी राज के सुशासन का शिवप्रसाद द्वारा कल्पित आख्यान था। १८८४ में सम्पूर्ण मुस्लिम काल अन्धकार युग में बदल गया। तिमिरनाशक के पहले खंड में बाबू शिवप्रसाद ने भी अकबर की मजहबी उदारता और सामाजिक सुधारों की बड़ाई की थी। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि ऐतिहासिक लेखन  में पक्ष और विपक्ष की पुनरावृत्ति एक बंद घेरे में उलझी हुई थी। इनके सामने मुस्लिम विरोध और अंग्रेजी शासन के विरोध का एक विसंगत फ्रेम था और लेखक उसमें अपनी फौरी जरूरतों के हिसाब से मित्र और दुश्मन वाला इतिहास लिखता था। इतिहास ठेठ राजनीतिक तत्काल के वशीभूत था।
जो भी हो धार्मिक उदारता और सुलह-ए-कुल का प्रयोग एक शिक्षाप्रद प्रयोग था। यह विभिन्न मतों या विश्वासों के बीच ‘जनमत’ बनाने का एक मध्यकालीन प्रयोग था। भारतेंदु ‘जनमत’ के प्रयोग को इस तरह देखते थे, मानो यह ‘चाल’ अगर कामयाब हो जाती तो ‘आज के दिन हिंदुस्तान मुसलमान होता’। भारतेंदु के सामने समस्या वही थी, बस वह केवल यह चाहते थे कि हिन्दुस्तान ‘हिन्दू’ हो जाये। हिन्दू अर्थात् वैष्णव हो जाये। वैष्णवता भारतेंदु के लिए हिंदुस्तान का नया ‘सुलह-ए-कुल’ था। इसलिए कुछ सार्वजनीन मूल्यों की तलाश उन्हें भी थी। सिलेक्ट कमिटी के उपरोक्त मेम्बर ‘एक्सअफीशियों’ मेम्बर थे। रोम के पुराने हरिकुलस जैसे देवता जिन्होंने धरती से संबंध तोड़ दिया है, वे लोग तथा उन्हीं के जैसे पारसियों के ‘जरदुश्तजी’ को कोर्रेस्पोंडिंग ऑनरेरी मेम्बर बनाया गया। ये धर्म के रूप में मृतप्राय मतों के प्रतिनिधि थे। कमिटी ने जो रिपोर्ट तैयार की उसका मर्म भारतेंदु ने दिया है। यह मर्म उनके रेडिकल वैष्णव पक्ष का मत था। लिबरल दल और कंजरवेटिव दल के अपने पक्षों से इतर यह नरनायक तीसरा पक्ष वैष्णवों की तरफ से सुनाया गया था। रेडिकल वैष्णवों की तरफ से भारतेंदु इस धार्मिक आन्दोलन के भीतर अपना ही पक्ष रखते हुए इसका मर्म लिख रहे थे। “हमलोगों की सम्मति में इन दोनों पुरुषों ने प्रभु की मंगलमयी सृष्टि का कुछ विघ्न नहीं किया वरंच उसमें सुख और संतति अधिक हो इसी में परिश्रम किया।” हिन्दू समाज सुधार के प्रयासों का मर्म बताते हुए सबसे पहले ध्यान स्त्री सुधारों पर दिया गया है। सामाजिक कुरीतियों की शिकार महिलाओं के प्रति जो दृष्टि उभरकर सामने आती है उसके मूल में धर्म की रीति से यौन मर्यादाओं की अव्यवस्था को फिर से मर्यादित करने की चेष्टा है। स्त्रियों के कुमार्ग पर जाने का पहला कारण है मनमाना पुरुष धर्मपूर्वक न पाना। यह विवाह संस्था की विकृतियों की आलोचना थी, जहाँ बाल विवाह, विधवा विवाह आदि की तरफ इशारा है। ध्यान रखना चाहिए कि यहाँ बेमेल विवाह के बदले स्त्रियों द्वारा ‘मनमाना वर’ न चुन पाने का उल्लेख है। गर्भनाश और बाल हत्या के खिलाफ सुधार प्रयास दूसरा महत्वपूर्ण योगदान है। विवाह संस्था बीच में भी भंग की जा सकती है इसकी स्वीकृति है। कन्या के हित में अंतरजातीय विवाह की स्वीकृति है। एक महत्वपूर्ण बात गुरुओं और पंडितों के व्याभिचार के संबंध में है।
भारतेंदु के सामने पुष्टिमार्गी महंतों और गुरुओं के व्याभिचार का अनुभव भी इसमें शामिल है। १८७४ में कविवचन सुधा में भारतेंदु की एक टिपण्णी छपी थी। ‘गुरु को कैसा होना चाहिए’ इसके अलावा दो वर्ष पहले ‘गुरु और महंत’ नाम से भी एक टिपण्णी लिखकर वैष्णव पंडों-पुरोहितों की खुलकर आलोचना की गयी थी। तलवार जी ने लिखा है कि मंदिरों के भीतर स्त्रियों का यौन शोषण और व्याभिचार इतना भीषण था कि दयानंद भारतेंदु के पुष्टि संप्रदाय को ‘कुष्ठी संप्रदाय’ कहते थे। १८६० के आरम्भ में ही वैष्णव गोसाइयों के अनाचार और यौन शोषण के खिलाफ बम्बई में एक बड़ा आन्दोलन पुष्टिमार्गी करसनदास मूल जी के नेतृत्व में हो चुका था। वैष्णव बनिया पृष्ठभूमि से आये करसनदास जी उन नौजवानों में थे जिन्होंने एलिफेंस्टन कॉलेज से आधुनिक शिक्षा प्राप्त की थी। गोसाइयों और महाराजों द्वारा अपने ‘सम्प्रदाय की बहु बेटियों’ के साथ होने वाले अत्याचार के खिलाफ उन्होंने लेख लिखे और सम्प्रदाय के इतिहास को नए सिरे से सामने रखा। पुणे से आए जदुनाथ वृजरत्न जी महाराज ने करसनदास जी पर मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। इसी मुक़दमे से वैष्णव महंतों की कई सारी बातें जनता के सामने प्रत्यक्ष हुईं। तलवार जी ने इस ‘महाराज लाइबेल केस’ को भारतीय नवजागरण में वैष्णव गोसाइयों के दुराचार और यौन शोषण के खिलाफ हुआ सबसे बड़ा आन्दोलन कहा है। भारतेंदु पर इसका बहुत प्रभाव था। यह केस १८६० में हुआ था। एक दशक बाद जब भारतेंदु संप्रदाय के कार्यों में रत थे उसी समय लिख रहे थे  “मंदिर क्या होते हैं मानो स्त्रियों की खान हैं, जैसी चाहिए लीजिये- वरंच अच्छी स्त्री भी वहां जाकर बिगड़ जाती है। आश्चर्य यह है कि जिनको वे लोग बेटी कहते हैं और जो उनके परलोक के मध्यस्थ हैं और जिनको वो दीक्षा देते हैं उन स्त्रियों की ओर वे आप ही बुरी दृष्टि से देखते हैं...। ओर मेरे प्यारे हिन्दुओं! तुम इनके जाल में कब तक फंसे रहोगे! और क्या तुमको यही संसार से बचावेंगे और इन्हीं के भरोसे तुमको भगवान् मिलेगा।”[33]
मंदिरों के धन-ऐश्वर्य और व्याभिचार में डूबे जीवन के जीवंत चित्र हमें बनारस के रेखाचित्र ‘प्रेम जोगिनी’ के अलावा ‘काशी के छायाचित्र के दो बुरे-भले फोटोग्राफ’ में भी मिलते हैं। यहाँ भारतेंदु का व्यंग्य अपने वैष्णव संप्रदाय की आत्मालोचना से सक्रिय है। ‘प्रेम योगिनी’  नाटक में आने वाला चरित्र रामचंद्र खुद भारतेंदु ही थे। नाटक का सूत्रधार कहता है कि भारतवर्ष की दीन हीन गति के कारण उसका तो विश्वास ही ईश्वर से उठने लगा है। नाटक के पहले ही दृश्य में भारतेंदु हमें मंदिर के भीतर लिए चलते हैं, जहाँ मंदिर में काम करने वाला साधारण टहलुआ झपटिया हमें दिखाई देता है। पुजारी बाबू अभी तक नींद से नहीं जागे हैं क्योंकि आधी रात तक ‘बैठ के ही-ही-ठी-ठी करा चाहैं, फिर सबेरे नींद कैसे खुले’। निश्चित रूप से यह टहलुआ सुबह सवेरे ही मंदिर में हाज़िर है, लेकिन देवता अभी मंदिर में सोये हैं। रामचंद्र परदेशी हैं, काशी में बाहर से आये हैं। छक्कू जी और माखनदास इस रामचंद्र की आलोचना करते हैं। इनके संवादों से पता चलता है कि बाबू रामचंद्र के यहाँ दिन रात नाच गाना हुआ करता है और उनको अपनी विद्या का घमंड है। दो चार कवित्त भी बना लेते हैं पर ‘कवित्त बनावै से का होवै और कवित्त बनावन कुछ अपन लोगन का काम थोरै हय, ई भांटन का काम हय’। छक्कू जी कहते हैं कि अपने मार्ग का उन्हें कुछ ज्ञान तो है नहीं बस दो चार बातें इधर उधर से सुनकर, कुछ ‘क्रिस्तानी मत’ सीखकर पंडित बने फिरते हैं। निश्चित रूप से ये भारतेंदु पर लगने वाले आरोप थे। मंदिर में स्वामी धनदास, वनितादा, बुभुक्षित पंडित आदि धर्म के ठेकेदार हैं। इनकी पतनशील संस्कृति को देखकर रामचंद्र का दुःख इन शब्दों में व्यक्त होता है: ‘हा! क्या इस नगर की यही दशा रहेगी? जहाँ के लोग ऐसे मूर्ख हैं वहां आगे किस बात की वृद्धि की संभावना करें?’ ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ जैसे शुरूआती नाटकों में भी कर्मकांडी पुरोहितवाद की आलोचना की गयी है। राजा और पुरोहित मिलकर वहाँ जनता का शोषण करते हैं। जुआ, मदिरा और मैथुन की ऐय्याश संस्कृति के प्रतीक पुरोहितों का कंजरवेटिव दल इन प्रहसनों में मूर्त होता है। चित्रगुप्त यम से कहते हैं “महाराज, ये गुरु लोग, इनके चरित्र का कुछ न पूछिए केवल दम्भार्थ इनका तिलक मुद्रा और ठगने के अर्थ इनकी पूजा, कभी भक्ति से मूर्ति को दंडवत न किया होगा पर मंदिर में जो स्त्रियाँ आयीं उनको सर्वदा तकते रहे; महाराज इन्होंने अनेकों को कृतार्थ किया है और इस समय तो मैं ‘श्रीरामचन्द्र जी का, श्रीकृष्ण का दास हूँ’ पर जब स्त्री सामने आवे तो उससे कहेंगे ‘मैं राम तुम जानकी, मैं कृष्ण तुम गोपी’ और स्त्रियाँ भी ऐसी मूर्ख कि फिर इन लोगों के पास जाती हैं।”[34]
‘सिलेक्ट कमिटी’ की रिपोर्ट में स्त्री सुधारों के कार्यों की महत्ता बताने के बाद जाति व्यवस्था पर इन सुधारकों का प्रहार क्यों जरूरी था, इसे बताया गया है। कठोर जाति बन्धनों के चलते कैसे हर साल जाति-बाह्य होकर, जाति में वापस आने के किसी उपाय को न जान ‘हजारों मनुष्य आर्य पंक्ति से हर साल छूटते थे उसको इन्होंने रोका’। इस प्रकार इन सुधारकों ने ‘आर्यधर्म’ के भीतर जो परिवर्तन करने चाहे उससे आर्यों की एकता फिर से बहाल हो गयी। इसके अलावा अंधविश्वासों को इन्होंने दूर किया। यही नहीं बल्कि जहाँ लोग ‘मुसलमानी पीर पैगम्बर औलिया वीर ताजिया गाजी मियां, जिन्होंने बड़ी मूर्ति तोड़कर और तीर्थ पाटकर आर्य धर्म विध्वंस किया’ उनको भी पूजने लगे थे और ‘विश्वास तो मानो छिनाल का अंग हो रहा था’ ऐसी लज्जाजनक स्थिति से लोगों को बाहर निकालकर ‘सारे आर्यावर्त को शुद्ध ‘लायल’ कर दिया’। ‘लायल’ कर दिया गया, इसका अर्थ आर्य जाति को फिर से लायल करने में था। आर्य जाति के भीतर बिगाड़ के चलते ही निम्न जातियों का बड़े पैमाने पर पलायन था। इसे इन लोगों ने रोका और इनके प्रताप से ही अनेक छोटे और स्थानीय धर्म-मतों के भीतर जो ‘मुसलमानी’ प्रभाव घुस आये थे उनको फिर से ‘बड़ी मूर्ति’ की निष्ठा में लाया जा सका। इस प्रकार हिन्दू धर्म और वर्णाश्रम के प्रति फिर से लोगों को ‘लायल’ किया। यह ‘लायलिटी’ भारतेंदु की रैडिकल वैष्णवता के जनमत के लिए भी जरूरी था। तलवार जी जब आर्यसमाजियों की ‘क्रांतिकारी’ भूमिका दिखाते हैं तब आर्य समाज द्वारा आर्यावर्त को लायल बनाने वाली इस भूमिका की संश्लिष्टता पर ज्यादा बात नहीं करते। भारतेंदु दयानंद के क्रांतिकारी प्रयासों में ‘लायल’ बनाने की प्रक्रिया, उसी वक़्त देख रहे थे और इसी कारण रिपोर्ट में दयानंद की आलोचना ध्यान देने लायक है। स्वामी जी ने “जाल को छुरी से न काटकर दूसरे जाल ही से जिसको काटना चाहा इसी से दोनों आपस में उलझ गए और इसका परिणाम गृह विच्छेद उत्पन्न हुआ।” गृह विच्छेद का मतलब हिन्दू धर्म में गृह विच्छेद। जबकि केशवचंद्र सेन के बारे में कहा गया कि उन्होंने जाल काटकर भक्ति की उच्छलित लहरों का परिष्कृत पथ प्रकट किया। इस प्रकार रैडिकल वैष्णवता की ‘अन्यता’ और प्रेममूलक भक्ति के प्रशस्त पथ के स्वीकार का निष्कर्ष विचार सभा का भी निष्कर्ष था। ध्यान देने लायक है कि केशवचंद्र की आलोचना उनके चित्त विक्षेप के कारण की गयी थी जहाँ ‘ईसामसीह आदि उनसे मिलते हैं’। ये एक किस्म का इलहामी अनुभव था जिसे भारतेंदु अपनी वैष्णवता से बाहर रखते हैं। ईश्वर ने इस रिपोर्ट पर अपना मत सुरक्षित रख लिया। और भारतेंदु लिखते हैं: “इसको देख कर इस पर क्या आज्ञा हुई और वे लोग कहाँ भेजे गए यह जब कम भी वहां जायेंगे और फिर लौट कर आ सकेंगे तो पाठक लोगों को बतलावेंगे। या आप लोग कुछ दिन पीछे आप ही जानोगे।”


. जनमत और वैष्णवता
कविवचन सुधा, ९ मार्च १८७२ में भारतेंदु ने ‘Public Opinion In India’ नाम से अंग्रेजी में एक लेख प्रकाशित किया। लेख में उन्होंने कहा कि कई सदियों कि दासता के बाद भारतवर्ष/हिंदुस्तान अब जाकर ब्रिटिश राष्ट्र के सर्वोच्च नियंत्रण में आया है। देश धीरे-धीरे सभ्यता और प्रबोधन की पश्चिमी किरणों के सहारे दमन और कुशासन के मृत्य-तुल्य निद्रा से जाग रहा है। ब्रिटिश शासन की प्रगतिशील नीतियों का प्रभाव यहाँ की बहुरूपी आबादी पर पड़ रहा है।
But in this progressive state, national energy and zeal , sympathy and disintiredness, are waiting to make both the conqueror and the conquered to act in concert , and in harmony ; and hence we have the broad distinction of white and black still But in this country, many are the blemishes that adhere to us, to be eradicated and many are the shortcomings that are hovering around us, to be done away with before we can have a public opinion here in its true sense[35]
गोर और काले के बड़े भेद को छोड़ कर, विजेता अंग्रेजों और भारतीयों के बीच एक समंजन तो बन गया है, पर अन्दरुनी दिक्कतें अभी भी मुंह बाए खड़ी है। मौका है कि इस प्रगतिशील स्थिति का फायदा उठा कर हम एक सच्चे जनमत का निर्माण करें। सच्चे लोकमत के निर्माण में अंदरूनी बाधाएं क्या थीं? भारतेंदु ने इसे आगे स्पष्ट करते हुए लिखा-
Race antagonism, rivalry and mutual misunderstanding are the favourite occupations of the aristocratic class Want of confidence among all classes of men are the prevailing characteristic of the nation and above all multifarious castes and creeds with there numerous forms of religion and local habits and customs, which all combined have kept the progressive policy at a stand still True it is that a representative Government is a boon to this country and true it is that Sir Bartle frère a man of vast experience and a good statesman, has found out that in village community, we can have public opinion; but with all his experience he has lost sight of our national defects – defects which we ourselves know and which no foreigner can catch at a glance[36]
भारतेंदु इस बात को लेकर निश्चित हैं कि लोकमत और प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं के बेहतर विकास के लिए सीधे-सीधे विदेशी मॉडल कभी सफल नहीं हो पायेगा। ऐसा इसलिए क्यूंकि हमारी आपसी विभिन्नताओं और झगड़ों को कोई बाहरी/विदेशी सत्ता कभी भी पूरी तरह समझ नहीं सकती। ‘पब्लिक ओपिनियन’ नाम से भारतेंदु का एक दूसरा लेख इस अंग्रेजी वाले लेख के दो साल बाद अप्रैल सन १८७४ में हरिश्चन्द्र मैगजीन में छपा। पब्लिक ओपिनियन क्या बला है, इसे साफ़ करते हुए भारतेंदु लेख के आरम्भ में ही कहते हैं: “पब्लिक ओपिनियन अर्थात् सब साधारण लोगों की राय क्या वस्तु है और इसमें कितना जोर है और इसके लिए क्या हो सकता है यह प्रश्न ठहरा, तो इसका साधारण उत्तर यही है कि यह वह वस्तु है जो संसार को एक कर सकती है गंगा की धरा फिर हिमालय पर चढ़ा ले जा सकती है, सूर्य्य को पश्चिम उगा सकती है और चाहे तो ईश्वर को भी पकड़ के कठपुतली की भांति नचा सकती है।[37] यह पब्लिक ओपिनियन ‘एक मत’ होना है। जैसे अलग अलग चार पतली लकड़ियों को एक साथ बाँध देने से उसे तोड़ना कठिन हो जाता है, उसी तरह एक मत होने से बड़े से बड़ा बैरी भी हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। बहुत से लोगों का मत एक हो तो वह शक्ति बन जाती है। हज़ारों आदमी की बुद्धि एक हो जाए तो “ऐसा कौन काम है जो न हो सके, तो यह सिद्धांत हुआ कि निश्चय सब लोगों के मत में बड़ी सामर्थ्य है इससे यह सिद्ध हुआ कि बलों से बड़ा बल एक मत ही है”[38]
आगे भारतेंदु कहते हैं कि यह जनमत और उसकी शक्ति हिंदुस्तान के लिए कोई नई बात नहीं है। प्राचीन काल में इसके उदाहरण मिलते हैं। ‘पब्लिक ओपिनियन’ की इस धारणा को भारतेंदु ने इतिहास के अलग-अलग दौर में बनते और बिगड़ते दिखाया। सबसे पहले चार वर्णों की ज़रूरत पड़ी, सब काम को सुचारू रूप से चलने के लिए। दूसरे शब्दों में कहें तो श्रम-विभाजन की ज़रूरत से इसका जन्म हुआ। ‘हिन्दुओं ने अपने गुरु के काम में इस वर्णाश्रम धर्म्म को इसी वास्ते बनाया जिस में उन के किसी काम में कोई हर्ज न हो और उनलोगों ने संसार के सब कामों में चार काम मुख्य समझे’ धर्म, विद्या और कलाओं का काम, लड़ाई और राज्य प्रबंध का काम, व्यापार और धन और सब लोगों की सेवा और मजदूरी, इन चार कामों की सुव्यवस्था वाला वर्णाश्रम दरअसल ‘एक मत’ हिन्दू व्यवस्था या ‘पब्लिक ओपिनियन’ थी। पर कालांतर में इस ‘एकमत’ के भीतर जातिव्यवस्था कठोर हो गयी और ब्राह्मण और शूद्र दोनों एक दूसरे के खिलाफ हो गए। एकमत में विच्छेद पैदा होने से हिन्दू शक्ति कमज़ोर हो गयी। भारतेंदु के अनुसार आपस का यह झगड़ा बड़ा विनाशकारी साबित हुआ। पब्लिक ओपिनियन के बिना व्याभिचार और ज्यादतियों का अंधेर था। आगे चल कर जैनों के जमाने में फिर ‘पब्लिक ओपिनियन’ ने जोर पकड़ा। बल्कि भारतेंदु जोर देकर कहते हैं कि जैनों के मत की उत्त्पत्ति ही ‘पब्लिक ओपिनियन’ से हुई। “हिन्दुओं के जब नाश के दिन जब निकट आये तो आपुस में परस्पर बड़ा विरोध खड़ा हुआ और उस काल में ब्राह्मणों का बड़ा जोर था वरन् ये और वर्णों पर ज्यादती करते थे तो वैश्य और क्षत्रियों की मति इनसे फिर गयी और बाबू वाली बड़ी पंचायत में इन लोगों ने वेद धर्म छोड़ दिया और इसी एक के पक्के होने के वास्ते कुल की कुछ मुख्यता न रख्खी कर्म मुख्य रख्खा और वास्तु संघ श्री संघ इत्यादि बड़े बड़े संघ बनाये गए और उनका सब काम मानो उस समय पब्लिक ओपिनियन ही पर होता रहा। आगे चल कर इन संघों में भी कर्म्म की व्यवस्था में आने वाले लोग भी धर्म की आड़ और बहाने से मिलते थे...इससे अंत में इन सबों में विघ्न पड़ा और श्वेताम्बर दिगंबर बौद्ध इत्यादि जैन मत के अनेक भेद हो गए।”[39] इस प्रकार भारतेंदु के लिए पब्लिक ओपिनियन के कमज़ोर पड़ने और सांप्रदायिक हितों के कारण हिन्दुओं का एका फिर से एक बार जाता रहा। उनके अनुसार जैनों के काल के पीछे लम्बे समय तक ‘ऐसा भारी एका’ का समय नहीं आया जब ‘सारे हिन्दुस्तान के मुंह से एक आवाज़’ निकले। उन्हें इस प्रकार के एका का प्रयास पुनः शंकराचार्य के प्रयत्नों में दिखता है। शंकराचार्य के पीछे वैष्णव आचार्यों ने वही ढंग चलाना चाहा पर वह न चला। न चलने का कारण भारतेंदु के अनुसार व्यवहार में भेद का बना रहना है। यद्यपि वैष्णव मत में जाति पाति नहीं माना गया था पर ‘नागर और महाराष्ट्र वैष्णव’ अगर ‘अहीर वैष्णव’ के घर प्रसाद ले लेता तो उसी समय जाति से बाहर कर दिया जाता। भारतेंदु ने आधुनिक समय में ऐसे ही ‘एका’ का प्रयास राजा राममोहनराय के यहाँ लक्षित किया। उनका ब्राह्म मत काफी जोर-शोर से लाखों मनुष्यों को एक मत करते जा रहा है। उनकी एकता का फल यह है कि ‘ब्राह्मो मैरिज बिल..’ पास हो गया।[40]
भारतेंदु कहते हैं कि एकमत या जनमत का मतलब यह नहीं कि सब लोग एक ही मत को मानने लगें। भारतेंदु लिखते हैं: “ऊपर की बोलचाल से बहुत लोगों को यह संदेह होगा कि मेरा मत है कि हिन्दुस्तान में सब लोग एक मत के हो जाएँ तभी इनके पब्लिक ओपिनियन में जोर आवेगा , मगर मेरा यह मत नहीं है क्योंकि यह तो इश्वर की इच्छा के विरुद्ध है जो ईश्वर की इच्छा होती कि सब लोग एक मत मानैं तो संसार में इतने मत क्यों होते, मेरा कहना और मेरा मत और मेरी इच्छा तथा मेरा पूरा जोर इसी पर है कि मत और संसारी कामों से क्या सम्बन्ध मत या धर्म्म विश्वास का नाम है और वह दिल में रखने और विश्वास करने की चीज़ है उससे व्यवहार से क्या सम्बन्ध? पर शोच है कि हमारे धर्मशास्त्र वाले वैद्यक को भी धर्म्म बना गए, तो अब हमलोगों को यही उचित है कि धर्म्म और व्यवहार दोनों को एक में न सानैं तैंतीस करोड़ मनुष्य तैंतीस करोड़ देवी देवताओं को अलग अलग मनो पर जहाँ व्यौहार का काम पड़ै सब एक हो जाओ और जब अपने हित की बातैं आवैं तब एक सी आवाज़ दो”[41] अर्थात् ‘पब्लिक ओपिनियन’ व्यक्तिगत विश्वास और मत के बदले व्यवहार की चीज़ है। यह व्यवहार और हित राजनीतिक उद्देश्य की एकता की ज़रूरत से निर्धारित है। राज्य की विचारधारा और पब्लिक ओपिनियन के अंतर्संबंधों की पड़ताल में भारतेंदु राजतंत्र की वैधता या राजा की वैधता या यूँ कहें की राज्य की वैधता के लिए पब्लिक ओपिनियन की केन्द्रीय भूमिका को अतीत में ऐसी ही व्यवस्था की समरूपता से पहचानते हैं। यह पहचान हिन्दू सामान्य बोध के सहारे एक साधारण सामान्य बोध के निर्माण की प्रक्रिया के बतौर सामने आता है। आदर्श राजा की पहचान यह थी की वह प्रजा के पब्लिक ओपिनियन के अनुसार काम करे। भारतेंदु के लिए  ब्रितानी शासन के सामने इस पुराने आदर्श को सामने रखने से एक ओर तो ‘जातीयता’ के निर्माण की महती आवश्यकता पूरी होती दिख रही थी तथा ‘आपसी वैर और फूट’ को खत्म करने में, व्यवहारिक एकता के लिए भी यह बहुत आवश्यक था। दूसरी ओर सरकार के बाहरी हस्तक्षेप को निरंतर कम करते हुए ‘स्वशासन’ की प्रक्रिया तेज हो सकती थी। एकमत होने से सरकार के साथ मोलतोल करने की ताकत मिल सकती थी। अंग्रेजी वाले लेख में भारतेंदु ने जब कहा कि हमारे अपने संबंधों की जटिलता और खामियों को विदेशी आँखें नहीं पहचान सकती, तो वह प्रतिनिधिमूलक व्यवस्था के व्यावहारिक सफलता के लिए वास्तविक बाधा को सामने रख रहे थे। ग्राम्य सामुदायिकता का आदर्श और पब्लिक ओपिनियन की आदर्श राजव्यवस्था दोनों के वर्तमान रूपांतरण के लिए या उसके समकालीन मुहावरे के लिए खुद भारतेंदु ‘हिंदी बुर्जुआ पब्लिक स्फीयर’ में मत निर्माण कर रहे थे। यह मत निर्माण सामान्य बोध की आलोचना, सामान्य बोध के सहारे करने से विकसित हो सकती थी। आपसी एका और एक मत का जोर हिन्दुस्तान में शुरू से ही रहा है- यह दिखाना पब्लिक ओपिनियन के आधुनिक लोकतान्त्रिक मुहावरे को अतीत में खोज निकालने और इस प्रकार ब्रिटिश सब्जेक्ट के रूप में लोगों के निज-पहचान के निर्माण के लिए आवश्यक था।
इन लेखों में इतिहास और मिथ का अद्भुत घाल-मेल स्पष्ट देखा जा सकता है। इस प्रकार का एका अंतिम रूप से मिथकीय राष्ट्र का निर्माण करता है। यह मिथकीय राष्ट्र साम्प्रदायिक और अंतिम रूप से प्रतिक्रियावादी राजनीति के लिए खुद आधार बनता जाता है। वैष्णवता का पुनर्निर्माण पब्लिक ओपिनियन का ही एक हिस्सा था। प्रबोधन और तार्किकता की अंतिम सीमा अस्मिता के सिद्धांत में पर्यवसित होती है। अकारण नहीं कि फासिज्म, सेकुलरिज्म, हिन्दू साम्प्रदायिकता जैसी राजनीतिक प्रवृत्तियां प्रबोधन की सीमा अर्थात् अस्मिता को ही अपनी धुरी बनाती है। उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध की खोज के नाम पर हुए वर्तमान शोध इनमें से किसी एक प्रवृत्ति को, किसी एक अस्मिता को केंद्र में रखने के चलते इन विचारधारों की वास्तविक जगह को नज़रों से ओझल कर देते हैं। प्रश्न यहाँ अस्मिता मात्र के बरक्स अनस्मिता को सोचने का है।
धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर लिखना भारतेंदु के केवल सांप्रदायिक उद्देश्यों के चलते न था। पब्लिक ओपिनियन के सम्बन्ध में जिस व्यावहारिकता की बात वह बार बार सामने रखते हैं, उसी को ध्यान में रखने से भारतेंदु की उन रचनाओं को समझा जा सकता है, जहाँ वह विविध पूजा विधियों पर सविस्तार लिखते हैं। ‘पुरुषोत्तममास विधान’, ‘कार्त्तिक कर्म्मविधि’, ‘कार्त्त्तिक नैमित्तिककृत्य’, ‘मार्गशीर्षमहमा’, ‘माघस्नान विधि’ आदि कर्मकांडी पुस्तकों के मूल में धर्म के लौकिक आचरण नियमों का निर्देश है। भाषा में ऐसी रचनाएँ पारंपरिक हिन्दू उपासना के दैनिंदनी अचर्न नियमों के स्थिर करने की आशा से ही भारतेंदु ने लिखा था। इसके साथ-साथ भारतेंदु ने भक्ति विषयक सूत्रों की भाषा टीका भी लिखी है। जिन ग्रंथों को भाषा टीका के लिए चुना गया है वे भी न केवल सांप्रदायिक उद्देश्य से हैं बल्कि वैष्णव एकमत बनाने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है। भारतेंदु वैष्णवता को भारतवर्ष का ‘प्रकृत धर्म’ कहते थे। ‘वैष्णवता और भारतवर्ष’ नाम से एक लेख भारतेंदु ने १८८४ में लिखा था। ध्यान देने वाली बात है कि इस लेख में उन्होंने ‘हिंदुस्तान’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, जबकि अधिकांश लेखों और संबोधनों में भारतेंदु ‘हिंदुस्तान’ लिखते हैं। यह अंतर उनके संभावित श्रोताओं को ध्यान में रखने से स्पष्ट होता है। इस लेख में उनका संबोधन विशेष रूप से हिन्दू जनता के प्रति है जो आपसी मतमतान्तरों और वैर भाव के चलते एक मत नहीं हो पा रहे हैं। आतंरिक उपासना और भक्ति का मुहावरा ही वह क्षेत्र है जहाँ एका की संभावना भारतेंदु को दिखती है। ‘भारतवर्ष’ और ‘हिन्दू’ जनसमुदाय को संबोधित करना बलिया वाले व्याख्यान के आखिरी हिस्से में भी द्रष्टव्य है।
इस लेख में भारतेंदु ने कई सारे उदाहरण और एक ख़ास ऐतिहासिक व्याख्या के सहारे वैष्णवता को भारत का सबसे प्राचीन और मूल मत साबित किया है। भक्ति और उपासना के विकास के साथ विष्णु पूजा की प्राचीनता के सम्बन्ध-निरूपण का यह उद्योग पूर्वीविद्या के विद्वानों के साथ-साथ नेटिव विद्वानों ने भी खूब किया। भारतेंदु का लक्ष्य यहाँ वैष्णवता के समन्वयवादी इतिहास लेखन का है। ‘आर्य-विष्णु की केन्द्रीयता’ और ‘भारतवर्ष’ इनके अनिवार्य और सारभूत रिश्तों के सहारे जिस ‘भारतीय धर्म’ की प्रस्तावना भारतेंदु रखते हैं, हम देखेंगे कि वही विमर्श अधिकाँश में आगे चल कर भी भक्ति विषयक हिंदी चर्चाओं के केंद्र में, थोड़े बहुत उलटफेर के साथ, बना रहता है। ‘कर्म, ज्ञान और भक्ति’, धर्म के इन तीन रूपों और उनके पूर्वापर संबंधों के स्वाभाविक विकास का, या उनका मनोवैज्ञानिक इतिहास का, उपासना या भक्ति के उदय और विस्तार का, यह सबसे महत्वपूर्ण आख्यान न केवल भारतेंदु के यहाँ मिलता है, वरन् आगे चल कर वैष्णव भक्ति और भक्ति मात्र के प्राचीन भारतीय मूल रूप की व्याख्या का आधार बनता है। कर्म, ज्ञान और उपासना में उपासना ही मुख्य धर्म-मार्ग समझा गया है। यह विकास मनुष्य मात्र के स्वाभाविक विकास का क्रम है, जो सब देशों और धर्मों में देखा जा सकता है- ऐसा भारतेंदु का स्पष्ट मत है। इसी कारण “वैष्णव मत की प्रवृत्ति भारतवर्ष में स्वाभाविकी है। जगत में उपासना मार्ग ही मुख्य धर्म्ममार्ग समझा जाता है। क्रिस्तान, मुसलमान, ब्राह्म, बौद्ध उपासना सबके यहाँ मुख्य है। किन्तु बौद्धों में अनेक सिद्धों की उपासना और तप आदि शुभ कर्मों के प्राधान्य से वह मत हमलोगों के स्मार्त मत के सदृश्य है और क्रिस्तान, ब्राह्म, मुसलमान आदि के धर्म में भक्ति की प्रधानता से ये सब वैष्णवों के सदृश्य हैं।”[42]
भारतवर्ष की हड्डी लहू में मिला हुआ है वैष्णव मत- इसके प्रमाण के लिए भारतेंदु बहुत सारे उदाहरण सामने रखते हैं । ये उदाहरण अधिकांश में सामान्य बोध को तुष्ट करने वाले हैं। या यूँ कहें कि सामान्य बोध को वैष्णवता के पक्ष में पुनर्योजित करते हैं। मसलन, पहला ही प्रमाण उनके लेख के पिछले हिस्से में स्वीकार्य अंतर्विरोध को खतम कर घोषणा करता है- पहले तो कबीर, दादू, सिक्ख, बाउल आदि जितने पंथ हैं सब वैष्णवों की शाखा प्रशाखाएं हैं और सारा भारतवर्ष इन पंथों से छाया हुआ है। दूसरा उदाहरण अवतार और विष्णु के शाश्वत संबंद्ध की घोषणा है- “अवतार और किसी देव का नहीं, क्योंकि इतना उपकार ही (दस्यु दलन आदि) और किसी से नहीं साधित हुआ।” मानो विष्णु के ये अवतार वास्तव हैं! तीसरे उदहारण में भारतेंदु नामों का समाजशास्त्र सामने रखते हैं- “नामों को लीजिये तो क्या स्त्री, क्या पुरुष, आधे नाम भारतवर्ष के विष्णु सम्बन्धी हैं और आधे में जगत है।” यह सर्वेक्षण भारतेंदु के अनुसार वैज्ञानिक है क्योंकि “विश्वास न हो कलेक्टरी के दफ्तर से मर्दुमशुमारी के कागज़ निकाल के देख लीजिये वा एक दिन डाकघर में बैठ कर चिट्ठियों के लिफाफों की सैर कीजिये।” संस्कृत के ग्रन्थ, पुराणों के विषय, व्रत, त्यौहार, ब्याह के गीत, तीर्थों का नाम और महात्म्य, नदियों का महात्म्य, मरने के बाद का ‘राम राम सत्य’, नाटक और तमाशों के विषय- रामलीला, रासलीला आदि, संकल्प कीजिये तो विष्णु विष्णु ,आचमन कीजिये तो विष्णु विष्णु, सुग्गे को पढ़ना हो तो राम राम, शिष्टाचार में राम राम, ब्राह्मणों के बाद वैरागी को ही हाथ जोड़ना, नगर और गाँव के नाम, औषधियों में भी रामबाण-नारायण चूर्ण, और इस प्रकार दैनंदिन जीवन में ध्यान दें तो सब ओर वैष्णवता!
भारतेंदु ने रोज़मर्रा के जीवन से इतने उदाहरण देकर यह साबित करना चाहते थे कि वैष्णवता कोई ‘नोर्मेटिव’ धर्म नहीं, कोई सिद्धांत निरूपण नहीं, कोई मठ- सम्प्रदाय नहीं वरन् भारत का ‘प्रकृत-धर्म’ है। जो लोग ‘एवरीडे प्रैक्टिस’ का शास्त्र रचना चाहते हैं, उसके खतरों को समझने के लिए भारतेंदु एक मुफीद उदाहरण हैं। रोज़मर्रा का समाजशास्त्र एकता और कैटेगरी निर्माण में जब प्रवृत्त होता है, भले ही उसका घोषित संकल्प उनकी आलोचना हो, तब भी वह अन्यता और आत्म के सम्बन्ध निरूपण में ही प्रवृत्त होता है। यह प्रवृत्ति प्रबोधन की आलोचना को भी, अपने अलग-अलग रूपों में, अस्मिता निरूपण में ही पर्यवसित होना दिखाता है। इस प्रवृत्ति का समकालीन नारा बहुलता और विभन्नता की सहिष्णु-स्वीकार्यता है, जो अंततः अस्मिता के नियम से ही चालित है, और ‘पीड़ा का समाजशास्त्र’ रचती है, और जिसके सामने अन्यतम बुराई हिंसा है। यह अस्मिता का नियम एक ओर अगर अतीत में भारत को खोजता है तो दूसरी ओर प्रबोधन की देशज भिन्नता की तलाश पर अतिशय जोर देता है। कहना न होगा कि ‘जनमत’ और ‘वैष्णवता’ दोनों भारतेंदु के लिए सामान्य हिन्दू बोध की एकता के लिए ज़रूरी मुहावरे थे जिनके साथ ब्रिटिश सराकारी संस्थाओं के साथ तालमेल बनाया जा सकता था और एक ऐसे ‘स्वशासन’ की ओर बढ़ा जा सकता था, जिसकी झलक आगे ‘होमरूल’ की विचारधारा में मिलता है।


[1] हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, (सं) मुकुंद द्विवेदी, खंड ४, पृष्ठ- १८२, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली- २००७.
[2] रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ ३३२, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली- २००७.
[3] रामविलास शर्मा, भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ, पृष्ठ- १५, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली- २०१०.
[4] कविवचन-सुधा, ६ जुलाई १८७४.
[5] रामविलास शर्मा, पृष्ठ- १४
[6] वही, पृष्ठ १५
[7] वही, पृष्ठ- १९
[8] वही, उद्धृत पृष्ठ ३१
[9] विस्तृत चर्चा के लिए देखें, अध्याय तीन.
[10] कार्ल मार्क्स, कैपिटल- वॉल्यूम १, अनु. बेन फोक्स, पृष्ठ ९८, पेंग्विन बुक्स, लंदन- १९९०
[11] वही
[12] वही
[13] देखें, फ्रेडरिक एंगेल्स, द पीजेंट वॉर इन जर्मनी, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को- १९७७ और सिल्विया फेद्रिची, कैलिबन एंड द विच, फोनिम बुक्स, दिल्ली- २०१३
[14] नामवर सिंह, हिंदी का गद्यपर्व, (सं.) आशीष त्रिपाठी, पृष्ठ-८६ , राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली- २०१०
[15] वही, पृष्ठ- ८७
[16] वही पृष्ठ ८८
[17] वही
[18] वही, पृष्ठ-८९
[19] वही, पृष्ठ ९१
[20] देखें, नामवर सिंह, उन्नीसवी सदी का भारतीय पुनर्जागरण: यथार्थ या मिथक, (अनु.) पंकज पराशर, पक्षधर, अंक ११, जुलाई २०११
[21] रामविलास शर्मा, पृष्ठ- ६६
[22] भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतिनिधि संकलन, सं- कमला प्रसाद, प्र.सं- नामवर सिंह, पृष्ठ- ८२-८६, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली- २००६. (आगे इस लेख के उद्धरणों को बिना पाद टिपण्णी के दिया गया है)
[23] वसुधा दलमिया, हिन्दू परम्पराओं का राष्ट्रीयकरण : भारतेंदु हरिश्चंद्र और उन्नीसवीं सदी का बनारस, अनु. संजीव कुमार, योगेन्द्र दत्त, पृष्ठ- ४०-४२, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली- २०१६
[24] वही, पृष्ठ- ४२
[25] वीरभारततलवार, रस्साकशी: १९वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रान्त, पृष्ठ- १५२, सारांश प्रकाशन, दिल्ली- २००६
[26] भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतिनिधि संकलन, पृष्ठ- १३७-३८.
[27] भारतेंदु, वैष्णवता और भारतवर्ष, वही, पृष्ठ-७६
[28] भारतेंदु ग्रंथावली खंड- ५, पृष्ठ ११३
[29] वसुधा डालमिया, पृष्ठ ३४२
[30] बादशाह दर्पण, भारतेंदु ग्रंथावली खंड-६.
[31] वही
[32] http://samalochan.blogspot.in/2012/09/blog-post_9.html
[33] वसुधा डालमिया द्वारा उद्धृत, पृष्ठ- ३३७
[34] देखें, रामविलास शर्मा, पृष्ठ १३१
[35]भारतेंदु ग्रंथावली -6, 361.
[36] वही.
[37]ग्रंथावली- 6,78
[38]वही.
[39] वही. ८०-८१.
[40]वही, 81
[41]वही, 81
[42]वही, 283.

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