रक्षणशीलता के रक्षण की प्रवृत्ति: आचार्य शुक्ल और होमरूल

शुक्ल जी के यहाँ एक संपूर्ण जीवन दर्शन के निर्माण का प्रयास मिलता है। वह जीवन दर्शन जो वैज्ञानिक रूप से सुसंगत हो। यह प्रयास शुक्ल जी के पहले तथाकथित हिंदी नवजागरण में किसी ने किया हो इसका पता नहीं मिलता। भारतेंदु के विषय में हमने देखा है कि जीवन को लेकर जो उत्साही आवेग उनमें था उसके इर्द गिर्द स्वयं ही संस्कृतिकर्मियों का एक दल सा बन गया था। अलग-अलग व्यक्तिगत प्रयासों के इर्द-गिर्द छोटे-छोटे अनेक आंदोलन पैदा हुए और उसी क्रम में संस्थाबद्ध होते गए। जिसे हम भारतेंदु मंडल कहते हैं वह सभा या परिषद् की तरह विकसित नहीं हुआ था। स्वतंत्र चित्तवाले और अलग-अलग प्रवृत्ति वाले पढ़े-लिखे साहित्यप्रेमी-कलाप्रेमी उत्साही युवकों की एक मंडली सी थी, जो जीवन के हर पक्ष पर कुछ न कुछ नए जमाने की तरफ से कहना चाहते थे। अतीत, वर्तमान, देश, विदेश, ज्ञान-विज्ञान, गीत-नाटक, भक्ति और शायरी, अर्थशास्त्र और धर्मविज्ञान, वेद और कुरान सब के भीतर एक तार्किकता की तलाश थी। वसुधा डालमिया ने इसे परम्परा और आधुनिकता के द्वैत में न देख कर एक प्रक्रिया के रूप में देखने की कोशिश की है, जिसे वह तीसरा मुहावराकहती हैं। यह तीसरा मुहावरा ही हिन्दू परम्पराओं का राष्ट्रीयकरणहै। वस्तुतः यह ठेठ वर्तमान के भीतर एक सक्रिय हस्तक्षेप की प्रक्रिया थी। इनके लिए संस्कृति-साहित्य-कला आस्वाद्य की वस्तु नहीं बल्कि सक्रिय निर्माण का प्रश्न था। ये लोग संस्कृतिकर्मी थे। शुक्ल जी ने भारतेंदु युग के संस्कृतिकर्म के व्यवहार को सिद्धांत का रूप दिया। यह सिद्धांत था मनोवेगों या पैशन का सिद्धांत। हिंदी भाषा और साहित्य के सच्चे सेवकोंका दर्शन। हिंदी भाषा और साहित्य धीरे-धीरे विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और पाठ्यक्रमों में शामिल हो रहे थे। हिन्दू-उर्दू की लड़ाई में लोगों ने अपने अपने पक्ष चुन लिए थे। हिन्दू-हिंदी का अनिवार्य सम्बन्ध हिंदी भाषा और साहित्य के संस्थाकृत संस्करणों में स्पष्ट था। शुक्ल जी का सम्बन्ध भी हिंदी की इस जातीय चेतनाके निर्माण से अनिवार्यतः जुड़ा था। हिंदी साहित्य के विकास को बिना किसी दृढ सैद्धांतिक आधार के सच्ची राह नहीं मिल सकती थी। द्विवेदी युग की आरंभिक कोशिशों के बाद ज़रूरत थी व्यवहारों का ठोस सिद्धांत निरूपण किया जाए। शुक्ल जी ने इसी महती ज़िम्मेदारी का बीड़ा उठाया था।
शुक्ल जी के लिए अराजक मनोवेग समाज में व्यक्तिवाद की प्रवृत्ति थी। यूरोप की अर्थकेन्द्रित सभ्यता के भीतर भयानक लूट-मार के पीछे भी शुक्ल जी अनियंत्रित अराजक मनोवृत्ति को देखते थे। धन और स्वार्थ का अनिवार्य सम्बन्ध भी शुक्ल जी लक्षित कर रहे थे। दरअस्ल अराजकताशुक्ल जी के लिए औपनिवेशिक भारत की सामान्य स्थिति में ही थी। मूल्यों का ह्रास,व्यक्तिवाद, उपयोगितावाद, वाणिज्यवाद आदि केवल पश्चिम की चीजें नहीं थीं। शुक्ल जी इन विचारधाराओं को अपनी आँखों के सामने देख रहे थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा और साहित्य के भीतर व्यवस्था का जो प्रयास शुरू किया था वह ज्ञान-कोषकी व्यवस्था का प्रयास था। परन्तु शुक्ल जी ने संपूर्ण साहित्य-दृष्टि और रूचि में फैली अव्यवस्था को सिद्धांतों से बाँध कर व्यवस्थित किया। शुक्ल जी का प्रयास संपूर्णज्ञान-कांडथा। वैज्ञानिकों की तरह अपनी व्यवस्था या विचार की वस्तु के रूप में उन्होंने कविता को चुना था। एक लिहाज से यह स्वाभाविक भी था क्योंकि आधुनिक गद्य-युग के पीछे सिर्फ कविता या कविता की व्यवस्था की ही परम्परा उपलब्ध थी। यह भी स्पष्ट था कि यह अराजकता केवल शुष्क उपदेशकथन या नियमावलियों के निर्माण से दूर नहीं हो सकती थी। द्विवेदी युगीन इत्तिवृत्तात्मकता और उपदेशवृत्ति से उनकी गहरी असंतुष्टि थी। जीवन में बुद्धि का अनुशासन ज़रूरी था पर यह अनुशासन शुष्क सिद्धांत कथन से संभव नहीं था। वह यह भी देख रहे थे कि शुष्क ज्ञान के प्रभाव में कविता के भीतर भी भावात्मकता के बदले शुष्क विचार कथनों की भरमार हो रही है। ऐसे समय उन्हें कविता के भावात्मकता और क्रियाशीलपक्ष को सैद्धांतिक रूप देना आवश्यक प्रतीत हुआ। मानव-सार निरूपण के प्रयास में शुक्ल जी ने महाकाव्यों का सार निरूपण किया। सार्वभौमिकता और महाकाव्यात्मकता को एक साथ नवीन साहित्यिक संवेदनाओं में ढालने की कोशिश की। वैयक्तिक अराजक मूल्यों की निरर्थकता बिना महाकाव्यात्मक मूल्यों को सामने रखे स्पस्ष्ट नहीं हो सकती थी। इस प्रकार उन्होंने आधुनिक वैयक्तिक प्रगीतात्मकता के बरक्स मध्ययुगीन महाकाव्यात्मकता को अपने सिद्धांत का आधार बनाया। यह महाकाव्यात्मकता जीवन, दर्शन और धर्म तथा विज्ञान की एक संपूर्ण व्यवस्था का ही रूपक थी। महाकाव्यात्मकता के भीतर सत्तामीमांसा की हृदयग्राही व्यवस्था को शुक्ल जी अराजक व्यक्तिवाद का प्रतिपक्ष और उसका निराकरण मानते थे। जीवन की संपूर्ण एकता ज्ञान और भक्ति की एकता में संभव थी। यह एकता इनके पृथकत्व के भीतर एक क्रमिकता और फिर अद्वैत की प्राप्ति में है। केवल ज्ञान एक कुलीनतावादी अवधारणा है। भक्ति के साथ जुड़ कर वह सक्रिय जीवन दर्शन बनती है।
मिलिंद वाकणकर शुक्ल जी के सैद्धांतिक कर्म की विशिष्टता उस अभूतपूर्व निर्णय में बताते हैं जो देशी चिंतन के उस गतिरोध को तोड़ती है जो पश्चिमी विचारों और पूर्वी दर्शन की पारंपरिक धारणाओं और वर्गों के समक्ष ठिठकी हुई खड़ी थी। उनका कहना है कि बीस और तीस के दशक तक भारतेंदु के समय से बनती हुई हिंदी की आभिजात्य सार्वजनिक दुनिया बिखर गयी थी। परन्तु अकादमिक दुनिया और वृहत् जन आन्दोलनों के बीच इसने अपनी बिखरी हुई अमूर्तता में अब उसने पूरे भारत को शामिल मान लिया था। वाकणकर ने शुक्ल जी के आलोचना कर्म को संकट और साहस के बीच कठिन निर्णय का क्षण कहा जिसने अभूतपूर्व तरीके से नयी संकल्पनाओं के निर्माण को संभव किया। इस क्षण का संबंध  वाकणकर ने दो मुद्दों से जुड़ा माना- हिन्दू या राष्ट्रवादी उत्तरदायित्व और औपनिवेशिक आश्चर्य (कोलोनियल वंडर)
यह भारतेंदु युगीन संशय और दुचित्तेपन या समझौते के रूप में विकसित तीसरा मुहावरानहीं था बल्कि उपनिवेशवाद के भीतर अभूतपूर्व आलोचकीय चेतना का निर्माण था। वाकणकर लिखते हैं: “कम से कम दो तरीकों से यह अभूतपूर्व था, पहला उपनिवेशकाल के विशिष्ट ऐतहासिक स्थितियों के सन्दर्भ में और दूसरा आलोचनात्मक समीक्षा की विशिष्ट व्यावहारिक ज़रूरतों के भीतर से बनने वाले नए आलोचनात्मक विचारों की अव्यवस्थित प्रकृति के सन्दर्भ में।[1] उन्होंने कहा कि भक्तों द्वारा भगवान् की मूर्ति की सक्रिय कल्पनाऔपनिवेशिक बोध के तरीके का एक उदाहरण है जहां प्राकृतिक दुनिया और रोज़मर्रा के मानवीय कर्म परिवर्तन के क्षण में एक साथ उपस्थित होते हैं। अतीत के वीरतापूर्ण कर्मों का चित्र सामने रख और भक्तो के आगे बढ़ने की सामर्थ्य की अपील करती हुई कविता खुद को ऐतिहासिक कर्मों की सच्ची प्रेरक और सच्चे प्रतिबिम्ब के रूप में प्रस्तुत करती है। शुक्ल जी का ध्यान कवि की कल्पना से ज्यादा सहृदय या ग्राहक की कल्पना पर है। कविता उनके लिए लोकप्रिय अनुभवों को अपील करने वाली और भावों के सामान्य और सार्वभौम प्रभावों से संवाद करने वाला शब्दविधान थी। यह वाक् और कर्म की शाश्वत एकता का विधान था जिसमें सामाजिक और नैतिक पूर्णता प्रकृति में पहले से मौजूद थी।
उत्तरदायित्व या लोकधर्म की तलाश शुक्ल जी के यहाँ भारतेंदु की तरह ही सक्रिय सामुहिकता का प्रश्न था। इसी सक्रियता के लिए वह मध्ययुगीन भक्ति की ओर बार-बार लौट जाती थी। पारिवारिक संबंधों के भीतर से राष्ट्र की सक्रिय छवि बनती थी। पारिवारिक संबंधों में सक्रिय वैष्णव भावना को आंदोलन का रूप कैसे दिया जा सकता है, यह शुक्ल जी के लिए चुनौती भी थी। शुक्ल जी की सामुहिकता सम्प्रदायवाद या मठों के निर्माण में नहीं थी। बल्कि वह राज्य के चरित्र को पम्परागत वैष्णव लोकतांत्रिकतामूल्यों के तालमेल में लाने के प्रयास में थी। दूसरे शब्दों में कहें तो राज्य को सबसे बड़े परिवार का संरक्षक होना चाहिए जबकि हर परिवार को राज्य की सबसे छोटी इकाई के रूप में काम करना चाहिए। यह सामुहिकता एक ओर तुलसी से प्रेरणा ग्रहण कर रही थी दूसरी ओर तिलक से। इस तरह की नागरिक-सामुहिकता के सामने जाति-व्यवस्था एक बड़े प्रश्नचिह्न की तरह थी। १९२४ में लिखे एक अधूरे अंग्रेजी लेख में शुक्ल जी ने जाति-व्यवस्था की आलोचना की[2]। इनके अनुसार इस जाति-व्यवस्था ने प्रजाति की शुद्धता’  को रक्षित करने का असफल प्रयास किया है।भारतीय रक्तमें प्राचीन काल से ही विभिन्न जातियों का मिश्रणहै इसलिए शुद्धता की खोज वहां अनावश्यक है। जाति-व्यवस्था या संस्था के खिलाफ सबसे मुख्य तर्क है कि इसने मनुष्यों का स्तरों और श्रेणियों में रूढ़ विभाजन कर दिया है।[3] शुक्ल जी के अनुसार इस तर्क को जाति-व्यवस्था का कोई भी समर्थक प्रतिसंतुलित’ (काउन्टर बैलेंस्ड) नहीं कर सकता। यह एक ऐसी संस्था है जहां सबसे ऊपर ब्राह्मण है जो अन्यों को हेय और तुच्छ समझता है। इसके बाद क्रम से एक-एक सीढ़ी नीचे उतरते हुए हम हतभाग अस्पृश्यों और वर्गहीन जाति बहिष्कृतों के विशाल जन समूह तक नीचे उतरते हैं[4] इस प्रकृति के कारण शुक्ल जी ने जाति संस्था को सामुहिकता के लिए आवश्यक हार्दिक सहयोग या प्रतिक्रिया, प्रेम,विश्वास, और पारस्परिक प्रभाव या आचरण की स्वतंत्रताके खिलाफ बताया। इसी संस्था के कारण महत्वाकांक्षी नवयुवकों को अपने वंशानुक्रम व्यवसाय से चिपके रहना पड़ता है और उसके भाग्यनिर्माण के रास्ते बंद रहते हैं। उन्हें अवसर की स्वतंत्रता नहीं होती जिससे वह जीवन में आगे नहीं बढ़ पाता। इस संस्था को यदि समाप्त नहीं कर दिया गया तो भारतीय संस्कृति और शिष्टता, राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति की मृत्यु निश्चत है।भारतीयता की राष्ट्रभावना कभी भी हिन्दू समाज में पैदा नहीं हो सकती क्योंकि यहाँ भारतीय प्रथम और भारतीय अंतिमके बदले हमारी जाति प्रथम और हमारी जाति अंतिमआदर्श वाक्य है। इस संस्था के कारण ऊपरली श्रेणियों के व्यक्ति एक ओर तो राजनीतिक, प्रशासनिक या व्यावसायिकक्षेत्रों में स्वार्थवश अपना रास्ता बना रहे हैं दूसरी ओर नीची जातियों के रूप में कर्मठ और निष्कपट व्यक्तियों ने जो कुछ उपार्जित किया है उसे हड़प ले रहे हैं। ऐसी स्थिति में जीवन की आधुनिक अवस्थाओं के लिए ज़रूरी विकासऔर विश्वबाजार में प्रतियोगिता की भावना से कृषि तथा व्यवसाय की उन्नति, यंत्रों तथा कारखानों की वृद्धि तक के लिए विचार किये बिनाहम सभ्यता के अभियान में यूरोप और अमेरिका के साथ सम्मानपूर्वक टिके नहीं रह सकते। शुक्ल जी के सामने जाति संस्था उन्नतिऔर सभ्यता के अभियानमें एक बड़ी आतंरिक बाधा थी। एक ओर श्रेणियों के बंधन के कारण व्यक्तिगत उन्नति का मार्ग अवरुद्ध होता है दूसरी ओर राष्ट्र की सबल सामुहिकता विकसित नहीं हो पा रही है। जाति संस्था को शुक्ल जी पूरब की अनन्य विशेषता बताते हैं। दुनिया में और कहीं इस तरह की व्यवस्था विकसित नहीं हुई थी।मानवता का (यह) रूढ़ विभाजन स्वार्थी पंडितों द्वारा छद्म धर्म में जोड़ा गया पृष्ठ भाग है। वे निर्धन पददलितों की कीमत पर खुद को समृद्ध करते हैं, आनन्द लेते हैं और अज्ञानी जन समूह की भ्रांतियों को बढ़ाते हैं।[5]शुक्ल जी सामुहिकता की समग्रता में एक सुसंगत और सुसंबंधित दृष्टिकोण चाहते थे और जाति संस्था उसे विभाजित करती थी। इसलिए शुक्ल जी जैसे प्रबुद्ध, सुसंस्कृत या सत्यतः शिक्षित व्यक्तियोंके लिए इस व्यवस्था में कोई आकर्षण नहीं रह गया था। शुक्ल जी के अनुसार यह व्यवस्था अप्राकृतव्यवस्था थी जिसने रामायण कालसे ही भारतीय समाज की प्रगति में विरोधी या प्रतिगामी भूमिका निभाई थी। पश्चिमी देशों में सामान अवसर की व्यवस्था के उलट यह व्यापक जनता को राष्ट्र निर्माण और उन्नति में समान अवसर से वंचित करती है।
इस अधूरे लेख से यह स्पष्ट है कि शुक्ल जी की सामुहिकता समान अवसरों वाली एक लोकतान्त्रिक सामुहिकता से प्रभावित थी। अतः भारतीय/हिन्दू एकात्मकता के लिए निचली श्रेणी और हतभाग्य पददलितोंको समान अवसर प्रदान करना अर्थात् जाति संस्था को समाप्त करना ज़रूरी था। जाति व्यवस्था मनुष्य की प्रजातीय प्रकृति के अनुसार नहीं है। भक्ति में शुक्ल जी को इस प्रयास का पूर्व रूप भी दिखता था। भक्तों की सामुहिकता में जाति भेद का ख्याल नहीं किया जाता था। आधुनिक युग में इसका विकसित रूप समान अवसरप्रदान करने वाले राज्य के चरित्र में है। राज्य के इस रूप के साथ विकसित होती हर सामुहिकता का भी यह एक आतंरिक मूल्य है। शुक्ल जी जैसे सुशिक्षित और सुसंस्कृतमध्यवर्ग की परिष्कृत रुचि के लिए न केवल यह त्याज्य हो गयी थी वरन् उनका उत्तरदायित्व था कि सभ्यता के अभियानमें इनको शामिल किये जाने की बात का पक्ष लें। क्योंकि निम्न श्रेणियों की कर्मठताका सही उपयोग किये बिना भारत की उन्नति और श्रेष्टता संभव नहीं थी। शुक्ल जी के विचारों पर फेबियन समाजवादी विचारों का असर हमने पीछे भी नोट किया था। सवाल है (हिन्दू बहुल) राष्ट्रवाद और सामाजिक जनवाद का यह सामंजस्य शुक्ल जी के यहाँ कैसे संभव होता है?
असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियाँ[6] निबंध में शुक्ल जी के इस सामंजस्य का कुछ पता मिलता है। ऐतिहासिक रूप से जातिव्यवस्था वाला हिन्दू बहुल समाज शुक्ल जी के अनुसार मुख्यतः दो श्रेणियों में स्पष्टतः विभाजित था। एक व्यापारिक श्रेणी थी दूसरी अव्यापारिक। ये दो स्पष्ट श्रेणियां जातिव्यवस्था के चलते अर्थात् मानवता के वंशानुगतप्रकारों के विकास में अवरोध के चलते ही पैदा हुई थीं। व्यापारिक श्रेणियों में मुख्यतः धन संग्रह, वाणिज्य-व्यापार करने वाले लोग थे जिनका कृषि या ज़मीन से कोई
लगाव और सबंध नहीं था। अव्यापारिक श्रेणियों में राजनीतिक और कृषक वर्ग था जो उतनी ही आय से संतुष्ट थे, जो सत्तापूर्ण पद या उनके क्षेत्र का पार्थक्य कायम रखने हेतु यथेष्ट हो। कृषि कार्य अधिकांशतः कुछ अन्य लोगों के साथ राजनीतिक वर्ग की अपेक्षाकृत निर्बल श्रेणियोंद्वारा की जाती थी। ये दोनों वर्ग अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में संतुष्ट थे। पहला वर्ग धनोपार्जन की निजी परियोजनामें मग्न था दूसरा कृषि उत्पादन करता और राज्य को सैनिक और लोक सेवायें प्रदान करता था। इन दोनों वर्गों के बीच स्पष्ट कार्य विभाजन के चलते एक सामंजस्य था। परन्तु अंग्रेजों के साथ जब भारत में यूरोप का घृणित व्यापारवादकदम रखता है तो पिछले दो हज़ार सालों से चले आ रहे इस सामंजस्य को वह पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर देता है। कंपनी अपने व्यापारिक प्रचार-प्रसार के लिए बनियों पर आश्रित थीं इसलिए केवल उन्हीं के अनुकूल परिस्थितियां पैदा कीं।[7] कंपनी के एजेंटों की हैसियत से इन्होंने ज़मीन पर कब्ज़ा किया, क्रय के लिए दूसरों की ज़मीन खाली करवाई, बड़े क्षेत्रों के राजस्व का कार्यभार उन्हें मिल गया, उन्हीं को दीवानी दी गयी और इस प्रकार कई अन्य तरीकों से उनका महत्त्व बढ़ता गया।सौदागर और शासकएक नहीं होने चाहिए इस युक्तिसंगतसिद्धांत को अस्वीकार किया गया और अव्यापारिक श्रेणियों का ज़मीन से स्थायी सम्बन्ध हमेशा के लिए लुप्त हो गया और उत्तरोत्तर वे कंगाली की दशा को प्राप्त होते गये। शुक्ल जी की व्याख्या में हम यहाँ औपनिवेशिक पूँजी के उस बर्बर चरित्र को देख सकते हैं जिसे हम आदिम संचय कहते हैं। ज़मीन की खरीद फरोख्त के साथ ज़मीन से स्थायी सम्बन्धका विच्छेद इसकी एक महत्वपूर्ण निशानी है। यह आदिम संचय बदस्तूर जारी था और कानूनी व्यवस्था, अदालतों और वकीलों के नए नेतृत्व ने इसकी प्रक्रिया को सुनिश्चित किया। शुक्ल जी लिखते हैं: “लोभी वकीलों की सेना के साथ न्यायालयों ने उनकी बर्बादी पूरी कर दी। कानूनी जटिलताओं के कारण मुकदमा भूमिगत हितों का ऐसा अपरिहार्य लक्षण हो गया है कि सरकारी मांगो के बाद औसत जमींदार के पास कुछ शेष नहीं बचता।[8]
औसत जमींदार से अलग छोटी जोतों वाले कृषकों की स्थिति और भी दयनीय हो गयी है। राजस्व कर्मचारियों के साथ साथ ज़मींदारों का भी हमला उन पर होता है। शुक्ल जी इस प्रक्रिया का कारण सरकारी भूराजस्व नीति को मानते हैं। सरकार कृषि से जुड़े वर्गों के जीवन में महाजनों और बनियों ने कैसी कंगाली ला दी है इसकी अनदेखी कर अब भी ज़मीन को राजस्व का मुख्य श्रोत मान रही है।जमीन से जुड़े हुए वर्ग इतने बुरी तरह प्रभावित न होते अगर उनका मामला सरकार के सामने प्रस्तुत कर दिया जाता।[9] इस तरह जहाँ एक ओर व्यापारिक श्रेणियां बिना राजस्व उगाही का शिकार हुए दिनों दिन सरकारी आशीर्वाद सेप्रचुरतम लाभबना रहे थे जबकि जमीन से जुड़ी श्रेणियां विनाश की ओर जा रही थी। इस संकट के कारण राजनीतिक वर्गों के सामने रोज़गार का संकट पैदा हो गया था। राजनीतिक श्रेणी के उच्च वर्गों में व्यापार को लेकर एक वंशानुगत अवरोध था। वे ज़्यादातर सरकारी नौकरियों की ओर गए। जबकि सबसे निचली श्रेणी जिनके पास पहले से ही ज़मीन नहीं थीं, पर बड़े किसानों की सम्पन्नता के दौर में जिनका भरन पोषण गाँव में ही हो जाता था, अब वे मजदूर बन कर शहरों में आने को बाध्य हैं। ऐसी स्थिति में गाँव के औसत जमींदारके पास कृषिकर्म के लिए मजदूर मिलने मुश्किल हो रहे हैं। दूसरी ओर पुरानी क्षत्रिय जातियों के सदस्य जिनके पूर्वज वास्तविक शासक रहे हैं और अब जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, लेकिन अच्छे परिवारों वाले हैं सरकार को चाहिए कि उनको सैनिक पेशे में लिया जाए।रायल मिलिटरी कॉलेज, सैंडहर्स्ट में अपने पुत्रों को भेज सकने का अवध तअल्लुकेदारों द्वारा अभी हाल ही में प्राप्त विशेषाधिकार उनके सच्चे चरित्र का बहुत दूर तक पुनरुज्जीवन करेगा। रियासतों के लिए सैनिक सेवाओं में आरक्षण का कानून बनाना सरकार का अनिवार्य कर्तव्य है।[10]
 राजनीतिक वर्गों में देशी रियासतों के पुराने परिवार हैं और अव्यापारिक वर्गों में ज़्यादातर वे लोग हैं जो राजनीतिक वर्गों को जरूरत के समय धन, संपत्ति और नागरिक बलप्रदान करते रहे हैं। अव्यापारिक वर्ग में मुख्यतः ज़मींदार, कृषक और मजदूर हैं। राजनीतिक वर्गों में रियासतों के परिवारों के अलावा प्रशासन कार्य में लगे ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ तथा कुछ अन्य लोगभी शामिल हैं। ये लोग अंग्रेजों के आने के बाद अपना परम्परागत पेशा जारी रखने के लिए स्थितियों से विभिन्न प्रकार के समझौते में गए। पर शुक्ल जी कहते हैं कि ब्रिटिश शासन की प्रतिकूल स्थितियों में किसी प्रकार मुआवजा वसूल कर लेने का उनकी तरफ से यह एक दयनीय प्रयास है।’ ‘कृषक और भूमिधर श्रेणियों के वंशजजमीन और सम्पत्ति छिन जाने के बाद अंग्रेजी शिक्षा से लाभ उठाकर सरकारी नौकरियाँ प्राप्त की और अब उस बड़े हिस्से का निर्माण करते हैं जिसे शिक्षित मध्यवर्ग कहा जाता है। इस शिक्षित मध्यवर्ग की चारित्रिक विशेषता बताते हुए शुक्ल जी लिखते है: “शक्ति उनके जीवन का सार है और जब तक वो इसे कायम रख पाते हैं, धन की परवाह नहीं करते। उनके लिए संपत्ति शक्ति नहीं है, वरन् शक्ति ही संपत्ति है। उनको सम्पत्ति के सामने घुटने टेकने को मजबूर कर रहा है- व्यापारिक श्रेणियों का प्रयास। ये व्यापारिक श्रेणियां पहले तो ज़मीनों की खरीद बेच कर मुनाफा कमाने लगे बाद को ज़मीन से जुड़े कार्यों को संरक्षण देने की प्रवृत्ति में इनमें पैदा होती गयी। इस कारण यह श्रेणी राजनीतिक और अव्यापारिक श्रेणियों की शक्ति को संपत्ति के अधीन करने में प्रवृत्त हुई। यह प्रवृत्ति सत्ता को पूँजी के मातहत करने की वही प्रवृत्ति है जिसे शुक्ल जी पश्चिमी देशों में देख रहे थे। अर्थात यही उनके लेखे पूंजीवाद की प्रवृत्ति है। पहले जो स्पष्ट विभाजन था, दोनों श्रेणियों के बीच उसे तोड़ा जा रहा है। दूसरे देशों में ऐसी प्रवृत्ति स्वाभाविक हो सकती है परन्तु एक ऐसे देश में जहाँ समाज संगठन में वंशागत अभिरुचियाँ महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं स्थितियों ने भिन्न मार्ग ग्रहण किया है। वह भिन्न मार्ग है व्यापारिक वर्ग के आक्रमण से अपनी पुरानी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सरकारी नौकरियाँ प्राप्त करने का। यह उच्च वर्णी हिन्दू मध्यवर्ग बनने का मार्ग है। इस प्रकार तीन वर्गों का समकालीन चरित्र शुक्ल जी ने स्थिर किया और उसके बनने की प्रक्रिया का भी। एक ज़मींदार,कृषक और मजदूरों के संयुक्त ब्लाक वाला वर्ग, दूसरा हिन्दू मध्यवर्ग जिसकी जड़ें पहले वर्ग की उच्च श्रेणियों से है और तीसरा व्यापारी वर्ग। सत्ता प्रतिकूल ब्रिटिश शासन के अधीन।
इस वर्ग विश्लेषण की फौरी ज़रूरत इसलिए थी क्योंकि हाल फ़िलहाल में मि. गांधी के नेतृत्व में जो राजनीतिक क्रियाकलापों का स्वरूप उभरा था उसकी जटिलता और पक्षधरता को स्पष्ट करना शुक्ल जी को जनता के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण जान पड़ा। शुक्ल जी के अनुसार असहयोग आंदोलन में व्यापारी वर्गों के अचानक हस्तक्षेपके गंभीर निहितार्थों को समझना आंदोलन के लिए आवश्यक है। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि यरोपीय आंदोलनकारियों के सारे कौशल में प्रशिक्षितमि. गांधी के कुशल नेतृत्व में एक तात्कालिकता और रहस्यात्मकता है जिसके प्रभाव में आंदोलन का असली वर्ग चरित्र नज़रों से ओझल हो गया है।मि। गांधी उन बिन्दुओं को अच्छी तरह जानते हैं जिन्हें स्पर्श किया जाये तो वे तीव्रतम उत्तेजना पैदा कर सकते हैं। उनके अर्द्ध धार्मिक अर्द्ध राजनीतिक प्रवचनों ने करोड़ों के हृदय झकझोर दिए । ... हमें नहीं मालूम कि मि। गांधी सदैव यह अनुभव कर पाते अथवा नहीं कि उनके शब्दों से कभी कभी ऐसे परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं, जो उनकी पकड़ से बाहर हैं।शुक्ल जी गांधी के नेतृत्व में श्रेष्ठ आंदोलनकारी का रूप तो देखते हैं लेकिन उनकी प्रशासकीय क्षमता पर उन्हें विश्वास नहीं। इसलिए आंदोलन के कोलाहल में और अस्तव्यस्तता या अनार्की के भीतर सक्रिय व्यापारी वर्ग की चालों के प्रति सचेत करना और भी ज़रूरी हो जाता है। गाँधी के अहिंसा में शांति और व्यवस्था का कोई पर्याय उन्हें दिखाई नहीं दे रहा था।
असहयोग और अहिंसा के समर्थकों के मनोभूमि के ढांचोंको स्पष्ट करते हुए शुक्ल तीन प्रवृत्तियों की पहचान करते हैं।   
१.     पंजाब में हुए नृशंस अत्याचारों के कारण जनता का गुस्सा और ब्रिटिश सरकार के प्रति अविश्वास का बढ़ना। पंजाब की घटनाओं से देश में एक स्वतःस्फूर्त आंदोलन शुरू हुआ और अन्यायों के विरुद्ध सशक्त प्रदर्शन में संपूर्ण देश शामिल हुआ और वह अपनी मांगों को सुनिश्चित रूप देने जा ही रहा था कि मि. गांधी ने असहयोग की अनिश्चित योजना शुरू कर दी इस योजना के प्रति लोग बिना सोचे समझे शामिल हो गए। जबकि शुक्ल जी के अनुसार सही नीति बंगभंग विरोधी आंदोलन की तरह संगठित प्रयास करने की थी। भारतीय जनता व्यक्तित्वों के प्रति रहस्यवादी भक्तिकी अपनी चारित्रिक विशेषता के चलते गांधी के सत्याग्रह की असफलता के बावजूद उनसे आकर्षित हो कोलाहलमें शामिल हो गयी। कुछ पुराने लोग जो तिलकपंथी हैं अभी भी अपने सिद्धांतों पर कायम हैं लेकिन अपनी सामाजिक और आर्थिक विचारधाराओं की गठरी लादे हुएकांग्रेस की प्रतिष्ठा बनाये रखने के चलते गांधी के साथ है। नौजवानों की हुटिंग के डर के कारण ही वे आंदोलन में शामिल हैं। कुछ ऐसे देशभक्त ज़रूर हैं जो तात्कालिकता के दबाव में नहीं हैं और असहयोग के बदले अपने पुराने सिद्धांतों पर अडिग हैं। शुक्ल जी ऐसे लोगों में देश का भविष्य देख रहे हैं। तीसरे प्रकार के लोग असहयोग की नीतियों के प्रति तटस्थ हैं। पर शुक्ल जी तटस्थता को छोड़ कर आंदोलन की आलोचना कर रहे हैं और असहयोग के बदले होमरूल के सिद्धांत को सामने रख रहे हैं।
२.     व्यक्तिवादी प्रवृत्तियां। इस प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए शुक्ल जी मुख्यतः अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नौजवानों की अराजक प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं जो पश्चिमी शिक्षा के वैयक्तिक स्वंत्रता के सिद्धांतों की अस्पष्टता और असंतुलन से चालित हैं। इनमें सामाजिक एवं नैतिक अनुशासन का बोध नहीं है।उनके लिए अधिकार का अस्तित्व पारिवारिक, सामाजिक या राजनीतिक किसी भी क्षेत्र में और किसी भी रूप में घृणास्पद है। प्रशासन में ये मशीन को अधिकतम और व्यक्तित्व को न्यूनतम देखना चाहते हैं।इस असंगत मनोवृत्ति का कारण देशभक्ति और वैयक्तिक स्वतंत्रता का घाल मेल करने वाले लेखादि हैं जो वर्नाकुलर प्रेस के द्वारा प्रचारित हुई हैं। ये प्रेस भी अधिकाँशतः व्यापारिक श्रेणी के कब्जे में है।
३.     सत्ता को धन से जोड़ने की इच्छा । इसके द्वारा राजनीतिक और अव्यापारिक श्रेणियों को पूँजीके मातहत करने की कोशिश जो अपने को अबतक स्वतंत्र रखते आये थे अथवा सत्ता की स्थिति में हैं।अर्थात औसत जमींदार वर्ग को अपने मातहत करने का प्रयास जिसे शुक्ल कृषि से जुड़ा व्यापक जनसमुदाय कहते हैं।
असहयोग के सिद्धांत के साथ व्यापारिक श्रेणियों का उत्साह और उनकी पक्षधरता इसलिए है क्योंकि ये संपत्ति के साथ सत्ता भी पाना चाहते हैं। असहयोग या बहिष्कार मुख्यतः शिक्षित मध्यवर्ग से त्याग की आशा रखता है, जबकि व्यापारिक वर्गों से ऐसी आशा व्यावहारिक रूप नहीं ले पाती। बलिदान केवल अव्यापारिक श्रेणियों से माँगा जा रहा है। उनके लिए बहिष्कारका कार्यक्रम कोई नैतिक दबाव नहीं डालता।इसकी व्यावहारिकता तो पूरी की पूरी अव्यापारिक श्रेणियों के पक्ष में लागू होती है। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों से वापसी, राजकीय सेवाओं का त्याग, ज़मींदारों और किसान के रूप में परस्पर एक दूसरे से युद्ध करते रहने से अधिक व्यावहारिक तथा विदेशी व्यापारियों के साथ किसी एक भी वस्तु की सौदेबाजी के त्याग से बढ़कर अव्यावहारिक और क्या हो सकता है?” इस तरह असहयोग का चरित्र मुख्यतः हिन्दू उच्च वर्णी पुरानी प्रतिष्ठा वाले मध्यवर्ग के प्रति पक्षधर नहीं है और इसलिए शुक्ल जी उसे व्यापक जनता के हितों के खिलाफ पा रहे हैं। शुक्ल जी को गांधी की उक्तियों में बोल्शेविज्म का स्पर्शकेवल लोकप्रियता की तात्कालिकता को उभारने वाला लगता है। जबकि शिक्षा क्षेत्र के हमारे नवयुवकों को यह समझ रखना चाहिए कि देश में कोई भी संवैधानिक व्यवस्था लागू हो, किसी राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का सत्ता में समस्तरीय अधिकार नहीं हो सकता। मैं इस स्पष्ट तथ्य की ओर उनका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा।यह संबोधन उन नौजवानों की ओर विशेष रूप से था जो आंदोलन में शामिल थे और “... यूरोप के किसी नवीनतम उन्माद को मानव प्रगति का चरम बिंदु समझ कर स्वीकार कर लेते हैं और प्रत्येक वस्तु का पूरा सफाया कर देना चाहते हैं जो अतीत से उपलब्ध हुई है।कहना न होगा कि यह यूरोपीय उन्मादबोल्शेविक क्रान्ति थी! दूसरी ओर असहयोग के भीतर प्राचीन भारत के स्वप्नचिंतनमें रत पुनरूत्थानवादी भी हैं तथा ऐसे लोग भी हैं जो जाति, धर्म या मत के आधार पर एकता के विचारों को दृढ़तासे मानते हैं। इन परस्पर विरोधी धाराओं के बीच शुक्ल समन्वय असंभव मानते हैं।
व्यक्तिवादी प्रवृत्तियां और पूँजी तथा सत्ता का योग शुक्ल जी के लिए बहुसंख्यक जनसंख्या की मनोभूमियों का प्रतिनिधित्व करता है जो असहयोग में शामिल है। इन दोनों मनोभूमियों के योग से एक ऐसे राष्ट्रवाद की विचारधारा बनाई जा रही है जो औसत ज़मींदारके हितों के विरुद्ध हैं। इसलिए ज़रूरी है कि राजनीतिक और अव्यापारी श्रेणियां ऐसा मोर्चा कायम करे जो होमरूलके वास्तविक राष्ट्रवाद को प्रभावी धारा बना सके।उन्हें उन शहरी पूंजीपति तथा महाजन वर्गों के विरुद्ध एक सामान्य उद्देश्य बनाना चाहिए जो अपनी अनुकूल परिस्थितियों का नाजायज फायदा उठा कर उन्हें यथासंभव निम्नतम स्तर तक गिराने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि किसान और ज़मींदार के बीच कोई अभेद्य दीवार नहीं है। एक किसान ज़मींदार हो सकता है और एक ज़मींदार किसान।इस मोर्चे में मजदूरों को स्वयं शामिल मान लिया गया है क्योंकि उनकी भलाई जमींदार या किसान की मातहती में है! शुक्ल जी नोट करते हैं कि आंदोलनकारी सबसे बढ़ कर इन मजदूरों में अपने अपने उत्तेजक भाषणों से सबसे अधिक अशांति उकसाने में व्यस्त रहे हैं।शुक्ल जी के लिए इसके पीछे शहरों में मजदूरों को खींचने का उद्देश्य छिपा था जिसे सर्वाधिक अनभिज्ञ और सहज विश्वासी मजदूरसमझ नहीं पा रहे थे और औसत ज़मींदारोंका संकट बढ़ता जा रहा था। इस प्रकार के आंदोलनकारियों को शुक्ल जी नगरीय जनों का एजेंटकहते हैं।
निश्चित रूप से शुक्ल जी की कल्पना एक ऐसे राष्ट्रीय आंदोलन की थी जिसका सिद्धांत होमरूलहो। यह होमरूल पुराने वर्गसंबंधों के विभाजन को कायम रखते हुए नागरिक समाज की सामुहिकता चाहता है। वैयक्तिक स्वतंत्रता की अराजक विचारधारा के सामने शुक्ल उत्तरदायित्वपूर्ण व्यक्तिवाद चाहते हैं जो यह मान कर चलता है कि सत्ता में समस्तरीयअधिकार संभव नहीं और बोल्शेविज्म केवल लोकप्रिय विचारधारा है। दूसरी ओर जाति के अप्राकृतिक नियम के बदले व्यापारिक और राजनीतिक-अव्यापारिक श्रेणियों का स्पष्ट विभाजन ज्यादा सुसंगत सामाजिकता और इसलिए सुसंगत राष्ट्र के निर्माण का आधार होना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर हम शुक्ल जी के हिन्दू बहुल राष्ट्रवाद और सामाजिक जनवाद के सामंजस्य को समझ सकते हैं। कहना न होगा कि यह रक्षणशीलता के रक्षण की विचारधारा है। यह पूँजी के विरोध का चरम भ्रम पैदा करती है।



[1] मिलिंद वाकणकर, द मेमेंट ऑफ़ क्रिटिसिज्म इन इंडियन नेशनलिस्ट थॉट : रामचंद्र शुक्ल एंड द पोएटिक्स ऑफ़ अ हिंदी रेस्पोंसिबिल्टी; द साउथ अटलांटिक क्वार्टरली १०१:, पृष्ठ-९९०.फॉल २००२.
[2] देखें, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली, खंड-. सं. ओमप्रकाश सिंह. पृष्ठ-२०२-०४.
[3] वही. पृष्ठ-२०२.
[4] वही.
[5] वही २०३.
[6] आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली, खंड ४. पृष्ठ- १८१-१९२.
[7] वही. पृष्ठ-१८२..
[8] वही.
[9] वही. पृष्ठ-१८३.
[10] वही. १८४.

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