प्राच्यवाद का संकट : ग्रियर्सन और भक्ति

यह लगभग सर्वस्वीकृति सी बन गयी है कि प्राच्यवाद ने पूरब की एक ऐसी छवि गढ़ी जिसका उपयोग वह उपनिवेशवाद की विचारधारा के रूप में कर सके। यह साम्राज्य की सरकारी विचारधारा थी। पूरब को यूरोप के अतीत के रूप में चित्रित करना और उसकी भिन्नता को सामने रख साम्राज्य का औचित्यनिरूपण करना इसका एक महत्त्वपूर्ण वैचारिक हथकंडा बन गया था। पूँजी के विश्वविस्तार की विचारधारा के रूप में प्राच्यवाद का धर्म से बहुत करीबी रिश्ता था। जैसे यूरोप में राष्ट्रनिर्माण के लिए लोकप्रिय धर्मों का स्वरूप निर्धारण एक जरूरी प्रयास बन गया था, उसी तरह भारत के प्राचीन अतीत की एक स्वर्णिम छवि का पुनर्निर्माण भी किया जा रहा था। एशियाटिक सोसाइटी या फोर्ट विलियम कॉलेज इसके आरंभिक संस्थाबद्ध प्रयास थे। पश्चिम के कई विश्वविद्यालयों में भारत-विद्या के विभाग खुल गए थे और इन्हें धार्मिक, सरकारी या निजी संरक्षण भी प्राप्त था। इनमें पढ़ने-पढ़ाने वालों के भीतर पूरब को लेकर एक जबरदस्त आकर्षण था। धर्म का आकर्षण भाषाओं के अध्ययन के आकर्षण में बदल गया था। इनको विज्ञान और धर्म दोनों के विषय में एक जैसी रूचि थी। चिंतन में अधिकांशतः एक विधेयवादी पद्धति का आधिपत्य था। कई विद्वानों ने ध्यान दिलाया है कि पूरब यूरोप के लिए तथ्यों तथा अंकों का एक ऐसा जखीरा था जिसके आधार पर नृविज्ञान, समाजशास्त्र या धर्मविज्ञान के अनुशासनों का विकास किया जा रहा था। इन विभागों से धर्म और स्थानीय राजसत्ता का करीबी रिश्ता था। साम्राज्य के विस्तार, शासन और शोषण की नीतियाँ बनाने में इनका सहयोग जरूरी था। स्थानीय प्रशासन के लिए जिस तरह की वैज्ञानिक दृष्टि आवश्यक थी, वह विश्वविद्यालय के इन विभागों के सहयोग के बिना बहुत मुश्किल था। स्थानीय भाषाएँ, बोलियाँ, लोकमत और विश्वास इन सबके प्रति एक ‘वैज्ञानिक टेम्परामेंट’ विकसित करने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतविद्याविदों के पास विज्ञान की समकालीन विधेयवादी विचारधारा थी। विचारधारा के रूप में इसका एक बुर्जुआ लोकतान्त्रिक चरित्र था। वाद-विवाद, बहस-मुबाहिसे  और प्रयोग-परीक्षा के दौरान एक लोकतान्त्रिक नैतिक मूल्य का पालन किया जाता था। अपने- अपने अनुशासनों में इस नैतिकता का पालन हो पाए, इसे धर्म और राजसत्ता दोनों सुनिश्चित करते थे। भारत में जो यूरोपीय शोध संस्थाएं, सभाएँ या समितियाँ काम करती थीं, उनका यहाँ काम कर रहे ईसाई मिशनरियों से एक सांस्थानिक संबंध जरूर रहता था। जॉन अब्राहम ग्रियर्सन डब्लिन के जिस ट्रिनिटी कॉलेज से आये थे उसका एवांजलिकों से करीबी संबंध था । खुद ग्रियर्सन का एक भाई चर्च में पादरी हो गया था। ग्रियर्सन ने आई.सी.एस की आखिरी परीक्षा में बारहवां स्थान पाया और उस समय वह महज बाईस साल के थे जब वह भारत आये। कॉलेज का पूरब के साथ पुराना संबंध था और हर साल आने वाले नए छात्रों के सामने पहले से बना बनाया एक मॉडल रहता और उस मॉडल के प्रति वे सब एक खास नैतिक दायित्व से भरे होते थे। ग्रियर्सन के गुरु एटकिन्स संस्कृत और कई अन्य पूर्वी भाषाओं जैसे हिन्दुस्तानी, तमिल और यहाँ तक कि चीनी भाषा के प्रकांड विद्वान माने जाते थे। आगे चलकर उन्नीस खण्डों में और करीब दस हज़ार पन्नों के महाकाय ग्रन्थ (भारत का भाषा सर्वेक्षण) के अंत में ग्रियर्सन ने अपने गुरु एटकिन्स को याद करते हुए लिखा कि यह महती कार्य उन्हीं की इच्छा का फल है।
            प्राच्यविद्याविदों के सामने यूरोपीय पाठक समुदाय के साथ-साथ नेटिव विद्वानों का एक समुदाय भी रहता था। ज्ञान की स्थानीय परम्पराओं के साथ इनका रिश्ता दो चीजों के आधार पर बनता। या तो भौतिक चीजों का सीधा साक्षात्कार या फिर नेटिव विद्वानों की मध्यस्थता से प्राप्त तथ्य। यूरोप और भारत दोनों जगह इन पाठक समुदायों के निर्माण में प्रिंट पूँजी का योगदान कई विद्वानों ने लक्षित किया है। प्रकाशकों और प्रकाशक समूहों से विश्वविद्यालयों और प्राच्यविद्याविदों का भारी लेनदेन था। पूरब की फैंटेसी के लोकप्रिय साहित्यिक रूपांतरण एक बड़े पाठक वर्ग के उपभोग के लिए माल बन गए थे। पूरब की इन फैंटेसियों में धर्म और अध्यात्म सम्बन्धी खोजों और निष्कर्षों का उपयोग रहता और वे धड़ल्ले से बिकते थे। पाठकों के भीतर एक ऐसा वर्ग भी था जो विद्वत्तापूर्ण कार्यों में विश्वविद्यालयी नैतिकता का पक्षधर था और पूरब की मनचाही और ऊटपटांग कल्पनाओं की  आलोचना भी करता था। इस पाठकवर्ग में वैज्ञानिकों से लेकर चर्च के धर्माधिकारी तक शामिल थे। इस प्रकार अलग-अलग पाठक समूहों वाले विस्तृत बाजार में शोध भी एक पण्य वस्तु बन गई थी।
            वैज्ञानिक नैतिक विचारधारा मुख्यतः प्राकृतिक विज्ञानों से प्रेरणा पाती थी। जो लोग धर्म का इतिहास लिखते भी थे और प्राकृतिक विज्ञानों के इतिहास को धर्म के इतिहास से भिन्न भी दिखाते थे, वे भी अपने सिद्धांतों का आधार दरअस्ल प्राकृतिक विज्ञानों में घर कर गयी धार्मिक विचारधाराओं को ही बनाते थे। ग्रियर्सन के प्रिय लेखकों में एक वेबर ने भारत में ‘धर्म का इतिहास’ का पुनरावलोकन करते हुए लिखा (और जिसको उद्धृत कर ग्रियर्सन ने १९०३ में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ लन्दन की सभा में ‘तुलसीदास, कवि और समाजसुधारक’ शीर्षक अपने पर्चे कि शुरुआत की थी।) : “प्राकृतिक दर्शन के विज्ञान का उल्लास अपने अनवरत अस्तित्व में आते जाने के पर्यवेक्षण में है, - एक अकेले बीज के आदि से अंत तक के विकास के अनुसंधान में है। उसी प्रकार धर्म के इतिहास के अध्ययन में भी हम आदि से अंत तक किसी विचार की अलग-अलग अवस्थाओं का अनुसरण करते हैं। लेकिन दोनों मामलों में एक बड़ा अंतर भी है ; जहाँ प्रकृति में हर चीज का विकास सरल से पूर्ण की ओर होता है, धर्म के इतिहास में अधिकतर ठीक इसका उल्टा होता है। यहाँ जो आरम्भ में होता है वह न केवल सरल होता है बल्कि सबसे अच्छा, सबसे सही, सबसे सच्चा भी होता है। पर जैसे जैसे विकास होता जाता है विदेशी तत्त्व उसमे घर करते जाते हैं और जब तक हम अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं अपनी आरंभिक स्थापना से बिलकुल उलट किसी चीज के सामने खुद को पाते हैं। अंधविश्वास पस्थितियों पर नियंत्रण बना चुका होता है और कहानी के जलपरी की तरह हम एक सुन्दर लड़की का अंत एक कुरूप मछली में होते देखते हैं।”[1] इस तरह स्वर्ग के राज्य से लगातार पतित होने की धार्मिक विचारधारा को धर्म के इतिहास के विज्ञान की विचारधारा बना दिया गया। इससे धार्मिकता और वैज्ञानिकता दोनों की रक्षा होती थी और पाठकों के दोनों वर्ग इससे संतुष्ट रहते थे।
            अनुसन्धान की नैतिक चेतना ने उन प्राच्यविद्याविदों का सम्मान बहुत बढ़ा दिया था जो या तो पहले कंपनी के साथ या बाद में ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत पूरब में कई साल बिताकर लौटे थे। ऐसे विद्वानों में कुछ तो पूरब नितांत शोध के उद्देश्य से आते थे जबकि कुछ सरकारी पदों पर काम करते हुए ही अपनी निजी रूचि के विषयों पर शोध करते हुए एक दुहरी भूमिका निभाते थे। इन प्राच्यविद्याविदों का रोजमर्रा के सरकारी प्रशासनिक कामों में जनसाधारण या प्रजा के साथ निरंतर संपर्क बनता रहता और उनके दैनिक व्यवहारों, रीति- नीतियों और आचार-व्यावहार के साथ एक आवश्यक सामंजस्य बिठाना पड़ता था। प्रशासनिक कामकाज इन्हें शुद्ध वस्तुनिष्ठता के बदले व्यावहारिक वस्तुनिष्ठता की ओर खींचता था। यह व्यावहारिक वस्तुनिष्ठता वस्तुतः साम्राज्य के कामकाज की व्यावहारिक दिक्कतों से निपटने का लक्ष्य रखती थी। ग्रियर्सन की पहली किताब बिहार के किसानों और खेत-मजदूरों के दैनंदिन जीवन का एक वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करती थी, जहाँ कृषि योग्य मिट्टी के अध्ययन से लेकर लोक विश्वासों, कथाओं और देशी भाषाओं का अध्ययन भी शामिल था। इस प्रकार, लोकप्रिय धार्मिक मान्यताओं का अध्ययन या देशी भाषाओं का अध्ययन, ग्रियर्सन के लिए व्यावहारिकता का भी सवाल था।
            भक्ति का अध्ययन ग्रियर्सन के लिए धर्म और प्रशासन दोनों दृष्टियों से व्यावहारिकता का प्रश्न था। इस लेख में हम ग्रियर्सन की भक्ति विषयक अवधारणा को समझने के क्रम में ही प्राच्यवाद के संकट को भी पहचानने की कोशिश करेंगे।
भक्ति और साहित्य इतिहास लेखन
देशी भाषाओं के अध्ययन का उद्देश्य लेकर ही ग्रियर्सन १८७३ में भारत आये थे। अपने अध्ययन के क्रम में ही उन्होंने महसूस किया कि तुलसी या कबीर के दोहे और चौपाइयां लोगों से जीवंत और सहज संबंध बनाने में काफी मददगार साबित होती हैं। धीरे-धीरे उनकी रूचि तुलसी के प्रति बढ़ती गयी। उन्होंने १८८६ में ओरियंटलिस्टों की बर्लिन सभा में तुलसी विषयक अपना एक परचा पढ़ा था जिसका शीर्षक था ‘द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान, विद स्पेशल रिफरेन्स टू तुलसीदास’। इसके दो साल बाद ही ‘द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान’ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की तरफ से पत्रिका के विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुई। हिंदी साहित्य के इतिहास का ग्रियर्सन ने इस पुस्तक में एक ऐसा कैनन तैयार किया जो शुक्लजी के इतिहास का एक आधारभूत स्रोत बन गया और स्वतंत्र रूप से भी हिंदी साहित्य का एक आधारभूत ग्रन्थ माना जाता रहा। सुनीति कुमार चाटुर्ज्या की ग्रियर्सन के नाम २८ मार्च १९२८ की एक चिट्ठी है जिसमे चाटुर्ज्या लिखते हैं : “क्या आपके ‘द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान’ का दूसरा संस्करण निकट भविष्य में आने की कोई सम्भावना है ? (...)हिंदी साहित्य के इतिहास के लिए यह काम बहुत मौलिक है और अभी भी इसकी मांग है।”[2]
ग्रियर्सन के लिए तुलसीदास का विशेष सन्दर्भ ही दरअस्ल उनके साहित्य इतिहास के केंद्र में था। तुलसीदास को केंद्र में रखकर ग्रियर्सन दो काम कर रहे थे। एक ओर तो संस्कृत केन्द्रित प्राच्यविद्या को देशी भाषा साहित्य की ओर खींचने का प्रयास कर रहे थे, दूसरी ओर व्यावहारिक धर्म और भक्ति कविता को साहित्य के इतिहास में केन्द्रीय भूमिका प्रदान कर रहे थे। ग्रियर्सन के पहले गार्सा द तासी या शिवसिंह सेंगर के आरंभिक प्रयास कवि सूची संग्रह मात्र थे। ग्रियर्सन ने अपनी किताब में उर्दू कवियों को यह कहकर शामिल नहीं किया कि इनका परिचय गार्सा द तासी पहले ही दे गए हैं। ग्रियर्सन ने यह स्वीकार किया कि जिसे आधुनिक खड़ी बोली कहते हैं, वह दरअस्ल अंग्रेजों का बनाया हुआ है और इसके बावजूद उन्होंने ‘हिन्दुस्तान’ के जिस देशी भाषा साहित्य का इतिहास लिखा उसे चाटुर्ज्या ‘हिंदी’ का इतिहास ही कह रहे थे। कहना न होगा कि हिन्दुस्तानी भाषा के साहित्य के शास्त्रीय इतिहास लेखन में जायसी, सूर और तुलसी की त्रिवेणी ग्रियर्सन ने ही निकाली थी। तुलसी की कविता को ग्रियर्सन ने कई मामलों में कालिदास से भी श्रेष्ठतर कहा है। इस तुलना के ज़रिये एक तरफ वह संस्कृत शास्त्रीयता से चिपके प्राच्यविद्याविदों को देशी भाषा साहित्य की शास्त्रीयता के प्रति आकर्षित कर रहे थे, दूसरी ओर देशी भाषाओं के साहित्य की शास्त्रीयता को धर्म की व्यावहारिकता के आधार पर व्याख्यायित भी कर रहे थे। ग्रियर्सन के आरंभिक प्रयासों को कई पुराने प्राच्यविद्याविदों का भी समर्थन हासिल था। खुद मैक्समूलर, वेबर जैसे भाषा और धर्म इतिहास के विज्ञानियों ने ग्रियर्सन के प्रयास की सराहना की थी।
देशी भाषाओं के साहित्य इतिहास और उसमें तुलसीदास की केन्द्रीयता ने देशी विद्वानों का ध्यान भी अपनी ओर खींचा था। सुधाकर द्विवेदी जैसे प्रकांड पंडितों से लेकर सितारेहिंद और हरिश्चंद्र जैसे संस्कृतिकर्मियों के साथ निरंतर सहयोग और एक विवेकपूर्ण आत्मीय संवाद का ज़िक्र ग्रियर्सन ने कई बार किया है। इन विद्वानों के साथ चलने वाले संवादों से खुद ग्रियर्सन का वैज्ञानिक नैतिक दृष्टिकोण और उनकी बौद्धिक दृष्टि निर्मित हो रही थी। इसके अलावा स्थानीय धार्मिक सम्प्रदायों के भीतर भी ‘विवेक-सम्मत धर्म चिंतन’ करने वाले भक्तों के बीच भी ग्रियर्सन का काफी प्रभाव था। रामानंदी रसिक संप्रदाय से सम्बंधित और बाद में ‘रूपकला’ से संबोधित भगवान् प्रसाद का ग्रियर्सन से एक मनोरंजक संबंध हाल फिलहाल में भक्ति और साम्राज्य के रिश्तों पर लिखने वाले विद्वानों ने निरूपित करने का प्रयास किया है।[3] ‘द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान’ के पहले संस्करण के मुखपृष्ठ पर जिस चित्र को छापा गया था वह चित्र बनारस नरेश के कलाकारों ने बनाया था और संभवतः सितारे हिन्द ने ग्रियर्सन को उपलब्ध करवाया था। चित्र एक महल के आँगन का है जिसमें रामलला और लक्ष्मण के साथ-साथ कौशल्या के वात्सल्य प्रेम के निरूपण का प्रयास किया गया है।
            ‘द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान’ मुख्यतः अपने यूरोपीय पाठकों और श्रोताओं को समर्पित था। इसलिए ग्रियर्सन के लिए जरूरी था कि वह अपने यूरोपीय पाठकों की रूचि और उनके अपने ऐतिहासिक अनुभवों से हिन्दुस्तानी साहित्य के मूल्यों का तालमेल बिठाते चलें। इसके अलावा श्रोतों की वस्तुनिष्ठता, पद्धति और मूल्य–निर्णय इन सबके प्रति अपनी वैज्ञानिक नैतिकता को भी वह स्पष्ट करते चलते हैं। भूमिका में यद्यपि ग्रियर्सन ने अपने इस इतिहासलेखन के प्रयास को कवि सूची से ज्यादा महत्त्व नहीं दिया है। परन्तु ध्यान देने पर हमें वहां हिंदी साहित्येतिहास के आगामी विकास की स्पष्ट झलक मिल जाती है। भाषा, काल- विभाजन, नामकरण, कवियों का वर्गीकरण, किसी काल की सामान्य विशेषता आदि का निर्धारण वह किताब की भूमिका में ही करते हैं। ग्रियर्सन के अनुसार बर्लिन कांग्रेस की तैयारी के क्रम में ही उन्होंने उत्तर भारत के देशी भाषाओं के साहित्यों के बारे में जो नोट्स वर्षों के परिश्रम से इकट्ठे किये थे, उनको एक व्यवस्थित रूप दिया था। तब उन्होंने सत्रहवीं शताब्दी के पहले विद्यमान साहित्यों के छोटे से हिस्से को ही अपना विषय बनाया था। परन्तु इस काम से उत्साहित होकर उन्होंने हिन्दुस्तान के देशी भाषाओं के साहित्य की आदि से लेकर वर्तमान तक एक पूर्ण दृष्टि विकसित करने की कोशिश शुरू की। किताब इसी कोशिश का परिणाम थी। ग्रियर्सन ने इसमें करीब ९५२ कवियों के जन्म, मृत्यु और रचनाओं का पता दिया है जिनमें से केवल ७० कवि ऐसे हैं जिनका ज़िक्र तासी ने अपनी किताब में किया था। उन्होंने अपना लक्ष्य आधुनिक देशी भाषाओं के साहित्य तक सीमित किया और संस्कृत तथा प्राकृत की रचनाओं को बाहर रखा। प्राकृत की रचनाओं को ग्रियर्सन मानने के लिए तैयार थे, लेकिन वह आधुनिक देशी भाषा नहीं थी। संस्कृत और पुरानी देशी भाषाओं को निकालने के बाद इस सूची से उन्होंने उन ‘भारतीय’ लेखकों का नाम निकाल दिया जो अरबी, फारसी और अलंकृत साहित्यिक उर्दू में लिखते थे। ग्रियर्सन ने लिखा, ‘इनको मैं इसलिए भी निकालना चाहता था क्योंकि गार्सा द तासी ने पहले ही इसे निःशेष कर दिया है।’[4] दूसरी ओर हिन्दुस्तानी साहित्य का भूगोल निर्धारित करते हुए ग्रियर्सन ने पश्चिम में पंजाब और पूरब में बंगाल के निचले इलाकों को छोड़कर इनके बीच फैले राजपुताना, गंगा-यमुना के दोआब और पूरब में कोसी तक की विस्तृत भूमि को शामिल किया। उत्तर में दिल्ली, हरियाणा से लेकर दक्षिण में बुंदेलखंड, बघेलखंड इस भूगोल का उत्तरी-दक्षिणी अक्ष था। मुख्यतः तीन भाषा समूह इसमें शामिल थे। एक तरफ राजस्थानी- मारवाड़ी फिर ब्रज और अवधी तथा पूरब में ‘बिहारी’ भाषाएँ शामिल थीं। बिहारी भाषाएँ मूलतः ग्रियर्सन की अपनी कल्पना थी। ग्रियर्सन ने लोकगाथाओं और लोकगीतों जैसे कजरी आदि को अपने इतिहास में शामिल न कर पाने के लिए क्षमा प्रार्थना भी की है। वह क्षमाप्रार्थी इसलिए भी हैं कि एक तो इनका संग्रह केवल लोकमुख से सुनकर ही संभव था और यह काम केवल बिहार में ही वह कर पाए थे। और दूसरी ओर ग्रियर्सन को अहसास था कि किसी संपूर्णता में इनकी व्याख्या का प्रयास एक गलत दिशा में ले जाने को बाध्य था। ग्रियर्सन ने अपनी विषयवस्तु की वस्तुनिष्ठता क्षेत्रीय, भाषाई और विधागत सीमाओं के आधार पर इस प्रकार तय की थी। यहाँ साहित्य का इतिहास मुख्यतः लेखक केन्द्रित साहित्य का इतिहास था और लोक साहित्य एक अलग कोटि का साहित्य था। लेखक केन्द्रित इस व्यवस्था में ग्रियर्सन ने कई ऐसे कवियों और लेखकों का नाम और परिचय दिया है जिनकी कोई रचना उनके देखे उपलब्ध नहीं थी लेकिन परंपरा से वे कवि मान्य थे।
            अपने पाठकों को अपने काम की इस विशिष्टता के ग्रहण के लिए वो पूरी तरह तैयार करना चाहते थे। इसलिए वे चाहते थे कि एक यूरोपीय पाठक पूरब को केवल बाहर-बाहर से न देखे, बल्कि उसके सामने भारत का सांस्कृतिक आत्म अनुभव करने लायक हो जाये वह भिन्नता को एक ऐसी विशिष्टता के रूप में देखे जहाँ भिन्नता या भेद की रेखाएं गौण हो जाती हैं और एक सार्वभौमिकता का आभास मिलने लगता है। इसी रणनीति के तहत उन्होंने किताब के मुखपृष्ठ पर एक ऐसे चित्र को छापा जो राम के बचपन का परिवेशगत साक्षात्कार कराता है। यह चित्र ग्राउस के द्वारा किये गए रामायण (रामचरितमानस) के अनुवाद के किसी संस्करण में भी छपा था और स्वयं में ‘हिन्दू कला’ का एक श्रेष्ठ उदाहरण था और इसलिए ग्रियर्सन को उन्हें फिर से छापने में कोई दिक्कत नहीं थी। मुख पृष्ठ पर जहाँ किताब का नाम, प्रकाशक और प्रकाशन वर्ष का ज़िक्र है वहीं पर ग्रियर्सन ने किताब का मोटो भी दिया है। जर्मन भाषा में दिए गए इस मोटो का हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह होगा, “जो चारण काव्य समझता है उसे चारण काव्य की भूमि को भी समझना होता है।”[5] इरा शर्मा ने ध्यान दिलाया है कि ग्रियर्सन ने ये पंक्तियाँ गोथे की किताब ‘नोट्स एंड पेपर्स फॉर अ बेटर अंडरस्टैंडिंग ऑफ़ द वेस्ट-ईस्टर्न दीवान’ से ली हैं जो सन् १८१९ में प्रकाशित हुई थी और जिसे गोथे ने पूरब की कविताओं को बेहतर ढंग से समझने में सहायता के उद्देश्य से लिखा था। यह भी यूरोपीय पाठकों को संबोधित था और पूर्व से अनभिज्ञ लोगों को सीधे कविताओं के मर्म तक ले जाने की कोशिश करता था। गोथे बिना मध्यस्थता के पूरब को समझने की जरूरत को सामने रख रहे थे। गोथे ने अपने नोट्स में लिखा था कि पश्चिमी पाठकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे पूरब के लेखकों या कवियों को उनकी अपनी भाषा उनके अपने रीति-रिवाजों और उनके अपने समय के हिसाब से समझने कि कोशिश करे। “अगर हम चाहते हैं कि उन यशस्वी लेखकों के उत्पादन कर्म में भागीदार बनें तो हमें अनिवार्यतः खुद को पूर्वोन्मुख (ओरियंटलाइज़) करना होगा, पूरब चलकर हमारे पास नहीं आएगा।”[6] ‘देशी भाषाओं के साहित्य के पल्लवित उपवन’ में प्रवेश करने के पहले ग्रियर्सन भी अपने पाठकों से कुछ ऐसी ही मांग करते हैं। गोथे ने यह बात लगभग पचास वर्ष पहले कही थी और जिसे देशी भाषा साहित्य के इतिहास के सन्दर्भ में ही ग्रियर्सन एक मानक पद्धति मानते थे। स्वयं ग्रियर्सन लगातार ‘पूर्वोन्मुख’ होने की कोशिश कर रहे थे। ग्रियर्सन ने प्राच्यविद्या के अनुसंधानी विद्यार्थियों से अपील कि थी कि संस्कृत और प्राकृत के मोह से निकलकर देशी भाषाओं के अनुसन्धान में दिलचस्पी लें। इन देशी भाषाओं में ही पूरब के वर्तमान का वास्तविक जीवंत इतिहास है। उन्होंने जोर देकर कहा कि संस्कृत और प्राकृत की ‘अंतिम अवस्थाओं’ का साहित्य कृत्रिम और आलंकारिक है। संस्कृत साहित्य में जो ‘इतिहास की देवी’ एकदम मूक थी वह इन देशी भाषाओं के साहित्य में एकदम मुखर हो जाती है। जो लोग शिलालेखों और अभिलेखों में रूचि रखते हैं उनके लिए भी देशी भाषा साहित्य का अध्ययन एक फलदायी अनुसंधान होगा क्योंकि यहाँ कविरीति के रूप में रचनाओं का काल और कवियों के आश्रयदाताओं के नाम और स्वयं कवि का नाम भी उल्लिखित होता है। इसके साथ ही साथ कठिन संस्कृत ग्रंथों की देशी भाषाओं में टीकाएँ प्राप्त होती हैं। और इन भाषाओं में व्याकरण और साहित्यशास्त्र के भी ग्रन्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इस तरह ग्रियर्सन ने वैज्ञानिक अनुसन्धान में रूचि रखने वालों के लिए देशी भाषाओं में और उनके साहित्य में शोध को अपूर्व संभावनाओं वाला बताया। उन्हें इस क्षेत्र में जरूर प्रयास करना चाहिए। दूसरे शब्दों में विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के लिए यह एक नया कैरियर था। देशी भाषा साहित्य की जीवंत परंपरा एक ओर तो आलंकारिक और बनावटी संस्कृत साहित्य से अलग थी, दूसरी ओर ऐतिहासिक और वैज्ञानिक शोध के लिए उपयुक्त वस्तु भी थी। पढ़े लिखे लोगों के सीमित साहित्य से निकलकर इन देशी भाषाओं से साहित्य में जिसे ग्रियर्सन नव गौड़ीय साहित्य भी कहते थे वहां कवि सीधे प्रकृति के प्रति उन्मुख है। ग्रियर्सन के अनुसार इन कवियों में प्रकृति की अत्यन्त सूक्ष्म अवलोकन क्षमता है, ‘वृक्षों की वाणी’ सुनने कि अद्भुत योग्यता है। ग्रियर्सन लिखते हैं कि भाषा कवियों की प्रसिद्धि और उनका उत्तरजीवन उनकी इस काबिलियत पर निर्भर था कि वो प्रकृति को कितनी गहराई तक सुनते थे और उसकी व्याख्या कर पाते थे।
            किताब की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा कि उनकी इस किताब की सामग्री पूर्णतः देशी स्रोतों (नेटिव सोर्सेस) पर आधारित है। एच. एच. विल्सन की किताब ‘रिलीजियस सेक्ट्स ऑफ़ हिन्दुइज्म’ या फिर तासी की किताब का उपयोग केवल स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं का मिलान करने में ही किया गया है। अंग्रेजी की केवल एक ऐसी किताब थी जिसे ग्रियर्सन ने बहुत महत्त्वपूर्ण पाया था, वह थी टॉड की ‘राजस्थान’। इस किताब को छोड़कर राजपुताने के भाटों का अन्यत्र कोई परिचय उपलब्ध नहीं था। टॉड की किताब को भी पूर्णतः सही न मानते हुए ग्रियर्सन ने दूसरे अन्य ‘समर्थ देशी विद्वानों’ की सहायता से उस किताब के तथ्यों की जांच की थी। ऐसे समर्थ विद्वानों में ग्रियर्सन ने उदयपुर के पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या का ज़िक्र बड़े सम्मान के साथ किया है। इसके अलावा किताब के स्रोत के रूप में जिस ग्रन्थ की सबसे ज्यादा सहायता ग्रियर्सन ने ली है, वह है ‘शिवसिंह सरोज’। देशी स्रोतों के प्रति यह रुख पहले के उन प्राच्यविद्याविदों में नहीं था जो संस्कृत या प्राकृत के उच्च साहित्य और दर्शन का अन्वेषण करते थे। यहाँ तक कि इतिहासलेखन भी देशी भाषा स्रोतों की पूरी तरह उपेक्षा करता था। देशी स्रोतों की तरफ आकर्षण इस विषय की अपनी विशिष्ट मांग थी। दरअस्ल यह एक दुहरी प्रक्रिया थी जहाँ एक ओर देशी भाषाओं के अध्ययन से गुजरते हुए ग्रियर्सन देशी भाषा साहित्य के अध्ययन की ओर प्रवृत्त हो रहे थे, दूसरी ओर देशी भाषा साहित्य के इतिहास के लिए देशी भाषा स्रोतों की वस्तुनिष्ठता का आग्रह उनकी जरूरत भी बनता गया। ग्रियर्सन कहते हैं कि देशी भाषाओं के अध्ययन की वस्तुनिष्ठता आदि की तरफ आरंभिक प्रयास एशियाटिक सोसाइटी और फोर्ट विलियम कॉलेज में ही शुरू हो गया था। इनसे पहले देशी भाषाओं के लिखित स्वरूप का पता देने में रोमन कैथलिक मिशनरियों ने अपना काम जहाँ छोड़ा था उसे बाद के इन सांस्थानिक प्रयासों ने जारी रखा और विकसित भी किया। इन प्रयासों से ग्रियर्सन को उन्नीसवीं शताब्दी के पहले भाषा की स्थिति का ज्ञान होता है और उत्तर भारत की देशी भाषाओं और बोलियों के विकास का (ग्रोथ) का भी पता चलता है।[7]
            कहना न होगा कि यहाँ ग्रियर्सन अपनी खुद की ऐतिहासिक परंपरा का निर्धारण कर रहे थे। देशी भाषा स्रोतों की वस्तुनिष्ठता और उनके अध्ययन का इतिहास ग्रियर्सन को दूसरे प्राच्यविद्याविदों से अलग जरूर करता है पर वह खुद को प्राच्यविद्या के सतत विकास के भीतर ही देखना चाहते हैं। चाहे जो हो, यह कहा जा सकता है कि ग्रियर्सन ने प्राच्यविद्या की एक दूसरी परंपरा का महत्त्व भी सामने रखा और इसके लिए एक मॉडल भी तैयार किया।
            काल निर्धारण के सवाल पर ग्रियर्सन की दिक्कतें ज्यादा मुखर थीं। शोध की प्रारंभिक अवस्था के चलते स्रोतों का मानक निर्धारण, पाठ विधि आदि की तकनीक भी बहुत विकसित नहीं हुई थी। यह बात देशी भाषाओं के साहित्य इतिहासलेखन के साथ ज्यादा स्पष्ट थी बनिस्पत संस्कृत साहित्य के इतिहासलेखन के। राजनीतिक और सामाजिक इतिहासलेखन भी धार्मिक विचारधारा के प्रभाव से बाहर नहीं था। प्राच्यवाद में अन्तर्निहित विचारधारा के रूप में धर्म दर्शनों का प्रभाव प्राच्यविद्याविदों के सामान्य बोध में था।[8] वस्तुनिष्ठ शोधों को अधिकांशतः भाषाविज्ञान का सहारा लेना होता और इतिहासलेखन पर भाषाविज्ञान के सिद्धांतों का कितना ज़बरदस्त प्रभाव था, ये हम सब जानते हैं। ‘पूरब और पश्चिम की मुठभेड़’ से पैदा हुआ आर्यन प्रजाति का सिद्धांत मूलतः भाषाविज्ञान की महिमा ही थी। पिछली पीढ़ी के प्राच्यविद्याविदों की एक सर्व-मान्यता यह भी थी कि संस्कृत भाषा से भारतीय या हिन्दू आत्म का अनिवार्य संबंध है। उनके काल निर्धारण और नामकरण के लिए संस्कृत साहित्य ही मूल आधार था। यद्यपि शिलालेख, अभिलेख और पुरातत्त्वविद्या का भी इसमें सहयोग था। ग्रियर्सन जैसे लोगों के लिए जो देशी भाषाओं के शोध में प्रवृत्त हुए थे, उनकी मुठभेड़ एक जीवंत परंपरा से थी। इसलिए शोध की तकनीक उन्हें स्वयं विकसित करनी थी। यूरोप में देशी भाषाओं का आधुनिक इतिहास उनके सामने प्रतिमान था। अलग-अलग राष्ट्रीयताओं और देशी भाषाओं का इतिहास भी यूरोप के अलग-अलग राष्ट्रों में एक जीवंत परंपरा थी। लोकधर्म (या ग्रियर्सन जिसे फोक रिलीजन कहते हैं) या लोकप्रिय धर्म का आधुनिक बुर्जुआ राष्ट्रों के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण रोल रहा है। भाषा और इस लोकमत की एकता यूरोपीय प्राच्यविद्याविदों के लिए उनके दैनंदिन अनुभव का हिस्सा थी। खुद ग्रियर्सन आयरलैंड के थे और असंभव नहीं कि आयरिश राष्ट्रीय आन्दोलन का उनपर गहरा प्रभाव रहा हो। उत्तर भारत के देशी भाषाओं के साहित्य की जीवंत परंपरा में ग्रियर्सन काल को लेकर एक विकसित चेतना देखते हैं। यहाँ कवियों ने अपनी कविताओं में अपना नाम और रचनाकाल दोनों का निर्देश किया है। ग्रियर्सन के अनुसार अगर इनका सही पाठ किया जाए तो इन सबका ऐतिहासिक काल निर्धारण बहुत आसान हो जाता है। मुग़लकाल में कई इतिहासग्रन्थ भी लिखे गए थे। ग्रियर्सन इसे इतिहास की आत्मचेतना के विकास की तरह देखते थे। और अगर ऐसा था तो ग्रियर्सन वास्तव में देशी भाषाओं के साहित्य को आधुनिक साहित्य की तरह देखते थे, क्योंकि यूरोप में भी इतिहास की आत्मचेतना ही आधुनिकता थी। ‘मॉडर्न वर्नाकुलर’ में यह मॉडर्न शब्द केवल भाषाओं के लिए नहीं वरन् साहित्य के अर्थ में भी समझना चाहिये। लोकधर्म और आधुनिक राष्ट्र राज्य की विचारधारा वस्तुतः लोकप्रिय व्यावहारिक विचारधारा है। काल निर्धारण में ग्रियर्सन ने जिस एकमात्र ग्रन्थ का सहारा लिया, टॉड के उसी ‘राजस्थान’ की सहायता से ‘हिन्दुस्तानी साहित्य’ के इतिहास के ‘शैशव’ का कालनिर्धारण संभव हुआ। यह शैशव वीरगाथाओं का था। टॉड के यहाँ भाटों और चारणों का यह इतिहास मुख्यतः राजे- रजवाड़ों के यहाँ उनकी लाइब्रेरी में उपलब्ध ग्रंथों से या ज़ुबानी सुनकर बना था। टॉड भी आधुनिक राजस्थान का इतिहास लिख रहे थे। यह इतिहास मुख्यतः साहित्य केन्द्रित था। जब साहित्येतिहास लेखन में इसका उपयोग इतिहास की तरह किया गया तो यह अकारण नहीं कि उसमें साहित्येतिहास की ही आत्मछवि दिखती थी।
            ग्रियर्सन ने अंग्रेजी साहित्य के आधुनिक इतिहास की अलग-अलग अवस्थाओं और उनके नामों के साथ हिन्दुस्तानी साहित्य के इतिहास की अलग-अलग अवस्थाओं और नामों को मिला दिया। उनमें प्रवृत्तिगत एकता भी उन्होंने पहचान ली। संस्कृत जहाँ भारत का प्राचीन था वहीं देशी भाषाएँ भारत का आधुनिक। इस अवधारणा में ‘मध्यकाल’ हमेशा उलझनों से भरा रहा। ग्रियर्सन के यहाँ भी यह उलझन थी। हिन्दुस्तान जैसे ‘पिछड़े समाज’ में जो आधुनिक था वह साथ ही साथ मध्यकालीन भी था। विद्वानों के लिए रोजमर्रा के व्यवहार में ‘वर्तमान’ लोकव्यवहारों, भाषाओं और रीति-रिवाजों का इतिहास एक ही साथ आधुनिक भी था और मध्यकालीन भी। ग्रियर्सन ने यथासंभव  कालक्रमानुसार ही अपने इतिहास की अंतर्वस्तु को व्यवस्थित करने की कोशिश की है। परन्तु शोध की तत्कालीन स्थितियों में उन्होंने कालक्रम के पूर्ण निर्धारण को अत्यंत कठिन और लगभग असंभव बताया। जिन कवियों का काल निर्धारण नहीं हो पाया, ग्रियर्सन ने उन्हें अपने इतिहास के अंतिम अध्याय के ‘फुटकल’ खाते में डाल दिया। सबसे ज्यादा अध्याय सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी के कवियों के खाते में हैं। कुल अठारह में से छह अध्याय जिस नाम से व्यवस्थित है, वह है ‘ऑगस्तन काल’। यह वही काल है जिसे बाद में ‘भक्तिकाल’ कहा गया। इस काल को काव्यों के समूह के हिसाब से बांटा गया है जहाँ मालिक मुहम्मद जायसी की रोमांटिक कविता, ब्रज के कृष्णाश्रयी कवियों और तुलसीदास के साथ साथ केशवदास के स्कूल को शामिल किया गया। ‘आधुनिक काल’ की शुरुआत और ‘ऑगस्तन काल’ के अवसान के बीच ग्रियर्सन ने एक ‘बंजर काल’ की कल्पना की है, जिसका विस्तार अठारहवीं शताब्दी के शुरूआती वर्षों में मुगलों के पतन से शुरू होकर मराठा शक्ति के उत्थान और पतन तक है। ग्रियर्सन का यह ‘बंजर काल’ ही आगे चलकर ‘रीतिकाल’ हुआ। शताब्दी भर के इस ‘बंजर काल’ के बाद उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध ‘पुनर्जागरण’ के रूप में प्रकट हुआ। प्रिंटिंग प्रेस के साथ आने वाला यह ‘पुनर्जागरण’ ग्रियर्सन के लिए उत्तर भारत में ‘तुलसीदास की आत्मा के प्रसाद’ से स्वस्थ साहित्य के तीव्र प्रसार का काल था। इसी बीच अंग्रेजों ने ‘हिंदी भाषा’ का निर्माण किया। आधुनिक गद्य की वाहिका यही हिंदी भाषा थी।
            इस प्रकार आधुनिक देशी भाषाओं का साहित्य-इतिहास दो पुनर्जागरण कालों के बीच, तीन कालों में आतंरिक रूप से विभाजित था जहाँ मध्यकाल का एक ‘बंजर काल’ भी था। भाषा साहित्य का सबसे पुराना साक्ष्य ग्रियर्सन को वीरगाथाओं का मिला। यह राजस्थान के चारणों का काव्य था। चारण काव्य की यह परंपरा ग्रियर्सन के हिसाब से बारहवीं शताब्दी के अंत में जहाँ चंदवरदाई ‘पृथ्वीराजरासो’ लिख रहा था, वहाँ से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक लगातार मिलती है। ग्रियर्सन ने कहा कि इन चारण काव्यों को इस बात के प्रमाण रूप में देखना चाहिए कि भारतीय साहित्य में भी ऐतिहासिक काम हुए हैं, परन्तु इस बात को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लेना उचित नहीं है। इन चारण काव्य की काल सूचियों में नौवीं शताब्दी ईस्वी सन् जितनी पुरानी घटनाओं का ज़िक्र मिलता है और इसलिए इनमे काफी संदिग्धता बनी रहती है। परन्तु ग्रियर्सन कहते हैं कि ऐसी संदिग्धता खुद यूरोपीय काल सूचियों में भी मिलती है, जहाँ हम इस कारण उनके अनैतिहासिक होने की घोषणा नहीं करते। साथ ही साथ ये चारण काव्य ‘मुस्लिम आक्रमणकारियों’ के खिलाफ ‘भारत’ के संघर्ष के छह सौ सालों का इतिहास अपने में समाहित किये हुए है। यह इतिहास मूलतः राजपुताने का इतिहास था। आरम्भ से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक वीरगाथाओं की यह परंपरा ग्रियर्सन के देशी भाषा मानचित्र के सबसे पश्चिमी क्षेत्र की विशिष्ट साहित्यिक परंपरा थी।
            राजपुताने से पूरब की ओर बढ़कर ग्रियर्सन गंगा और यमुना की घाटियों में देशी भाषा साहित्य का विकास और वैष्णवता का विकास साथ-साथ पंद्रहवीं शताब्दी से होना लक्षित करते हैं। राम की पूजा को लोकप्रिय बनाने वाले रामानंद और उनके शिष्य कबीर इस वैष्णव उत्थान के आरंभिक कवि हैं। ग्रियर्सन लिखते हैं कि, “यहाँ आकर हमें पहली बार भावनाओं के उस अद्भुत कैथोलिकपन का संस्पर्श मिलता है जिसको रामानंद ने मौलिक रूप दिया था और जो उनके सभी अनुयाइयों में दिखाई पड़ता है और जिसे तुलसीदास की उच्च शिक्षाओं ने लगभग दो शताब्दियों बाद अपने शिखर पर पहुँचाया।”[9] वैष्णवता और साहित्य की इस परंपरा में रामानंद और कबीर से लेकर तुलसीदास तक ‘रामभक्ति के सतत विकास’ और इस विकास के क्रम में ‘अद्भुत कैथोलिकपन’ का प्रकटीकरण ग्रियर्सन के लिए एक आश्चर्यजनक बात थी। इस रामभक्ति में उन्हें सार संग्रहवाद के मत का सर्वोत्तम रूप दिखाई देता है। इस भक्तिधारा में उन्हें किसी ऐसे दर्शन या किसी ऐसे धर्म की आलोचना नहीं मिलती जो प्रेम और भाईचारे का सन्देश देता हो।[10]
            वैष्णव धर्म की दूसरी शाखा ग्रियर्सन के अनुसार कृष्ण और राधा के प्रेम की रहस्यवादी व्याख्या करती थी। इस शाखा के भीतर उन्हें ईसाई मत का केवल आधा ही सत्य स्वीकार्य दिखता है। उनके अनुसार राधा कृष्ण प्रेम में ईश्वर के प्रति प्रेम का आधा ईसाई सन्देश तो है लेकिन यह नितांत एकान्तिक है और ‘अपने पड़ोसियों से प्रेम’ का आधा सत्य छोड़ देता है। इस कारण जहाँ राम भक्ति मानव के प्रति मानव के सामान्य प्रेम के रूप में एक कैथलिक स­­­मर्पण का सन्देश देती है वहीं कृष्ण भक्ति एकान्तिक वैयक्तिक प्रेम को ही पूर्ण मानती है। अपने बंगाल के अनुभवों के हिसाब से ग्रियर्सन बताते हैं कि कृष्णभक्ति की गूढ़ अंतर्वस्तु सामान्यजनों की पहुँच से बाहर ही रह जाती है और भक्ति की उच्चता भ्रष्ट होकर तांत्रिक साधनाओं में परिणत हो जाती है। ऐसा नहीं है कि ग्रियर्सन कृष्णकाव्य में सौन्दर्य नहीं देखते। पश्चिम में मीराबाई की ‘जादुई कविता’ से लेकर पूरब में विद्यापति ठाकुर की कविताओं में वह निःस्वार्थ प्रेम की विलक्षणता का सौन्दर्य देखते हैं।
            इन दोनों सम्प्रदायों को थोड़ी देर पीछे रख ग्रियर्सन अपने पाठकों का ध्यान एक ऐसे व्यक्ति की ओर आकर्षित करते हैं जो एक ओर राजपुताने के चारणों की ही एक प्रशाखा से निकला था, दूसरी ओर इसकी रचनाओं पर कबीर की शिक्षाओं का भारी प्रभाव था। यह अवधी के कवि मलिक मुहम्मद जायसी थे। ग्रियर्सन ने लिखा कि हिन्दुओं की तरह अपनी रीति-नीति से नहीं बंधे होने के कारण जायसी ने लोकसामान्य भाषा का प्रयोग किया और फ़ारसी अक्षरों में उसे लिपिबद्ध किया। फारसी अक्षरों में लिखे जाने के कारण जायसी ने शब्दों के लोकप्रचलित उच्चारणों को जस का तस रखने की कोशिश की है, इसलिए यह भाषा के विद्यार्थियों के लिए भी महत्त्वपूर्ण था। दूसरी ओर ग्रियर्सन के अनुसार जायसी के यहाँ आकर देशी भाषाओं के साहित्य का ‘प्रशिक्षणकाल’ समाप्त हो जाता है।[11]
            चारण काव्यों की भाषा संक्रमण काल की भाषा थीग्रियर्सन के लिए वह हिन्दुस्तानी साहित्य का शैशव था। इसके बाद जवानी आई जिसमें साहित्य के सहारे एक लोकप्रिय धर्म का पुनरुत्थान हुआ या लोकप्रिय धर्म के पुनरुत्थान के साथ साहित्य की जवानी आई! यह वैष्णव पुनरुत्थान बौद्ध धर्म द्वारा खाली पड़ी ज़मीन को फिर से हरा भरा करने वाला था और इस मत के नए शिक्षकों को लोगों को समझ में आने वाली भाषा में अपना काव्य करना पड़ा। ग्रियर्सन के अनुसार जायसी के साथ राम और कृष्णभक्ति कविता ने एक ऐसी राह चुनी थी जो बिलकुल नई और अनिश्चित थी। इस अनिश्चित राह की भावना के लिए वह अपने यूरोपीय पाठकों के सामने स्पेंसर और मिल्टन का उदाहरण सामने रखते हैं। लोकप्रिय व्यावहारिक बोलचाल की भाषा में कविता करते समय इन कवियों के सामने भी एक बड़ी चुनौती थी और उन्हें भी अपने समय में लगभग एक जैसा ही ‘हेजिटेशन’ झेलना पड़ा होगा।[12]
            ग्रियर्सन कृष्णाश्रयी और रामाश्रयी कविता को दो भिन्न राष्ट्रीयताओं की कविता के रूप में देखते थे। यह बात उन्होंने स्पष्तः सन् १९०३ में तुलसीदास पर दिए गए अपने एक दूसरे व्याख्यान में कही थी। लेकिन यहाँ हम साहित्येतिहास में भी उनकी इस बद्धमूल धारणा की छाया देख सकते हैं। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी ‘राष्ट्रीयता’ की रक्षा और निर्माण तुलसीदास ने किया था। वह केवल कवि नहीं बल्कि एक बहुत बड़े समाज-सुधारक भी थे। ‘सारसंग्रह’ की अपूर्व क्षमता वाले इस कवि के लिए ग्रियर्सन के इतिहास में एक पूरा का पूरा अध्याय दिया गया था। यह स्थान न तो सूर को मिला था न जायसी को। इस बात से इतना स्पष्ट था कि ग्रियर्सन साहित्य के माध्यम से हिंदुस्तानी जातीयता और लोकप्रिय धर्म का भी आधुनिक इतिहास लिख रहे थे। पंजाब और पहाड़ी इलाके और पूर्वी बंगाल इस जातीयता की भौगोलिक सीमा में नहीं थे। मेवाड़- माड़वाड़ से लेकर मिथिला तक का इलाका और दक्षिण में बुंदेलखंड- बघेलखंड से लेकर मथुरा-दिल्ली तक का इलाका इसमें शामिल था। दूसरे शब्दों में इस हिन्दुस्तानी जातीयता का इलाका वही था जिसे आजकल हम हिंदीपट्टी के नाम से जानते हैं। ग्रियर्सन के लिए तुलसीदास इसी ‘हिंदी पट्टी’ की जातीयता के नायक थे। ब्रजभूमि और ब्रजभाषा के कवि के रूप में सूरदास की रचना श्रृंगार की रचना थी। पर अवधी के कवियों के रूप में जायसी और तुलसीदास की कविता प्रकृति की कविता थी। ग्रियर्सन ने तुलसी के यहाँ वह ‘पुरुष भाव’ भी देखा था जो जातीयता के विकास के लिए जरूरी होता है। दूसरे शब्दों में यूरोपीय राष्ट्रीयताओं के साथ लगे पुरुष भाव को हिन्दुस्तानी कवि तुलसीदास में भी उन्होंने पाया था। उनके लिए सूरदास की कविताओं में प्रेम का उज्जवल पक्ष तो है, वहाँ माधुर्य का सुन्दर कल्पनालोक तो है, पर यथार्थ नहीं है। यथार्थ या व्यवहार में यह माधुर्य और यह प्रेम व्यक्तिगत साधना और यौन आचारों में भ्रष्ट हो जाता है। ग्रियर्सन इसके लिए बार बार बंगाल का उदाहरण सामने रखते हैं जहाँ उन्होंने अपने प्रशासनिक जीवन का आरंभिक समय व्यतीत किया था।
            किताब की शुरुआत में ही ग्रियर्सन ने रसों के यथासंभव व्यावहारिक अंग्रेजी अनुवाद की एक सूची भी दी है। इन कवियों का परिचय देते समय ग्रियर्सन को रसों की चर्चा अनिवार्य लगी थी। साहित्य के इतिहास के साथ सौंदर्यशास्त्र का यह रिश्ता रस-सिद्धांत केन्द्रित था। तुलसीदास की कविताएँ व्यावहारिक  भी थीं और रससिद्ध भी। हिन्दुस्तानी के जातीय कवि तुलसी इसके जातीय नायक भी थे। इस प्रकार, तुलसीदास की यह महाछवि हमें हिंदी साहित्य के इतिहास के अपने निर्माण काल में ही मिल गयी। वैष्णव भक्ति को ग्रियर्सन लोकप्रिय बौद्ध धर्म की परंपरा से जोड़ते थे, जहाँ ‘ब्राह्मण धर्म’ की रूढ़ियों और जाति व्यवस्था का नकार तथा देशी भाषाओं का स्वीकार मिलता है। कई प्राच्यविद्याविद् राम के चरित्र को पहले ही ऐतिहासिक बुद्ध के चरित्र के साथ मिलाकर देखने की कोशिश कर रहे थे। अगले अनुच्छेद में हम यह यह देखने की कोशिश करेंगे कि ग्रियर्सन इस लोकधर्म को खोजने की कोशिश कैसे करते हैं।
बौद्ध धर्म, ईसाईयत और वैष्णवता : आधुनिक भारतीय लोकधर्म की खोज
भारतेंदु हरिश्चंद्र के यहाँ हमने वैष्णवता और लोकप्रिय धर्म के आधुनिक रूप का निर्धारण कैसे हो इसका प्रयास देखा था। ईसाई धर्म में ग्रियर्सन की रूचि कैसे और किस तरह की थी इसका बहुत कुछ सीधा पता हमें नहीं चलता। उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश ईसाईयत खुद एक भक्तिमय या श्रद्धामय सौंदर्यशास्त्र की ओर आकर्षित हो रहा था। ओवेन चॉडविक इसे ‘विक्टोरियन श्रद्धा’ कहते हैं। ऑक्सफ़ोर्ड आन्दोलन और आंग्ल कैथोलिकवाद के उत्थान के बीच इस श्रद्धा की अनंत छवियाँ थीं। ऐतिहासिक ईसामसीह को लेकर एक जबरदस्त आकर्षण था। पूजा के विधि विधानों में आलंकारिक प्रतीकों की विलक्षणता बढ़ती जा रही थी। ऑक्सफ़ोर्ड बिशप सैमुअल विल्फोर्स ने आर्च बिशप ऑफ़ कैंटबरी को एक चिट्ठी लिखी जिसमें बिशप सैमुअल कहता है कि, ‘मुझे विश्वास है कि अंग्रेजी मानस में एक उच्चतर पूजा विधान की ओर झुकाव है’[13] बाइबिल के अलग अलग पाठों और उनकी व्याख्यायों के कारण बाइबिल का कोई निश्चित पाठ निर्धारित नहीं हो पा रहा था और इसलिए उसको लेकर एक अस्थिर चित्तवृत्ति को परिश्रय मिल रहा था। पाठों की एक वैज्ञानिकता निश्चित की जा रही थी।विश्वविद्यालयों में बाइबिल के अध्ययन सम्बन्धी विभाग खुल रहे थे। और बाइबिल स्वयं शोध का विषय बन गया था। ईसामसीह के ऐतिहासिक व्यक्तित्व, उनके जीवन क्रम का विस्तार से अध्ययन और प्रेम की प्रतिमूर्ति के रूप में ईसा के मानवीय अवतार में विश्वास इन सबको मिलाकर ईसाई धर्म को एक वैज्ञानिक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिशें चल रही थीं। अमूर्त अनुभवातीत ईश्वर परदे के पीछे चला गया था। वैज्ञानिकता के इस जोर ने कई दूसरे धर्मों के वैज्ञानिक अध्ययन का भी रास्ता खोल दिया।
सन् १८७५ में मोनिर विलियम्स के व्याख्यानों का संग्रह ‘भारतीय विवेक’ या ‘इन्डियन विजडम’ के नाम से प्रकाशित हुआ। सालभर में ही इसके दो दो संस्करण निकल गए। मोनिर विलियम्स की यह किताब अपने यूरोपीय पाठकों के सामने भारतीय धर्मों के स्वरूप की झलक दिखने का दावा करती थी। किताब का एक मुख्य उद्देश्य ब्राहमण धर्म, बौद्ध धर्म या इस्लाम से ईसाई धर्म का अंतर और उसकी तार्किक श्रेष्ठता दिखाना था।  ग्रियर्सन की पिछली पीढ़ी के प्राच्यविद्याविदों में मोनिर विलियम्स या एच.एच. विल्सन का काफी प्रभाव था। विलियम्स ऑक्सफ़ोर्ड में संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे और व्याख्यानों का यह संग्रह भारतीय साहित्यों के प्रति बढ़ती रुचि को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। दूसरे संस्करण की भूमिका में विलियम्स ने लिखा कि भारत में शिक्षा की अपूर्व प्रगति के कारण देशी विद्वानों कि एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जो ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसरों को भी चुनौती दे सकती है। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि ज्ञान के अद्यतन विकास के साथ एक सुसंगत तालमेल बिठाये रखा जाए। विलियम्स के अनुसार शिक्षा में यह प्रगति ‘हमारे महान् भारतीय कॉलेजों और विश्वविद्यालयों’ के भीतर सरकारी नीतियों के कारण हुए ज्ञान विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले विकास का परिणाम है। भारत और ब्रिटेन एक दूसरे के इतने करीब आ गए थे कि मोनिर विलियम्स भारत के प्रति एक ज्यादा गहरी तथा शुद्ध दृष्टि के अन्वेषण की आवश्यकता महसूस कर रहे थे। भारतीय धार्मिक साहित्य के अनसुलझे और धुंधले इलाकों कि पड़ताल इसलिए भी जरूरी थी ताकि ऑक्सफ़ोर्ड खुद ज्ञान के एक आकर्षक केंद्र के रूप में बना रहे और विकसित हो जाये। इसके “व्याख्यान कक्ष , संग्रहालय और पुस्ताकलय भारतीय विषयों के सटीक स्रोतों के रूप में विकसित हों।”[14] यह पूरब और पश्चिम के संबंधों में विचारों की एक अंतर्सामूहिकता का विकास था। इस समुदाय में विचारवान और प्रबुद्ध देशी विद्वान भी शामिल हो रहे थे और इसके लिए वे लोग जाति और धर्म के परंपरागत बंधनों को भी तोड़ रहे थे। इनमें एक बड़ी संख्या उन विद्यार्थियों की भी थी जो स्वयं पश्चिम में जाकर शिक्षा हासिल कर रहे थे। विलियम्स ने ध्यान दिलाया था कि पूरब से आए प्रतिभावान विद्यार्थियों का यह समूह कई बार हमारे लेखकों, विचारों और रचनाओं को हमसे भी बेहतर ढंग से समझ रहा था। इतना स्पष्ट था कि अंग्रेज और भारतीय दोनों समुदायों में यह चेतना बन गयी थी कि शिक्षित समाज अपने अपने देशों की बौद्धिक, नैतिक और भौतिक स्थितियों के अतीत और वर्तमान के अध्ययन के कर्तव्य से जी नहीं चुरा सकता था।[15] विलियम्स ने लिखा कि जिनके ऊपर उन्हें शासन करना है और भलाई से विश्वास हासिल करना है उनके मानस का वस्तुगत अध्ययन अनिवार्य है। ऐसी स्थिति में विलियम्स पैसों के बदले ईसाईयत और एक बेहतर सरकार के मुद्दे पर ध्यान देना सभी अंग्रेजों का कर्तव्य मानते थे। विलियम्स लिखते हैं कि पूरब का साम्राज्य ब्रिटिश शासन के अंतर्गत खोखली और नीच राजनीति और सामाजिक प्रयोगों के लिए नहीं आया था और न ही वाणिज्य व्यापर के विस्तार और अपने गर्व को बढ़ाने का यह शासन साधन है बल्कि यह शासन एक बड़ी आबादी के लालन पालन और उन्नति के साथ साथ सच्ची ईसाईयत के प्रभाव विस्तार के लिए है। मोनिर विलियम्स ने अपील किया कि इस महती उद्देश्य के लिए ईसाई धर्म अपने भीतर इतनी सहिष्णुता के लिए तैयार हो जहाँ वह देशी धर्मों के तार्किक अध्ययन को भी संरक्षण दे सके।
            विक्टोरियन नैतिकता और वैश्विक आस्था के धार्मिक अनुभव का बोध विलियम्स की तरह मैक्समूलर में भी था। परन्तु जहाँ मोनिर विलियम्स ईसाई मिशनरियों के एवांजलिक स्वरूप को महत्त्व देते थे वहीं मूलर इसको लेकर सशंकित थे। मूलर का विश्वास था कि सभी महत्त्वपूर्ण विश्व धर्मों में अनिवार्यतः प्रेम का बीज वर्तमान है इसलिए ईसाइयों का काम केवल इस प्रेम को विकसित होने में मदद करने का है। मूलर कहते थे कि इसकी कोई जरूरत नहीं कि, “ईसाईयत को अपनी पूर्णता के साथ इंग्लैण्ड से भारत में लाकर पुनः रोपा जाये, मानों एक पूर्ण विकसित वृक्ष को उखाड़कर फिर से दूसरी जगह रोपने की कोई आवश्यकता है।”[16] भारत के प्रति सरकारी रवैया बनाने में बनारस के जॉन म्युल और मथुरा के एफ एस क्राउस का भी बड़ा भारी योगदान था। विलियम्स या मूलर की अपेक्षा इन लोगों का भारत में एक लम्बा अनुभव रहा था। इनके कामों में उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की वह एवान्जलिकल मिशनरियों वाली प्रवृत्ति नहीं थी और ये लोग ईसाई और हिन्दू धर्मों के बीच तुलनात्मक अध्ययन पर जोर देते थे। म्यूर ने १८३० और ४० के दशक में भगवद्गीता के बाइबिल मूल से उत्पत्ति का मत रखा और १८६०-७० के दशक तक आते आते ग्राउस ने मूल के बदले दोनों धर्मों की सामान्य भूमि को कृष्ण और क्राइस्ट के प्रति भक्ति और प्रेम में ढूँढने की वकालत की। ग्राउस ने रामचरितमानस का भी अंग्रेजी अनुवाद किया था। ग्रियर्सन पर इन प्राच्यविद्याविदों का काफी प्रभाव था।
            ईसाई धर्म की सहिष्णुता और उसकी सार्वभौमिकता को लेकर ग्रियर्सन लगभग निश्चिन्त थे। उनको भी सभी विश्व धर्मों के भीतर एक स्वाभाविक ईसाई आत्मा पर विश्वास था। अपने आरंभिक देशी  भाषा साहित्य के अध्ययन के दौरान ही वैष्णवता और ईसाई धर्म के बीच एक साम्य ग्रियर्सन को दिखाई देने लगा था। बंगाल में अपने कामकाज के दौरान स्थानीय धार्मिक सम्प्रदाय के भीतर एक वैष्णव सार की पहचान उन्हें हो रही थी। सन् १८७८ में माँ ‘मानिकचंद्र के गीतों’ पर विचार करते हुए ग्रियर्सन ने हादी फ़कीर के सम्प्रदाय के शैव मूल और उसके बाद के वैष्णव रूपांतरण को लक्ष्य करते हुए लिखा : “वह एक महान् संत था और उसका धर्म उसके इतिहासकारों का अनुसरण करता है। उसका इतिहास बांचने वाला योगी आज के समय विष्णु के धर्म शिक्षकों का अनुयायी है (इन्हें लोकप्रिय और भ्रष्ट वैष्णवों से अलग करके देखना चाहिए); और इसलिए वह अपने गुरु या नायक को अपने सम्प्रदाय का घोषित करता है। इस सुन्दर और लगभग ईसाई धर्म की खासियत थी जो जातियों की समानता का उपदेश देता था; कैसे हर घाटी को पाटा जा सकता है और रुखड़ी सतहों को चिकना किया जा सकता है। नीचों में भी नीच, आदमियों के बीच तुच्छ और तिरस्कृत कैसे सबसे पवित्र सम्प्रदाय के मठ के कठोरतम ब्राह्मण के समान ही पवित्रता हासिल करने की सामर्थ्य रखता है।”[17] वैष्णव धर्म के भीतर यह ईसाई सुन्दरता मुख्यतः प्रेम और विश्वबंधुत्व के मूल्यों वाली थी। ग्रियर्सन ने दिखाया कि इस वैष्णव धर्म में जातिव्यवस्था में जो सबसे निम्न है, वह भी ईश्वर की पवित्रता का उतना ही अधिकारी है जितना उस पवित्र सम्प्रदाय का मठाधीश। यह वैष्णव धर्म उन्हें भिन्नताओं को मिटाने वाला, उनमें सामंजस्य स्थापित करने वाला और संघर्ष को दबाने और इतिहास को चिकना और सपाट कर सकने  में सिद्धहस्त दिखा। यह इस सामंजस्य के चरमोत्कर्ष में झलकने वाला सौन्दर्य था जो ग्रियर्सन को ईसाईयत के सार की तरह ही लग रहा था। सम्प्रदायवाद के खिलाफ ‘सारसंग्रहवाद’ लोकप्रिय धर्म का जरूरी तर्क था। अकारण नहीं कि आगे चलकर ग्रियर्सन ने तुलसीदास की रामभक्ति को सारसंग्रहवाद का सबसे उन्नत प्रतीक बताया था। प्राच्यविद्याविदों के बीच हिन्दू धर्म के भीतर जाति व्यवस्था इस धर्म का सबसे बड़ा दुर्गुण था। ‘ब्राह्मणवादी धर्म’ के भीतर जातियों का कठोर विभाजन इस बात का प्रमाण था कि उसमें ईसाई धर्म की वैश्विकता का अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ है। यह वैश्विकता सभी मनुष्यों को पवित्रता का समान अधिकारी बताने में निहित थी क्योंकि वहां सभी एक ही ईश्वर के पुत्र माने गए हैं। ईसाई धर्म मानता था कि हमारी अनेकताओं के बीच एकता पहले से ही स्थापित है। बौद्ध धर्म में जातिव्यवस्था का नकार था और वह लोकप्रिय भी था। इस लिहाज से प्राच्यविद्याविदों के सामने ईसाई धर्म की श्रेष्ठता साबित करने के लिए सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रमाण उपलब्ध थे।
ग्रियर्सन के लिए बौद्ध धर्म की खाली जगह वैष्णव आन्दोलन के द्वारा फिर से प्राणवान होती है, यह हमने पीछे देखा है। ग्रियर्सन योगियों की परंपरा के वैष्णव रूपांतरण और कृष्णभक्ति की साम्प्रदायिक वैष्णवता को अलग कर रहे हैं। हांलाकि उपरोक्त लेख में योगियों का संबंध ग्रियर्सन बौद्धों के बदले शैवों से जोड़ते हैं पर इतना तय है कि उनके लिए वैष्णव सार ‘ब्राह्मणवाद विरोधी’ है। मानिकचंद्र की कहानी की व्याख्या करते हुए ग्रियर्सन मानिक के राज्य में कम टैक्सों के चलते किसानों की खुशी, बाद में एक बंगाली दीवान के भ्रष्ट होने और उसके द्वारा टैक्सों में बेतहाशा वृद्धि और उसके चलते किसानों में असंतोष और इसी बीच रंगपुर बुखार से राजा की मृत्यु की चर्चा करते हुए इसके ऐतिहासिक और सामाजिक चरित्र को सामने रखने की कोशिश करते हैं। जनता के असंतोष का कथा के आख्यान के रूप में कैसी पुनर्प्रस्तुति थी और कहानी के सांप्रदायिक इतिहासकारों के द्वारा उस असंतोष की कैसी पुनर्प्रस्तुति थी, इन दोनों से ही इस वैष्णव लोकप्रिय धर्म के सामाजिक महत्त्व का पता मिलता है। जाति व्यवस्था और कृषक जीवन के वस्तुगत अनुभव के आधार पर ग्रियर्सन ने आगे चलकर भी काम किया था। बिहारी कृषि जीवन पर आधारित ग्रियर्सन की किताब को कई विद्वान बिहारी लोकजीवन का ‘विश्वकोश’ भी कहते थे। इस तरह लोकप्रिय धर्म, देशी भाषा साहित्य और लोक साहित्य तथा सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों के बीच  के व्यावहारिक रिश्तों को लेकर ग्रियर्सन शुरू से ही सतर्क थे। वैष्णव धर्म का सौन्दर्य ग्रियर्सन के अपने अनुसन्धान में शामिल ईसाईयत के भीतर से बनने वाली वैज्ञानिक नैतिकता की विचारधारा का सौन्दर्यीकरण था। दूसरे शब्दों में यह विक्टोरियन कैथोलिक समर्पण को लोकप्रियता के सौन्दर्यशास्त्र के रूप में देखता है। ग्रियर्सन का यह सौंदर्यशास्त्र बाहरी दुनिया की व्यावहारिकता से अलग नहीं था। यह वैष्णव धर्म भी केवल कल्पना और व्यक्तिगत साधना के बदले प्रेम और विश्वबंधुत्व का धर्म था। विभिन्न धार्मिक मतों, सम्प्रदायों और लोक विश्वासों के बीच यह वैष्णवता भिन्नताओं को पाटने वाले लोकप्रिय धर्म के रूप में विकसित हुआ था जिसे ग्रियर्सन भारत का अतीत नहीं बल्कि वर्तमान मानते थे। अपने सर्वोच्च रूप में यह वैष्णवता ईसाईयत से अभिन्न ही थी।
            बौद्ध धर्म के बारे में प्राच्यविद्याविदों की राय को हम मोनिर विलियम्स और वेबर के उदाहरणों से समझ सकते हैं। विलियम्स लिखते हैं कि : “जैसा कि पहले कहा जा चुका है बौद्धवाद का ब्राह्मणवाद से संबंध कुछ अर्थों में वैसा ही था जैसा कि ईसाईयत का यहूदी मत से; और यद्यपि यह सही है कि ईसाईयत के विपरीत, जो कि सेमेटिक यहूदियों के बीच पैदा होकर यूरोप के आर्यों के बीच फैला था, बौद्ध मत भारत के आर्यों के बीच ही पैदा हुआ और बाद में चलकर तूरानी प्रजातियों के बीच फैला।”[18] विल्सन ने लिखा कि ईसाई धर्म की तुलना में एक सामान्य भूमि की तलाश प्राच्यविद्याविदों को स्वभावतः बौद्धवाद कि तरफ ले जाती है। परन्तु बौद्ध धर्म के अन्दर व्यक्तित्व का उन्मूलन और अस्तित्व का विनाश सर्वोच्च लक्ष्य घोषित किया गया था जिसकी प्राप्ति वासनाओं और मनोवेगों के आत्मदमन से और कर्म से तटस्थता से ही संभव थी। इसलिए वहां व्यक्तित्व का कोई विकास संभव नहीं था जैसा कि ईसाई धर्म में है। और दोनों में समानता केवल दोनों धर्मों की उच्च नैतिकता की समानता थी।[19] बुद्ध पुरोहितवादी और जातिवादी समाज को चुनौती देने वाले एक समाज सुधारक के रूप में उस महती आवश्यकता को स्वर प्रदान करते हैं जो बहुतों के अनुभव में पहले से ही वर्तमान थी। वह आवश्यकता थी : “सारे धार्मिक मतों के बीच परम स्वतंत्र लेनदेन की घोषणा के द्वारा एक असह्य पुरोहितवादी एकाधिकार का बिखराव और जाति आधारित सारे विशेषाधिकारों का उच्छेद।” [20] आगे उन्होंने लिखा कि जहाँ ब्राह्मणवाद में ईश्वर मनुष्य बन जाता है वहीं बौद्ध धर्म में मनुष्य ईश्वर।
            इस तरह विलियम्स नैतिक अर्थों में ‘बुद्धवाद’ को ईसाई धर्म के करीब पाते थे। हम देख सकते हैं कि यह नैतिकता सामन्ती एकाधिकार के खिलाफ पूँजी के ‘फ्री ट्रेड’ की नैतिकता थी। धार्मिक मतों के बीच यह स्वतंत्र व्यापार तभी संभव था जब जाति आधारित सर्वोच्चताओं का नाश हो। बौद्धधर्म की चारित्रिक विशेषता के रूप में जाति आधारित सभी विशेषाधिकारों के उन्मूलन को सामने रख एक अर्थ में विलियम आधुनिक ईसाई धर्म का ही अतीत में पुनरान्वेषण कर रहे थे। बुर्जुआ क्रांतियों के दौरान भी ईसाई और यहूदी धर्मों के बीच चलने वाले विचारधारात्मक संघर्ष के केंद्र में भी ‘फ्री ट्रेड’ की नैतिकता एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती रही थी। इस संघर्ष की चर्चा मार्क्स ने ‘पवित्र पुस्तक’ नामक अपनी किताब में भी की है।
            दूसरी ओर धर्मों का इतिहास लिखने वाले वेबर, बुद्ध और राम के ऐतिहासिक चरित्र की एकता का प्रयास कर रहे थे। पूर्वी धर्मों के इतिहासों का पुनरावलोकन करते हुए उन्होंने लिखा कि राम के व्यक्तित्व में संभवतः एक बौद्ध प्रभाव है जिसे हमें पहचानने की ज़रूरत है। [21] बुद्ध खुद राम की तरह ही विष्णु के अवतार हैं। विष्णु के अंतिम अवतार की कल्पना में कल्कि को बुद्ध मैत्रेय के रूप में पहचाना जा सकता है। वेबर का कहना था कि राम की मूल धारणा के आधार में प्रकृति-प्रतीकवाद या सभ्यता के विकास के आरंभिक रूपों से कोई न कोई संबंध ज़रूर था लेकिन इसके आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि राजकुमार के रूप में बौद्ध आदर्श का राम के व्यक्तित्व के विकास पर कोई प्रभाव नहीं था। राम के चरित्र में बुद्ध की धारणा और उसके मिथकीय पुनर्निर्माण के कारण ब्राह्मणवाद लोकप्रियता अर्जित करता है और बौद्धों के हाथों से लोकप्रिय नेतृत्व छीन लिया जाता है। ऐसा संभव इसलिए हो पाया क्योंकि बौद्ध धर्म की शुष्कता मानव हृदय को ज्यादा समय तक संतुष्ट नहीं कर पाई और “ the folk returned again to their old penates, which, by the clever connivance of Brahmans, were presented to them in new and more attractive forms.[22] वेबर कृष्णाश्रयी वैष्णवता पर ईसाईयत का प्रभाव मानते थे जबकि रामाश्रयी वैष्णवता पर बौद्ध धर्म का।
            ग्रियर्सन के आरंभिक प्रयासों में ही ईसाईयत की ऐसी धारणा शामिल थी जो ‘हिन्दू ईसायत’ या ‘ईसाई हिन्दूपन’ के रूप में हिदुस्तान की स्वाभाविक धार्मिकता की जगह ले सकती है। यह डार्विन के बाद की ईसाई नैतिक चेतना थी। १९०६ में ग्रियर्सन ने एक लेख विदेशी भूमि में गोस्पेल की कथाओं के प्रचार के लिए बनी एक सभा या मिशनरी की अपनी त्रैमासिक पत्रिका ‘द ईस्ट एंड द वेस्ट’ के लिए लिखा। लेख में उन्होंने ‘हिन्दूवाद’ और आरम्भिक ईसायत के सम्बन्धों पर अपने विचार एक आस्थावान ईसाई की तरह व्यक्त किया है। लेख के आरम्भ में ही वह कहते हैं कि हिन्दू धर्म के बारे में जो यह सामान्य बोध बन गया है कि वह पूरी तरह बुराई का प्रतीक है, पूर्णतः पैगन है या पूर्णतः ईसाई विरोधी है, यह सरासर गलत है। इसके विपरीत हिन्दू धर्मों के भीतर कई तत्त्व ईसाईयत के कारण ही हैं और जिनका शुद्ध रूप सामने रख उन्हें विकसित होने का मौका देना हमारा उद्देश्य होना चाहिए न कि उन्हें नष्ट करना।[23] अपने अंग्रेज़ी श्रोताओं को संबोधित करते हुए ग्रियर्सन सच्चे ईसाई धर्म और कृष्ण भक्ति के अतिवाद के बीच स्पष्ट विरोध प्रकट करते हैं। उनका कहना था कि व्यक्ति पुरुष और नारी के बीच प्रेम पर आधारित कृष्ण भक्ति सच्ची ईसाई भक्ति को भ्रष्ट करने वाली है। यहाँ आकर वे उत्तर भारत की राम भक्ति और बंगाल में प्रचलित कृष्ण भक्ति को न केवल एकदूसरे से अलग करते हैं बल्कि उनके बीच परस्पर विरोध भी देखते हैं। उन्होंने लिखा : “ The contrast between the Ram worshippers of northern India and the Krishna worshippers of Bengal is most marked. The northern Indian is brave, sober, and hard working. We recruit our armies from his villages. It was the sepoys of northern India who had the courage to stand up against the Sahibs in great Mutiny, gave asylum to hundred of Englishmen and women fleeing for their live, and who refused under all temptation to give them up... Rama worship has made a nation of men.”[24] (जोर मेरा) इस प्रकार ग्रियर्सन ने चार्ल्स किंग्सले की ईसाई पौरुषता और रुडयार्ड किपलिंग की मार्शल रूमानियत दोनों को मिलाते हुए भारतीय लोकधर्म के ईसाई चरित्र की कल्पना की। ‘राम भक्ति ने पुरुषों का राष्ट्र’ बनाया जबकि कृष्ण भक्ति तो स्त्रैण और भ्रष्ट है! उत्तरभारत और १८५७ के बारे में यह कल्पना ग्रियर्सन की अपनी सृष्टि थी। रामभक्ति के रूप में एक भारतीय ईसाई धर्म जो कि भारतीय मूल्यों वाला है, उसी को और केवल उसी को भारत का जातीय धर्म होने का गौरव मिल सकता था। धर्म के प्रत्यारोपण के सिद्धांत के खिलाफ ग्रियर्सन ने लिखा कि रामभक्ति वाली वैष्णवता में ही वह आशा और सामर्थ्य है कि वह “ हमारे भारतीय साम्राज्य का राष्ट्र धर्म (जातीय धर्म) बन जाए। हमारा काम भरे-पूरे वृक्षों को रोपना नहीं बल्कि बीज बोने का है... जब एक बार यह अंकुरित हो जाएगा तब फिर से हमारा काम शुरू हो जाएगा- हमारे पश्चिमी जीवन के कृत्रिम विकास की ओर ठेलने का काम नहीं बल्कि अधिक आधारभूत मूलों वाले वृक्षों के स्वयं विकसित होने के लिए पथनिर्देशक और रक्षक का काम...क्या हमें यह आस्षा नहीं करनी चाहिए कि अगर यह नई कलम मजबूत और भव्य होगी- भारतीय मिट्टी की अपनी उपज होगी तो वह पूरब और पश्चिम दोनों की कमियों से मुक्त होगी?”[25]
            लेख में दो महत्त्वपूर्ण चीजें ध्यान देने योग्य हैं। एक ओर ग्रियर्सन स्पष्ट शब्दों में उत्तर-भारत या मध्यदेश की एक अलग जातीयता की पहचान कर रहे हैं जिसकी कल्पना बंगाल की जातीयता को सामने रख कर की जा रही है। दूसरी ओर मध्यदेश की जातीयता और उस जातीयता के निर्माण में योग देने वाला लोकधर्म केवल रामभक्ति के क्षेत्र में ही नहीं वरन् सन् सत्तावन के विद्रोह में भी अपना स्वरूप स्पष्ट करता है। जातीयता का यह पुरुषोचित भक्तिमय स्वरूप विद्रोह और प्रेम के अपूर्व समन्वय में है। पुरुषों के राष्ट्र की कल्पना यूरोपीय राष्ट्र-राज्यों के अपने इतिहास की देन भी थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के साहबों के खिलाफ १८५७ का विद्रोह एक ‘वीर जाति’ का विद्रोह था। यह मध्यदेश की अपनी खासियत थी। विद्रोह और परहित का मणिकांचन योग! कृषक समाज के अपने अध्ययन के दौरान जिस लोकप्रिय जनमानस की कल्पना ग्रियर्सन ने की थी उसका संपूर्ण सौन्दर्य उन्हें १८५७ के विद्रोह के समय दिखाई देता है। अब साम्राज्य के अधीन भारतीय राष्ट्रीयता को स्वयं विकसित होने का अवसर प्रदान करने और केवल उसे रास्ता दिखाने का दायित्व ब्रिटिश साम्राज्य पर है। ग्रियर्सन इस मामले में प्राच्याविद्याविदों की उस पीढ़ी से थे जो १८५७ के बाद भारत आई थी और नए प्रशासनिक और व्यावहारिक  प्रश्नों से जूझ रही थी। मिशनरी के कार्यों की आलोचना भी करती थी। यह हम पीछे देख चुके हैं। जातीयता और राष्ट्रीयता के सही विकास में निर्देश के लिए इन प्राच्याविद्याविदों के आगे राष्ट्रीय आन्दोलन का पहला चरण भी शुरू हो गया था। कंपनी राज के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के सीधे नियंत्रण में आने को ये प्राच्यविद्याविद् महत्त्वपूर्ण घटना की तरह देख रहे थे। यह एक नए राष्ट्र के जन्म का रूपक भी था जिसे अभी धीरे-धीरे पूर्णता की ओर विकसित होना था। इस विषय पर थोड़ी चर्चा अगले अनुच्छेद में भी करेंगे।
            ग्रियर्सन के ईसाईयत और वैष्णवधर्म सबंधी नवीन शोधों ने न केवल प्राच्यविद्या के भीतर नए शोधों का मार्ग तैयार किया वरन् हिंदी जातीयता के विमर्शों को भी एक नया फ्रेम प्रदान किया। उत्तरभारत की जातीयता और रामभक्ति के इस अपूर्व संयोग ने हिंदी साहित्य के इतिहास को गहरे अर्थों में पूर्व निर्धारित किया था। इतिहासकार बायली ने लिखा था कि ग्रियर्सन ने पिछले सौ साल के सरकारी चिंतन को पलट दिया था। इस महत्त्वपूर्ण योगदान से स्वयं उत्साहित हो कर ग्रियर्सन ने जो सबसे अटकलपंथी प्रस्ताव रखा उसके अनुसार बारहवीं शताब्दी के वैष्णव उभार का मूल उत्स दक्षिण के नेस्टोरियन ईसाई प्रभाव में है। प्राचीन मृत राष्ट्र में नवजीवन का संचार बिना ईसाई प्रभाव के असंभव था। जिस कैथोलिक श्रद्धा और समर्पण के सौन्दर्य को वह चौदहवीं शताब्दी के वैष्णव नव उठान में देखते थे उसके बारे में यह प्रसिद्ध था कि उसकी धारा दक्षिण से आई थी। पर ग्रियर्सन के अतिउत्साह ने रामानुज पर नेस्टोरियन ईसाइयों के प्रेम और भक्ति के प्रभाव में इस नववैष्णव उठान के बीज खोज निकाले। हांलाकि कीथ आदि यूरोपीय विद्वानों और भंडारकर जैसे देशी विद्वानों ने इसकी संदिग्ध और भ्रामक ऐतिहासिकता की जमकर आलोचना की और ग्रियर्सन ने जल्द ही अपनी इस मूलवादी मान्यता को किनारे रख दिया, लेकिन हिंदी साहित्य के भक्ति चिंतन में यह बहस अगले तीन दशकों तक बनी रही। १९०७ के अपने उसी व्याख्यान में ग्रियर्सन ने ‘बिजली की चमक’ की तरह भक्ति आन्दोलन के हिन्दुस्तान के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल जाने की बात की थी। इस व्याख्यान में उन्होंने भक्ति के स्वरूप निर्धारण का विस्तृत प्रयास किया था।
            भक्ति के सगुण रूप का महत्त्व उनके लिए एकेश्वरवाद से उसकी निकटता में था। उन्होंने जोर देकर कहा था कि भक्ति नर रूप की ही संभव है, निर्वैयक्तिक ईश्वर की नहीं। भक्ति के स्वरूप का स्पष्ट शास्त्रीय निर्धारण शांडिल्य भक्ति सूत्रों में मिलता है।  १९०७ में उन्होंने शांडिल्य सूत्रों का अनुवाद दिया और अगले साल ‘नारायणीय’ के चुने हुए अंशों का अनुवाद ग्रियर्सन ने ‘द नारायणीया एंड द भाग्वताज़’ शीर्षक लम्बे लेख के परिशिष्ट में दिया था। लेख पर भंडारकर के विचारों का गहरा प्रभाव खुद ग्रियर्सन ने भी स्वीकार किया था।[26]  १९०७ वाले अपने व्याख्यान में ग्रियर्सन ने भक्ति मार्ग की सबसे विलक्षण चीज़ ‘ईश्वर के सान्निध्य की भावना’ को माना।[27] दूसरी महत्त्वपूर्ण चीज़ भक्ति का जाति निरपेक्ष चरित्र था। ग्रियर्सन लिखते हैं कि यह उस गुरु रामानन्द का प्रताप था जिसने ‘ईसाई प्रभाव के नए श्रोत से जल पीकर’ एक ऐसे सम्प्रदाय की प्रस्तावना की जहाँ का मोटो ही था ‘जाति पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’।[28] भक्ति को ग्रियर्सन एक ‘धार्मिक क्रान्ति’ मानते थे। एक ऐसी क्रान्ति जिसका असर अभी भी उनकी आँखों के सामने था और ‘लाखों लाख हिन्दुओं के आध्यात्मिक जीवन’ को प्रेरणा देता था। इस दुनिया के ‘उत्थानकर्ता’ राम हैं। तीसरी चीज़ थी भक्ति मार्ग में ‘ब्रह्म स्वरूप हो जाने का नाम मुक्ति है’। यहाँ उच्छेद या अवशोषण( अनिहिलेशन एंड अब्सोर्बसन) की चर्चा नहीं मिलती जो कि बौद्ध क्षणिकवाद का शुष्क लक्षण है। यहाँ ‘स्वरूपता’ के चलते आत्मा परमपद में अनंत काल तक वास करती है। चौथी महत्त्वपूर्ण चीज़ जिसकी तरफ ग्रियर्सन ध्यान दिलाते हैं वह है भक्ति मार्ग में महिलाओं की उपस्थिति। यह केवल पुरुषों का मार्ग नहीं था। मीराबाई के साथ साथ ग्रियर्सन ने गरीब लकड़हारे की पत्नी बाँका, सुरसुरि जो रामानन्द के बारह शिष्यों में थी, ओरछा के राजा मधुकरशाह की रानी गणेश देरानी के साथ साथ दिल्ली की किसी ‘मैग्डेलेन’ (शायद अनारकली!!) का भी ज़िक्र किया है। पांचवीं चीज़ थी वैष्णव हिन्दू धर्म में ‘त्रित्व’ का वह सिद्धांत जो ईसाईयत के बहुत करीब था। परमात्मा, उसका अवतार और उसकी शक्ति। पुराने ब्रह्मा, विष्णु और महेश में केवल संख्या के अलावे ईसाई त्रित्व के सिद्धांत का कोई मेल नहीं था।[29] छठी महत्त्वपूर्ण चीज़ थी ‘गुरु’ की धारणा। सातवीं ‘शब्द’ की धारणा। अंतिम दोनों चीजों के सन्दर्भ कबीर थे। ग्रियर्सन ने लिखा कि ‘शब्द’ की धारणा सेंट जॉन के गोस्पल की आरंभिक पंक्तियों की ‘शानदार नक़ल’ है। भक्ति मार्ग की आठवीं विशेषता भी मुख्यतः कबीर पंथियों के यहाँ दिखती है। यह विशेषता है ‘महाप्रसाद’ या ‘सामूहिक भोज’ की धारणा। उन्होंने लिखा कि कबीर पंथियों के यहाँ प्रचलित ‘प्रीति-भोज’ की धारणा रोमन कैथोलिकों की अपेक्षा आरंभिक ईसाइयों में प्रचलित ‘ईसाई प्रीति-भोज’ की धारणा से मिलती है।
            इन महत्त्वपूर्ण विशेषताओं वाली भक्ति हिन्दुओं की बहुसंख्यक आबादी के धार्मिक विचारों का आधार थीं। ग्रियर्सन ने ध्यान दिलाया कि पश्चिम में लोकप्रिय सर्ववादी वेदांती दर्शन दरअस्ल पढ़े-लिखे एक छोटे से वर्ग के धार्मिक विचारों का ही प्रतिनिधित्व करती है। जबकि भारत के मैदानों की लगभग सारी ‘गैर-मुसलमान’ जनता के जीवन का आदर्श यही वैष्णव धर्म है। इसी धर्म के आधार पर ग्रियर्सन ने संस्कृत-केन्द्रित अतीत के अन्वेषण के बदले देशी भाषा साहित्य की अनवरत परम्परा के शोध का मार्ग प्रशस्त किया था।[30]
            नेस्टोरियन ईसाइयों के मौलिक प्रभाव स्वरूप भक्ति के उदय की व्याख्या को छोड़ कर अगले साल ग्रियर्सन ने नारायणीय और भागवत् धर्मों के भीतर से भक्ति के देशज विकास को व्याख्यायित करने की कोशिश की। इस लेख में भी भक्ति के आधिकारिक सिद्धांत ग्रन्थ के शांडिल्य भक्ति सूत्रों की चर्चा की। पिछले साल वह इन सूत्रों का ईसाई धर्म से कितना नैकट्य है, इसका संकेत कर आये थे। यहाँ भक्ति मार्ग के सुदूर अतीत से उसका अनवरत विकास दिखाना उनका लक्ष्य था। यहाँ ‘नक़ल’ वाली व्याख्या पीछे छूट गयी थी। भक्ति के उद्भव को या दूसरे शब्दों में कहें तो एकेश्वरवाद के विकास को ईसा-पूर्व की घटना बताकर ग्रियर्सन भक्तिमार्ग और ईसाई धर्म के संबंध को दो स्वतंत्र धर्मों के विकास के रूप में दिखाने की कोशिश की है। प्रभाव और प्रक्रिया में विशिष्टता के साथ नेस्टोरियन ईसाई मत के प्रभाव को पूरी तरह अस्वीकार न करते हुए भी अन्य प्राच्यविद्याविदों ख़ास कर गार्बे की भक्ति विषयक धारणाओं को उन्होंने भारतीय ईसाईयत के विकास की तरह प्रस्तुत किया। मध्यदेश की केन्द्रीयता यहाँ भी है। यह वही रंगभूमि थी जहाँ आर्यों ने सभ्यता का विकास किया था। ग्रियर्सन बौद्ध और ब्राह्मण संघर्ष के तीसरे पक्ष के रूप में भक्तिमार्ग को देख रहे थे। ऐतिहासिक रूप से धर्म और दर्शन की एकता को वह भारत की विशेषता के रूप में रेखांकित करते हैं जो कि एक पुरानी धारणा का ही दुहराव था। ब्राह्मणों के अतिकर्मकांडी और जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ भागवत् धर्म को उन्होंने क्षत्रिय जाति के उत्थान से जोड़ कर देखा।[31] इसके साथ-साथ भागवत् धर्म में अभिव्यक्त एकेश्वरवाद को अपने दार्शनिक आधार के लिए कैसे मध्यदेश के बाहरी या परिधि के इलाकों की ओर रुख करना पड़ा इसकी एक रूपरेखा भी दी गयी। सांख्य से भागवत् धर्म का संबंध भगवत् गीता में और महाभारत के ‘मोक्षधर्मपर्व’ में इतना स्पष्ट था कि और किसी साक्ष्य की ज़रूरत ही नहीं थी। अपने यूरोपीय पाठकों के लिए उन्होंने इसी ‘मोक्षधर्मपर्व’ और उसके अंतिम हिस्से ‘नारायणीय’ का अनुवाद परिशिष्ट में दिया था। शुद्ध नास्तिक बौद्धवाद को ग्रियर्सन सांख्य-योग की ही एक उपशाखा मानते थे। पर उनके अनुसार बौद्धवाद जितना भागवत् के ‘एकेश्वरवाद’ से दूर था उतना ‘सर्ववादी’ ब्राह्मणवाद से नहीं। ऐसी स्थिति में सर्ववादी ब्राह्मणवाद ने बौद्धवाद के खिलाफ भागवत् एकेश्वरवाद के साथ मोर्चा बना लिया। ऐसी स्थिति में भागवत् धर्म का ब्राह्मणीकरण हुआ। वासुदेव को विष्णु का अवतार बना लिया गया और इस प्रकार क्षत्रिय एकेश्वरवाद में ब्राह्मणवादी कट्टरवाद का प्रवेश हुआ। इस प्रकार एक ‘ब्राह्मणवादी ब्राह्मण-विरोधी’ (Brahmaized anti-Brahmaists) सम्प्रदाय का निर्माण संभव हुआ। ग्रियर्सन कहते हैं कि इस ‘शांति प्रस्ताव’ को भगवत् गीता के पुराने हिस्से में देखा जा सकता है। धीरे-धीरे वासुदेव और कृष्ण की एकता के साथ भागवत् धर्म ज्यादा से ज्यादा ब्राह्मणीकृत होता गया। मध्यदेश में जहाँ ब्राह्मणवाद का गढ़ था वहां ग्रियर्सन के अनुसार भागवत् धर्म ने उपनिषदों के ब्राह्मण धर्म को भी अपना लिया लेकिन उसे कभी भी अपने धर्म में केन्द्रीय महत्त्व नहीं दिया।[32] दूसरी ओर ‘महान् भागवत् धर्म’ में सांख्य और योग की केन्द्रीय भूमिका हमेशा बनी रही । ग्रियर्सन सांख्य को भागवत् धर्म का दर्शन मानते थे। मध्यदेश के कट्टर ब्राह्मण धर्म का दर्शन वह ‘ब्राह्मणवादी सर्ववाद’ को मानते हैं जिसे आगे चलकर शंकर ने अपने अद्वैतवाद में व्यवस्थित रूप दिया। ग्रियर्सन ने यह भी दिखाया है कि दक्षिण भारत में एकेश्वरवादी सांख्य-योग का पुराना शुद्ध रूप बहुत हद तक बचा रहा था और इसलिए वहां शंकर के अद्वैतवाद का प्रबल विरोध हुआ। आगे चलकर रामानन्द की शिक्षाओं के माध्यम से रामानुज के दर्शन में अन्तर्निहित सांख्य-योग का पुराना शुद्ध रूप मध्यदेश के नकली ब्राह्मणवाद के ऊपर चढ़ आया और इस प्रकार कबीर-तुलसी आदि के माध्यम से भागवत् धर्म के पुराने प्रांजल रूप का भक्ति मार्ग के रूप में पुनरुत्थान संभव हुआ। यह एकेश्वरवाद का पुनरुत्थान था। एकेश्वरवाद के लिए ग्रियर्सन ने ‘एकान्तिक’ साधना के साक्ष्यों को सामने रखा और चौदहवीं शताब्दी से नवोत्थित वैष्णवता के भीतर भक्ति धर्म की रामभक्ति शाखा में उस एकेश्वरवाद की सबसे उन्नत अभिव्यक्ति देखी। यह भागवत् धर्म का ‘अभ्युदय’ था जिसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति रामचरितमानस है, जहाँ परमात्मा, परमात्मा के अवतार और उसकी शक्ति का चरमोत्कर्ष दिखता है।
            भक्ति का लौकिक जीवन में व्यावहारिक  उपयोग और उसका चारित्रिक प्रभाव भक्तों के जीवन चरितों में और उनके साम्प्रदायिक इतिहासकारों के यहाँ मिलने वाली कथाओं और कविताओं में व्यक्तिगत रूप से भी ग्रियर्सन ने अनुभव किया था। भक्तों के जीवन चरित और भक्ति कविता के सम्बन्धों की सरस अभिव्यक्ति ग्रियर्सन को नाभादास के ‘भक्तमाल’ में दिखाई दे रही थी। ईसाईयत और भक्ति के सम्बन्धों पर व्याख्यान के अगले ही साल १९०९-१० में ग्रियर्सन ने भक्तमाल का परिचय अपने योरोपीय पाठकों से कराया। भक्त चरितों के साथ तत्कालीन सम्प्रदायों में निहित सामूहिकता की भावना को भी ग्रियर्सन समझने की कोशिश कर रहे थे। उनके पास न केवल देशी भक्तों और अनुयायियों के सामूहिक निर्माण का अनुभव था बल्कि विदेशी भक्तों के प्रयासों से बनने वाली सामूहिकता का अनुभव भी था। मिशनरी प्रयासों की निरर्थकता इस अनुभव के सामने और भी स्पष्ट हो गयी थी। ‘भक्तमाल की झलक’ अपने पाठकों को दिखाते हुए वह भक्ति की इहलौकिक सरसता को सामने रखने की कोशिश कर रहे थे। धार्मिक अनुभवों की सौन्दर्यशास्त्रात्मक अभिव्यक्ति के रूप में रस की व्याख्या करते हुए ग्रियर्सन ने ‘गिलिंग्स फ्रॉम द भक्तमाल’ में एक लम्बा नोट लिखा- ‘नोट ऑन द एम्प्ल्योमेंट ऑफ़ द टर्म “फ्लेवर” (रस)। नोट में उन्होंने लिखा : “ हर धार्मिक भावना किसी न किसी वस्तुगत वर्चस्वशील भाव... तदनुसार एक विषयीगत मनोवृत्ति या अनुभव को पैदा करती है, तकनीकी रूप से प्रभावित व्यक्ति में वही रस कहलाता है।”[33] निष्कर्ष के रूप में ग्रियर्सन लिखते हैं कि ‘वर्गीकरण व्यवस्था’ के साथ ‘हिन्दू प्रेम’ धार्मिक इलाकों में भी देखा जा सकता है और “थोड़े से प्रयास से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय धार्मिक अनुभवों की ईसाई इंग्लैण्ड में प्रचलित कन्वर्सन या अंतरण पर आधारित घटनाओं से कितनी नजदीक स्वीकृति है।”[34]
            इस प्रकार ग्रियर्सन ने एक शुद्ध भारतीय ईसाईयत की खोज करते हुए आधुनिक ‘लोकधर्म’ की खोज का रास्ता भी प्रस्तावित किया। इन दोनों अवधारणाओं का आधार उन्होंने देशी भाषा स्रोतों को बनाया था। ईसाईयत की आत्मछवि के रूप में भक्ति साहित्य हिंदी की आत्मछवि भी था। आगे चलकर मध्यदेश की साम्राज्य विरोधी राष्ट्रीयता और देशभक्ति का महत्त्वपूर्ण निर्धारण ‘हिंदी जातीयता’ की इसी आत्मछवि के कैनन में संपन्न हुआ था। ध्यान रखना चाहिए कि प्राच्यवाद का संकट खुद प्राच्यवाद को विकसित करने वाले संकट के रूप में आकार ग्रहण कर रहा था। पूँजी की विचारधारा के रूप में विकसित होने वाला प्राच्यवाद मूलतः एक धार्मिक विचारधारा की आभा में बढ़ रहा था। यह विचारधारा लोकप्रिय धार्मिकता का राष्ट्रवादी रूपांतरण भी थी। यह औपनिवेशिक पूँजी का आतंरिक अंतर्विरोध था जहाँ व्यावहारिक धार्मिक विचारधाराओं की आवश्यकता नित नए रूपों में बनी रही। यह अपने रूपों में भले ही साहित्यिक हो लेकिन इसकी अंतर्वस्तु पूंजी के बदलते सामाजिक सम्बन्धों में ही थी। यह लोकप्रियता के सौन्दर्शास्त्र का आरंभिक प्रयास था। इसका अतीत साहित्यों का ‘मृत अतीत’ नहीं बल्कि देशी भाषाओं का जीवंत अतीत था। वैष्णव लोकप्रिय भक्ति मार्ग और रामचरितमानस की यह एकता एकान्तिक थी जिसे नए राष्ट्र के रूप में अभी पूर्णतः विकसित होना था।

तुलसीदास, रामभक्ति और ‘राष्ट्र की आत्मा का जन्म’
            ‘मॉडर्न वर्नाकुलर’ तक आते आते ग्रियर्सन का तुलसी प्रेम अपना ऐतिहासिक महत्त्व पा चुका था। ११८६ में बर्लिन वाले व्याख्यान में देशी भाषों के अध्ययन, तुलसी की लोकप्रियता और व्यावहारिक धर्म की उपयोगिता आपस में गुँथ कर एक सैद्धांतिक आधार ग्रहण करती दिखाई देती है। हमने ‘मॉडर्न वर्नाकुलर’ में देखा कि कैसे तुलसी दास के रूप में रामानन्द और मुसलमान जुलाहे कबीर का चरमोत्कर्ष ग्रियर्सन के यहाँ रामभक्ति की निरंतर विकसित होती धारा का चरमोत्कर्ष था। यह चरमोत्कर्ष अनन्य ‘सारसंग्रहवाद’ के रूप में तुलसी के यहाँ दिखाई पड़ता है। कृष्णाश्रयी ब्रजशाखा से दूर बनारस में रहने वाले तुलसी कृष्णभक्ति की ‘अनुकरणधर्मी’ परम्परा से दूर थे। ग्रियर्सन ने नोट किया कि तुलसी के अनुयायी भले ही लाखों हों लेकिन उनका अनुकरणकर्ता कोई दूसरा पैदा नहीं हुआ। वह लिखते हैं कि जब हम पीछे मुड़कर सदियों दूर तक अपनी दृष्टि फेरते हैं तो तुलसी दास अपने संपूर्ण वैभव के साथ ‘हिन्दुस्तान के रक्षक’ के रूप में अकेले खड़े मिलते हैं।[35] ग्रियर्सन को भी तुलसी दास जैसा ‘लोकनायक’ कोई दूसरा नहीं दीखता। और उनकी प्रसिद्धि कभी कम नहीं हुई बल्कि आज तक बनी हुई है और दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। भारतीय इतिहास में बुद्ध के बाद वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने “पड़ोसियों के प्रति मानवीय कर्त्तव्य का पाठ पढाया और जनता के बीच स्वीकृत हुए।” जिनकी किताब हजारों लाखों लोगों की बाईबिल ही।
            ग्रियर्सन शायद एक मात्र ऐसे प्राच्यविद्याविद् थे जो तुलसी पर लगातार लिखते रहे और निरंतर अपनी मान्यताओं को संशोधित परिवर्धित भी करते रहे। कहना चाहिए कि ईसाईयत या बाइबिल की शिक्षाओं के साथ मानस की शिक्षाओं का मिलान एकतरफ़ा नहीं था। अपने योरोपीय पाठकों और साम्राज्य के सामने धर्म और साम्राज्य के सच्चे हितैषी के बतौर खुद को प्रस्तुत करते हुए ग्रियर्सन मानस का और प्रकारांतर से ‘भारतीयता’ या ‘हिंदी जातीयता’ की धारणा का भी वह प्रतिनिधित्व करते थे। चौदहवीं शाताब्दी के अनन्तर वैष्णव धर्म या भक्तिमार्ग का अभ्युदय उनके लिए भारतीय इतिहास में घटित एक ‘धार्मिक क्रान्ति’ थी। ग्रियर्सन इस क्रान्ति के आलोक में भारतविषयक सारी पुरानी मान्यताओं और धारणाओं के पुनर्विश्लेषण की मांग करते हैं। ग्रियर्सन हिन्दू धर्म के आतंरिक इतिहास के बीच खड़े होकर, स्वयं को मानस का प्रवक्ता मान कर यूरोप को संबोधित करते हैं। इस अर्थ में वह ‘नेटिव इन्फोर्मर’ की पुरानी धारणा को भी बदलने की कोशिश कर रहे थे। वह नेटिव इतिहासकार की भूमिका में खुद को देखते थे। यहाँ वैज्ञानिक अनुसंधान अपने स्थानबोध को इस हद तक स्वीकार करता है जहाँ वह स्थानीयता का स्वतंत्र सार्वभौमिक चरित्र विकसित होता दिखा सके। जो भेद पूरब और पश्चिम के बीच था वह अब पूरब में पश्चिम और पश्चिम में पूरब को खोजने से आगे निकल कर पूरब की विशिष्ट सार्वभौमिकता को पहचानने की कोशिश कर रहा था। कहना न होगा कि सार्वभौम की धारणा अभी भी धार्मिक थी। इस अर्थ में ग्रियर्सन आधे ईसाई और आधे वैष्णव भक्त बनते गए। उनके लिए भक्ति भारत की अपनी ईसाईयत थी। हमने देखा था कि ईसाई प्रभाव से भक्ति के उद्भव की व्याख्या को ग्रियर्सन बड़ी आसानी से छोड़ देते हैं। साथ ही साथ भक्तमाल जैसे देशी भाषा स्रोतों को जीवंत इतिहास मानते हुए खुद भक्त की तरह उसकी वस्तुनिष्ठता और आत्मनिष्ठता की जांच करते हैं। उस पर मुग्ध भी होते हैं। किंवदंती या काल्पनिक गाथाओं के भीतर से भक्ति के सामाजिक महत्त्व को समझने की कोशिश भी करते हैं। इस प्रयास को ‘मॉडर्न वर्नाकुलर’ या उसके पहले ‘मानिकचन्द्र के गीतों’ की व्याख्या क्रम में भी हमने लक्ष्य किया था। पद्मावत की पांडुलिपियों का पुनर्प्रकाशन और जायसी की काव्यात्मक-भाषाई प्रतिभा का निर्धारण भी ग्रियर्सन ‘नेटिव इतिहासकार’ की तरह करते हैं। कबीर की किम्वदंतियों के आधार पर उन्हें ‘मुसलमान जुलाहा’ कहना नहीं छोड़ते। यद्यपि अधिकांश में यह सब अपने यूरोपीय पाठकों को ही संबोधित था। पर उनके श्रोताओं में देशी विश्वविद्यालय के शोधार्थी या ब्रह्म समाज जैसे आधुनिक धार्मिक संगठनों या भक्ति सम्प्रदाय के मतावलंबियों को भी शामिल माना जा सकता है। ‘रूपकला’ नाम से प्रसिद्ध रसिक सम्प्रदाय के गुरु भगवान् प्रसाद ने अपने भक्तमाल के बाद के संस्करणों में ग्रियर्सन का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया है। इसके अलावे अमेरिका में नए वैश्विक धर्म की तलाश करने वाले नौजवान भी ग्रियर्सन की भक्ति की अवधारणा से काफी प्रभावित थे। इ. स्टेनले जोन्स जैसे अमेरिकी नौजवान की किताब ‘द क्राइस्ट ऑफ़ द इंडियन रोड’ में भक्ति को पूर्ण ‘आत्मविसर्जन’ की तरह देखा गया है जहाँ ‘दूसरा’/’ईश्वर’ हमारे जीवन का जीवन हो जाता है। जोन्स ने कहा कि निस्संदेह यह आस्था के बारे में सेंट पॉल की धारणा है जिसके गहरे अर्थों को भूल कर लोग इसे कृत्रिम विश्वास या श्रद्धा मात्र समझने लगे हैं। भक्ति के माध्यम से भारत इस गंभीर और महान् अर्थ को पुनः हासिल करेगा।[36]
            ग्रियर्सन के लिए तुलसी इस अर्थ में सेंट पॉल से कम महत्त्वपूर्ण नहीं थे। तुलसी एक कवि या समाज सुधारक के रूप में सम्प्रदाय या मठ नहीं बल्कि राष्ट्र के निर्माणकर्ता के रूप में सामने आते हैं। चर्च मुक्त सेंट पॉल की वैश्विकता राष्ट्रों के भीतर से सार्वभौम ईसाईयत की वैश्विकता थी, ऐसा यूरोप और अमेरिका के धर्म सम्बन्धी चिंतन में भी कहा जाने लगा था। ग्रियर्सन तुलसी के यहाँ लोकधर्म का राष्ट्रधर्म में रूपांतरण का आरंभिक क्षण देखते हैं। हमने पीछे देखा था कि वैष्णव लोक धर्म का आतंरिक सामाजिक चरित्र ग्रियर्सन जाति निरपेक्षता और स्त्रियों के स्वीकार में देखते हैं। जातिगत पहचान का त्याग और भक्त की पहचान का धारण तुलसी के यहाँ राष्ट्रीयता या नागरिकता की वैश्विक धारणा में रूपांतरित हो जाता है। यह वैश्विकता मठों या सम्प्रदायों के निषेध से ही बनती है। ग्रियर्सन के लिए कबीर आदि इस प्रक्रिया के आरंभिक पुरस्कर्त्ता थे। दूसरे शब्दों में कहें तो रामानन्द धर्म का पुनरुत्थान करते हैं, कबीर नया पन्थ निकालते हैं और तुलसी इसे रूपांतरित करने वाले राष्ट्रीय प्रवर्तक बनते हैं। इस राष्ट्रीय धर्म की विशेषता पंथ और जाति निरपेक्षता थी। इस प्रकार आधुनिक हिन्दू धर्म का राष्ट्रीय चरित्र ग्रियर्सन के लिए तुलसी की लोकप्रियता और जन स्वीकृति, राम भक्ति की सहजता और पंथ तथा जाति निरपेक्षता, मुख्यतः इन तीन आयामों वाली थी। कहना न होगा कि ग्रियर्सन इसे लाखों ‘गैरमुस्लिम’ जनता के दैनंदिन जीवन के नैतिक आयाम में प्रचलित देखते थे। दूसरी ओर यह ‘पुरुषों का राष्ट्र’ था। ‘पुरुष राष्ट्र’ की शक्ति और उसका उसके शील का सौन्दर्य १८५७ के विद्रोह में कैसे निखर कर आया था यह हमने पीछे देखा था।
            १९०३ में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए ‘आधुनिक भारतीय लोकधर्म’ (मॉडर्न इंडियन फोक रिलीजन) की महत्ता बताते हुए ग्रियर्सन तुलसी पर अपने विचार प्रकट कर रहे थे। उन्होंने कहा कि तुलसी कोई ऐसे समाज सुधारक नहीं थे कि आये और अपने समकालीनों की भावनाओं का उद्वेलन किया और चले गए। दो शताब्दियों पहले तुलसी जितने जनता में मौजूद थे आज उससे कहीं अधिक हैं। ग्रियर्सन ने कहा “आधुनिक हिन्दूवाद के कई रूप और और विश्वास हैं फिर भी ऊपरी भारत के प्रत्येक हिन्दू का चरित्र किसी न किसी प्रकार से उनकी शिक्षाओं से बना है”।[37] जिस समय तुलसी देशी भाषा में अपना काव्य लिख रहे थे ठीक उसी समय पश्चिम में भी शास्त्रों का देशी भाषाओं में प्रचार प्रसार हो रहा था। लगभग सामान धार्मिक अनुभूतियों से पश्चिम भी गुजर रहा था। ग्रियर्सन नोट करते हैं कि ; “ It is worth while noting that just about this time a great stirring of religious feeling was also occuring in the West, and due to a similar immediate cause- the diffusion of the Scriptures in the vernacular. Luther’s Bible appeared between 1522 and 1534, and Tindale’s New Testament in 1525. It was these that established the Reformation in Europe, just as the Buddha’s preaching in vernacular had established Buddhism, and the preaching by Ramananda in tongue of the people paved the way for Tulasi Dasa.”[38]
            ध्यान देना चाहिए कि बौद्धवाद और रिफॉर्मेशन की तरह तुलसीदास स्वयं में धर्मसुधार के प्रतीक  हैं। वे धर्म सुधार या रिफॉर्मेशन के व्यक्तिनिजरूप हैं। इस प्रकार तुलसी में आन्दोलन या वाद के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है। इसलिए व्यक्ति तुलसी के पूर्ण विलोप में भी उनकी वैयक्तिकता सुरक्षित है। ऐसी वैयक्तिकता जो ग्रियर्सन के अनुसार अन-अनुकरणीय है, परन्तु जिसके अनुयायी लाखों में हैं। उन लाखों अनुयायियों के दैनिक जीवन में नैतिक बल के रूप में तुलसी का व्यक्तित्व व्यापता है। तुलसी स्वयं राष्ट्र की कल्पना हैं। ग्रियर्सन लिखते हैं : “यह समझना भारी भूल होगी कि तुलसीदास केवल एक संन्यासी थे। वह एक पूर्ण मनुष्य थे जिन्होंने जीवन जीया था। वह एक गृहस्थ रहे थे, उन्होंने विवाहित जीवन का सुख जाना था। अपनी गोद में नवजात शिशु के आलिंगन की खुशी जानते थे और उसके बिछोह का दुःख भी। उन्होंने विद्वानों के बदले अपने सभी देशवासियों से अपील की थी, लोग जिन्हें वह स्वयं पहचानते थे। वह उनमें शामिल थे, उनसे याचना की थी, उनके साथ प्रार्थना की थी, उन्हें पढ़ाया था, उनकी ख़ुशी और उनकी लालसा को महसूस किया था।”[39] तुलसी की साधना और उनकी सफलता का रहस्य उनके काव्य में ही छुपा है। देशी भाषा के लेखक के रूप में उनकी अदम्य शक्ति उनके काव्य में ही वास करती है। उन्होंने जिस अवधी में लिखा  हिंदी पट्टी का वह मध्यक्षेत्र था जिसके एक तरफ पूर्वी हिंदी थी दूसरी तरफ पश्चिमी हिंदी। इस कारण यह दोनों तरफ के लोगों को समझ में आने वाली थी। बंगाल से पंजाब तक और हिमालय से विंध्य तक उनकी वाणी बाइबिल की तरह है। इस क्षेत्र के लिए ग्रियर्सन ने ‘हिन्दुस्तानी’, ‘हिंदी’, ‘हिन्दू’ या ‘भारतीय’, इन सब शब्दों का उपयोग किया है। इस ‘साहित्यिक हिन्दुस्तान’ में एक और जातीयता भी थी। यह दूसरी जातीयता कृष्णभक्ति की जातीयता थी। यह दूसरी जातीयता स्वयं भ्रष्ट होती गयी और इसी क्रम में इस ‘साहित्यिक हिन्दुस्तान’ की सच्ची, स्वाभाविक और ईसाई जातीयता के रूप में रामभक्ति और उसमें तुलसी का नेतृत्व भी स्पष्ट होता गया। कृष्ण भक्ति की दूसरी जातीयता “अभी भी अस्तित्वान है, लेकिन तुलसी की आस्था के सहारे नियंत्रित है और पर्दे के पीछे ठेल दी गयी है। अशिक्षित जनता के बीच कृष्ण सम्प्रदाय क्या से क्या हो जाता है इसे हमें बंगाल के धार्मिक मतों ने दिखा दिया है। यौन पूजा हो जाना उसकी अनिवार्य प्रकृति है और इसकी पाठ्यपुस्तकें “अपनी गोपियों के बीच कृष्ण की सबसे भावावेगपूर्ण, सबसे व्याभिचारपूर्ण लीलाओं का वर्णन” हो जाती है। बाकी हर चीज़ खो जाती है और धीरे धीरे शाक्तों की अनाम वीभत्सनाओं में विकसित हो जाती है। इन सबसे तुलसी दास ने ऊपरी भारत को बचा लिया और मैं मानता हूँ कि यह दोनों जातीयताओं के स्पष्ट अंतर को बहुत हद तक प्रमाणित करता है। हिन्दुस्तान की जनता अपने हर पूजक को जानने और प्रेम करने वाले ईश्वर के नियम को स्वीकार करती है, किसी निष्ठुर भाग्य को नहीं।”[40]
            इस प्रकार ग्रियर्सन हिन्दुस्तान की जातीयता का शुद्ध चरित्र भाग्य के बदले सामाजिक नैतिक नियमों के अनुपालनकर्ता के रूप में प्रस्तावित करते हैं। निष्ठुर भाग्य का नियम वैक्तिक साधनाओं के जंगल में ले जाता है या निष्क्रिय बनाता है। हिन्दुस्तानी जातीयता का सामाजिक चरित्र ईश्वर के नैतिक नियमों के स्वीकार में है। प्रेम नैतिक हो कर ही लाखों लाख लोगों को संगठित कर एक राष्ट्र के सूत्र में बाँध सकती है। दूसरे शब्दों में यह राष्ट्रीयता इहलौकिक जीवन का क़ानून मांगती है। विधि विधान मांगती है। किसी बाहरी सत्ता के भाग्य नियम नहीं। १८५७ में उन्हें ऐसी ही जातीयता की आकांक्षा दिखाई पड़ती है।
            पांच साल बाद १९०८ में ग्रियर्सन लिख रहे थे: “जिस सुधार (रिफॉर्मेशन) का मैंने वर्णन किया उसके पहले भारत सदियों तक अन्धकार में भटक रहा था; वह अँधेरा और भी घना इसलिए था क्योंकि ईश्वर की गोधुली के प्रकाश के बाद आया था।[...] इसके बाद सवेरा आता है। एक विदेशी सत्ता के क़दमों तले रौंदे हुए मृत प्राय भारत में आस्था और प्रेम का उदय होता है, और इन दोनों के चलते आशा का संचार होता है। वास्तव में हम इस रिफॉर्मेशन (या पुनर्जागरण) को ‘एक राष्ट्र की आत्मा का जन्म’ भी कह सकते हैं।”[41]  जो जातीयताएं पहले धार्मिक ज्यादा थीं वे अब धीरे-धीरे स्पस्ष्ट राजनीतिक अर्थों में प्रकट हो रही थीं। रामभक्ति से रामराज्य तक का सफ़र पूरा हुआ। इस नए राष्ट्र के नायक राम थे और तुलसी भी। राम हर हिन्दू के लिए बाहें फैलाए खड़े थे और प्रेम से पुकार रहे थे कि ‘आओ मैं तुम्हें अपने साथ उस पार लेकर चलता हूँ’ जहां नैतिक नियमों से चालित एक सुन्दर भारतीयता अपने पूर्ण वैभव के साथ चिर उपस्थित है। जो वास्तव में स्वर्ग का राज्य है।[42] यह कह पाना मुश्किल है कि आयरिश राष्ट्रीय आन्दोलन से ग्रियर्सन का कैसा रिश्ता था। हो सकता है आयरिश राष्ट्रप्रेम, विक्टोरियन कैथोलिक प्रेम और रामभक्ति तीनों में किसी सामान्य भावभूमि की तलाश उन्हें भारतीय जातीयता के इतिहास में मिल रही हो।



[1] अल्ब्रेस्ट वेबर, ऑन दि हिस्ट्री ऑफ़ रिलिजन इन इंडिया – अ ब्रीफ रिव्यु (मूल जर्मन से अंगेजी अनुवाद ग्रियर्सन), द इंडियन एंटीक्वेरी; जुलाई, १९०१, पृष्ठ- २६८
[2] इरा शर्मा के लेख ‘जॉन अब्राहम ग्रियसन’स लिटरेरी हिनुस्तान’ से उद्धृत. लेखिका के अनुसार वह एक अप्रकाशित लेख है जो इन्डियन ऑफिस कलेक्शन, ब्रिटिश लाइब्रेरी लन्दन में है. देखें ‘लिटरेचर एंड नेशनलिस्ट आइडियोलॉजी; संपादक- हंस हर्डर; सोशल साइंस प्रेस, नई दिल्ली २०१०.
[3] देखें विजय पिंच, ‘भक्ति एंड एम्पायर’,
[4] भूमिका, पृष्ठ viii
[5] देखें इरा शर्मा
[6] वही, पृष्ठ १८५
[7] “...the following (1784) saw the founding of Asiatic Society, and it is one of our most legitimate sources of pride that it took up the clue where it had been dropped by the Roman Catholic Missionaries and under the influence of men like Sir W. Jones, Wilkias and specially Gillchrist, the Indian Vernacular seiged to be despised for ‘not being written and became the object of investigation which has continued to the present day.”; On the early study of Indian Vernaculers in Europe, G.A. Grierson, ESQ, F.C.S (1893), page- 50.
[8] देखें, भक्ति एंड भक्ति मूवमेंट: अ न्यू पर्सपेक्टिव (अ स्टडी इन द हिस्ट्री ऑफ़ आइडियाज); कृष्ण शर्मा, मुंशीलाल मनोहरलाल पब्लिशर्स, दिल्ली, १९८७. विशेष रूप से अध्याय तीन और चार।
[9] भूमिका, पृष्ठ xvii
[10] वही
[11] ग्रियर्सन ने जायसी के अद्भुत प्रयास को लक्षित करते हुए लिखा “The young gaint had bestirred himself, and found that he was strong; and, young and lusty as an eagle, he went forth rejoicing to run his course”, वही, पृष्ठ xviii
[12] वही
[13] विजय पिंच, पृष्ठ १७३
[14] मोनिर विलियम्स, इन्डियन विजडम, पृष्ठ viii, रूपा एंड कंपनी, नई दिल्ली ,२००३
[15] वही, भूमिका
[16] विजय पिंच, पृष्ठ १७९
[17] JASB, Part I, no. III, 1878, page 137
[18] मोनिर विलियम्स, पृष्ठ XLIV और फुटनोट १, पृष्ठ ५.
[19] “it is only in its high morality that Buddhims has common ground with Christianty. And can the only motive to the excersise of morality supplied by buddism- viz. on the one hand, the desire of non existance; and, on the other, the hopes and fears connected with innumerable future existences- which existence are unconnected by conscious identity of being – be anything better thanmere superstitious delusion?” वही, पृष्ठ Lvi
[20] वही. पृष्ठ-५९.
[21] अल्ब्रेस्ट वेबर, ऑन दि हिस्ट्री ऑफ़ रिलिजन इन इंडिया – अ ब्रीफ रिव्यु (मूल जर्मन से अंगेजी अनुवाद ग्रियर्सन), द इंडियन एंटीक्वेरी; जुलाई, १९०१, पृष्ठ- २८५.
[22] वही.
[23] Hinduism and early Christianity. The East and the West, iv, pp.135-157.1906.
[24] वही.
[25] वही. पृष्ठ- १५७.
[26] Modern Hinduism And Its Debt To The Nestorians, Read at the meeting of the Royal Asiatic Society on January 15th, 1907. JRAS, 1907. pp 311-328. अपेंडिक्स में ‘The Official Hindu Account Of Bhkti: According to the Aphormism of Sandilya and his commentator Swapnesvara as translated from the Sanskrit by Proffesor Cowell.’ दिया
The Narayaniya And The Bhagvatas, The Indian Antiquary, september, 1908. pp. 251-262 & 273-278. भक्ति के एकेश्वरवादी स्वरूप की व्याख्या करते हुए ग्रियर्सन ने लिखा: “ At the present time it cannot be too emphatically stated that the modern Hinduism is at its base a religion of Monotheism.”, “The gross cloud of combined polytheism and fetishism which covers and hides this monotheism, is kept, even by the unlearned Hindus, upon a different plain of thought. The monotheism has to do with the future life and with what we should call ‘salvation’. The polytheism and fetishism serve only for the daily needs f the material world. In country where, as in India, the majority of the people are poor and ignorant, the material overshadows the spritual; but even the poorest recognizes(even he think too high for him) the truth of the doctrines concerning the One Supreme Being, which have descended to hm from Bhagvatas.” यह लेख नेस्टोरियन मूल के बदले भागवत् मूल की खोज करता है.  
[27] Modern Hinduism And Its Debt To The Nestorians. ‘ “near the Lord”...It is still the keynote of bhakti-marg. .... Nanddasa tharho nipata nikata.” pp. 318.
[28] वही. पृष्ठ- ३१९.
[29] वही. “But Vaishnav Hinduism has a Trinity closely corresponding to ours, viz., the Supreme Deity, His incarnation, and His Sakti, or energic power. Curiously enough, the energc power has become personified ass a women, just as the Syrin Christians substituted the Virgin Mrry for the Third Person of Our Trinity.” pp. 323.
[30] A knowledge of the old dead language will, it true, often win respect and admiration, but very modest aquaintance with the tresures,-and they are treaures,- of Hindi Literature endowes its possessor with the priceless gift of sympathy, and gains from him, from those watch word is Bhakti, their confidence and their love.” ‘Modern Hinduism and the Nestorians’. pp. 268.
[31] The Narayaniya And The Bhagvatas, The Indian Antiquary, september, 1908. कृष्ण को भागवत् धर्म के संस्थापक के रूप में प्रस्तुत करते हुए ग्रियर्सन ने लिखा: “He was the traditional founder of this religion which was strictly Monotheistic the object of worship being named Bhagavat, “the Adorable One”, and its followers calling themselves Bhagavatas, the worshippers of Bhagavat. Its practical teaching was strongly ethical from the Kshatriya point of view.” pp. 253. (जोर मेरा)
[32] वही, पृष्ठ- २५७-५८.
[33] Gleanings from the Bhakt-Mala, Pts, 1-2,6,11-12. JRAS 1909-1910.
[34] वही.
[35] मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान, पृष्ठ-xx.
[36]  E. Stanley Jones, Christ of the Indian Road. New York- 1925. विजय पिंच द्वारा उद्धृत, पृष्ठ- १९७.
[37] Tulsi Das, Poet and Religious reformer. (Read at the meeting of the Royal Asiatic Society on March 10th, 1903). JRAS, 1903. pp-447
[38] वही.
[39] वही, पृष्ठ-४५२.
[40] वही, पृष्ठ-४५९.
[41] इरा शर्मा द्वारा उद्धृत: ‘The Birth of a Nation’s Soul’, Rathfarnham, Camberley 1908. pp.26 (unpublished).
[42] राम का चरित्र बताते हुए इसी लेख में ग्रियर्सन लिखते हैं: “...and yet [having acknowledged the persistence in India of th e belief in minor ‘spirits hungry of oblations’, in ‘so called gods’ and ‘uncounted demons’] there is also Rama, - Rama looking, as they say, down from his lattice window, placing each in his state of life, guarding him, rewarding him according to his work, - Rama, the giver to all to all alike, to the fluttering sparrow, even to the creeping snake, and how much more to man, - Rama, who, when man’s days work his done and he stands lonely and shivering on the bleak shore of the ocean of existance before takin the last great plunge, streches out his arms to him and cries in loving accents, ‘come I will ferry thee across’.” pp- 25

Comments

  1. ज्ञानप्रद लेख।आपका पाण्डित्य वन्द्य है। आभार।

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