आचार्य शुक्ल और विश्वप्रपंच: एक पुनरावलोकन

समकालीन काव्य चिंतन के साथ ही साथ शुक्ल जी ने अपने समय में भौतिक, रसायन और जीवविज्ञान संबंधी खोजों, उपलब्धियों, सिद्धांतों और सीमाओं का संश्लेषण और विश्लेषण भी किया था। बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के आरम्भ से लेकर तीसरे दशक के अंत तक विज्ञान संबंधी उनके चिंतन में एक विशेष व्यवस्था मिलती है। प्रधानतः यह चिंतन विज्ञान और धर्म के संबंधों की दार्शनिक व्याख्या के क्रम में विज्ञान के नवीनतम विकास की रूप-रेखा और वहां चलने वाली बहसों का ब्योरा भी देती चलती है। हेकेल के विश्वप्रपंचकी अपनी भूमिका में इस विषय का सबसे विषद वर्णन शुक्ल जी ने किया है।
‘सृष्टिविषय पर प्राचीन मत’ शीर्षक से शुक्ल जी ने एक लेख लिखा था जो जनवरी १९१२ की  नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। लेख में शुक्ल जी ने पदार्थ और भूगर्भ विज्ञान के समकालीन निष्कर्षों के आलोक में सृष्टि की उत्पत्ति संबंधी धार्मिक मान्यताओं और प्राचीन मतों की आलोचना की है। शुक्ल जी के अनुसार संसार में नाना मतवादों की उपस्थिति, सृष्टि की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, इस प्रश्न के उत्तर की मनमानी व्याख्या के चलते है। दरअस्ल ऐसे  अव्यक्त प्रश्नों पर कभी मतैक्य बन ही नहीं सकता। उन्होंने कहा कि संसार में दो तरह के पदार्थ हैं , निर्वचनीय और अनिर्वचनीय। जिन पदार्थों को हम इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष कर सकते हैं वे निर्वचनीय हैं। ऐसे पदार्थों की परीक्षा कर विद्वान् एक परिणाम पर पहुंचें हैं। जबकि जो इन्द्रियग्राह्य नहीं है और जिस पर विचार कर विद्वान् भिन्न-भिन्न और विरुद्ध परिणाम पर पहुंचे हैं वह अनिर्वचनीय है। इस मान्यता के पक्ष में शुक्ल जी ने गीता का साक्ष्य दिया है जहाँ कहा गया है कि जगत् या जीव आदि भूतों की आदिम और अंतिम दोनों ही अवस्थाएं अव्यक्त हैं। केवल मध्य ही व्यक्त है और हम केवल उन्हें ही जान सकते हैं।[1] “जगत् की सृष्टि कैसे, कब और किससे हुई , इसका लय कैसे और कब होगा, जीव कैसे पैदा होता है, मर कर कहाँ जायेगा, जीवात्मा क्या है इत्यादि अव्यक्त प्रश्नों पर”[2] व्याकुल रहने का निषेध बुद्ध भी करते हैं। “ यों कहिए कि भगवान् कृष्णचन्द्र के वचन का मागधी में अनुवाद करते हैं।”[3] इस प्रकार के अनिर्वचनीय प्रश्नों के कारण ही विद्वानों ने सृष्टि को नित्य माना है। सृष्टि की नित्यता का अर्थ है नित्य बनते बिगड़ते रहना। महत् विस्तृत अवकाश या आकाश में कितने ही ग्रह-नक्षत्र लगातार बनते बिगड़ते रहते हैं। वेदों में भी ऐसी कल्पना है। आकाश के अनंत और अपरिमित होने की चर्चा महाभारत में भी है। इसी अनन्त आकाश के एक हिस्से में “हमारा ब्रह्माण्ड है। यह हमारे यहाँ लिखा है कि इस ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने के पहिले हिरण्यगर्भ (Nebula) था। उसी हिरण्यगर्भ से यह समस्त ब्रह्माण्ड जिसमें ब्रह्म वा सूर्य प्रधान अंड है उत्पन्न हुआ है। इसी ब्रह्माण्ड का एक अंग हमारी यह पृथ्वी भी है।”[4] इस प्रकार हिरण्यगर्भ और पृथ्वी की उत्पत्ति की बात का उल्लेख जैसा प्राचीन मत करता है वर्तमान विज्ञान का उससे अविरोध ही ठहरता है। इस हिरण्यगर्भ अव्यक्तांड से पृथ्वी आदि लोक कैसे और कब पृथक हुए, यह ठीक ठीक नहीं पता। हालांकि इस विषय में ब्राह्मणादि ग्रंथों में नाना प्रकार की कहानियां मिलती हैं, पर वे सब की सब परस्पर विरुद्ध हैं। इसलिए शुक्ल जी इन्हें स्वीकार नहीं करते। इस प्रकार प्राचीन मतों की वे बातें जो वर्तमान विज्ञान की व्याख्या से सम्मत हो शुक्ल जी उसे ही ग्रहण करते हैं। शुक्ल जी यहाँ दो काम करते हैं । पहली यह कि मतान्तरों की अवश्यम्भाविता को सत्ता के प्रश्न से जोड़ते हैं। दूसरे इस अनिर्वचनीयता की स्वीकृति संबंधी मतों को सामने रख, प्राचीन मतों से उनका साम्य-निदर्शन करते चलते हैं। आदि और अंत के बदले मध्य की अवस्था ही इन्द्रिय ज्ञान से प्रत्यक्ष है इसलिए न केवल विज्ञान बल्कि वेद, बुद्ध और गीता भी इसी व्यक्त के प्रश्न पर मतैक्य रखते हैं। अनिर्वचनीय की भूमि, विज्ञान और धर्म दोनों में मतान्तरों की भूमि है। “आस्तिक, नास्तिक, द्वैत, अद्वैत, एकात्मवाद, ब्रह्मात्मवाद, एकजन्मवाद, बहुजन्मवाद, कर्तृवाद, अकर्तृवाद, आदि जितने भी मत संसार में प्रचलित हुए सब इन्हीं प्रश्नों को विचारने और उनका मनमाना समाधान करने के कारण।”[5]
मध्य की अवस्था भी दरअस्ल अनवस्थारूपा है। अनवस्था अर्थात् नित्य परिवर्तन। नाश और निर्माण का क्रम चला आया है, चला चलता चलेगा। शुक्ल जी ने इस प्राचीन मत और विज्ञान में विकासवाद के मूल सिद्धांत में कोई अविरोध नहीं पाया। दूसरे शब्दों में कहें तो सृष्टि के नित्य होने और आधुनिक विकासवाद में उन्होंने सामंजस्य स्थापित किया। इस प्रकार पदार्थ वैज्ञानिक और भूगर्भवेत्ताओं की नवीनतम खोजों और जलप्रलय की कल्पनाओं में भी सामंजस्य दिखाने के सैकड़ों उद्धरण धर्म ग्रन्थ में दिखाए जा सकते हैं और लोगों ने दिखाया भी है। स्थल और जल का, भूखंडों का , नदियों पहाड़ों का रूप कभी एक सा नहीं रहा है। “इस प्रकार अन्वस्थारूपा पृथिवी पर सदा से व्यावर्त होता आया है।” [6]
आकाश या महावकाश की प्रकृति का प्रश्न तत्कालीन विज्ञान में इथर की प्रकृति संबंधी कल्पनाओं से जुड़ा हुआ था। इसके साथ विकासवाद के भीतर भी कई दार्शनिक मतवाद थे। उसी साल नागरीप्रचारिणी पत्रिका के मार्च अंक में शुक्ल जी का एक लेख आया, जिसका शीर्षक था ‘ईथर की भँवर और संसार की उत्पत्ति’। लेख में मुख्यतः सर्वव्यापी अनंत ईथर के काल्पनिक भंवरों के बारे में वैज्ञानिक पक्ष से कुछ अनुमान की कोशिश है। दूसरे पदार्थों और तत्वों के अणुओं और परमाणुओं के बीच खाली जगह होती है । ये जगह भी ईथर से भरी है और खगोलीय पिंडों के बीच की जगह भी ईथर से भरी है। प्रकाश वरना कैसे गति करता। इस प्रकार ईथर नित्य, अपार और अनंत है। तत्त्व बहुत तरह के होते हैं, पर ईथर एक सा होता है। “तत्वों का कोई आकार होता है ईथर निराकार है...। अब धारणा है कि तत्त्वों के अणु ईथर की भँवरों से बने हैं जो ईथर में उसी तरह चक्कर मार रहे हैं जैसे रेल के इंजन से निकला हुआ धुआँ जब हवा नहीं रहती तब कुंडल बाँध-बाँध कर तरह तरह के तमाशे दिखलाता है।”[7]ईथर में भँवर पड़ते ही वह तत्त्व हो जाता है। तत्त्व में आकर्षण शक्ति, रगड़ होती है ईथर में नहीं । तत्त्वों के अणु के सब हिस्से सम नहीं होते ईथर हर जगह सामान है तभी तो ईथर में रोशनी हर तरफ एक ही तरह से आ जा सकती है। रुकावट नहीं है। तत्वों का आपस में संबंध  है ईथर में ऐसा ‘मिलाप भेद’ हो ही नहीं सकता। ‘तत्त्वों के कारण एक प्रकार की शक्ति दूसरा रूप धारण कर लेती है’ ईथर नहीं ला सकता, यद्यपि उसमें भी शक्ति है। ईथर में अवस्था परिवर्तन नहीं होता “ ईथर सर्वमय वर्तमान है और इसमें कुछ भेद नहीं होता । केवल बिजली या Magnetism या गर्मी की वजह से इसमें लहर, तनाव या भँवर पड़ सकती है।”[8]अर्थात् तत्त्वों की उत्पत्ति ईथर से हुई पर ईथर इन तत्त्वों के गुण वाला नहीं है। पर जगत् का ज्ञान हमें तत्त्वों से ही होता है। संवेदनाएं तत्त्वों के चलते पता चलती हैं। जिन nerves या ज्ञान तंतुओं से इसका पता चलता है उसपर ईथर का असर नहीं होता। ईथर को हम देख नहीं पाते। “इसी से इतने दिनों तक ईथर पर लोगों का कम ध्यान था पर दो चीजों के बीच खिंचाव वगैरह बीच में बगैर कुछ रहे असंभव है इसी से ईथर को लोगों ने माना है।”[9] लेख के अंत में शुक्ल जी ने अन्यूटोनियन धारा के उस निषेध का ज़िक्र किया है जो ईथर की अवधारणा का निषेध करता है।
मैक्स प्लांक ने सदी के पहले ही वर्ष में न्यूटन के शास्त्रीय विज्ञान को क्वांटम का ज़ोरदार धक्का दिया। यह सिद्ध हुआ कि “सामान्य” स्तर पर घटित होने वाली क्रियाओं की प्रकृति से उपआणविक स्तर पर होने वाली क्रियाओं की प्रकृति भिन्न होती है। जिस बिंदु पर छोटी घटनाओं के नियम काम करना बंद कर देते हैं उसे प्लांक ने ‘क्रियाओं का क्वांटम’ कहा।[10] १९०५ तक आइन्स्टीन-प्लांक संबंध  गणितीय सूत्रों में स्थापित हो गए थे। प्लांक के साथ आइन्स्टीन के सापेक्षितावाद और पदार्थ-शक्ति द्वंद्व के निराकरण ने वैज्ञानिक दलों के कंसर्वेटिव धड़ों के भीतर काफी हलचल मचाई थी। ठोस प्रयोगों को वे पूर्णतया नकार नहीं सकते थे। परन्तु न्यूटोनिय दुनिया को छोड़ना भी आसान न था। ऐसी स्थिति में नए को लेकर एक किस्म के संशयवाद को हवा दी गयी। यह संशयवाद अपना हल इस या उस प्रकार के पुराने फॉर्मल लॉजिक में शरण लेकर करता है। इस पुराने का अर्थ हीगेल-पूर्व के फॉर्मल लॉजिक से है ,या दूसरे शब्दों में कहें तो हीगेल-पूर्व के भाववाद से है। थोड़ा आगे चल कर हम इस विषय पर वापस लौटेंगे। ब्रिटिश भौतिक विज्ञानवेत्ता और फेबियन समाजवादी सर अलिवर लॉज के व्याख्यान का अनुवाद शुक्ल जी ने किया था जो नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इस लेख से लम्बा उद्धरण ‘विश्वप्रपंच’ की भूमिका में शुक्ल जी ने दिया है। ख़ास तौर से यह बताने के लिए कि वर्तमान में विज्ञान की क्या दशा है, उसके भीतर मुख्य विवाद किस तरह के चल रहे हैं। इसके अलावा शुक्ल जी की भाषा में कहें तो लॉज आत्मवादी पक्ष से भूतवाद का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। जबकि हेकेल आधिभौतिक पक्ष से अनात्मवाद का सिद्धांत सामने रखते हैं। अलिवर लॉज उन वैज्ञानिकों में थे जिन्होंने आध्यात्मिकता का झंडा बुलंद कर रखा था। आधिभौतिक या भूतवादी पक्ष से जो हमले खुद वैज्ञानिकों की तरफ से किये जा रहे थे उसका निराकरण इन्होंने अपने भाववादी दार्शनिक तर्कों से किया है। लॉज परलोक, आत्मा, ईश्वर आदि के मंडन में भी दत्तचित्त थे। इस प्रकार संकट से उपजे संशयवाद से निकल कर इन्होंने व्यावहारिक विचारधारा के रूप में धर्म का पक्ष ग्रहण किया था। भौतिक जगत् चेतना या प्राणशक्ति की अभिव्यक्ति है। विज्ञान आज-कल व्यक्त भौतिक जगत् के अतिरिक्त इस चेतना या प्राणशक्ति का अध्ययन नहीं करता। “ भूतवाद भौतिक जगत् के उपयुक्त है, पर दार्शनिक सिद्धांत के रूप में नहीं, बल्कि चलते हुए व्यापार की व्यवस्था के रूप में, बीच की कारण-परम्परा के अनुसंधान रूप में”।[11]इनके व्याख्यान का जो अनुवाद शुक्ल जी ने किया उसका शीर्षक था “अखंडत्व”। लॉज के शब्द continuity का यह अनुवाद है। लॉज के अनुसार तत्कालीन परिस्थिति की व्याख्या करने के लिए कोई सटीक अभिव्यक्ति है तो ‘उन्नति की क्षिप्र गति और संशयवाद’।उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों और बीसवीं सदी के प्रारम्भ से विज्ञान की भिन्न भिन्न शाखाओं में अनुसन्धान और नयी खोजों की गति अत्यंत तीव्र हो गयी थी। विशेषकर भौतिक विज्ञान के भीतर। लॉज के अनुसार यह संशयवाद हमारे ज्ञान के अत्यंत सूक्ष्म और यथार्थ होने के चलते ही पैदा हुआ है। यह पुराने लोक-परलोक के झगड़े से पैदा संशयवाद नहीं है। पुराने धर्माधिकारी और परलोकवादी जिस किले में छुपे बैठे हैं वह हमले के लिए अब लोगों को आकर्षित नहीं करता। अब झगड़ा वैज्ञानिकों के दलों के बीच है और दार्शनिक इसमें अपना योग दे रहे हैं। लॉज विद्युत् चुम्बकीय तरंगों के क्षेत्र में कई नवीन रहस्यों को उद्घाटित करने वाले वैज्ञानिक थे। मैक्सवेल के ‘ईथर सिद्धांत’ के वह सबसे बड़े समर्थकों में थे। ईथर के संबंध  में अपनी राय उन्होंने अपनी किताब "Modern Views of Electricity" में  स्पष्ट की और बीसवीं सदी में भी उस सिद्धांत के सबसे बड़े समर्थकों में शुमार रहे ("Ether and Reality",1925)विद्युत् चुम्बकीय, रेडियो तरंगों पर इनके कई प्रयोग विज्ञान जगत् में स्वीकार्य थे। इनके ख़ोज की दूसरी दिशा आध्यात्मिक थी। मृत्य के बाद जीवन संबंधी अपने प्रयोगों के लिए भी यह काफी चर्चित हुए थे। परम आध्यात्मिक आर्थर कॉनन डायल के अभिन्न मित्र थे। प्रथम विश्व युद्ध में इन दोने के बेटे मारे गए थे। १८८० में ही इन्होने टेलीपैथी पर काम करना शुरू किया था। अपने मरे बेटे से संपर्क के अपने प्रयोगों और अनुभवों पर इनकी एक किताब १९१५ में आई थी जिसका नाम था Raymond or Life and Death (1916)। यह एक बेस्ट सेलिंग किताब थी। हेकेल की तरह ही विज्ञान की लोकप्रिय किताब। एक पक्के ईसाई आध्यात्मिक की तरह इन्होंने विद्युत्चुम्बकीय प्रवाहों के रूप में ईथर की सत्यता में चेतना/स्परिट की सत्यता स्थापित की। ईसा मसीह का पुनरुत्थान उनकी ईथरीय काया थी जो उनके अनुयायिओं को सूली पर लटकाए जाने के बाद दिखाई पड़ी थी। इसके अतिरिक्त वह फेबियन समाज के सक्रिय सदस्य थे। समाजवाद, व्यक्तिवाद , ‘पब्लिक सर्विस और निजी खर्चों’ जैसे विषयों पर भी इनकी लेखनी बर्नार्ड शॉ और सिडनी वेब्ब जैसे फेबियन समाजवादियों के साथ प्रकाशित होती थी।
इनके जिस व्याख्यान की चर्चा हम लोग कर रहे हैं वह लॉज ने ब्रिटिश असोसिएशन की वार्षिक बैठक में दिया था और काफी चर्चित भी हुआ था। लॉज एक वैज्ञानिक की तरह जब प्रकृति विज्ञान की विभिन्न खोजों और समस्याओं और उन समस्याओं की प्रकृति के बारे में चर्चा करते हैं तो वहां अपने वैज्ञानिक व्यवहार के चलते भौतिक शास्त्र के इतर विज्ञानों की भी भौतिकवादी व्याख्या ही करते हैं। और इस प्रकार भौतिक विज्ञान के प्रश्नों से उत्त्पन्न ईथर की प्रकृति के रहस्योद्घाटन का प्रश्न भी भौतिक विज्ञान के भीतर का ही प्रश्न स्वीकार करते हैं। ईथर की वास्तविकता को उन्होंने भौतिक जगत् के अखंडत्व या सातत्य का प्रमाण माना। यहाँ वह भौतिकशास्त्री होने के नाते अपना पक्ष ग्रहण कर रहे हैं। क्योंकि उनके अनुसार खंड और अखंड का अंतिम परिणाम कुछ निकलेगा कि नहीं यह बताना बहुत कठिन है। “जहाँ डार्विन के अनुसार अखंड परम्परागत भेद द्वारा ही ढाँचे में फेरफार माना जाता था वहां उसके स्थान पर या कम से कम उसके साथ साथ अब आकस्मिक या आगंतुक रूपांतर द्वारा विशिष्ट , असंबद्ध और परम्पराखंडित परिवर्तन माना जाने लगा है । इतने पर भी यह निश्चय है कि अखंडत्व ही विकास सिद्धांत का मूल है”।[12] प्लांक, आइन्स्टीन आदि वैज्ञानिकों की नयी बातें उन्हें स्वीकार थीं। यद्यपि जटिलता ज़रूर बढ़ती जा रही थी। इन जटिलताओं के कारण “हमलोगों का यह युग अत्यंत सूक्ष्म कल्पनाओं का है। बीसवीं शताब्दी का बड़ा भारी आविष्कार द्रव्य का विद्युत् सिद्धांत (अर्थात् द्रव्य विद्युत् का ही एक रूप है ) है । परिमाण और आकार जो वेग की क्रियाएं निश्चित हुए हैं वह इसी सिद्धांत के बल से। इसकी सहायता से  हम उन परीक्षाओं को करते हैं जिससे ईथर और द्रव्य के संबंध  का कुछ आभास मिलता है इससे किसी दिन यह भी संभव है कि हम विद्युत्अणुओं की आकृति आदि के परिवर्तनों का भी पता लगा लें क्योंकि यद्यपि वे अत्यंत सूक्ष्म है पर उनकी गति प्रकाश की गति के लगभग है । फिर कौन जाने इसी प्रकार ईथर के गुणों तक हमारी पहुँच हो जाए और अखंडत्व को हम अच्छी तरह समझ सकें”।[13]
इस प्रकार अखंडत्व का निर्धारण जैसा कि शुक्ल स्पष्ट करते हैं, नाना विशेषों के भीतर निर्विशेष का निर्धारण है जिसके द्वारा सत्ता का आभास मिल सके। इस प्रकार नए तथ्यों का समावेश परिशिष्ट के रूप में कर सकते हैं पर विशेषों के भीतर निर्विशेष का निर्धारण यानी अखंडत्व का निर्धारण मूल चीज़ है। यह निर्धारण नए वैज्ञानिक तथ्यों के आलोक में पुराने का नकार नहीं करता। विज्ञान में पुराने का नकार स्वीकार्य नहीं है । पुराने नियमों में व्याघात नहीं होता बल्कि परिशिष्ट रूप में उनका संशोधन होता है। इस प्रकार “ मेरा यह कहना है कि विज्ञान ठीक ठीक निषेध करने में असमर्थ है , चाहे वह ईथर का ही क्यों न हो, और यदि वह ऐसा करता है तो अपने कर्त्तव्य के विरुद्ध करता है। विज्ञान को निषेध में फंसना नहीं चाहिए , प्रतिपादन की ओर ध्यान रखना चाहिए । जो सूक्ष्म सार कल्पना (abstractions) के आधार पर है उसे अपने बाहर निषेध करने नहीं जाना चाहिए । ऐसा प्रायः होता है कि सार रूप से निरूपित जिन बातों पर विज्ञान की एक शाखा ध्यान नहीं देती उसपर दूसरी ध्यान देती है।”[14] इस प्रकार विज्ञान के कर्तव्य का आधार लोकतांत्रिक है और इसके विरुद्ध है निषेध की क्रिया। पुराने नियमों के परिशिष्ट में नया जुड़ने से उनका उल्लंघन नहीं होता । “विज्ञान का काम यही है कि जहाँ तक हो सके सर्वत्र इन नियमों के परिचालन का पता लगावे, और सच्ची प्रज्ञा (instinct) वही है जो विज्ञान की क्रियाओं में आध्यात्मिक और अज्ञात कारणों को लाना न देख सके । विज्ञान में अदृष्टवाद का सहारा लेना अनुचित है क्योंकि उससे परीक्षा और अनुसंधान में रुकावट पड़ती है।”[15] इस प्रकार वैज्ञानिक क्रियाओं के क्षेत्र में अकर्तव्य का आधार आध्यात्मिक और अज्ञात कारण हैं ,अदृष्टवाद है, जो अनुसंधान में रुकावट डालते हैं। विज्ञान के इस कर्तव्याकर्तव्य निर्धारण के पीछे वैज्ञानिक क्रियाओं में लगे होने के चलते रहने वाली एक भौतिकवादी प्रज्ञा है। यहाँ लॉज वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के मूलभूत भौतिकवादी आधार को जिस भाषा में व्यक्त करते हैं वह कर्तव्याकर्तव्य के रूप में लोकतांत्रिक और इहलौकिक है। विज्ञान इसी जगत् में प्राकृतिक नियमों और विकासक्रम का अनुसंधान करता है । मूल और आदि का प्रश्न विज्ञान से बाहर का है। “वह केवल बीच के क्रमशः पहुंचे हुए कारणों की छान-बीन करता है’। पर विज्ञान के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसकी पद्धति है। “मैं उनलोगों में हूँ जिनकी धारणा है कि विज्ञान की अनुसंधान प्रणाली उतनी परिमित नहीं जितनी समझी जाती है। उसका उपयोग और दूर तक हो सकता है और आध्यात्मिक अनुसन्धान भी नियमबद्ध किये जा सकते हैं । इसके लिए प्रयत्न होने देना चाहिए। जो भूतवाद के सिद्धांतों को उन्नत और परिवर्धित किया चाहते हैं वे ख़ुशी से जहाँ तक चाहें वहाँ तक करें, पर हमें आध्यात्मिक विभाग में अनुसंधान करना चाहिए और देखना चाहिए कि अंत में विजय किसकी होती है। अनुसंधान की जो प्रणाली उनकी है वही हमारी है, भेद केवल विषय का है।”[16] लॉज ने लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से ही आध्यात्मिक शोध का मार्ग प्रशस्त किया था। दूसरे शब्दों में उन्होंने भौतिकशास्त्र के भीतर शोध की एक प्रतिक्रियावादी धारा का समर्थन कर खुद विज्ञान के शोध की वास्तविक गति को अवरुद्ध करने और उसे पीछे ले जाने की दिशा में नए वैज्ञानिकों को प्रेरित किया। इस प्रकार लॉज का स्वाभाविक भौतिकवाद (लेनिन जिस अर्थ में materialist instinct कहते हैं।) अपनी ही क्रियाओं को अर्थात् वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रक्रिया को, उसकी प्रणाली को प्रभुत्वशाली विचारधारा में प्रतिबिंबित देखता है।
एक भौतिकशास्त्री के रूप में लॉज ने जिस प्रकार के आध्यात्मिक शोध किये उसकी पद्धति या प्रणाली के लिए उन्हें विज्ञान की प्रणाली ही उपयुक्त लगती है ।परन्तु अन्य प्रणालियों का वह निषेध नहीं करते। इस प्रकार दार्शनिक प्रणाली से या दार्शनिक की तरह वह आध्यात्मिक विषयों का अनुसंधान नहीं करते, पर उनको अस्वीकार भी नहीं करते। अस्वीकार इसलिए नहीं करते क्योंकि इन विषयों पर केवल पिछले दो सौ सालों से ही अनुसंधान नहीं हो रहा। आधुनिक विज्ञान के पहले भी विद्वानों और महात्माओं ने इन्हें अनुसंधान का विषय बनाया है। उनके निष्कर्षों को अगर हम एक सिरे से खारिज कर दें तो यह हमारे घमंड के सिवा और क्या है! लॉज के अनुसार “यह हम कभी नहीं कह सकते कि इस लोक में सत्य का प्रादुर्भाव केवल दो एक शताब्दियों से ही होने लगा। वैज्ञानिक काल के पूर्व की प्रतिभा की- कवियों और महात्माओं की- पहुँच भी बड़े महत्त्व की थी। उन प्राचीन महात्माओं का ब्रह्माण्ड की आत्मा के विषय में बहुत कुछ प्रवेश था।”[17] क्या पता लॉज का भारत प्रेम भी ऐसे ही महात्माओं की प्रतिभा के चलते हो। (और उस वक़्त ब्रिटिश भारत से बढ़ कर आध्यात्मिक देश और कौन था!)। विज्ञान और धर्म की आरंभिक लड़ाई में वैज्ञानिकों को ‘सत्य और स्वतंत्रता’ का रास्ता साफ़ करने में भीषण लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी थीं। धर्माधिकारी पंडितों और चर्च ने मिल कर नए युग का आभास देने वालों पर ‘पत्थर मारे’ थे। इसलिए बहुत से वैज्ञानिकों को परमार्थविद्या या धर्मविद्या से चिढ़ होना स्वाभाविक है। पुराने कवियों और महात्माओं का ज्ञान उनके मूढ़ और अज्ञानी अनुयायियों के हाथों डोग्मा बन गया और उन्हें लगने लगा कि ब्रह्माण्ड के रहस्यों के बारे में उनका ज्ञान और उनकी पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है और इसलिए ‘नए युग का आभास देने वालों पर’ पत्थर बरसाए गए। पर अंत में नए युग की विजय हुई और “अब पत्थर हमारे (नए युग के वैज्ञानिकों के) हाथ में है। पर हम भी जो उन पुराने धर्माचार्यों की नक़ल करें तो यह मूर्खता है।”[18]विज्ञान सौन्दर्य की विवेचना नहीं करता। आनन्द के उमंग की विवेचना नहीं करता। पर ब्रह्माण्ड में इनका अस्तित्व नहीं है ऐसा हम नहीं कह सकते। “हमारे अनुसंधान में ब्रह्माण्ड की सारी बातें नहीं आ जाती। इससे हम निषेध करने चलते हैं और कहते हैं कि भूत विज्ञान और रसायन के अंतर्गत हम सारी बातों को ला सकते हैं तो हम केवल संकीर्ण पांडित्य का दंभ दिखाते हैं”[19]। लॉज ने इस इस प्रकार ब्रह्मविद्या को ब्रह्मविज्ञान बनाने के लिए उस लोकतांत्रिक मूल्य को सामने रखा जिसे विज्ञान ने अपने आरंभिक संघर्षों के इतिहास में हासिल किया था। धर्म के वैज्ञानिक होने का सबसे बड़ा प्रमाण खुद विज्ञान के भीतर से ‘विकासवाद’ के दर्शन ने प्रस्तावित किया था। दूसरे अर्थों में समाज के भीतर वैज्ञानिक धर्म की आवश्यकता खुद विज्ञान की पद्धति से प्रमाणित हुई थी।
लॉज के अनुसार विज्ञान की दृष्टि से विकास परम सत्य है। वह भ्रान्ति नहीं है। दिक्काल और द्रव्य सार निरूपण (abstraction) हैं पर सत्य हैं। इनकी प्रतिपत्ति अनुभव से होती है। विकास का प्रवर्तक काल है। सत् (Reality) जीता जागता और चलता फिरता है। इसके स्थूल रूप का जब हम सार निरूपण करते हैं तो उसे द्रव्य कहते हैं। जब इसकी गति का सार निरूपण करते हैं तो वह काल है। हम गति की अग्रसरता और उन्नति के तत्वों को सार रूप से ग्रहण करते हैं और उसे काल कहते हैं। इन दोनों सारों के ‘संयोग और सहकार्य्य’ से हमें फिर सत् का भान होता है। इस प्रकार विकास सिद्धांत में काल का वास्तविक अस्तित्व मिलता है। सार निरूपण होने मात्र से वह असत् नहीं है। सारी भौतिक सत्ता भूत, वर्तमान और भविष्य की सीधी रेखा में बढ़ी जा रही है। इसका व्यक्त क्षण ही वर्तमान कहलाता है। अतीत या भूत का ‘अत्यन्ताभाव’ नहीं होता। उसका अस्तित्व हमारी स्मृति में और द्रव्य में बना रहता है और वही हमारे वर्तमान का आधार है। भविष्य इसी भूताधारित ‘वर्तमान का फल’ और ‘विकाश की उपज है’।द्रव्य के अनुसंधान में लगे विज्ञान और इस विज्ञान के इतिहास से जो बात लॉज के लिए स्पष्ट है वह है इन दोनों की ओर से अखंडत्व का संकेत। इसलिए अखंडत्व के प्रति उनका पक्षग्रहण केवल खामख्याली नहीं वरन् ठोस परीक्षा के आधार पर है। भौतिक विज्ञान या विज्ञान मात्र और इतिहास दोनों सातत्य की ही पुष्टि करते हैं। इस प्रकार लॉज के लिए विज्ञान का विकासवाद और इतिहास में उद्देश्य या टेलोस (telos) दोनों ही सातत्य या अखंडत्व की पुष्टि करते हैं। लॉज मानते हैं कि यह सातत्य उद्देश्यहीन नहीं है। उसका एक निश्चित उद्देश्य है। इसलिए विज्ञान की वर्तमान स्थिति ने जिस संशयवाद को जन्म दिया है उससे आगे जाकर इस सोद्देश्य गति को ‘उन्नति’ ही मानना चाहिए। इस अखंड गति में ‘निषेध’ की जगह नहीं है। अपने कर्तव्य से बाहर जाकर विज्ञान को निषेध नहीं करना चाहिए। यह कर्तव्य दो सौ सालों में विज्ञान ने अपने लिए तैयार किया है। भूत से वर्तमान की ओर काल की अखंड गति के सिवा ‘और कोई वस्तु अटल नहीं’।
लॉज ने करघे के एक रूपक के सहारे इतिहास की व्याख्या की है। उन्होंने सृष्टि को करघे के तैयार माल की तरह बताया है। बुनावट का नमूना वहां पहले से ही कुछ न कुछ रहता है। “एक बार नमूने पर चलनेवाली पटरियां लगा दी जाती है फिर तो उस कालरूपी करघे में बहुत से स्वतंत्र परिचालक हो जाते हैं जो तंतुजाल में जैसा फेरफार चाहे कर सकते हैं अर्थात् यदि वे काल व्यवस्था के अनुकूल चलते हैं तो माल अच्छा होता है और प्रतिकूल चलते हैं तो बुरा। मेरी समझ में लोक में जो त्रुटियाँ दिखाई देती हैं उसका समाधान इससे हो जाता है।”[20] समाधान कैसे हो जाता है? क्योंकि चेतन कर्ता अपने कर्मों द्वारा सुख या दुःख उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखता है। चेतन कर्ता की इस सामर्थ्य पर उसकी भलाई बुराई छोड़ दी गयी है। “कपड़ा बुना जाएगा  यह बात तो रहती है पर उसका नक्शा नमूना न पूरा निश्चित रहता है न पदार्थ नियम द्वारा उसका कोई हिसाब किताब हो सकता है...जहाँ कहीं पूर्ण चेतना का प्रवेश होता है वहां नयी शक्तियां उत्पन्न हो जाती है और चेतन अंशों की सामर्थ्य और इच्छा का प्रभाव समष्टि पर पड़ता है। इस समष्टि की चेतना बाहर से नहीं भीतर से होती है और प्रेरणा करनेवाली शक्ति प्रत्येक क्षण अंतर्व्याप्त रहती है।” लॉज का कहना है कि चेतना और किसी शर्त पर दी ही नहीं जा सकती। उसका सौदा इससे सस्ता हो ही नहीं सकता। इस प्रकार विकाशोन्नति सत्य है, यह एक बड़े महत्त्व का सिद्धांत है। सामाजिक उन्नति के लिए हमारे प्रयत्न इसलिए उचित हैं कि हम सब समाज के अंग हैं; अंग भी कैसे (...) उसके एक अंग होकर अपने आप में उसका अनुभव करते हैं।”[21] इस प्रकार लॉज को सामाजिक विकास में भी उसी अखंडत्व का दर्शन होते हैं। यहाँ विकास जिंदा रहने की होड़ के बजाय आपसी सहाय्य के रूप में सामने आता है। चेतना के सहारे समाज आत्मोन्नति कर सकता है । समाज की यह आतंरिक चेतना उसे जीवन के उच्चतर रूपों की ओर लिए जा रही है। काल का अस्तित्व वास्तविक है। वह एक सीधी रेखा में बढ़ा जाता है। विकास का निश्चित उद्देश्य है। इस प्रकार ‘अखंडत्व’ के प्रति अपना पक्ष प्रदर्शन करते हुए लॉज का स्वतःस्फूर्त दर्शन वैज्ञानिक की विश्वदृष्टि के रूप में सामने आता है। उस विश्वदृष्टि के अनुसार धर्म व्यावहारिक विचारधारा के रूप में खुद वैज्ञानिक क्रियाओं को निर्धारित करने लगता है। इस प्रकार भौतिकविज्ञानी लॉज ‘आध्यात्मिक’ दुनिया को भी विज्ञान की परिधि के बाहर नहीं मानते। लॉज की ईसाई आध्यात्मिकता लॉज की ‘वैज्ञानिक’ विश्वदृष्टि की पूरक है। इस विश्वदृष्टि में मानवीय स्वतंत्रता और काल की अखंडता दोनों का सुन्दर समन्वय है। इतिहास में ‘उन्नति’ और चेतन कर्त्ता के रूप में मानव के सामूहिक हित के लिए प्रयास इन दोनों में कोई अविरोध नहीं बल्कि यह विकास सिद्धांत के अनुसार है। परिवर्तन की मृदु धारा काल की अखंडता या सातत्य से अविरोधी है जहाँ भूत से भविष्य तक एक सीधी गति में हम अपने प्रत्यक्ष वर्तमान को समाज की आतंरिक प्रेरणा द्वारा उच्चतर सामाजिक रूपों तक ले जा सकते हैं। लॉज की यह विश्वदृष्टि किस प्रकार ‘मानवतावादी-इतिहासवादी’ है इसे कहने की ज़रूरत नहीं है।[22]उनका मानना है कि मानवीय सामाजिकता अपने सहाय्य की प्रवृति को आधुनिक काल के पूर्व धर्म के रूप में व्यक्त करती रही है। मनुष्य जाति के अंतःकरण में जो प्रेरणा शक्ति है वह ‘उनके अंतःकरण की भाव वस्तुओं की सत्यता’ में है। इसी सत्यता में धर्म का मूल है। दूसरे शब्दों में समाज व्यवस्था के रूप में जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था का विकास पिछले दो सौ सालों में हुआ है उसकी आतंरिक प्रेरणा शक्ति मानवीय आतंरिक भाव वस्तु की सत्यता में है। मनुष्यता की आतंरिक अच्छाई में है। जो सामाजिक काम भलाई के लिए होगा वही टिकेगा। जो काल रूपी करघे के तंतुजाल में फेर फार कर सकते हैं , पर अगर बदलाव काल व्यवस्था के अनुकूल चलता है तो माल अच्छा होगा नहीं तो बुरा। लॉज के समझ से ‘लोक की जो त्रुटियाँ दिखाई देती हैं उसका समाधान इससे हो जाता है’।
 हम स्पष्टतः देखते हैं कि वैज्ञानिक के रूप में लॉज का स्वाभाविक भौतिकवाद जब विचारधारा के रूप में आकार ग्रहण करता है तो वह भाववादी हो जाता है। अकारण नहीं कि लॉज आस्थावान ईसाई कैथोलिक भी थे और फेबियन समाजवाद में भी आस्था व्यक्त करते थे। ब्रिटिश राजनीतिक बहसों में भारतपक्षी भी थे। इस विचारधारा में निषेध या क्रान्ति के बदले अखंडत्व/सातत्य या विकाश की सत्यता प्रमाणित है। परिवर्तन मृदु या सुधारवादी ही हो सकता है। यहाँ हम फेबियन समाजवाद की विचारधारा और उसके वर्गीय चरित्र की ओर न जाकर केवल यह देखने का प्रयास कर रहे हैं कि लॉज की विश्वदृष्टि किस प्रकार उनके स्वाभाविक भौतिकवाद को भ्रमित करती है, मिस्टीफाई करती है।



शुक्ल जी ने आलिवर लॉज के इस व्याख्यान से लम्बे-लम्बे उद्धरण वैज्ञानिकों की विचारधारा के दूसरे पक्ष के निरूपण के लिए दिया है। भूमिका के पूर्वपक्ष में वह पहला पक्ष है जिसे लॉज ‘कट्टर प्राणीशास्त्री’ का भूतवाद कहते हैं। यह भूतवाद अर्न्स्ट हेकेल का भूतवाद है। हेकेल विख्यात प्राणिशास्त्री थे जिन्होंने डार्विन के विकासवाद का समर्थन किया था और उसे अपने शोधों से आगे भी बढ़ाया था। वह उन वैज्ञानिकों में अग्रगण्य थे जिन्होंने मनोविज्ञान को शरीरक्रिया विज्ञान की शाखा के रूप में स्थापित किया। उसने गर्भविकास और जीवविकास के सारुप्य के आधार पर यह दिखाया कि पृथ्वी पर एक कोशीय जीवों से उच्चतर जीवों के विकास की अवस्थाएं जो लाखों वर्षो में ‘प्राकृतिक ग्रहण’ और ‘स्थिति सामंजस्य’ के द्वारा संपन्न हुई है उसकी संक्षिप्त उद्धरणी गर्भ धारण और भ्रूण विकास की अवस्थाओं में हम देख सकते हैं। हेकेल के अनुसार Ontogeny recapitulates phylogeny’। हेकेल ने अपने सिद्धांत के पक्ष में गर्भविकास के रेखाचित्र भी बनाये जो प्राणिविज्ञान में काफी मशहूर हुए। डार्विन के ‘प्राकृतिक ग्रहण’ के अलावा हेकेल ने विकास क्रम में लैमार्क के ‘स्थिति सामंजस्य’ को स्वीकार करते हुए जीवविकास की परम्परा की कई गायब कड़ियों को भी खोज निकाला। विकासक्रम में पर्यावरण के साथ स्थिति सामंजस्य की प्रकिया के आधार पर मानव जाति की उत्त्पति और विकास की क्षेत्रीय समानांतरता को स्वीकार किया। तत्कालीन भाषाविज्ञान भी भाषाओं के विकास की ऐसी ही क्षेत्रीय समानांतरता के प्रमाण दे रहा था। अर्थात् पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में भाषा का विकास अपने-अपने विशिष्ट रूपों में हुआ है। डार्विन के पहले सृष्टि के आरम्भ से ही मानवजाति को भिन्न-भिन्न प्रजातियों में बंटा माना जाता था। डार्विन ने आकर मानवजाति के मोनोजेनेसिस की बात की और कहा आधुनिक मनुष्य जिन पूर्वजों से उत्पन्न हुए हैं उनका मूल अफ्रिका में है। हेकेल ने इस मोनोजेनेसिस के बदले विकासवादी पॉलिजेनेसिस की संकल्पना सामने रखी। मनुष्य के सबसे आदिम पूर्वजों को उसने एशियाई मूल का बताया और दावा किया कि उनका प्रवासन ‘हिन्दुस्तान’ से हुआ है। मानव के उद्भव और विकास की गायब कड़ियों को खोजने के लिए उसने एक गायब महाद्वीप की कल्पना भी की जो हिंदमहासागर के भीतर है और जिसका नाम उसने ‘लेमुरा’ रखा। ‘जावा-मानव’ के अवशेषों के आधार पर आज भी कुछ लोग हेकेल की इस संकल्पना का समर्थन करते हैं। जर्मनी में हेकेल की कई संकल्पनाओं और उसके नस्लीय निहितार्थों का इस्तेमाल नाज़ी समर्थकों ने किया था।
हेकेल की विश्वविख्यात किताब ‘विश्वप्रपंच’ (१८९५-९९) का अंग्रेजी अनुवाद ‘The Riddle of Universe’ १९०२ में प्रकाशित हुई। दुनिया की कई भाषाओं में इसके अनुवादों की हज़ारों प्रतियां देखते देखते बिक गयीं। पोप ,पादरियों और धर्म के ठेकेदारों में खलबली मच गयी। वैज्ञानिकों के भीतर लॉज जैसे लोगों ने इस ‘कट्टर प्राणिशास्त्री’ के दंभ की भर्त्सना की। जेना में पत्थर मार कर हेकेल के अध्ययन कक्ष की खिड़कियों के शीशे तोड़ डाले गए। हेकेल कट्टर भूतवादी था। यह भूतवाद ही उसके खिलाफ इस हमले का कारण था। १९०८ में लेनिन ने हेकेल के बारे में लिखा :- “प्राकृतिक विज्ञानों के आधार पर वह सारे भाववादियों और उनके सारे दार्शनिक कला कौशल की खिल्ली उड़ाता है, इस विचार की तनिक भी गुंजाइश नहीं छोड़ता कि प्रकृति-वैज्ञानिक भौतिकवाद के अलावा ज्ञान के सिद्धांत का कोई और रास्ता भी संभव है। वह भौतिकवाद के पक्ष से दार्शनिकों की खिल्ली उड़ाता है बिना इस भावना के कि उसका पक्ष दरअस्ल भौतिकवादी है!”[23]
लेनिन अपनी किताब में ‘माखपंथियों’ की आलोचना कर रहे थे। माखपंथियों में लेनिन के ‘कामरेड्स इन आर्म्स’ बोग्दानोव, लुनार्च्सकी और गोर्की जैसे लोग भी शामिल थे। लेनिन के अनुसार इनका अद्वैत अनुभववाद दरअस्ल एक नए ईश्वर की तलाश कर रहा था। यह नया ईश्वर खुद प्राकृतिक विज्ञानों की तरफ से आ रहा था।माख खुद भौतिकशास्त्री था। उसका कहना था कि विज्ञान जिन नियमों को शाश्वत मानकर चलता है वह ­­कोई वास्तविक यथार्थ नहीं बल्कि अनुभवाश्रित संकल्पनाएँ हैं। अर्थात् उन नियमों का प्रकृति में कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। इसलिए विज्ञान में जो नए-नए अनुभव और खोज हमारे सामने प्रकट हो रहे हैं उसके हिसाब से हमें आगे बढ़ते जाना चाहिए । माख के अनुसार भौतिकी को केवल पदार्थ, अणुओं या वस्तुओं के सहारे आगे नहीं बढ़ना चाहिए क्योंकि ये सब केवल काल्पनिक संकल्पनाएँ हैं। हम सिर्फ अपने अनुभव को प्रत्यक्षतः जानते हैं जो संवेदनाओं के रूप में हमें मिलता है- संवेदना प्रभावों के रूप में। माख के यहाँ बाहरी दुनिया का नकार नहीं है । यह बात कई जगहों पर खुद लेनिन ने स्वीकार किया है। लेनिन की आलोचना का केन्द्रीय पक्ष संवेदनपुंजों के रूप में यथार्थ की व्याख्या है। हालाँकि माख ने ‘हमारे’ संवेदन पुंजों की बात की है परन्तु लेनिन कहते हैं कि वह वस्तुतः ‘मेरे’ संवेदन पुंज ही हैं। मसलन जब माख गुरुत्वाकर्षण के नियम के बारे में बात करता है तो कहता है कि वस्तुओं का धरती की तरफ गिरना हज़ारों बार लोगों के प्रत्यक्ष संवेदन में शामिल है। यह प्रत्यक्ष संवेदन कई अन्य संवेदनों के साथ मिल कर जो संवेदन पुंज बनाता है और जो कभी भौतिक तो कभी मानसिक रूपों में प्रकट होते हैं ‘गुरुत्व’है। ‘गुरुत्वाकर्षण का नियम’ कोई वास्तविक नियम नहीं वरन् संभावनाओं के पूर्वनिर्धारण हेतु बनाए गए हमारे अपने नियम हैं। इन नियमों से हमें कम से कम शब्दों में वस्तुओं के अब तक प्राप्त ज्ञान उपलब्ध हो सकते हैं। माख के शब्दों में यह ‘चिंतन का अर्थशास्त्र है’। लेनिन के अनुसार ‘चिंतन का अर्थशास्त्र’ और बोग्दानोवका ‘अनुभववादी अद्वैतवाद’ वस्तुतः एक ही है। इस प्रवृत्ति की आलोचना लेनिन ने भौतिकवादी पक्ष से की। लेनिन के अनुसार प्रकृति और प्रकृति के नियम तथा पदार्थ चेतना से बाहर न केवल अस्तित्व रखते हैं वरन् वे ही प्राथमिक हैं। चेतना उस बाहरी वास्तविकता का प्रतिबिम्बन है। मन या चेतना की वास्तविकता को स्वीकार करने वाले दित्ज्गेन के भौतिकवाद में लेनिन इस जगह असातत्य देखते हैं। लेनिन ने दित्ज्गेन के ‘संशय’ को इन शब्दों में व्यक्त किया है :
“Thinking is a function of the brain, says Dietzgen. ‘My desk as a picture in my mind is identical with my idea of it But my desk outside of my brain is a separate object and distinct from my idea.’ These perfectly clear materialistic propositions are, however, supplemented by Dietzgen thus: ‘Nevertheless, the non-sensible idea is also sensible, material, i.e., real....’ This is obviously false. That both thought and matter are ‘real,’ i.e., exist, is true. But to say that thought is material is to make a false step, a step towards confusing materialism and idealism. As a matter of fact this is only an inexact expression of Dietzgen.[24] 
पेनाकोक के अनुसार लेनिन, दित्ज्गेन के ‘भौतिकवाद का संशय’ की आलोचना करते हुए दरअस्ल अठारहवीं शताब्दी के भौतिकवाद का पक्ष ग्रहण करते हैं। यह भौतिकवाद बुर्जुआ क्रान्ति के बाद अस्तित्व में आये मध्य-वर्ग का स्वाभाविक भौतिकवाद था जो प्रधानतः धर्म के खिलाफ था, पर अपनी मध्यवर्गीय स्वाभाविकता में सिकुड़े होने के चलते इहलौकिकता के रूप में एक नए ईश्वर की भावना करता है। इस भौतिकवाद को मार्क्स और एंगेल्स यांत्रिक-भौतिकवाद कहते थे। ‘थीसिस ऑन फ़ायरबाख़’ के पहले थीसिस में मार्क्स जब “अब तक के सारे भौतिकवाद की सीमा” बतलाते हैं तो उसमें यह मध्यवर्गीय भौतिकवाद भी शामिल है। पहले थीसिस में मार्क्स लिखते हैं :
“ पिछले सारे भौतिकवाद (जिसमें फ़ायरबाख़ का भौतिकवाद भी शामिल है ) का मुख्य नुक्स यह है कि यहाँ वस्तुएं (things, Gegenstand), यथार्थ, ऐंद्रिकता को वस्तु के रूप में या चिंतन-मनन के रूप में समझा जाता है लेकिन उन्हें ऐन्द्रिक मानवीय क्रियाशीलता , व्यवहार की तरह नहीं समझता। विषयीगत नहीं देखता। इसलिए , भौतिकवाद के उलट, क्रियाशील पक्ष को भाववाद ने अमूर्त बनाया- जो निश्चित ही वास्तविक, ऐन्द्रिय क्रियाशीलता को नहीं जानता। फ़ायरबाख़ अवधारणात्मक वस्तुओं से सर्वथा पृथक ऐन्द्रिय वस्तुएं चाहता है, लेकिन वह स्वयं मानवीय क्रियाशीलता को वस्तुगत क्रियाशीलता नहीं मानता। इसलिए ‘ईसाइयत का सार’ में वह सैद्धांतिक रवैये को ही सही मानवीय रवैया देखता है, जबकि व्यवहार को मात्र इसके गंदे यहूदी रूपमें आविर्भूत होने की तरह समझा और पारिभाषित किया गया है। इसप्रकार वह “क्रांतिकारी”, “व्यावहारिक-आलोचनात्मक” क्रियाशीलता के महत्त्व को पकड़ नहीं पाता।”[25]
अवधारणात्मक वस्तुओं से सर्वथा पृथक ऐन्द्रिक वस्तुओं की कल्पना एक कल्पना है। भौतिकवादी द्वंद्वात्मकता यथार्थ को और यथार्थ की अवधारणा को दो सर्वथा पृथक और भिन्न कोटियों के द्वैध के रूप में नहीं देखती। न ही भाववाद की तरह मानवीय क्रियाशीलता का वह अमूर्तन करती है और उसे विचारों की क्रियाशीलता में सीमित करती है। भाववाद वास्तविक ऐन्द्रिय क्रियाशीलता को जानता तक नहीं। भौतिकवादी द्वंद्वात्मकता वस्तुमूलक सत्य को मानवीय चिंतन के गुण के रूप में देखने को कोई सैद्धांतिक प्रश्न नहीं मानती। वस्तुमूलक सत्य का चिंतन में अवधारणा (कॉन्सेप्ट्स) की तरह पुनर्निर्माण एक व्यावहारिक प्रश्न है। दूसरे थीसिस के अनुसार “मनुष्य को व्यवहार के रूप में अपने चिंतन की इहलौकिकता,उसकी शक्ति और उसके यथार्थ को अनिवार्यतः सत्यापित करना चाहिए। व्यवहार से अलग चिंतन की वास्तविकता और अवास्तविकता पर बहस शुद्ध मनोविलास है।”[26]
विज्ञान ऐन्द्रिय मानवीय क्रियाशीलता है। इस अर्थ में अब तक के वैज्ञानिक क्रिया-कलापों का इतिहास भौतिकवादी द्वंद्वात्मकता की पुष्टि ही करता है। दिक्कत तब शुरू होती है जब वैज्ञानिक अपने प्रायोगिक निष्कर्षों के माध्यम से कोई सैद्धांतिक या अवधारणात्मक चौखटा बनाने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया में वह अपने सामाजिक संबंधों में निहित संश्लिष्ट विचारधारात्मक दुनिया में काम करता है। यह संश्लिष्ट विचारधारात्मक दुनिया मोटे अर्थों में उत्पादन संबंधों या वर्ग-संघर्ष की ही अभिव्यक्ति है। पेनाकोक जब लेनिन की आलोचना करते हैं तब वह इसकी आलोचना नहीं करते कि दार्शनिक माख की आलोचना नहीं करनी चाहिए। परन्तु दार्शनिक माख की आलोचना किसके पक्ष से की जानी चाहिए थी यह रणनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण था। ऐन्द्रिय मानवीय क्रियाशीलता के रूप में विज्ञान अनुभव और फेनोमेना के महत्त्व को स्वीकार करने लगा था। आइन्स्टीन के सापेक्षितावाद में इसकी अनुगूंज स्पष्ट थी। इसलिए पेनाकोक के अनुसार दार्शनिक माख के बरक्स दार्शनिक हेकेल को सामने रखते हुए लेनिन ने प्राकृतिक विज्ञानों के अपने दर्शन के रूप में जिस भौतिकवाद का पक्ष ग्रहण किया वह मजदूर वर्ग के बदले मध्यवर्ग का पक्ष था। प्राकृतिक विज्ञान की विचारधारा के रूप में यह भौतिकवाद “सामान्य ज्ञान” बन चुका था। लोकप्रिय किताबों के रूप में इसका व्यापक प्रचार किया गया। हेकेल के किताब की व्यापक लोकप्रियता को और रुढ़िवादी धर्माधिकारियों की रुष्टता को लेनिन ने वर्ग-संघर्ष में एक निर्णायक भूमिका माना। लेनिन के अनुसार: “The storm provoked by Ernst Haeckel’s The Riddle of the Universe in every civilised country strikingly brought out, on the one hand, the partisan character of philosophy in modern society and, on the other, the true social significance of the struggle of materialism against idealism and agnosticism. The fact that the book was sold in hundreds of thousands of copies, that it was immediately translated into all languages and that it appeared in special cheap editions, clearly demonstrates that the book ‘has found its way to the masses’, that there are numbers of readers whom Ernst Haeckel at once won over to his side. This popular little book became a weapon in the class struggle. The professors of philosophy and theology in every country of the world set about denouncing and annihilating Haeckel in every possible way.[27]
वर्गसंघर्ष में हथियार बन जाने वाली यह किताब वर्ग संघर्ष में किसका पक्ष रखती है ,यह लेनिन ने नहीं बताया है। क्या हेकेल बुर्जुआ दर्शन के खिलाफ मजदूर वर्ग का पक्ष रख रहे थे? ध्यान देने वाली बात है कि हेकेल समाजवाद के घोर शत्रु थे। नव विधेयवाद के प्रबल समर्थक थे। उसने शासक वर्गों को डार्विन के विकासवाद में निहित कुलीनता के प्रति जागरूक किया और ‘समाजवादी समता’ के सिद्धांत के खिलाफ  ‘सर्वश्रेष्ट की उत्तरजीविता’ का महत्त्व प्रतिपादित किया। पेनाकोक ने ध्यान दिलाया कि लेनिन जिस ‘आंधी’ की चर्चा करते हैं वह मध्यवर्ग के भीतर से उठने वाला एक ‘झोंका’ था जो रूढ़ीवाद के खिलाफ अपना पक्ष मजबूत करने की लोकप्रिय कोशिश के अलावा और कुछ नहीं था। यह प्राकृतिक विज्ञानों के बारे में लोकप्रिय “सामान्य-बोध” की विचारधारा का पक्ष था।
“ प्रकृति की द्वंद्वात्मकता” में एंगेल्स ने हेकेल के भौतिकवाद की आलोचना की है। एंगेल्स ने हेकेल की वैज्ञानिक क्रियाओं और शोधों में दो चीजें महत्वपूर्ण मानी हैं:
१.     जीव विकास में स्थिति सामंजस्य।
२.     गर्भ विकास विधान या व्यक्ति विकास विधान, वर्ग विकास विधान की संक्षिप्त उद्धरणी है।
एंगेल्स के अनुसार इनकी प्रकृति द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के करीब है। लेकिन हेकेल के कई दूसरे निष्कर्षों और उसकी दार्शनिक प्रपत्ति जिस भौतिकवाद की हिमायत करता है वह अठारहवीं सदी के फ्रांसीसी भौतिकवादियों के निष्कर्ष हैं। हेकेल अपने दर्शन को तत्त्वाद्वैतवाद कह कर भौतिकवाद से अलग करता है। एंगेल्स के अनुसार इस अलगाने में वह पीछे लौट कर यांत्रिक फ्रांसीसी भौतिकवादियों के निष्कर्षों को ही दुहराता है। भौतिकवाद की आलोचना करते हुए हेकेल लिखता है : “ “दुनिया के बारे में भौतिकवादी दृष्टि के अनुसार पदार्थ या तत्त्व (सब्सटांस) गति के पहले ही उपस्थित था, या तदनुसार  पदार्थ ने शक्ति को पैदा किया।” यह उतना ही गलत है जितना यह कहना कि शक्ति ने पदार्थ को रचा , क्योंकि शक्ति और पदार्थ अवियोज्य हैं।” [28]
हेकेल के द्वारा जिस भौतिकवाद की आलोचना है उसके बारे में एंगेल्स की टिपण्णी है -“वह (हेकेल) अपना भौतिकवाद कहाँ से लाता है?”[29] अर्थात् हेकेल यह किस भौतिकवाद की आलोचना कर रहा है? भौतिकवाद को लेकर बहुत सारा संशय हेकेल की भाषा में भी मिलता है। एंगेल्स ध्यान दिलाते हैं कि ‘अंतिम कारण’ या ‘निमित्त कारण’ (Causae Finales) और ‘प्रभावी कारण’ या ‘समवायिकारण’ (causae efficientes)[30] हेकेल के यहाँ क्रमशः उद्देश्यचालित और यांत्रिक रूप से काम करने वाले कारण में बदल जाते हैं, क्योंकि उसके लिए “‘निमित्त कारण’ = ईश्वर !”[31] उसी प्रकार उसके यहाँ ‘यांत्रिक’, कांट का अनुसरण करता हुआ अद्वैत के बराबर हो जाता है और यन्त्रशास्त्र के अर्थ में यांत्रिक नहीं रह जाता। एंगेल्स कहते हैं कि भाषा की ऐसी दुविधा के चलते मूर्खता अवश्यम्भावी है। हेकेल कांट के ‘क्रिटिक ऑफ़ द टेलियोलॉजिकल फैकल्टी ऑफ़ जजमेंट’ में ‘व्याख्या के यांत्रिक तरीकों’ और सोद्देश्यवाद के बीच के अंतर्विरोध पर जोर देते हुए जब सोद्देश्यवाद को कांट के विरुद्ध बाहरी उद्देश्य या बाह्य औचित्य के नियम के रूप में दिखाता है तब वह फिर भ्रम खड़ा कर रहा होता है। एंगेल्स कहते हैं कि हीगेल जब इसी सन्दर्भ में कांट के ‘क्रिटिक ऑफ़ द टेलियोलॉजिकल फैकल्टी ऑफ़ जजमेंट’ के बारे में अपने ‘दर्शन के इतिहास’ में चर्चा करते हैं तो वहां कांट के ‘आतंरिक औचित्य’ को सामने रखते हैं। जिसके अनुसार जीवधारियों में “हर चीज़ उद्देश्य है और उलटे रूप में साधन भी है”। [32]
एंगेल्स नोट करते हैं कि हेकेल के यहाँ यांत्रिक = अद्वैतवाद, और शक्तिवाद या सोद्देश्यवाद = द्वैतवाद। भौतिक दुनिया की व्याख्या अपने आप में पूर्ण है और वह स्वतः उत्पन्नशील है। पूर्ण समवायिकारण के रूप में यांत्रिक (भौतिक और रासायनिक नियमों के अनुसार काम करने वाला) कारण अद्वैत है। दूसरी ओर उद्देश्य या निमित्त कारण को वह हमेशा भूतातीत और भूतबाह्य देखता है । वह उसके लिए ईश्वर के सिवा और कुछ नहीं। इसलिए शक्तिवादी वैज्ञानिकों को वह द्वैतवादी कहता है। अलिवर लॉज ने अपने इसी शक्तिवादी होने का विरोध करते हुए भौतिक नियमों के अधीन आध्यात्मिक विज्ञान बनाने का बीड़ा उठाया था। हेकेल की किताब का इन्होंने भी जम कर विरोध किया था। खुद उनकी व्याख्या में लॉज भौतिक नियमों की सर्वव्यापकता में ओतप्रोत निमित्त कारण को देखते हैं। आनन्द, सौन्दर्य या समाजव्यवस्था के विकास में उस निमित्त कारण का संकेत मिलता है। पर एक वैज्ञानिक होने के नाते भौतिक नियमों के माध्यम से भी उस निमित्त कारण की सत्यता सिद्ध करने का बीड़ा उन्होंने उठाया। बहरहाल शुक्ल जी इस प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं और दर्शन और विज्ञान के द्वैत को बनाए रखते हैं। दूसरी ओर हेकेल और लॉज जैसे वैज्ञानिक उसके अद्वैत पर जोर देते हैं।
एंगेल्स ध्यान दिलाते हैं कि कांट और हीगेल दोनों के ‘यहाँ आतंरिक उद्देश्य इस द्वैतवाद के खिलाफ प्रतिरोध है।’  हीगेल के अनुसार यह यांत्रिकता खुद को पूर्णता की एक ऐसी प्रवृत्ति के रूप में प्रकट करती है जहाँ प्रकृति स्वयं में पूर्ण है और अपने विचार के लिए किसी दूसरे की ज़रूरत उसे नहीं है। ऐसी पूर्णता जो अंत में मिलती ही नहीं न ही उससे जुड़े लोकोत्तर विचार मिलते हैं।[33]वास्तव में यांत्रिकता और इस प्रकार अठारहवीं सदी का भौतिकवाद न तो अमूर्त आवश्यकता से पिंड छुड़ा पाता है और इसलिए न ही संयोग से। विकासवादियों पर ‘संयोग’ के अधीन विकासक्रम दिखलाने के आरोप के जबाव में हेकेल ‘संयोग’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए ‘विश्वप्रपंच’ में लिखते हैं: “प्रकृति के जितने व्यापार हैं सब कारण इकट्ठे होने से होते हैं। संसार में जितनी बातें होती हैं सब संयोग से, किसी संकल्प के अनुसार नहीं । प्रकृति के गुण या अन्धप्रवृत्ति के अनुसार जब जैसा संयोग उपस्थित होता है तब वैसी बात होती है। ... ‘संयोग’ शब्द का अर्थ यहाँ स्पष्ट कर देना चाहिए। ‘संयोग’ पहले से निश्चित अदृष्ट व्यवस्था का नाम नहीं है, कारणों के समाहार का नाम है। संयोग से कोई बात हो गयी इसका यह मतलब नहीं कि बिना कारण कोई बात हो गयी। प्रकृति में जो कुछ व्यापार होता है सबका भौतिक कारण होता है। ... संयोग का अर्थ है कई भिन्न-भिन्न बातों का भिन्न भिन्न कारणों से एक साथ घटित होना।” यह प्रकृति की अन्धप्रवृत्ति या उसका गुण क्या है? हेकेल के लिए वह खुद प्रकृति के नियम हैं। इस प्रकार आवश्यकता एक बार फिर वस्तुगत न हो कर अमूर्त बन जाती है। द्वैतवादियों के यहाँ ‘आवश्यकता’ और ‘संयोग’ दो सर्वथा पृथक चीजें हैं। घटनाएँ या तो आवश्यक होती हैं या महज संयोगिक । ‘प्रजाति’ जहाँ आवश्यकता है उसकी अलग-अलग व्यष्टिगत भिन्नताएं संयोगिक हैं। दूसरी ओर यांत्रिक भौतिकवादियों के लिए सारी बातें संयोगिक है। ‘भिन्न-भिन्न बातों का भिन्न भिन्न कारणों से एक साथ घटित होना’ खुद एक विलक्षण समवायीकरण कारण (unius effectus causa) है जिसका विलक्षण प्रभाव ‘संयोग’ है। प्रकृति में सारे व्यापारों के भौतिक कारण हैं । इसलिए भौतिक कारणों के समाहार का नाम संयोग है। चेतना मस्तिष्क में चलने वाली भौतिक-रासायनिक क्रियाओं की उपज है। मस्तिष्क की जटिल संरचना ही इसका विलक्षण समवायिकारण है। देकार्त के मन और शरीर के द्वैत का यह यांत्रिक निराकरण खुद स्पिनोज़ा के यहाँ भी नहीं था, जिसके दर्शन के आधार पर हेकेल ने अपना ‘तत्त्वाद्वैतवाद’ निकाला था। आतंरिक उद्देश्य और अमूर्त आवश्यकता दोनों ही विचारधारा के रूप में काम करती है। हेकेल के लिए ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ और ‘प्रकृति चयन’ खुद प्रकृति का अटल नियम है। जीवधारियों में ‘जीवनप्रयत्न’ ही वह ‘प्रबल प्राकृतिक शक्ति’ है “जिसके वशवर्ती होकर भिन्न भिन्न जीवों का विकास और स्थितिविधान हुआ है। जीवों के बीच अपनी स्थिति के लिए घोर संघर्ष चलता रहता है। जो सबसे योग्य और श्रेष्ठ होते हैं वही जीव विजयी होते या रह जाते हैं। जो बलवान होते हैं वही सबसे सबसे योग्य और श्रेष्ठ होते हैं। “प्रकृति में यही नीति और यही न्याय है”[34]। यही नीति और न्याय मनुष्य समाज पर भी लागू होता है। “ मनुष्य जातियों के इतिहास में भी हम कोई नयी बात नहीं पाते ... इतिहासों में बराबर यही पाया जाता है कि जिन जातियों ने जितना अधिक जीवनप्रयत्न किया है , स्थिति और उन्नति के लिए वे जितना ही अधिक अग्रसर हुई हैं , उतना ही उनके भाग्य का उदय हुआ है। उसी ‘जीवन-प्रयत्न’ द्वारा उनके भाग्य का भी निपटारा हुआ है जिसके अनुसार समस्त सजीव सृष्टि में स्थिति और विनाश का क्रम करोड़ों वर्षों से चला आ रहा है।”[35] इस प्रकार सामाजिक डार्विनवाद की विचारधारा सामने आती है। हेकेल कहते हैं कि शील और उन्नत आदर्श या परम दयालु ईश्वर का इतिहास में कहीं अता पता नहीं लगता। ‘स्वर्ग का राज्य’ पुराने धर्माधिकारियों की कल्पना है। जिन ‘दरिद्र और मरभूखी जातियों को’ ‘आवश्यकतावश’ अर्थात् जीवन-रक्षा के क्रम में ज्यादा संघर्ष करना पड़ा वो ही अग्रसर हुई हैं। एंगेल्स के अनुसार ‘अस्तित्व के संघर्ष’ की यह विचारधारा हॉब्स के ‘सबका सबके विरुद्ध युद्ध’ के सिद्धांत या ‘प्रतिद्वंद्विता’ के बुर्जुआ अर्थशास्त्रीय सिद्धांत या माल्थस के ‘जनसँख्या के सिद्धांत’ को सीधे सीधे समाज से निकाल कर जीवंत प्रकृति में डाल देना है।एक बार इन सिद्धांतों के पाँव अगर पूरी तरह से जम गए तो फिर इन्हें प्राकृतिक इतिहास से निकाल कर समाज के इतिहास में जमाना कोई मुश्किल नहीं । और तब समाज के शाश्वत प्राकृतिक नियमों की तरह इन्हें पेश करते हुए इनका भोलापन नहीं छुपता।[36]
सामाजिक डार्विनवाद के मूल में विकासवाद की विचारधारा है जो डार्विन के पहले से ही वर्तमान थी। यह अठारहवीं सदी के अंत में इरास्मस के यहाँ से होते हुए उन्नीसवीं सदी के मध्य तक सुव्यवस्थित चिंतन पद्धति के रूप में उपस्थित थी। रेमंड विलियम्स की मानें तो खुद डार्विन के यहाँ माल्थस के जनसंख्या और संसाधनों के रिश्ते का सिद्धांत चिन्तन के क्षेत्र में प्रभावशाली भूमिका अदा करता है। एक व्यवस्थित सिद्धांत के रूप में विकासवाद के विस्तृत और सामाजिक डार्विनवाद के संकीर्ण अर्थों में यह हर्बर्ट स्पेंसर यहाँ ही विकसित हुआ है। ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ नामक भ्रामक पद इन्हीं की सृष्टि थी, जिसका इतिहास जागजाहिर है। उसे विश्वास था कि मानव-इतिहास में सामाजिक चयन का नियम काम करता है। इसलिए यह अत्यंत ज़रूरी है कि मनुष्य इस नियम में हस्तक्षेप न करे और विशेष रूप से सरकारों को इसमें टांग नहीं अड़ाना चाहिए। गरीब और मरभूखे लोगों की रक्षा का कोई उपक्रम मानव प्रजाति के कमज़ोर और असफल सदस्यों को बचाने का उपक्रम है। यह सामाजिक चयन के शाश्वत नियम के खिलाफ है। सामाजिक चयन मनुष्यजाति के क्रमविकास में सबसे सबल, उन्नत और आत्मावलम्बी प्रकारों की सृष्टि करता है। इस सृष्टि-क्रम में किसी किस्म की रूकावट मनुष्य जाति के वृहत्तर सुख से उसे वंचित कर सकता है।
खुली प्रतिद्वंद्विता की विचारधारा भी कोई नयी विचारधारा नहीं थी। पूंजीवादी बाज़ार की पहली शर्त थी- अंधी प्रतिद्वंद्विता। हॉब्स को विश्वास था कि जीवन, सबका सबके विरुद्ध युद्ध है। जबतक कोई बाहरी सत्ता इसमें हस्तक्षेप कर इसे नियंत्रित नहीं करती, मनुष्य समाज लड़-भिड़ कर स्वयं नष्ट हो जाने वाले ढोरों से अधिक कुछ नहीं है। बाह्य सत्ता के अभाव में मनुष्य की प्रकृत दशा यही है। सामाजिक डार्विनवाद के सिद्धांत का एक और घटक उन्नीसवीं सदी की यह मान्यता भी थी जिसके अनुसार चरित्र साधारणतः अपने वातावरण से निर्धारित होते हैं। वातावरण बदलने से चरित्र भी बदल जाता है। रॉबर्ट ओवेन यह मानता था कि समूची जनसंख्या के नैतिक मूल्यों में अगर आपको कम ही समय में सुधार करना है तो उनके रहने के वातावरण को बदल दीजिये। रेमंड विलियम्स कहते हैं कि इन दोनों मान्यताओं को मिलाने से भी सामाजिक डार्विनवाद का पूरा स्वरूप सामने नहीं आता। हाँ यह निश्चित हो जाता है कि प्रतिद्वंद्विता समाज की अन्तर्निहित प्रवृत्ति है और चरित्रों का परिस्थितिओं पर निर्भर होना जल्दी ही उपयुक्त परिस्थितियों द्वारा चयन में रूपांतरित हो जाता है। इनके साथ अगर ऐतिहासिक क्रमविकास का सिद्धांत मिला दिया जाए तो सामाजिक डार्विनवाद अपने उन्नत रूप में सामने आता है।[37]
इस सामाजिक डार्विनवाद के सिद्धांत की कई परिणतियाँ हुईं। कहीं व्यक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता समाज के सबसे अच्छे रूप के निर्माण की होड़ में बदल गयी। समाज का सबसे उत्तम रूप या राज्य के उत्तम रूप का विचार कई विचारों के संघर्ष से निकल कर सामने आता है। यह संघर्ष वाद-विवाद के द्वारा ही संभव है। युद्ध या सैनिक हस्तक्षेप से बल प्रयोग द्वारा सबसे उपयुक्त विचार को समाप्त किया जा सकता है। इसके लिए सुव्यवस्थित विवाद का शांतिपूर्ण काल ज़रूरी है। यूरोप के विभिन्न राज्यों के संगठक अमूर्त विचारों की श्रेष्ठता और प्रगति के केंद्र के रूप में यूरोप की स्थिति ऐसे विचारों के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ भी मुहैय्या करती थी। संघर्ष और प्रगति में सीधा संबंध स्थापित किया गया। विचारों के संघर्ष द्वारा उन्नत समाज रूपों की स्थापना का क्रमविधान विचारधारा के रूप में महज उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक तक सीमित नहीं थी। लगभग सौ साल बाद जब फ्रेंच नोबेल पुरस्कार विजेता जीवविज्ञानी जैक मोनाड, जिन्होंने जीवन-व्यवस्था के आधार के रूप में DNA का पता लगाया था, ने  जीवमंडल से अलग ‘विचार-मंडल’(noosphere) की अवधारणा सामने रखी तो प्रकारांतर से वह इसी सिद्धांत को दुहरा रहे थे।[38]दूसरी ओर समनर जैसे सामाजिक सिद्धान्तवादियों के लिए सभ्यता ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ थी और ‘कमजोरों की उत्तरजीविता’ सभ्यता-विरोधी थी। ‘प्रगति’ और ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ आपस में इस प्रकार घुल-मिल गए कि समाजवाद एक घृणित और ऊटपटांग सिद्धांत साबित किया जाने लगा। प्रगति और अयोग्य की उत्तरजीविता को साथ-साथ स्वीकार करने वाला समाजवाद मनगढ़ंत विचार साबित किया गया। अकारण नहीं कि समनर के लिए करोड़पति प्राकृतिक चयन की सृष्टि थे! औद्योगिक एकाधिपत्य के लिए एक ऐसी विचारधारा की ज़रूरत थी जो उत्पादन और बाज़ार की अंधी मुनाफाखोरी को समृद्धि का बसंत दिखा सके और कहे कि यह जाति के नए सामाजिक रूप की शुरुआत है। कहते हैं कि रॉकफेलर जैसा ‘दैत्याकार’ उद्योगपति भी विवेकानंद के प्रभाव से गरीबों की भलाई की ओर प्रवृत्त हो गया था यद्यपि उसका सिद्धांत था कि बड़ा व्यापार और कुछ नहीं योग्यतम की उत्तरजीविता है !
रेमंड विलियम्स ध्यान दिलाते हैं कि इन विचारधारात्मक प्रवृत्तियों में डार्विन के बदले अभी तक लैमार्क के ‘अर्जित गुणों की वंशानुक्रम से प्राप्ति’ का सिद्धांत ही केंद्र में था। डार्विन के बहुत बाद तक भी स्पेंसर, लैमार्क के सिद्धांतों में विश्वास व्यक्त करता था। लैमार्क के सिद्धांत ने सामाजिक डार्विनवाद के उन विचारकों को आधार प्रदान किया जो पारिवारिक सम्पति की वंशानुक्रम से प्राप्ति को सही साबित करना चाहते थे। संपत्ति अधिकारों की रक्षा मूलतः निजी संपत्ति की रक्षा थी। अगर खुली होड़ में किसी किस्म की रुकावट होती है तो मानवजाति का विकास रुक जाएगा। पारिवारिक संपत्ति एक ऐसी ही रूकावट थी, क्योंकि केवल इसी आधार पर कम व्यक्तिगत प्रतिभा वालों को भी ख़ास सुभीता हो सकती थी। कम व्यक्तिगत प्रतिभा का मतलब ऐसी प्रतिभा का अभाव जो संभव नए मानव के निर्माण के लिए अयुक्त हो। ऐसी स्थिति में इस रूकावट की रूकावट को हटाने में लैमार्क के ‘वंशानुक्रम से प्राप्ति’ का सिद्धांत बड़े महत्त्व का था। अब आप यह दिखा सकते थे कि परिवार और पारिवारिक संपत्ति के रूप में आप जिसे बचाना चाहते हैं वह मनुष्य-जाति के विकास में वंशानुक्रम से प्राप्त हुआ है और अगले उन्नत समाज में भी कायम रहेगा। इस प्रकार परिवार, निजी संपत्ति और राज्य मनुष्य जाति के विकास से और वंशानुक्रम से प्राप्त हैं और उन्नत जाति के रूप में विकसित मनुष्यों के समाज में भी बने रहेंगे। इस प्रकार जो संपत्ति अधिकार ऐतिहासिक थे वो शाश्वत साबित किये जाने लगे। जबकि पूँजी की अंधी दौड़ में अधिसंख्य अपने शरीर के अलावा और कुछ भी लेकर शामिल नहीं हुए थे। उनके पास श्रम-शक्ति के अलावा और कुछ भी नहीं था। इन अधिसंख्य लोगों के लिए जीवन की अंधी दौड़ रोज़मर्रा की वास्तविकता थी। ऐसी स्थिति में इन विचारों की लोकप्रियता जितना इनके प्रचारकों के बीच थी उतना ही इनकी मार झेलने वालों के बीच भी। क्रूर और पाशविक प्रतिद्वंद्विता चूँकि इनके दैनिक अनुभव में शामिल थी, इसलिए चाहे आपके पास कोई सुभीता हो या न हो आप अगर आगे बढ़ गए तो इन विचारों का प्रचारक हो जाना आपके लिए मुश्किल नहीं रह जाता। यह विचार सामाजिक संबंधों में व्याप्त ऊँच-नीच की वास्तविकता को वंशानुक्रम से प्राप्ति के रूप में प्रचारित करता है। यह वंशानुक्रम की सामाजिक प्राप्ति कभी नस्ल के रूप में तो कभी राष्ट्र के रूप में तो कभी जाति आदि के आधार पर वास्तविक संघर्ष का रूप ग्रहण करती है। यूरोप की सभ्य जातियों का यह कर्तव्य था कि असभ्य जातियों को या तो सभ्य बना दें या फिर योग्यतम की उत्तरजीविता के नियम के तहत खराब नस्लों का सफाया कर दें। औद्योगिक पूँजी का एकाधिपत्य और औपनिवेशिक लूट दरअस्ल भिन्न लगने वाली एक ही प्रक्रिया थी।
होड़ में जो पराजित हो रहे थे उनके लिए वास्तविक संघर्ष में नैतिकता और धर्मनियमों के हस्तक्षेप की ज़रूरत महसूस हुई।संघर्ष के बदले जीवधारियों के विकास में साहचर्य और परस्पर भागीदारी के उदाहरण को सामने रख कर इसके विज्ञान सम्मत होने का प्रमाण पेश किया गया। कहा गया कि संघर्ष में विजय परस्पर भागीदारी और साहचर्य से संभव है। इस प्रकार मानव समाज के श्रेष्ठ रूपों का विकास सामंजस्य का प्रमाण है। सामंजस्य की यह विचारधारा मज़दूर आन्दोलनों के बीच बने ट्रेड यूनियन जैसे संगठनात्मक रूपों के आधार पर विकसित हुई थी। 1893 में हक्सले ने ‘योग्यतम’ को ‘सर्वश्रेष्ठ’ के अर्थ में समझने की आलोचना की। उसके अनुसार सारी दिक्कत इसी व्यवहार के चलते है। डार्विन के अनुसार योग्यतम का अर्थ सबसे बलवान या सर्वश्रेष्ठ नहीं बल्कि अपने वतावरण के सबसे अनुकूल होने में समर्थ होना है। अगर योग्यतम का अर्थ सबसे बलवान होना होता तो डायनासौर जैसे भीमकाय जीवधारियों का धरती पर शासन होता। अपनी किताब ‘विकास और नीतिशास्त्र’ में उसने बताया कि वातावरण के योग्य होने का निर्धारण किसी अमूर्त नियम के आधार पर नहीं हो सकता। इसलिए कर्तव्याकर्तव्य का आधार भी जीववैज्ञानिक नहीं हो सकता। उसने कहा कि उन्नत समाजों में कर्तव्याकर्तव्य निर्धारण का उद्देश्य प्राकृतिक नियमों को सुधारना रहा है। हक्सले के लिए प्रकृति में अनियंत्रित संघर्ष एक शाश्वत नियम है पर सामाजिक कर्तव्याकर्तव्य और संस्कृति का विकास इस अनियंत्रित संघर्ष को रूपांतरित करता है।
एंगेल्स ने ध्यान दिलाया है कि अस्तित्व के लिए संघर्ष और साहचर्य-समन्वय-सहयोग ये दोनों ही अपने संकीर्ण अर्थों में सत्य हैं पर साथ ही दोनों एकांगदर्शी और पूर्वग्रहपूर्ण भी हैं। वर्ग-संघर्ष की अवधारणा मनुष्य समाजों के लिए इन दोनों पूर्वग्रहयुक्त एकांगी व्याख्याओं का निराकरण उच्चतर द्वंद्व में करता है।
विकासवाद की मृदु और दीर्घकालिक प्रक्रिया का पक्ष सामने रख कर कुछ लोग सामाजिक परिवर्तन में किसी हस्तक्षेप और जल्दीबाजी का विरोध करने लगे। विकास की प्रक्रिया में नया समाज सामने आयेगा पर वह उसकी अपनी गति होगी। खराब स्थितिओं को हम केवल दूर से देख सकते हैं लेकिन कुछ कर नहीं सकते। विकास सिद्धांत के साथ यह नियतिवाद आगे चल कर मृदु और तीव्र परिवर्तन (Evolution या Revolution) के बीच लोकप्रिय विवाद में बदल गया। और जब आगे चल कर जीवन विकास में उत्परिवर्तन संबंधी साक्ष्य सामने आये तो कई समाजवादी विचारकों ने एक बार फिर से जीवविज्ञान की सादृश्यता पर समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन के पक्ष को सही ठहराना शुरू किया। मृदु विकास के पक्षधर फेबियन समाजवादियों की विचारधारा के रूप में राजनीति में स्थापित हो रहे थे। इंग्लैण्ड में इस फेबियन समाजवाद का काफी प्रचार हुआ जिसमें लॉज जैसे भौतिकशास्त्री भी शामिल थे। मृदु विकास और संघबद्ध प्रवृत्ति इस विचारधारा के जीववैज्ञानिक आधार थे। कुछ दूसरे विचारकों ने ऐसी सामाजिक कार्यवाही का पक्ष ग्रहण किया जो समाज में वास्तविक होड़ की रक्षा करे। समाज की अधिसंख्य आबादी दरअस्ल प्रभावकारी ढंग से होड़ में शामिल नहीं थी और न इसके लिए उनके पास साधन था। शिक्षा, स्वास्थ्य और धन के अभाव में इनसे किसी वास्तविक प्रतिद्वंद्विता की संभावना नहीं थी। इस प्रकार राज्य व्यवस्था के उन लोकतांत्रिक रूपों की वकालत की गयी जहाँ सभी को शिक्षा, स्वास्थ्य और सामान अवसर प्रदान करने की कोशिश की जाए ताकि समाज में वास्तविक प्रतिद्वंद्विता को सुनिश्चित किया जा सके। यह एक प्रकार से सामाजिक जनवादी या उदारवादी तरीके की दलील थी। दूसरी ओर कुछ विद्वान्  दकियानूसी विचार का समर्थन कर लोकतंत्र की खिलाफत में उतर आये थे। सामाजिक डार्विनवाद की परम्परा से ही तर्क लेते हुए ये विद्वान् मानते थे कि होड़ में लड़ते हुए ही हमें महान् व्यक्तियों और नेताओं के दर्शन सुलभ होते हैं। नेता होने की पहली शर्त है कि उसे पर्याप्त शक्तिशाली होना चाहिए और लोग उसकी आज्ञाओं का अक्षरशः पालन करें। उसके पास नियंत्रण के ऐसे साधन होने चाहिए जिससे वह अपनी दिव्य दृष्टि को क्रियान्वित कर सके। अगर ऐसा नहीं होता है तो मामूली क्षमता वाली जनता समाज की समस्याओं को कभी हल होने नहीं देगी। कहना न होगा कि अपने जीववैज्ञानिक अंशों के साथ यह विचारधारा बीसवीं सदी में पहले अभिजनों का सिद्धांत हुई और फिर फासीवाद का।
यह हम देख सकते हैं कि किस प्रकार जीवविज्ञान और प्रकृतिविज्ञान के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक विचारधाराओं का गहरा रिश्ता था। शुक्ल जी ने अपने लिए इन रिश्तों से कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त किये। कहना न होगा कि ये निष्कर्ष शुक्ल जी के लिए वैज्ञानिक विचारधारा थी। उनके लिए विकासवाद विज्ञान का दर्शन था। अपने समय की सही तात्विक-दृष्टि के लिए विज्ञान के दर्शन और परम्परागत दर्शन के बीच के मुख्य द्वंद्व का निरूपण करते हुए शुक्ल जी ने अपनी दार्शनिक व्यवस्था के विज्ञान सम्मत होने की भावना की। ध्यान रखना चाहिए कि हैकेल और लॉज जैसे वैज्ञानिकों की विचारधारा को शुक्ल जी खुद वैज्ञानिक क्रियाओं की विचारधारा के रूप में सामने रखते हैं। यह भावना पद्धतिगत सादृश्यता और भिन्नता के बीच समन्वय पर आधारित थी। विकासवाद का सार शुक्ल जी के लिए एकरूपता या निर्विशेषता से अनेकरूपता या सविशेषता की ओर, अव्यक्त से व्यक्त की ओर गति की मृदु और दीर्घकालिक प्रक्रिया है। विकासवाद जगत् की समस्याओं के संबंध  में जो समाधान पेश करता है, शुक्ल जी के अनुसार वह पूर्ण नहीं है। सत्ता की मीमांसा विकास का विषय नहीं है। वह केवल यह बताता है कि जगत् के नाना व्यापार किस तरह होते हैं, उस गति का विधान कैसा है जिसके अनुसार नाना पदार्थ अपने वर्तमान रूप को प्राप्त हुए हैं। “ऐसी बातों में हमारा समाधान विकासवाद द्वारा नहीं होता। विकासवाद केवल गोचर व्यापारों की पूर्वपरम्परा या स्फुरणक्रम मात्र दिखाता है। ये सब व्यापार किसके हैं, वस्तु या सत्ता का शुद्ध (इन्द्रियनिरपेक्ष) स्वरूप क्या है यह वह नहीं बताता। वह केवल तटस्थ लक्षण कहता है, स्वरूप लक्षण नहीं”।[39] जगत् के व्यापार दो प्रकार के हैं, भौतिक और मानसिक। इन दोनों के ‘उत्तरोत्तर क्रमविधान’ या उनकी कार्यकारण परम्परा का वैज्ञानिक निरूपण विकासवाद करता है। भौतिक और मानसिक का यह भेदपरक ध्रुवीकरण महज विश्लेषण की सुविधा के लिए नहीं था। विभिन्न वैज्ञानिक क्रियाकलापों के अपने भीतरी रिश्तों और संवादों में भी यह प्रतिबिंबित होता था। मानसिक और शारीरिक श्रम विभाजन का अंतर्विरोध न केवल दर्शन में देकार्त के आत्मा और शरीर के द्वैत में व्यक्त हुआ वरन् प्रकृति और मनुष्य के द्वैत के रूप में वैज्ञानिक अनुसंधानों में भी व्यक्त हुआ। भौतिकी में ‘शक्ति की अक्षरता’ के सिद्धांत के अनुसार भौतिक शक्ति कभी किसी अभौतिक शक्ति में रूपांतरित नहीं हो सकती। बहस हुई कि मन के व्यापार भौतिक हैं कि अभौतिक। जीवविज्ञान में मस्तिष्क के विकास के साथ चेतना के संबंध निरूपण में यह सक्रिय थी। रसायनशास्त्र में इन दोनों के बीच संबंद्ध निरूपण की संभावना में भी यह अंतर्विरोध व्यक्त हो रहा था। मनोविज्ञान के विकास के साथ मानसिक व्यापारों के वैज्ञानिक अनुसंधान जब शुरू हुए तो कहा गया कि मनोव्यापार और शरीरव्यापार एक दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते। इनके व्यापार समानांतर चलते हैं ,इनमें कार्य-कारण संबंध  नहीं है। प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध  निरूपण का यह ऊहापोह कभी मनुष्य को प्रकृति में पूर्णतः समाहित देखता, कभी मनुष्य को प्रकृति की आत्मा मानता जहाँ वह निष्क्रिय निरीक्षणकर्ता की भूमिका में है तो कभी प्रकृति को मनुष्य का सार मान कर प्रकृति में लौट जाने को मुक्ति का उपाय बताता। हीगेल ठीक ही कहता था कि विज्ञान के अभूतपूर्व परिणामों के आगे मनुष्य की बुद्धि आश्चर्य से स्तब्ध थी। वह अपनी ही क्रियाशीलता के परिणामों को समझ नहीं पा रही थी। रोज नयी-नयी खोजें, नए-नए अनुसंधान और नए नए निर्माण मनुष्य कैसे संभव कर पा रहा है? राजनीति से सादृश्यता ग्रहण करें तो बुर्जुआ वर्ग खुद को बुर्जुआ क्रान्ति के निष्कर्षों के सामने हतप्रभ पाता था। राजनीतिक अर्थशास्त्र पूँजी के विकास के आगे स्तंभित था। ऐसे समय मनुष्य की बुद्धि लौट कर अतीत के विचारकों के पुनरान्वेषण में रत होती है। इसी क्रम में एक ओर अतीत के ये दार्शनिक आधुनिक दुनिया के वैश्विक नागरिक बनते जाते हैं दूसरी ओर उनके साथ-साथ लगी प्रेत बाधाएं भी चली आती हैं। यूरोप में अरस्तु का तर्कशास्त्र जैसी प्रेत-बाधा बना था शुक्ल जी के लिए वैसी ही प्रेतबाधा बना औपनिषदिक-वेदान्तिक तर्कशास्त्र। और शुक्ल जी के अनुसार तर्क और गणित के ‘जो नियम हैं वे अपरिहार्य सत्य हैं, उनके अन्यथा होने की भावना त्रिकाल में नहीं हो सकती’। इस प्रकार मनुष्य की बुद्धि पुराने तर्कशास्त्र के अतर्विरोधों में उलझ कर स्तंभित खड़ी थी और कहना न होगा कि अपने शाश्वत होने की घोषणा से आराम पाती थी। हीगेल कहता है कि कान्ट का दर्शन पुराने तर्कशास्त्र के अंतर्विरोध का प्रकटीकरण है।
कांट के लिए पुराना अधिभौतिकवाद सांप्रदायिक झगड़ों में उलझा था। उसके लिए मत-मतान्तरों से ऊपर उठने और सही तत्त्व दृष्टि के लिए एक ऐसे सर्वमान्य विधान या ‘बुद्धि का संविधान’ चाहिए था जो मतों के अंतर को साम्प्रदायिक झगड़ों के बदले अकादमिक बहस-मुबाहिसों में शांतिपूर्ण निपटारे को कानूनी रूप प्रदान कर सके। ख़ास तर्क नियमों की सर्वमान्यता के आधार पर आलोचना और आत्मालोचना की एक मर्यादा विकसित हो सके। साम्प्रदायिक झगड़ों को खत्म करने का यह लोकतांत्रिक तरीका खोज निकालना कांट के लिए ‘शुद्ध बुद्धि की परीक्षा’ का उद्देश्य था। इस प्रकार सारे अनुसंधानों का लक्ष्य कांट को इसी तत्त्व दृष्टि की पहचान में दिखाई दी।
कांट की तरह ही शुक्ल जी ने भी उन निरपवाद या अपरिवर्तनीय तथ्यों को सामने रखा जो हज़ारों सालों से यथावत बने हुए हैं। परम्परागत तर्कशास्त्र के भीतर निरूपित सर्वमान्य सत्यों को सामने रखकर उसकी परीक्षा की और उसका सारनिरूपण किया। अंत में जो कुछ भी निरापद था वह कांट को अरस्तु की कुछ सामान्य प्रस्तावनाओं में मिल गया। ‘भेद में अभेद’ भी ऐसी ही एक सामान्य प्रस्तावना है। तर्क की ये सामान्य प्रस्तावनाएँ सोचने की आरंभिक और स्वाभाविक क्रिया को ही प्रतिबिंबित करती हैं जिनसे किसी का विरोध नहीं हो सकता। यह सोचने के बारे में एकदम सामान्य विचार थे। दर्शनों के विरोध (मसलन आत्मवादी और भूतवादी दर्शनों के विरोध) को एकदम दरकिनार करने पर हमें इन सामान्य नियमों के अलावा और मिल भी क्या सकते थे? इस प्रकार एक शुद्धतः भाववादी सामान्यीकरण होता है जिसे शुक्ल जी ने शुद्ध तात्विक दृष्टि तक ऊपर उठा दिया है। वैज्ञानिक अनुसंधान सामान्यतः प्रत्यक्षानुभव से शुरू करता है और फिर उसके आधार पर अनुमान में प्रवृत्त होता है। अनुमान की इस प्रक्रिया में प्रवृत्त होना मनुष्य मात्र की सहज प्रवृत्ति है। निरपवाद सामान्य तर्क के रूप में जो शुक्ल जी प्राप्त करते हैं कि ‘भेद में अभेद’ को देखते जाना या ‘नाना सविशेषों में निर्विशेष को देखते जाना’, यह व्याप्तिग्रह (induction) है। व्याप्तिग्रह और व्यष्टिग्रह अनुमान को बनाने वाली सामान्य विचारश्रृंखला है। यद्यपि ये दोनों विचारश्रृंखलाएँ अनुमान में साथ-साथ प्रवृत्त रहती हैं पर हम विश्लेषण की सुविधा के लिए इसे अलग करते हैं। परन्तु ध्यान देने की बात है कि शुक्ल और हेकेल दोनों ही व्याप्तिग्रह की विचारश्रृंखला को वास्तविक सत्ता का आभास देने वाला बताया है। सार्वभौम सत्ता की ईश्वरवादी व्याख्याओं के खिलाफ विज्ञान का विरोध सामान्य तर्क के रूप में व्यष्टिग्रह का विरोध भी था।
धर्म के खिलाफ युद्ध में वैज्ञानिकों ने तार्किक ईश्वरत्व को सामने रखा। हेकेल जैसे वैज्ञानिक इस तार्किक ईश्वरत्व को प्रकृति की यांत्रिकता में देखते थे जबकि लॉज प्रकृति की आध्यात्मिकता में। तार्किक ईश्वरत्व की यह विचारधारा ईश्वर और धर्म की शुद्ध इहलौकिक व्याख्या करना चाहता था। हेकेल आदि का यांत्रिक भौतिकवाद एक नए तार्किक धर्ममत का प्रवर्तन करना चाहता था। यह धर्ममत व्यवहार और समाजविकास की दृष्टि से व्यवस्थित होगा। विश्वप्रपंच में हेकेल ने अपने ज्ञान मूलक धर्म का ‘भव्य ज्ञानमंदिर’ खड़ा किया है। इस धर्म में दीक्षित होकर लोग तत्त्वदृष्टि प्राप्त करेंगे और ‘सत्य, सत्व और रजस् इन देवताओं की उपासना करेंगे।’ इस वैश्विक धर्ममत में “हमें यह देख लेना आवश्यक है कि प्रचलित मतमतान्तरों की कौन कौन सी बातें हमें रखनी होंगी और कौन छोड़नी होंगी। हजारों वर्षों से जिन मतों का अधिकार मनुष्य जाति के हृदय पर चला आ रहा है उनकी शील और सदाचार संबंधिनी बातों को हम नहीं छोड़ सकते, उनका महत्त्व हम कभी अस्वीकार नहीं कर सकते। अतः हमें चाहिए कि इन मतों में जो सदाचार तत्त्व है उसी पर अपना आग्रह प्रकट करें। उसी पर दृष्टि रखने के लिए भिन्न-भिन्न मतों और सम्प्रदायों से अनुरोध करें। इसी रीति का अवलंबन करने से आधुनिक ज्ञानमूलक धर्म की स्थापना सुगम होगी। हमें अपने धार्मिक जीवन में विप्लव नहीं उपस्थित करना है, संस्कार करना है। जिस प्रकार प्राचीन सभ्य जातियां आदर्श के लिए भिन्न भिन्न सद्गुणों की मूर्त भावना करती थीं उसी तरह हमें भी चाहिए कि हम सत्य, सत्व और रजस् को देव रूप में ग्रहण करें।”[40]इस ज्ञानमूलक धर्म का ज्ञानात्मक आधार, सर्ववाद की विचारधारा में था। यह सर्ववाद ईश्वर और जगत् को अभिन्न मानता है। ईश्वर जगत् में ओतप्रोत भाव से शक्ति रूप में उसका संचालन करने वाला माना जाता है। शक्ति की अक्षरता के सिद्धांत को सामने रख हेकेल ने इस विचारधारा को विज्ञान सम्मत बताया। ‘सर्ववादियों का ब्रह्म अनंत विश्वविधान का ही नामांतर है’। यह ज्ञान की अत्यंत उच्च अवस्था का सूचक है। हेकेल कहता है कि इस सर्ववाद का बीजारोपण प्राचीन भारतीयों और चीनियों के बीच ईसा के कई हज़ार साल पीछे ही हो गया था। बाद में यूनानी और रोमी तत्त्वज्ञानियों के बीच इसका प्रचार हुआ। ये सब सभ्य जातियां थी। हेकेल के अनुसार प्राचीन यूनान में इस सिद्धांत को पूर्ण देने वाला अनाग्जिमेंडर था। मध्यकाल में ईसाई धर्माचार्यों ने इस सर्ववाद को खूब दबाये रखा। परन्तु पूरी तरह दबा नहीं पाए। सन् 1600 में इस सर्ववाद के समर्थन में ब्रूनो को जिंदा जला दिया था। आगे स्पिनोज़ा के यहाँ सर्वगत सामान्य सत्ता के रूप में ईश्वर की भावना हुई और सर्ववाद अपने पूर्ण रूप में विकसित हुआ। हेकेल कहता है कि स्पिनोज़ा का अद्वैतवाद ही वैज्ञानिकों का तत्वाद्वैतवाद हुआ।
 एंगेल्स ने व्याप्तिग्रह को व्यष्टिग्रह के खिलाफ खड़ा करने की इस विचारधारा की आलोचना करते हुए लिखा है- “ हेकेल की मूढ़ता: व्यष्टिग्रह के खिलाफ व्याप्तिग्रह। मानो मामला यह नहीं कि व्यष्टिग्रह = निष्कर्ष, और इसलिए व्याप्तिग्रह भी एक व्यष्टिग्रह है। यह आता है ध्रुवीकरण से। व्याप्तिग्रह और व्यष्टिग्रह के रूप में निष्कर्षों का ध्रुवीकरण!”[41]एंगेल्स ने ध्यान दिलाया कि व्याप्तिग्रह को लेकर यह सारा झमेला व्हेवेल नामक अँगरेज़ का खड़ा किया हुआ है। 1837 और 1840 में क्रमशः उसकी तीन ज़िल्दों में ‘व्याप्तिग्रही विज्ञानों का इतिहास’ और दो ज़िल्दों में ‘व्याप्तिग्रही विज्ञानों का दर्शन’ नामक किताबें प्रकाशित हुईं थीं। इन किताबों में व्हेवेल प्रत्यक्षानुभव पर आधारित विज्ञानों को व्याप्तिग्रही विज्ञानों की संज्ञा देता है। यांत्रिकी, जीवविज्ञान, भौतिकी, रसायनशास्त्र आदि व्याप्तिग्रही विज्ञानों से रेखागणित, अंकगणित और अलजेब्रा आदि शुद्ध गणितीय विज्ञानों को अलग करते हुए इन्हें व्यष्टिग्रही विज्ञानों की संज्ञा देता है। व्यष्टिग्रही विज्ञान शुद्ध बुद्धि के विज्ञान हैं जो ‘सभी सिद्धांतों की शर्तों’ का अनुसंधान करते हैं। शुद्ध बुद्धि का क्षेत्र होने के नाते ‘बौद्धिकों के भूगोल’ में व्यष्टिग्रही विज्ञानों की केन्द्रीय स्थिति थी।[42]इस प्रकार व्याप्तिग्रही विज्ञानों का दर्शन शुद्ध बुद्धि की व्यष्टिग्रही प्रवृत्ति में निहित था। रेखागणित की यह प्रस्तावना कि त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोण के योग के बराबर होता है, हम प्रत्यक्षानुभाव से नहीं जानते। लेकिन इसकी सत्यता सिद्ध है। इसे हम अनुभव में भी सही पाते हैं। जैसे दो और दो चार होना। यह शुद्ध बुद्धि के अपने नियम हैं और प्रत्यक्षानुभव इसकी शर्त नहीं है। एंगेल्स कहते हैं कि इस प्रकार के विरोधों के बारे में नया-पुराना कोई भी तर्कशास्त्र कुछ नहीं जानता। वे सभी निष्कर्ष जो व्यष्टि से आरम्भ होते हैं प्रयोगात्मक होते हैं और अनुभवाश्रित होते हैं। इस प्रकार का व्याप्तिग्रही निष्कर्ष अनिवार्यतः समस्या मूलक होता है।[43] यह यांत्रिक ध्रुवीकरण वैज्ञानिक क्रियाकलापों में व्याप्तिग्रही विज्ञान की विचारधारा का प्रभाव था। हलांकि खुद विज्ञान के विकासक्रम में हो रहे नए अनुसंधानों ने व्याप्तिग्रही निष्कर्षों की सीमा स्पष्ट कर दी थी, लेकिन विज्ञान की इस विचारधारा से उसे मुक्ति नहीं मिली थी।
इस विचारधारा को बहुत बड़ा संबल कांट के अपने अंतर्विरोधों से भी मिल रहा था। कांट के अनुसार ‘शुद्ध बुद्धि की परीक्षा’ का उद्देश्य यह साबित करना था कि यद्यपि कोई भी ज्ञान अनुभव को अतिक्रांत नहीं कर सकता पर उसका एक हिस्सा पूर्वनिर्धारित (ए प्राओरी) होता है और उसे हम अनुभवों के व्याप्तिग्रह से अनुमानित नहीं कर सकते। ज्ञान का वह पूर्वनिर्धारित हिस्सा केवल तर्क से नहीं बनता बल्कि उसमें दूसरी चीज़े भी शामिल हैं जिन्हें  तर्क के सहारे नहीं प्राप्त किया जा सकता। कांट एक ओर तो ‘विश्लेष्णात्मक’ और ‘संश्लेष्णात्मक’ प्रस्तावनाओं में अंतर करता है दूसरी ओर ‘पूर्वनिर्धारित’और ‘आनुभविक’ प्रस्तावनाओं के बीच। किसी विश्लेष्णात्मक निर्णय के सही या गलत होने की जांच के लिए सामान्य तर्क की ज़रूरत होती है। ये विश्लेष्णात्मक निर्णय अंतर्विरोध के नियम से प्राप्त होते हैं। मसलन ‘एक लम्बा आदमी आदमी है’। अगर कहा जाए कि लम्बा आदमी आदमी नहीं है, तो यह बात स्वतः अंतर्विरोधी हो जायेगी। ‘संश्लेष्णात्मक’ प्रस्तावनाएँ वो होती हैं जिन्हें हम केवल अनुभव से जानते हैं। ‘शनिवार को बारिश हुई थी’ इसे हम किसी विश्लेषण से प्राप्त नहीं कर सकते। विश्लेष्णात्मक निर्णय के सही या गलत होने की जांच सामान्य तर्क करता है। प्रत्यक्षानुभव की हमारी जैसी भी अवधारणा दिमाग में है उसकी शब्दबद्ध व्याख्या के लिए यह ज़रूरी है। इस सामान्य तत्त्व दृष्टि के साथ कोई मूल्य-निर्णय (judgement) का नियम नहीं हो सकता। अर्थात् नियमों की अधीनता की क्षमता इस सामान्य सर्वमान्य तत्त्वदृष्टि में नहीं है। दूसरे शब्दों में सामान्य तर्कों की जानकारी मात्र से इसके दुरूपयोग का निर्णय नहीं हो सकता। कांट के अनुसार दुरूपयोग मूर्खता है जिसका कोई निर्धारण नहीं हो सकता। इस प्रकार कांट के लिए सामान्य तर्क वास्तविक ज्ञान के लिए और ज्ञान के सिद्धांत के लिए कोई औज़ार नहीं रह जाता।  अवधारणा और उसको निर्धारित करने वाले अनुभव और तथ्यों के बीच अगर अंतर्विरोध है तो सामान्य तर्क उसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकता। मसलन हंसों के बारे में हमारी अवधारणा अगर इस निर्णय में व्यक्त हो कि ‘ सभी हंस उजले हैं’ और किसी दिन एक ऐसा पक्षी दिखे जो काला हो पर बाकी हंस की तरह ही हो तो इस अंतर्विरोध के बारे में सामान्य तर्क कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि ऐसा करने पर वह तथ्यों और अनुभवों को पूर्वनिर्धारित अवधारणा के मातहत कर देगा। ऐसी स्थिति में नए अनुभव और तथ्यों के आलोक में अवधारणाओं को सुधारने की प्रक्रिया ही रुक जायेगी। अवधारणाओं के विकास के लिए सामान्य तर्क किसी मूल्य निर्णय को शामिल नहीं करता। हो सकता है कोई निर्णय केवल इसी बिना पर सही होकि वह आरंभिक अवधारणा में निहित अंतर्विरोध के चलते उस अवधारणा को ध्वस्त करके उसकी गलती प्रत्यक्ष कर दे। ऐसी स्थिति में यह निर्णय न केवल आरंभिक अवधारणा की व्याख्या करता है बल्कि उसके नए निर्धारक भी जोड़ता है। ऐसी स्थिति में एक संश्लेष होता है जहाँ निर्धारकों की एकता बनती है । विश्लेषण नहीं होता क्यूंकि उसका काम पहले से वर्तमान निर्धारकों की सूक्ष्म और विस्तृत व्याख्या होती है। इस अनुभवाश्रित सभी निर्णयों की प्रकृति संश्लेष्णात्मक होती है। कांट कहता है कि वे सभी प्रस्तावनाएँ जिन्हें हम केवल अनुभव द्वारा जानते हैं संश्लेष्णात्मक होती हैं। परन्तु दूसरे दार्शनिकों के विपरीत कांट इसका उलट नहीं मानता। अर्थात् सभी संश्लेष्णात्मक प्रस्तावनाएँ केवल अनुभव द्वारा नहीं जानी जा सकती। इसी जगह आकर कांट ‘आनुभविक’ प्रस्तावनाओं की बात करता है। ऐसी प्रस्तावनाएँ जिन्हें केवल संवेदनाभाषों (sense-perception) की सहायता से जाना जा सकता है। ये संवेदनाभाष या तो अपने होते हैं या दूसरों के जिनका हम विश्वास करते हैं। इतिहास और भूगोल के तथ्य या फिर विज्ञान के नियम जिनकी सत्यता का ज्ञान निरीक्षण आधारित होता है, ‘आनुभविक’ प्रस्तावनाएँ हैं। ये प्रस्तावनाएँ तात्कालिक प्रत्यक्षानुभव पर निर्भर नहीं करती। ‘पूर्वनिर्धारित’ प्रस्तावनाएँ वो होती हैं जिनका आधार अनुभव नहीं होता।
‘आनुभविक’ निर्णय अनुभवों की परवर्ती होती हैं (posterioeri) पहले से प्राप्त अनुभवों का सामान्यीकरण होता है। जैसे ‘सभी हंस उजले होते है’ इस को बदल कर अगर यह कहा जाए कि ‘ हमारे अनुभव क्षेत्र में आये अब तक के सारे हंस उजले हैं’ तो हम भविष्य की संभावना का निर्णय से अविरोध प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि ज़रूरी और सार्वभौमिक वैज्ञानिक सिद्धांतों और धारणाओं का विकास केवल आनुभविक और व्याप्तिग्रही साधारणीकरण से नहीं हो सकता। व्हेवेल का अपना दर्शन यहीं से निकला है। व्याप्तिग्रही विज्ञानों की तुलना में व्यष्टिग्रही विज्ञान ‘शुद्ध बुद्धि’ के क्षेत्र में है जिसकी शर्त अनुभवाश्रित नहीं है। परन्तु खुद कांट के यहाँ यह ध्रुवीकरण नहीं है। कांट का सवाल था कि पूर्वनिर्धारित संश्लेष्णात्मक निर्णय कैसे संभव होते हैं? दूसरे शब्दों में कुछ विशिष्ट अनुभवों पर आधारित हो कर भी कोई निर्णय ज़रूरी और सार्वभौमिक कैसे हो सकता है ? अर्थात् यह कैसे संभव हो सकता है कि हम निर्णय में सभी संभव निर्धारकों को शामिल कर लें? सैद्धांतिक साधारणीकरण के लिए यह ज़रूरी है कि इसमें न केवल धारणा की परिभाषा का संकेत हो वरन् इसकी ज़रूरत, सार्वभौमिकता और उपयुक्तता की सारी शर्तें भी संकेतित हों। पर क्या ऐसा संभव है? कांट इस मामले पर चुप है।[44]सामान्य तर्क से निकाले गए सामान्यीकरण से इनकी प्रकृति एकदम भिन्न है। वैज्ञानिक सामान्यीकरण वस्तुओं के अस्तित्व की प्रकृति बताते हैं। ‘सभी हंस उजले हैं’ और ‘सारे पिंड विस्तारित हैं’ (All bodies are extended) इन दोनों निर्णयों के बीच सामान्य तर्क कोई अंतर नहीं कर सकता। पर जहाँ पहला निर्णय नए अनुभव के आलोक में सही या गलत हो सकता है, वहीं दूसरा कभी गलत नहीं हो सकता। जहाँ पहला निर्णय अनुभव-परवर्ती है वहीं दूसरा पूर्व निर्धारित। दूसरे निर्णय के बारे में कांट कहता है कि अनंत ब्रह्माण्ड में ऐसे पिंड हो सकते हैं जो विस्तारित ना हों पर वो हमारे अनुभव-क्षेत्र में कभी नहीं आ सकते। ऐसा इसलिए है कि हमारे प्रत्यक्ष बोध की प्रकृति ही है कि वह देशकाल के रूप में ही बोध कर सकती है। अनुभव की तात्कालिकता या उसके तात्कालिक सम्वेदनागत प्रभावों और ‘अनुभव के ज्ञान’ के बीच फर्क है। तात्कालिक संवेदनागत प्रभाव देशकाल के बोध के बिना अनुभूत नहीं हो सकते। यह देशकाल का बोध हमारी दृष्टि में ही शामिल है। कांट कहता है कि हमारी मन की आँखों पर देशकाल का चश्मा लगा है इसलिए अनिवार्यतः हम हर चीज़ को देशकाल में होता हुआ देखते हैं। इसलिए संवेदना में रेखागणित या अंकगणित पहले से ही विद्यमान हैं। इसलिए हर अनुभूत चीज़ के लिए यह सही है। परन्तु वस्तुनिजरूप के लिए भी यह सही है, ऐसा हम नहीं कह सकते।
अनुभव आधारित प्रस्तावनाओं के दो रूप हैं: ‘संश्लेषणात्मक’ निर्णय और ‘आनुभविक’ निर्णय। आखिर ऐसे विभाजन की आवश्यकता क्यूँ हुई? वाल्टर बेंजामिन ने ध्यान दिलाया था कि कांट के यहाँ ‘अनुभव की धारणा’ उसके मेटाफिजिक्स के लिए शुरू से ही दिक्कत पैदा करती है।[45] अगर ज्ञान और अनुभव के बीच कोई सतत संबंद्ध नहीं दिखाया जाता तो बहुत संभव था कि कांट की ‘शुद्ध बुद्धि की परीक्षा’ का भवन जिसे बेंजामिन ‘प्रकृति का मेटाफिजिक्स’ कहते हैं वह ‘अनुभव की धारणा’ में लड़खड़ा कर गिर जाता। सामान्य या विशिष्ट वस्तुओं के अस्तित्व के सैद्धांतिक निरूपण में ‘प्रकृति का यह मेटाफिजिक्स’ ज्ञान को प्रकृति की संरचना बताता है। ऐसी स्थिति में ‘प्रकृति का मेटाफिजिक्स’ सामान्य प्रकृति के ज्ञान के निर्धारकों के आधार पर बना प्राकृतिक वस्तुओं का पूर्वनिर्धारित संघटक है। कांट ने जो पद्धति अपनाई उसमें न केवल प्रकृति के सारे ज्ञान और मेटाफिजिक्स को देशकाल के रूप में अंगीभूत धारणा से सम्बंधित करना था वरन् ज्ञान के वर्गों से देशकाल को सर्वथा पृथक् भी करना था। देशकाल को वर्गों से अलग करने का काम जिस तीसरी अवधारणा की मध्यस्थता से होता है उसे कांट सम्वेदनागत कच्चा माल (material of sensation) कहता है। दूसरे शब्दों में प्रज्ञा के रूपों’(forms of intuition[46] से सर्वथा पृथक् ‘वर्गों’ का अस्तित्व कांट के यहाँ सम्वेदनागत कच्चा माल (material of senses) के जरिये अभिव्यक्ति पाता है। बाह्य वस्तुसत्ता के कारण केवल संवेदनागत कच्चा माल मिलता है जो प्रज्ञा के रूपों या देश-काल द्वारा आंशिक रूप से ही पकड़ में आता है। दूसरी ओर इस संवेदनागत कच्चे माल को कृत्रिम रूप से वर्गों की केन्द्रीय भूमिका से दूर किया गया है। वर्ग जहाँ पूर्वनिर्धारित धारणा है वहाँ देशकाल पूर्वनिर्धारित होते हुए भी धारणाएं नहीं हैं। ऐसा करते हुए कांट ने शुद्ध बुद्धि को अनुभव से सर्वथा पृथक् कर लिया। वर्ग शुद्धतः तार्किक धारणाएं हैं जो इन्द्रियज अनुभवों के तथ्यों को जोड़ते हुए अवधारणाओं का निर्माण करता है। इन वर्गों के शुद्ध तार्किक रूपों के अन्यथा प्रयोग से हम पुनः पुराने आधिभौतिकवाद के शिकार हो जाते हैं। ऐसा इन अवधारणाओं को वस्तुनिजरूप पर लागू करने से होता है। वस्तुनिजरूप पर लागू करने को कांट ने इन वर्गों का अनुभवातीत प्रयोग कहा है। इस प्रकार कांट ने सत्ता मीमांसा को पूर्णतः तार्किक बनाने की चेष्टा की है। दूसरी ओर अगर देशकाल और वर्गों की परम पृथकता को न माना जाये तो हम अनुभव के अनुभवातीत दर्शन की बजाय अटकलपंथी दर्शन का निर्माण करने लग जाते हैं जहां आरंभिक मूल नियम से जगत् का ज्ञान प्रसूत होता है। कांट के यहाँ यह परम पृथकता पुराने अधिभौतिकवाद के विरोध में ही पैदा हुई थी। व्याप्तिग्रही संश्लेष्णात्मक निर्णयों और व्यष्टिग्रही विश्लेष्णात्मक निर्णयों का द्वंद्व कांट के वर्गों की शुद्ध तार्किक पूर्वनिर्धारणा के चलते शुद्ध बुद्धि में मिट जाता है। जबकि देशकाल और वर्गों की परम पृथकता के चलते साधारण अनुभव या तात्कालिक प्रत्यक्ष अनुभव ज्ञानातीत न होकर वैज्ञानिक हो जाते हैं। इस प्रकार कांट अपने दर्शन को अटकलपंथी होने से बचा ले जाता है।
अनुभव की सामान्य समझदारी से भिन्न कांट के लिए वैज्ञानिक अनुभव की अवधारणा महत्वपूर्ण थी। पुराना अटकलपंथी अधिभौतिकवाद ज्ञान और अनुभव की निरन्तरता और एकता के लिए प्रथम नियमों से संसार का निगमन करता था। वह ज्ञान से चल कर अनुभव तक पहुँचता था। कांट के लिए दिक्कत यह थी की अनुभव से चल कर ज्ञान तक पहुँचने का रास्ता अनुभव और ज्ञान की एकता और निरंतरता को बनाने में इन दोनों को आपस में इस कदर घुला-मिला देता था कि वह इलहामी बना जाता था। कांट (और शुक्ल जी को भी)ज्ञान के क्षेत्र में इस इलहामी कल्पना की उड़ान को स्वीकार करना असंभव था। यह तात्कालिक अनुभव को स्वयं में ज़रूरी और सार्वभौमिक बना देता है। ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक सैद्धांतिक धारणाओं का निर्माण कभी संभव नहीं हो सकता। इस प्रकार शुद्ध या तात्कालिक अनुभवों से वैज्ञानिक अनुभवों को अलग करना कांट के लिए आवश्यक था। यह तब तक संभव नहीं था जब तक पुराने अधिभौतिकवाद में गए बिना अनुभव और ज्ञान की निरंतरता को भंग किया जाए। कांट ने इसके लिए सामान्य अनुभव से वैज्ञानिक अनुभव की भिन्नता को जोर देकर साबित करना चाहा। परन्तु यह प्रयास एक सीमा के बाद खुद अपनी निष्फलता का बोध करता है। इस कारण कांट ने ज्ञान के आधार के रूप में अनुभव को किनारे करने का हर संभव प्रयास किया।[47] इस प्रकार वैज्ञानिक अनुभव की परिभाषा कांट के यहाँ इन दोनों नकारात्मक परिभाषाओं में व्यक्त हुई। इस प्रकार कांट ने देशकाल और वर्गों की पृथकता और इनके पूर्वनिर्धारण दोनों को बनाये रखते हुए अनुभव के दूसरे काल्पनिक इलहामी रूपों से भी इसे अलग कर दिया। कांट के अनुभवातीत सौंदर्यशास्त्र का अनुभव के अतिकाल्पनिक और इलहामी रूपों से विरोध था। ये इलहामी रूप पुराने अधिभौतिकवाद की तरह व्यक्ति के ‘दैवीय पागलपन’ को सत्ता के सत्य को पाने का रास्ता घोषित करती है। यह अतार्किक था। कांट की शुद्ध बुद्धि की परीक्षा शुद्ध तर्क के सहारे सत्ता मीमांसा के ईश्वर आदि प्रश्न का निराकरण करती है। इस प्रकार सत्ता मीमांसा का प्रश्न शुद्ध वैज्ञानिक अनुभव पर संभव था। कांट कहता है कि यह सत्ता मीमांसा विज्ञान की किसी एक शाखा का काम नहीं वरन् संपूर्ण विज्ञान को इसमें मिल कर प्रयास करना होगा। इस स्थिति में बहुत संभव था कि मूल नियमों से निगमित अनुभव और ज्ञान का नैरन्तर्य कुछ लोगों के लिए शुद्ध निगमनात्मक दिखने लगे। यह विज्ञान की तरफ से शुद्ध बुद्धि की अपनी परीक्षा थी। यहाँ आकर हेकेल जैसे यांत्रिक भौतिकवादियों ने ‘अनुभव’ और ‘अनुभव के ज्ञान’ का तदात्म पदार्थ की यांत्रिक क्रियाओं से व्याख्यायित करने की कोशिश की। दूसरी ओर नवकांटपंथियों ने देशकाल और वर्गों की परम पृथकता को ख़त्म करने का बीड़ा उठाया। पृथकता को ख़त्म करके इन्होने बाह्य वस्तु सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया। दूसरी ओर अनुभव के काल्पनिक और स्वतः प्रेरणा जैसे रूपों को भी ज्ञान के भीतर शामिल कर लिया।
यह बात एकदम सही है कि हमें अनुभव की तात्कालिक या प्राकृतिक धारणा को ज्ञान के सन्दर्भ में अनुभव की धारणा से अलग करना चाहिए। अनुभव ज्ञान के लिए कभी भी नयी या बाहरी वस्तु नहीं रही है। वह ज्ञान ही है मगर दूसरे रूप में । ज्ञान की वस्तु के रूप में अनुभव ज्ञान की ही नानारूपी एकता और नैरन्तर्य है। वह ‘अनुभव’ जिसे हम वास्तव में अनुभूत करते हैं,  ‘अनुभव का ज्ञान’ बन कर वह ज्ञान के एक सन्दर्भ के रूप में आता है। ‘अनुभव का ज्ञान’ ज्ञान का एक सन्दर्भ है। बेंजामिन कहते हैं कि अनुभव ज्ञान के उस सन्दर्भ का प्रतीक (symbol) है। इस लिहाज से वह स्वयं ज्ञान से भिन्न दूसरी कोटि की चीज़ है। ‘प्रतीक’ शब्द यहाँ अपने प्रचलित अर्थ से थोड़े भिन्न अर्थ में आया है। बेंजामिन के अनुसार अगर कोई चित्रकार किसी प्राकृतिक भूदृश्य के सामने खड़ा होकर उस दृश्य की नक़ल करता है तो हम कहेंगे कि भूदृश्य उसके कलात्मक सन्दर्भ का प्रतीक है। यद्यपि ऐसा करने से हम भूदृश्य को थोड़ा ज्यादा ही महत्त्व दे देते हैं। पर बहरहाल यह कांट के ‘अनुभवातीत सौंदर्यशास्त्र’ के बरक्स बेंजामिन के ‘अनुभवाश्रित सौंदर्यशास्त्र’ की प्रस्तावना थी।
अनुभव का संकट दरअस्ल ईश्वरविहीन दुनिया के अनुभव का संकट था। ईश्वरविहीन दुनिया के अनुभवों के बीच ज्ञान को अपना दैवीय अस्तित्व छिन जाने का संकट झेलना पड़ रहा था। कांट के पहले ‘अनुभव’ और ‘अनुभव का ज्ञान’ जिस संशय में उलझा था उसका काफी प्रभाव कांट पर भी था। परन्तु कांट तक आते आते परिस्थितियाँ काफी बदल गयी थी। पहले ज्ञान की एकता के प्रतीक के रूप में ‘अनुभव’ की धारणा ज्यादा प्रबल थी। कहीं ज्यादा कहीं कम यह ईश्वर और ईश्वरत्व के करीब था। कांट की प्रबोधानयुगीन दुनिया में यह लगातार ईश्वर और ईश्वरत्व से दूर हो रहा था। जगत् के तार्किक निगमन को भी संकट झेलना पड़ रहा था। ऎसी स्थिति में वैज्ञानिकों और दार्शनिकों का बहुत बड़ा हिस्सा जगत् की आवश्यकता या ज़रूरत के प्रश्नों से ध्यान हटा कर केवल आपत् प्रकृति के संधान में रत हो रहा था। सत्ता मीमांसा का काम अधिभौतिकवाद का विशेषाधिकार मान कर संतोष कर लिया गया था। कांट अधिभौतिकवाद को पूर्णतः तार्किक बनाना चाहते थे। पर इस चक्कर में शुरू से ही अंतर्विरोध के शिकार हो गए। पुराने तर्क से प्राप्त शाश्वत नियमों के अनुसार शुद्ध बुद्धि जो वैज्ञानिक सैद्धांतिक धारणा विकसित करती है और इस प्रक्रिया में जो व्यवस्था बनती चलती है वह खुद दो विरोधी व्यवस्था में बदल जाती है। तादात्म्य या अस्मिता के नियम के तहत ही, कुछ निर्णय वस्तुओं की एकता पर दृष्टि रखती है तो कुछ अन्य भिन्नता पर। चूँकि ‘अंतर्विरोध का नियम’ भी शाश्वत है इसलिए इस अंतर्विरोध की अपनी अलग-अलग व्यवस्था का होना अनिवार्य है। इस प्रकार कांट का चरम द्वैतवाद बनता है। कांट के अनुसार केवल यही किया जा सकता है कि वैज्ञानिक अनुभव के आलोक में अपनी-अपनी धारणाओं और उसकी व्यवस्था को दुरुस्त करते रहा जाए। वैज्ञानिक अनुभवों से बनने वाली धारणाएं पूर्वनिर्धारित वर्गों की अपनी ही व्यवस्था होने के कारण अमूर्त सार्वभौमिकता का रूप ग्रहण करती हैं। वर्गों के रूप में यह अमूर्त सार्वभौमिकता यद्यपि वस्तुनिजरूप के बारे में कुछ नहीं कहती क्योंकि वह वैज्ञानिक अनुभव से बाहर की बात है, परन्तु उसके सार का आभास देती है। ये वर्ग अतीत और भविष्य के सारे अनुभवों के निर्धारकों से स्वतंत्र हैं। या दूसरे शब्दों में शुद्ध बुद्धि उनका पूर्व निर्धारित संश्लेष करती है। अगर इन अमूर्त सार्वभौमों को खुद वस्तुसत्ता के गुण माने जायें तो हम पुनः पुराने अधिभौतिक गलतियों के शिकार हो सकते हैं। धारणाओं के रूप में विज्ञान की किसी एक शाखा में आपसी बहसों के द्वारा सिद्धांत निरूपण का प्रयास किया जाता है ,यहाँ कट्टर साम्प्रदायिकता से काम नहीं चलता। किसी भी सैद्धांतिक निर्धारण के लिए यह एक आवश्यक प्रक्रिया है। वैज्ञानिक निष्कर्षों में भूल इसलिए नहीं होता कि वैज्ञानिक तर्क के सामान्य नियमों के इस्तेमाल में ही कुछ भूल कर जाते हैं। तर्क के सामान्य नियमों के इस्तेमाल में भूल साधारणतः इन विवादों का कारण नहीं होती। यह सिद्धांत निरूपण का आतंरिक अंतर्विरोध होता है, जिसका पता उन्हें दूसरों के बताने पर ही लगता है। आपसी वाद-विवाद के आलोक में, आलोचनाओं के आलोक में वैज्ञानिक अपने अपने निष्कर्षों और निष्कर्षों की व्यवस्था की कठिन आत्मालोचना में प्रवृत्त होते हैं। कांट के अनुसार विज्ञान का विकास इसी रीति से संभव है। यह चिंतन का आतंरिक अंतर्विरोध है।यह अंतर्विरोध परम विरोधों के रूप में पूर्णतः तब प्रकट होता है जब हम अलग-अलग सिद्धांतों के सहारे एक महासिद्धांत बनाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में हम अवधारणाओं और सिद्धांतों के सारे आनुभविक निर्धारकों से मुक्त हो कर सिद्धांतों के सिद्धांत में प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार प्रकृति और जगत् की दो परमविरोधी (Antinomic) व्याख्या सामने आती है। इन दोनों परमविरोधी व्यवस्थाओं को हम पुराने फॉर्मल तर्क के सहारे सही या गलत साबित नहीं कर सकते। इस बात से पता चलता है कि चिंतन स्वयं में द्वंद्वात्मक है। पुराने अधिभौतिकवाद की सीमाओं का निर्धारण करते हुए कांट चिंतन के अपने द्वंद्वात्मक चरित्र का आत्मबोध परम विरोधों के रूप में सामने रखते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कांट के यहाँ आकर चिंतन अपनी द्वंद्वात्मकता के प्रति आत्मचेतस हो गया। कांट के लिए आत्मचेतस द्वंद्व के उच्चतर निराकरण का कोई रास्ता नहीं था। वास्तव में यह काम हीगेल के यहाँ संभव हुआ जहाँ द्वंद्वात्मकता आत्मचेतस से विश्वचेतस हुई और ‘द्वंद्वात्मक तर्क’ अमूर्त सार्वभौमिकता के बदले वस्तुगत/ठोस सार्वभौमिकता (concrete universal) के रूप में धारणाओं के विकास में समर्थ हुआ। अब धारणाएं अमूर्त सामान्य के बदले अपने भीतर अपनी उत्पत्ति, विकास और अंत की पूरी प्रक्रिया को भी अभिव्यक्त कर सकता था।
शुक्ल जी ने ‘भूमिका’ में वस्तुतः विज्ञान और दर्शन की बहसों को सामने रखते हुए उनके परम विरोधों को स्पष्ट किया है। जब शुक्ल जी कहते हैं कि मत मतान्तरों से ऊपर उठ कर सच्च्ची तात्विक दृष्टि पर ध्यान लगाना चाहिए, तो प्रकांतर से वह परम विरोधों का निराकरण उनके बीच सामंजस्य स्थापित करके करना चाहते हैं। इस सामंजस्य प्रयत्न में जो हाथ आता है वह ‘भेद में अभेद’ की तत्त्व दृष्टि से प्राप्त पूर्वनिर्धारित संश्लेष है। शुक्ल जी कहते हैं कि विज्ञान, दर्शन और धर्म सभी इसी की ओर इशारा कर रहे हैं । मनुष्यता के इतिहास के पांच हज़ार सालों का इतिहास बताता है कि विरुद्ध धर्म के सामंजस्य प्रयत्न में ही विकास की धारणा है। मनुष्य की बुद्धि सामंजस्य प्रयत्न में ही इस सच्ची तत्त्व दृष्टि तक पहुंची है। दूसरे शब्दों में सामंजस्य प्रयत्न की सच्ची पद्धति ‘भेद में अभेद’ देखते जाने की है। यह सामंजस्य प्रयत्न अनंत नाम रूपों में एक की सत्ता का ज्ञान था। शुक्ल जी ने धर्मों के इतिहास की व्याख्या इसी तत्त्व चिंतन के स्वाभाविक विकास की दृष्टि से किया। विकासवाद की सहायता से क्रमिक परम्परा के मृदुविकास के सहारे इस तत्त्वचिन्तन का क्रमिक विकास निरूपित किया गया। ठीक हेकेल के ज्ञानमूलक धर्म की तरह शुक्ल जी तत्त्वमूलक धर्म की यह परिकल्पना सर्ववाद में ढूंढते हैं। दोनों के लिए यह सर्ववाद ज्ञान की अत्यंत उन्नत अवस्था का सूचक है। अनेक देवताओं की कल्पना भेद मूलक दृष्टि करती है। यह प्रकृति अनेक रूपों में प्रत्यक्ष होती है। उनकी अलग अलग विभूतियों की अलग-अलग भावना कर बहुदेवोपासना शुरू होती है। इसी को आधार बना कर ‘भेद में अभेद’ की तत्त्वदृष्टि उन सबका एक में समाहार कर सर्ववाद तक पहुंची। एक ब्रह्म के रूप में यह भावना शुक्ल जी के अनुसार उपनिषदों के समय पूर्णता को पहुँच गयी। प्राचीन यूनानी तत्त्व चिंतकों के यहाँ भी पीछे यह तत्त्वदृष्टि विकसित हुई जिसका पूर्ण रूप हेकेल के अनुसार अनेग्जीमेण्डर के यहाँ मिलता है। विकास की दृष्टि से ऐसा सभ्य जातियों में ही संभव था। इस प्रकार ये सभी सभ्य जातियां विरुद्धों के सामंजस्य के तर्क को अपनी आत्मदृष्टि में विकसित कर, उन धर्म-नियमों, उपासना रूपों और सामाजिक व्यवहार की रीति-नीति का विकास किया जो समाज की आत्म रक्षा के लिए ज़रूरी थे। हिन्दू धर्म शुक्ल जी के लिए इसी सामंजस्य के तर्क का धर्मावतार है। इसलिए वह सनातन धर्म है। इसकी तत्त्वदृष्टि औपनिषदिक् अर्थात् वेदांती है। शुक्ल जी के अनुसार जो लोग यह सोचते हैं कि यह सामंजस्य कभी पूर्ण रूप से समाज में घटित होगा वह गलत सोचते हैं। नाश और निर्माण का क्रम लगातार बना रहेगा। संसार ना तो पूरा दुःख-मूलक है ना तो सुख-मूलक। बौद्ध इस नित्य सत्ता को नहीं मानते। शुक्ल बौद्धों के अनित्यवाद या क्षणिकवाद को अपनी मीमांसा से बाहर ही रखते हैं। भाववाद की वृहत कोटि में उसे डालते हुए केवल भूतवाद से उसके विरोध में उसका विभाजन स्वीकार्य करते हैं। यहाँ बौद्ध दर्शन के अनित्य-अनात्मवाद को और प्रकारांतर से उसकी तार्किक द्वंद्वात्मकता को वेदांत की व्याख्या में ही सम्मिलित मान लिया जाता है। यह बौद्धों के औपनिषदिक भाववाद विरोध का ही परिणाम था शायद! ऐसा ही कुछ सांख्य के साथ भी था। आगे उसकी वेदांती परिणति को थोड़ा विस्तार से देखेंगे।
वेदांती तत्त्वदृष्टि बताती है कि उस अभेद सत्ता को कभी भी वास्तव में निर्धारित नहीं किया जा सकता। वस्तुनिजरूप में यह प्रकृति का वास्तविक हमेशा अज्ञेय है। वह ‘एक’ दरअस्ल ‘अनेक’ की समष्टि है अथवा ‘अनेक’ उस ‘एक’ के ही आभास हैं’। वह ‘एक’ अनंत है। वेदान्त इसे ‘ब्रह्म’ कहता है। कांट के दर्शन को शुक्ल जी विलायती वेदान्त का आधार बताते हैं। हांलाकि इन दोनों की पद्धतिगत भिन्नता को भी वह लक्ष्य करते हैं। शुक्ल जी कहते हैं कि “यद्यपि भारतीय वेदान्त की पद्धति योरप की ज्ञानपरीक्षावाली पद्धति से भिन्न है पर अंत में दोनों दर्शन किस प्रकार एक ही सिद्धांत पर पहुंचे हैं यह बात ध्यान देने योग्य है। वेदान्त यह मान कर चला है कि क्रिया परिणामिनी है, पर चैतन्य अपरिणामी है। एक क्रिया दूसरी क्रिया के रूप में परिणत होती है पर उन क्रियाओं का ज्ञान सदा वही रहता है। बुद्ध्यादि अंतःकरण की सब वृत्तियाँ इस जड़ क्रिया के अंतर्गत की गयी हैं, केवल उनका ज्ञान अविकृत रूप से स्थित कहा गया है। खंडज्ञान या विज्ञान का कारण बुद्ध्यादि क्रिया की विच्युति या विकार है। क्रियानुगत ज्ञाता ज्ञेय रूप में केवल क्रियाओं का ज्ञान करता है, अपने स्वरूप का नहीं जो अखंड, निर्विशेष और अपरिणामी है। इससे सिद्ध हुआ कि परिणामबद्ध क्रिया या क्रियाबीज शक्ति स्वतंत्र सत्ता नहीं हो सकती, उसकी अक्षर सत्ता चैतन्य की सत्ता में ही है। शक्ति का जो स्फुरण है उसका अधिष्ठान चैतन्य है। अतः चैतन्य ही एकमात्र शुद्ध सत्ता है। इस स्फुरण व्यापार में ब्रह्म या चैतन्य का ही आभास मिलता है। ‘सर्व विशेषप्रत्यस्तमित स्वरूपत्वात् ब्रह्मणो वाह्यसत्ता सामान्यविषयेण ‘सत्य’ शब्देन लक्ष्यते’ (तैत्तिरीय भाष्य)। शुद्ध चैतन्य स्वरूप का केवल आभास मिल सकता है। उसका बोध केवल लक्षण द्वारा हो सकता है साक्षात संबंध द्वारा नहीं। जबकि सब प्राकृतिक व्यापार चैतन्य के ही लक्षणाभास हैं और हमें केवल इन्हीं लक्षणाभासों का ही ज्ञान हो सकता है तब इनके अनुसंधान को वेदांती अनावश्यक नहीं कह सकते।[48] उसी तरह कांट के दर्शन में बाह्यार्थवाद का जो लेश दिखाई देता है वह वस्तुसत्ता को नकार कर ‘वैज्ञानिक अनुसंधान का द्वार बंद नहीं करता’।“कांट ने वस्तुसत्ता को शक्तिशाक्तिस्वरूपा कहा था, शोपेन्हावर ने उसी शक्ति को संकल्प कहा। फिक्ट ने उस शक्ति को ‘विषयी का विषय रूप से स्वावस्थान’ कहकर उसका अधिष्ठान चैतन्य में ही कर दिया था।”[49] दूसरी ओर विज्ञान भी ‘भूत या द्रव्य के मूल रूप का पता लगाते-लगाते अब शक्ति तक पहुँच रहा है’। इस प्रकार शुक्ल जी के लिए सचमुच ‘पदार्थ गायब हो गया’ था! प्रकांतर से वस्तुसत्ता के स्वीकार के साथ ही पदार्थ का अस्वीकार भी संभव हुआ। पदार्थ और शक्ति के इस विरोध का निराकरण भेद में अभेद की तत्त्व दृष्टि से ही संभव हुआ है। शुक्ल कहते हैं कि अब केवल एक भेद रह गया है वह है शक्ति और चैतन्य का। शुक्ल जी ध्यान दिलाते हैं कि विज्ञान अपनी पद्धति से इस चैतन्य को इस भूतशक्ति के अंतर्गत करने में समर्थ नहीं हुआ है। इस प्रकार चैतन्य और शक्ति का ही द्वंद्व अब रह गया है। ‘सांख्य ने जहाँ लाकर छोड़ा था वहीं विज्ञान ने भी लाकर छोड़ दिया है। सांख्य भी पुरुष प्रकृति का सदा सलामत रहने वाला जोड़ा देख कर लौटा था।”[50]जो अद्वैत आत्मवादी हैं वो इसका निराकरण चैतन्य में शक्ति का अधिष्ठान करके करते हैं और जो अद्वैत अधिभौतिकवादी हैं वो चैतन्य को शक्ति के अंतर्भूत करेंगे। भेद के दोनों पक्षों में अभेद देखने की तत्त्व दृष्टि शुक्ल जी को नित्य चैतन्य की सत्ता में ही दिखाई देती है। अपने मन की बात सामने रखते हुए शुक्ल लिखते हैं कि “यदि चैतन्य की नित्य सत्ता सर्वमान्य हो गयी तो फिर सब मतों की भावना का समर्थन हुआ समझिये क्योंकि चैतन्य सर्वस्वरूप है। नाना भेदों में अभेददृष्टि ही सच्ची तत्त्वदृष्टि है। इसी के द्वारा सत्य का अनुभव और मतमतान्तरों के रागद्वेष का परिहार हो सकता है।”[51] इस बात की नोटिस नहीं लेने के चलते रामविलास शर्मा ने ‘विश्वप्रपंच की भूमिका’ के विश्लेषण-क्रम में लिखा कि शुक्ल जी वहाँ भाववाद या भौतिकवाद में स्पष्टतः कोई पक्ष नहीं लेते, परन्तु फिर भी उनका पक्ष भौतिकवाद के करीब है जिसे उन्होंने वैज्ञानिक भौतिकवाद कहा! ‘भेद में अभेद’ की अनुभवाश्रित तार्किकता और उसके निहितार्थों को लक्ष्य न करने का कारण खुद रामविलास जी की भौतिकवादी दृष्टि की सीमा है। ऊपर हमने देखा था कि सर्वमान्य शाश्वत तर्क नियमों के निर्धारण में कांट के यहाँ, एक ओर उनकी विशिष्ट ऐतिहासिकता अर्थात् तर्क की वस्तु के प्रति कोई ध्यान नहीं था अर्थात् यह शुद्धतः फॉर्मल था। दूसरी ओर ‘अमूर्त सार्वभौम’ वस्तुओं की सभी पक्षों से पूर्ण विशिष्टता का नकार कर कुछ ख़ास गुणों का सामान्यीकरण बन जाता है। हालांकि किसी भी धारणा के विकास में हमें इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है परन्तु इसे ही अंत मानने से हमारे सामने परम विरोधों के निराकरण या उनके सामंजस्य के अलावा कोई और रास्ता नहीं मिलता। नाना भेदों में अभेद देखने से केवल अमूर्त सार्वभौम हाथ आता है। ‘ब्रह्म’ एक ऐसा ही सार्वभौम था। लोकायतों या चार्वाकों के भौतिकवादी पक्ष की अन्यथा चर्चा नहीं करके शुक्ल मूलतः वेदांत के सहारे दर्शन के विवाद का निरूपण करते हैं। वैज्ञानिकों की तरफ से भूतवाद का पक्ष आने से इन पर बात करने की ज़रूरत शुक्ल जी को महसूस नहीं हुई। आधिभौतिक अनात्मवाद का पक्ष हेकेल के अंतर्विरोधों में ही मान लिया गया। भूतशक्ति को विज्ञान चैतन्य का अधिष्ठान साबित नहीं कर पाया है। बस। यह दर्शन का वेदांती भाष्य था।
हेकेल के यांत्रिक भूतवाद को शुक्ल जी प्रकृतिवाद कहते हैं। उनके अनुसार यदि सांख्य के प्रकृति पुरुष जोड़े से पुरुष को निकाल दिया जाए तो हेकेल का प्रकृतिवाद निकलता है। हेकेल का प्रकृतिवाद यांत्रिक केवल इस अर्थ में नहीं था कि उसका परमतत्त्व अचेतन है। या चेतन का उसके साथ नित्य संबंध नहीं है जैसा कि शुक्ल जी कहते हैं। पीछे हमने हेकेल की यांत्रिकता की चर्चा विस्तार से की है। सांख्य के वेदान्त भाष्यों ने कैसे प्रधान प्रकृति और गौण पुरुष के भेद को हटाते हुए प्रकृति को पुरुष के अधीन किया इसका भी मनोरंजक इतिहास रहा है।[52] देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने दिखाया है कि कैसे अनात्मवाद की दो धाराएं औपनिषदिक् भाववाद के विरोध में विकसित हुई। एक पहले से चली आ रही लोकायत परम्परा थी जो तंत्रवाद के किसी आरंभिक रूप से जुड़ी रही होगी। चरक, चार्वाक, कपिल आदि नामों से जुड़ कर यह सांख्य दर्शन के रूप में व्यवस्थित हुआ होगा। सांख्य के साथ योग का नाम भी लिया जाता है । पतंजलि के योगसूत्रों में सांख्य तत्त्व मीमांसा के साथ योग विद्याओं और उनके विचारों का कुशल सम्पादन हुआ है। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि मूल सांख्य का कोई आदि रूप था जिसका सैद्धांतिक और क्रियात्मक पक्ष विकसित होकर सांख्य और योग बने होंगे। मनुष्य के साथ प्रकृति का क्रियाशील संबंध  कभी भी विचारहीन नहीं रहा है। सामाजिक संबंधों के विकासक्रम में जब एक समय कुछ लोगों के पास अतिरिक्त श्रम-काल का संचय हो गया और अपनी श्रेष्ठतर स्थिति में केवल चिंतन का काम शुरू किया तो पुराने सामाजिक संबंधों के भीतर विकसित होता स्वाभाविक श्रम विभाजन जातियों के रूप में विशेषाधिकार के उत्तराधिकारी होने लगे और क्रियात्मक पक्ष और सैद्धांतिक पक्ष का कड़ा घेरा बनने लगा। क्रियात्मक पक्ष गौण हो गया और हेय भी हो गया। कह सकते हैं कि जो बुद्धि की महज विश्लेष्णात्मक आवश्यकताएं थीं वह सामाजिक संबंधों में अलग-अलग घेरों के रूप में स्थिर हो गयीं। मानसिक और शारीरिक श्रम विभाजन में मानसिक की श्रेष्ठता शक्ति से तय होने लगी। यह शक्ति विचारधारात्मक श्रेष्ठता का भी आधार बन गयी। उपनिषदों में जो प्रभावशाली वेदांती धारा थी उसने हर संभव तरीके से बुद्धि की श्रेष्ठता साबित करनी चाही। इसके लिए यह साबित करना था ज़रूरी था कि जड़ शारीरिक क्रियाएं स्वंतंत्र नहीं हो सकती। इसे किसी ऐसी सत्ता का निर्देश चाहिए था जो स्वयं तो शारीरिक श्रम में और इस प्रकार उत्पादन में असमर्थ हो पर उत्पादन की समग्र व्याख्या उनके पास हो। सामान्य बुद्धि आदि क्रियाएं भी इसी जड़ शारीरिक क्रिया में शामिल मान ली गयीं। ज़रूरी था कि यह सत्ता अमूर्त हो। क्योंकि वस्तुतः मूर्तता को सीधे-सीधे नकारना संभव नहीं था। इसलिए यह सत्ता अमूर्त सार्वभौम के रूप में कल्पित हुई। इस अमूर्त सर्व चैतन्य आत्मा को ‘ब्रह्म’ कहा गया। प्रकृति के साथ अपने क्रियाशील संबंधों में और इन क्रियाशील संबंधों के अनुभव से प्रकृति की बाह्य सत्ता का नकार असंभव था। जो दर्शन वैज्ञानिक क्रियाओं के आधार पर या अनुभव की प्राथमिकता पर विकसित हुआ उसमें भौतिक दुनिया का स्वीकार था। चरक के लिए आत्मा या बुद्धि कुछ रासायनिक तत्वों के उत्पाद से अधिक कुछ नहीं थी। इसलिए शरीर के नाश के साथ ही आत्मा भी मर जाती है। कारण नहीं रहने से परिणाम भी नहीं रहता। आदिकारण की सहज जिज्ञासा प्रधान प्रकृति या आदि भूत के रूप में स्वयं परिणामी हो कर इतनी स्वाभाविक हो गयी कि शारीरिक और मानसिक श्रम विभाजन के कड़े चौखटों में रहते हुए दुखमय नश्वर जीवन की यथास्थिति के स्वीकार के रूप में या छोटी मोटी इच्छाओं की पूर्ति और स्वस्थ और सुन्दर जीवन की सांसारिक चेष्टाओं में परिणत हो गयी। ब्रह्मवादियों ने इन मतों की व्यापक लोकप्रियता से खतरा महसूस किया। उन्होंने इन दर्शनों के सामने मुक्ति का प्रश्न रखा। अगर सबकुछ जड़ प्रकृति के स्वभाव के अनुसार है तब मनुष्य जो कुछ करता है वह प्राकृतिक है। प्रकृति के अधीन है। लेकिन एक ओर तो प्रकृति में कहीं और चेतना का अंश दिखता नहीं। बुद्धि का विकास दिखता नहीं। जानवरों की क्रियाओं में बुद्धि नहीं मिलती। फिर अचेतन से चेतन की उत्त्पति नहीं हो सकती। ऐसे में मनुष्य स्वतंत्र कर्म करने में अक्षम है। परन्तु हम देखते हैं कि मनुष्य स्वतंत्र कर्म करता है। हाँ अपनी परिस्थितियों के भीतर ही कर्म स्वातंत्र्य है। परिस्थितियाँ आपके जन्म से ही तय हैं। आप जहाँ पैदा हुए वो पहले से तय था। या दूसरे शब्दों में पूर्व जन्मों का फल था। लेकिन बुद्धि से ज्ञान के सहारे आगे आप अपना जीवन अपने अनुसार जी सकते हैं। पूर्ण मुक्ति ‘ब्रह्म’ के ज्ञान में है। और वह ब्रह्म अमूर्त सार्वभौम के रूप में हर जगह है। ब्रह्म की यह अमूर्त सत्ता सामाजिक ताकत के रूप में नज़र आती थी। चरक ने कई ऐसे सन्दर्भों का उल्लेख किया है जिसमें समाज में वैद्यों आदि को किस प्रकार हेय दृष्टि से देखा जाता था इसका वर्णन है। दरअस्ल शरीर मात्र ही घृणा का आधार बन गया था। ब्रह्मवादियों के लिए शरीर की निर्थकता सिद्ध करनी बहुत ज़रूरी थी क्योंकि इसके आधार पर ही आत्मा या बुद्धि की श्रेष्ठता को लोग नकारते थे।
‘ब्रह्मवादियों’ की सर्वचैतन्य आत्मा सर्वरूप थी। अनंत रूप एक आत्मा को तब रोज़मर्रा के अनुभवों में भी होना चाहिए। ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष अनुभव को नकारना असंभव था। प्रत्यक्ष अनुभव इन्द्रियज अनुभव थे। इन इन्द्रियज अनुभवों में ब्रह्म अगर शामिल नहीं है तो फिर वह सर्वव्यापी सत्ता कैसे हो सकता है? जिन्होंने प्रधान प्रकृति की स्वाभाविकता की बात की उनके अनुसार तो हर अनुभव प्रकृति का अपना ही अनुभव हुआ। इसलिए हर अनुभव स्वानुभूति थी। स्वानुभूति प्रकृति का स्वभाव था। जहाँ तक अनुभूति ब्रह्म की निरर्थकता बताती थी वहां तक तो वह ठीक थी लेकिन जैसे ही वह स्वयं में पूर्ण बन गयी वहां फिर वह रहस्य हो गयी। सर्ववाद के रूप में ब्रह्वाद और प्रकृतिवाद दोनों ही अनंत ब्रह्म और अनंत प्रकृति की एक सत्ता का आभास बनाये रखता है। आगे चल कर शंकर ने स्वानुभूति को ब्रह्म की अपनी अनुभूति बता कर स्वानुभूति के ज्ञानात्मक निगमन को संभव बताया। वहां स्वानुभूति आत्मानुभूति हो गयी। इस प्रकार संवेदनात्मक अनुभव से वह स्वतंत्र हो गयी। यह शुद्ध ज्ञान के सहारे  व्यक्तिगत  मुक्ति का रास्ता था। अमूर्त आत्मा की प्रभावशाली विचारधारा ने जहां तक हो सका तर्क के सहारे नहीं तो श्रुति के स्वयं प्रमाण के बल पर अनात्मवादी दर्शनों को खारिज किया। सांख्य और बौद्ध दर्शनों का विरोध केवल तर्क के आधार पर संभव नहीं था। कहा जाता है कि बौद्ध दर्शन एक ओर ब्रह्मवाद को अस्वीकार करता है दूसरी ओर सांख्य की भी आलोचना करता है। बुद्ध ने दुःख का अमूर्तन किया। दुःख सार्वभौमिक सच है। दुनिया में दुःख है। पर इस दुःख का कारण है। वह कारण है इच्छा। इच्छा के कारणों के जानते ही इच्छा भी समाप्त हो जाती है। कारण के न होने से परिणाम भी नहीं होता। इस प्रकार दुःख से मुक्त हो मनुष्य निर्वाण पा जाता है। संसार अनित्य है इसलिए आत्मा भी अनित्य है। हम अपनी सुविधा के लिए आत्मा नाम का प्रयोग करते हैं। आत्मा केवल नाम है। ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ के रूप में परिवर्तन की प्रक्रिया को सूत्रबद्ध किया गया। बुद्ध कहते थे कि ‘जहाँ धर्म को देखता हूँ वहां ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ को देखता हूँ, जहाँ ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ को देखता हूँ वहां धर्म को देखता हूँ’। इस प्रकार बुद्ध के यहाँ द्वंद्वात्मक चिंतन को केन्द्रीयता मिली। यह जीवन का मध्यममार्ग था। इसके संघबद्ध होने और इनके आपसी मतमतान्तर के विस्तार में गए बिना हम फिलहाल ब्रह्मवादियों के सांख्य विरोध को देखते हैं।
देवीप्रसाद ने ध्यान दिलाया है कि वेदान्तियों के यहाँ सांख्य का नकार अंतिम रूप से तर्काश्रित न हो कर वेदों और उपनिषदों के प्रमाण पर किया गया है। शंकर ने भी ‘प्रधानवाद’ को अति गंभीर तर्कों पर आधारित कहा है। यह तर्काधारित (पुराने फॉर्मल लॉजिक के अर्थ में) दो परम विरोधी दर्शनों की समान वैधता का स्वीकार भी है। प्रसाद ने शंकर को उद्धृत किया है: “शास्त्रों द्वारा उद्घाटित विषयों के लिए केवल तर्कना पर निर्भर नहीं किया जा सकता क्योंकि मनुष्यों के विचारों पर कोई बंधन नहीं है और जो तर्कवितर्क शास्त्रों को महत्त्व नहीं देते और व्यक्तिगत विचारों पर निर्भर हैं उनका कोई उचित आधार नहीं है। हम देखते हैं कि कुछ चतुर व्यक्तियों द्वारा परिश्रम से सोच कर निकाले गए गलत तर्कों को अन्य अधिक प्रज्ञावान लोग किस तरह गलत सिद्ध कर देते हैं और फिर इन लोगों के तर्कों को भी कोई व्यक्ति आकर खंडित कर देता है। इसलिए मनुष्य के विचारों की विविधता के कारण, मात्र तर्कना को दृढ़ आधार मानना संभव नहीं है, और न ही किसी विख्यात प्रज्ञावान व्यक्ति, चाहे वह कपिल हों या कोई अन्य, द्वारा दिए गए युक्तिसंगत मानने की कठिनाई से बचा जा सकता है, क्योंकि हम देखते हैं कि कपिल, कणाद और अन्य दार्शनिक मतों के प्रतिपादकों जैसे अति प्रज्ञावान लोगों ने भी एक दूसरे के विचारों का खंडन किया है... इसलिए तर्क पर आधारित ज्ञान, जिसका विषय स्थायी रूप से अपरिवर्तनीय नहीं है, सम्यक ज्ञान किस प्रकार हो सकता है? और यह भी नहीं कहा जा सकता कि जो व्यक्ति ‘प्रधान’ को सृष्टि का कारण बताता है वह सर्वश्रेष्ठ तार्किक है और सभी दार्शनिक उसे ऐसा मानते हैं, जिससे हम भी उसके द्वारा प्रतिपादित विचार को सम्यक ज्ञान के रूप में स्वीकार कर लें। और न ही किसी एक समय और स्थान पर भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी तार्किकों को एकत्र कर सकते हैं ताकि वे (आपस में सहमत होकर) यह निर्धारित करें कि कौन से अपरिवर्तनीय विषय या वस्तु को सम्यक् ज्ञान समझा जाये। इस प्रकार वेद जो शाश्वत और सर्व प्रकार के ज्ञान के स्रोत हैं, पूर्णतया प्रतिष्ठापित बातों पर अधिकारपूर्वक मत व्यक्त कर सकते हों। इसलिए भूत, वर्तमान या भविष्य का कोई भी पारखी वेदों पर आधारित ज्ञान की पूर्णता का खंडन नहीं कर सकता।”[53] तर्कना आधारित इस ज्ञान की सीमाओं का उल्लेख करके शंकर उस अन्तर्निहित द्वंद्व की ओर इशारा कर रहे थे जो स्वयं में पूरी तरह मान्य दो परस्पर विरुद्ध सिद्धांत का रूप ग्रहण कर लेता है। शंकर ने वेदान्त और सांख्य के संबंध  में कहा: “दोनों ने जो विकल्प बताये हैं वे अपने आप में सर्वतःपूर्ण हैं। इसलिए दोनों में से किसी एक को अनिवार्यतः स्वीकार किया जाना चाहिए। ( साधारणत्वत न अन्यतरस्मिन् पक्षे चौदैतव्य भवति इति)।”[54]हम देख सकते हैं कि शंकर सांख्य दर्शन के स्वतःपूर्ण होने की बात कह रहे हैं। यह स्वतःपूर्ण मत प्रणाली आरंभिक वेदान्तियों के लिए लगातार विरोधी पक्ष बना रहा। कई लोगों ने उपनिषदों में इससे सम्बंधित प्रमाण ढूढ़ कर इसे भी शास्त्र सम्मत बनाने का प्रयास किया। देवीप्रसाद ने इसे अद्वैत भौतिकवाद की परम्परा के रूप में देखने की कोशिश की है। शंकर के इस साक्ष्य से ऐसा प्रतीत भी होता है।
 सांख्य ने प्रकृति को प्रधान और पुरुष को गौण माना है। प्रकृति मूल है जगत् उसकी विकृति है। जैसे जगत् में सत्व,रजस और तमस तीनों गुण मिलते हैं इसलिए आदि प्रधान में भी ये तीनों होते हैं क्योंकि जो कारण में नहीं है वह परिणाम में नहीं हो सकता। प्रकृति के आदि अव्यक्त रूप में ये तीनों साम्यावस्था में रहते हैं। इनके असंतुलन से जगत् की उत्त्पत्ति होती है। सांख्य के लिए यह आदि आरम्भ है। जगत् अनित्य है और कारण परम्परा द्वारा स्वतः गतिशील है। यह प्रधान प्रकृति का स्वभाव है। यह अपने आप में पूर्ण है और इसे किसी दूसरे की ज़रूरत नहीं है। यह प्रधान अव्यक्त मूल प्रकृति कारणशून्य, निष्क्रिय, एक, अनाश्रित, व्यापक और स्वाधीन है। व्यक्त प्रकृति हेतुमान्, अनित्य, अव्यापक, क्रियावान, नाना या अनेक, आश्रित, दूसरे का अनुमान कराने वाला, सावयव और पराधीन है। मूल प्रकृति इसके विपरीत है। कुछ चीजें दोनों में समान हैं- जैसे दोनों ही त्रिगुण, अविवेकी, विषय, सामान्य, अचेतन और प्रसवधर्मी हैं। सांख्य का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है ‘पुरुषबहुत्वं’। पुरुष व्यक्त और अव्यक्त दोनों से विलक्षण है अर्थात् अत्रिगुण, विवेकी, अविषय, असामान्य, चेतन और अप्रसवधर्मी है। व्यक्त के सादृश्य इसमें अनेकता की विशेषता है। वह गौण और उदासीन है। देवीप्रसाद ने दिखाया है कि बाद के वेदांती दार्शनिकों ने और भाष्यकारों ने इस पुरुष को आत्मा माना है जो इसका वेदांती भाष्य है। परन्तु यह पुरुष क्या है? कहा गया है कि पुरुष तटस्थ, उदासीन दर्शक है और प्रकृति उसके सामने स्वतः नाचनेवाली गणिका। प्रकृति की गति का वह कारण नहीं है। वह अप्रसवधर्मी है। वह उसकी स्वाभाविक क्रियाव्यापारों को साक्षी भाव से देखता है। वह अनेक है। वह शुद्ध चिंतन है। देवीप्रसाद ने पुरुष को साधारण पुरुषों के प्रतीकार्थ में  ग्रहण किया है। उनका अनुमान है कि जिस मातृसत्तात्मक समाज के भीतर सांख्य का आदिरूप विकसित हो रहा था वहाँ पुरुष गौण था। स्त्री ही प्रधान थी। ‘मूलतः प्रकृति का अर्थ था स्त्रीसिद्धांत’। “जिस प्रकार मातृसत्तात्मक समाज में बच्चे का पिता के साथ कोई वास्तविक संबंध नहीं होता उसी प्रकार सत्य होते हुए भी इस विश्व का पुरुष के साथ कोई वास्तविक संबंध नहीं है। इसलिए पुरुष की विसंगतपूर्ण स्थिति उस दर्शन में आई।”[55]देवीप्रसाद ने महाभारत के उस उल्लेख का ज़िक्र किया है जहाँ सांख्य के असली प्रतिपादक कपिल न होकर कपिला नामक स्त्री थी।
जो भी हो पुरुष संबंधी धारणा वेदान्तियों के लिए हमेशा उलझन पैदा करती रही। शंकर ने कहा कि पुरुष के अनेकत्व का सिद्धांत ही वास्तव में सांख्य को पूर्ण रूप से वेदविरोधी बना देता है। दूसरे शब्दों में तर्कना की दृष्टि से यह अपने में पूर्ण है परन्तु शास्त्र-सम्मत नहीं है। पुरुष न तो आत्मा था न एक। ‘कारिका’ और उसके गौडपाद भाष्य के हवाले से अनेक पुरुष के अस्तित्व के तीन आधारों का उल्लेख देवीप्रसाद ने किया। १. विभिन्न व्यक्तियों के जन्म-मरण और ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों के बीच अंतर है; २. विभिन्न व्यक्ति अपने कार्यों और गतिविधियों में एक दूसरे से भिन्न हैं; ३. विभिन्न लोग तीन ‘गुणों’ में भिन्नता के कारण एक दूसरे से भिन्न हैं। तीसरा आधार महत्वपूर्ण है। पीछे हमने देखा कि पुरुष को अत्रिगुण कहा गया है। परन्तु इसकी अनेकता का आधार बताते समय एक आधार यह भी बताया गया है कि जैसे विभिन्न लोग इन तीनों गुणों में भिन्नता के चलते एक दूसरे से भिन्न हैं उसी तरह कह सकते हैं कि पुरुष भी अनेक है। इस प्रकार अन्य व्यक्तियों की तरह पुरुष भी त्रिगुणात्मक है। अनेक पुरुष हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि समाज में जितने व्यक्ति हैं वे सब ‘पुरुष’ हैं। वैसे ही जैसे विभिन्न व्यक्ति परस्पर जन्म में मरण में तथा शारीरिक बनावट में भिन्न हैं , ‘पुरुष’ भी अनेक है। कार्यों में और गतिविधियों में भिन्नता की तरह पुरुष अनेक हैं। अगर पुरुष त्रिगुणात्मक है तो यह प्रकृति के समान हुआ। इस प्रकार इसे शुद्ध चेतना नहीं कहा जा सकता। यह वेदान्तियों की आत्मा नहीं है। पुरुष प्रकृति से भिन्न गुणों वाला नहीं हो सकता था। ऐसा होने से प्रधान प्रकृति की स्वाभाविकता नहीं रह जाती। चूँकि पुरुष में भी अन्य लोगों की तरह तीन गुण हैं इसलिए वह प्रकृति की विकृति ही है। परिणाम है। अगर अव्यक्त प्रकृति की तरह ये साम्यावस्था में तीनों गुणों वाला होता तो भिन्नता या अनेकता असंभव थी। अगर ये तीनों गुणों की भिन्नता वाले हैं तो स्वतः परिणामी हो जायेंगे, पर पुरुष उदासीन है। वह किसी क्रिया का कारण नहीं हो सकता। वह शुद्ध द्रष्टा है। शुद्ध साक्षी है। ऐसा संभव है कि ‘पुरुष’ की यह व्याख्या समाज में इन आरंभिक ‘तत्त्वचिन्तकों’ के नए बनने वाले सामाजिक वर्ग की अपनी विशेष स्थिति का प्रतिबिम्ब हो। दूसरे शब्दों में कहें तो विभिन्न कामों में लगे रहने वालों के बीच इस सामाजिक वर्ग ने अपने लिए केवल शुद्ध अनुमान या मनन करने वाले या द्रष्टा की आत्मछवि ‘पुरुष’ की धारणा में देखी हो। निश्चित रूप से इन तत्त्वचिन्तकों का काम दूसरे उत्पादन में लगे वर्गों को निर्देशित या नियंत्रित करने का नहीं था। ये वर्ग शारीरिक श्रम पर नियंत्रण करने वाला वर्ग नहीं था। प्रधान प्रकृति के परिणामवाद के रूप में संसार की व्याख्या करने वाले ये दार्शनिक जगत् की सत्यता और अनित्यता पर विश्वास करते थे। इसे नकारना इनके लिए संभव नहीं था। ‘आत्मा’ या ‘सार्वभौम अमूर्त सत्ता’ को भी नकारते थे। इस अर्थ में नितांत भौतिकवादी थे। एक प्रकृति की व्यापकता और अद्वितीयता के चलते अद्वैतवादी थे। देवीप्रसाद ने मूल सांख्य में ‘पुरुष’ के  ‘त्रिगुणात्मक’ होने को इसके अद्वैत भौतिकवाद का प्रमाण माना है और उसका पक्ष लिया है। वेदांती प्रयासों के लिए ज़रूरी था कि ‘पुरुष’ को ‘अत्रिगुणात्मक’ दिखाया जाए ताकि अंतिम रूप से इसे शुद्ध चेतन आत्मा साबित किया जा सके। जबकि सांख्य का अद्वैत भौतिकवाद ‘पुरुष’ की धारणा में चेतना और जड़ प्रकृति का एकीभूत द्वंद्व है। उनके अनुसार यह मूल प्रकृति का स्वाभाविक परिणाम है। जड़ प्रकृति और चेतना का यह एकीभूत द्वंद्व ‘पुरुष’, वास्तविक मनुष्य का अमूर्त सार है। सांख्य में अव्यक्त व्यक्त के विपरीत है और पुरुष व्यक्त की तरह अनेक हैं। अनेक के विपरीत एक का यह संबंध ही एकीभूत द्वंद्व है।  इस प्रकार ‘अनेक पुरुष’ की यह धारणा प्रकृति और जगत् की व्याख्या करने वाले इन आरंभिक तत्त्वचिंतकों की आत्म छवि थी। यह मनुष्यत्व को ‘पुरुष’ की धारणा में पाना चाहते थे। मार्क्स के शब्दों में कहें तो यह चिन्तनपरक भौतिकवाद था। ये मानते थे कि मनुष्य की वास्तविकता उसके शुद्ध द्रष्टा भाव में है। अर्थात् मनुष्य का सार जो ‘पुरुष’ है उसकी विलक्षणता उसका द्रष्टा भाव या साक्षी भाव है। वह स्वयं अक्रियाशील है। वह शुद्ध दर्शक है। वह प्रकृति को अपने से बाहर शुद्ध रूप में पाता है। वह सारी संवेदनाओं, सारी क्रियाशीलता, व्यक्त की सारी गतियों का निष्क्रिय, तटस्थ, उदासीन और निर्वैयक्तिक पर्यवेक्षक है। त्रिगुणात्मक होने से वह अन्य अनेक मनुष्यों की तरह सत्व, रजस और तमस गुणों से युक्त है। ऐसे में वह प्रकृति का ही परिणाम है। इसके अलग-अलग कार्यव्यापार हैं, भिन्नता है पर द्रष्टा के रूप में निर्लिप्त है। यह अद्वैत भौतिकवाद संभवतः कारीगरों के उस हिस्से का था जो सिर्फ शारीरिक श्रम ही नहीं करते थे बल्कि कुशल थे। कुम्हार, सुनार, औषधि-विज्ञानी आदि अलग-अलग कार्यों में लगे इन तत्त्व चिंतकों के लिए शुद्ध मनन की शारीरिक क्रिया कलापों से शुद्ध भिन्नता और प्रकारांतर से श्रेष्ठता मान्य नहीं थी। वैज्ञानिक क्रियाओं में लगे चरक के लिए तो ‘पुरुष’ विश्व के छह तत्त्वों या धातुओं में से ही एक है। अर्थात् पांच तत्त्व जैसे आकाश, वायु आदि, और चेतना जिसे ‘पुरुष’ भी कहा जाता है।
ध्यान देने की बात है कि पुरुष अव्याप्त है। प्रकृति व्याप्त है। इस प्रकार अनंत रूपों में प्रकृति क्रियाशील है। ऐसी स्थिति में अव्याप्त या सांत ‘पुरुष’ अनंत या व्याप्त प्रकृति का शुद्ध द्रष्टा कैसे हो सकता है। अनेक अव्याप्त पुरुष एक व्याप्त प्रकृति की संपूर्णता को बिना बाहर से नहीं देख सकता। क्योंकि तब प्रकृति अद्वितीय नहीं रह पाएगी। ऐसी स्थिति में एक संभावना यह है कि पुरुष हर स्वाभाविकता में अनंत की भावना करे जिसे साक्षी भाव कहा जाता है। या फिर पुरुष की अनंतता की घोषणा करे। सांख्य की यह बंद सत्ता मीमांसा थी। जो मूलतः ‘पुरुष’ की विलक्षण धारणा में वेदांती भाववाद के उत्तरपक्ष का भी निषेध करती है। दरअस्ल पुरुष की धारणा अपनी असम्भाव्यता को प्रकट करती है। दूसरे शब्दों में एक अनंत का अनेक सांत से संबंध की असम्भाव्यता को प्रधान प्रकृति के अंतर्गत कर सांख्य ने वेदान्त के नित्य आत्मा का रास्ता हमेशा के लिए बंद कर दिया। अब एक ही रास्ता बचता था कि जगत् की सत्यता को स्वीकार कर उसे ब्रह्म की अभिव्यक्ति कहा जाए। अभिनवगुप्त की तरह शुक्ल जी के अभिव्यक्तिवाद का आधार भी यहीं से आकार ग्रहण करता है। शुक्ल जी के अनुसार जगत् ब्रह्म की अभिव्यक्ति है और काव्य जगत् की। कवि को द्रष्टा भी कहा जाता था। सांख्य के यहाँ जो भौतिकवादी सर्ववाद था उसका वेदांती ब्रह्मवाद से सामंजस्य कर शुक्ल जी ने अपनी भक्ति और काव्य की इहलौकिकता तय की। बहरहाल इसपर चर्चा हम आगे करेंगे। यहाँ अभी इतना ही कहना है कि शुक्ल जी की दार्शनिक पक्षधरता भाववादी थी। जिसे हम औपनिवेशिक-औपनिषदिक धारा के भीतर ही पाते हैं।
हीगेल ने पूर्वी दर्शनों के अमूर्त सामान्यीकरण के द्वारा जो निष्कर्ष निकाले हैं, वह इसलिए भी ध्यान देने लायक है कि यह सांख्य के वेदांती भाष्यों के विरोध की तरह ही है और उनमें सामंजस्य का प्रयत्न भी है। पियरे मेशैरे के अनुसार यह हीगेल के द्वंद्ववाद में निहित विकासवादी चरणों का भी एक प्रमाण है जहाँ वह सर्ववाद को ईसाई धर्म से निम्नतर अवस्था का सूचक मानता है। हीगेल लिखता है: “सच तो यह है कि ईश्वर आवश्यकता है, या कोई कह सकता है कि वह परम वस्तु है। लेकिन साथ ही साथ पुरुष भी है, व्यक्ति भी है, और इस बिंदु पर हमें अवश्य सहमत होना चाहिए कि स्पिनोज़ा वास्तविक ईश्वर की भावना में थोड़ा पीछे छूट जाता है, जो ईसाईयत में धार्मिक चेतना की अंतर्वस्तु को रूप देता है। स्पिनोज़ा यहूदी था, और यह सामान्यतः पूर्वी दृष्टिकोण है कि जिसके अनुसार सभी प्राप्त अव्याप्त सत्ता (finite being) क्षणिक और नश्वर है, सत्ता के रूप में स्फुरण मात्र हैं; उसका यहूदी होना उसके दर्शन में जिस रूप में अभिव्यक्त हुआ है वह इसी बौद्धिक व्यवस्था को पुष्ट करता है। यह निश्चय ही सही है कि तत्त्व की एकता आगे के सभी वास्तविक विकासों का आधार है, लेकिन केवल यहीं तक नहीं रूका जा सकता, आगे लगातार यह वैयक्तिकता संबंधी पूर्वी नियम की अनुपस्थिति में भी पहचाना जा सकता है (स्पिनोज़ा के यहाँ)।”[56]
पूर्वी दर्शनों का विकासवादी सामान्यीकरण करते हुए हीगेल ने परम तत्त्व की एकता को उसकी विशेषता बताया है जबकि अनित्य(वाद) को उसकी सीमा। वैयक्तिकता संबंधित नियम का पूर्ण विकास वहां इसी अनित्यता के कारण संभव नहीं होता जैसा कि ईसाई धर्म में हुआ। दूसरे शब्दों में ‘परम की एकता’ से विकसित होता हुआ विषयी की पूर्णता को प्राप्त नहीं करता, या कहें कि ‘कर्ता’ की धारणा का पूर्ण विकास नहीं हो पाता। ध्यान रखना चाहिए कि यही बात स्पिनोज़ा के सन्दर्भ में भी सही कही गयी है। हीगेल के सामान्यीकरण के अनुसार स्पिनोज़ा का दर्शन प्राचीन पूर्वी दर्शनों का सार है। ‘तत्त्व या परम की एकता’ के बिना आगे का विकास संभव नहीं था, पर वास्तविक अव्याप्त सत्ता में पूर्ण की वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं होती। स्पिनोज़ा के यहाँ ‘परम की एकांतिकता’ एक पूरी परम्परा की गति को अपने भीतर समाहित करता है, लेकिन यह अंतिम बार हुआ है। यह स्पिनोज़ा की ‘पूर्वी अन्तःप्रज्ञा’ है। ‘दर्शन के इतिहास पर व्याखानों’ में स्पिनोज़ा के दर्शन को पूर्वी अद्वैतवाद की प्रतिध्वनि कहा गया है। परम की एकता या व्याप्त और अव्याप्त का ईश्वर में पूर्ण तादात्म ईश्वर को किसी तीसरे के रूप में प्रकट होने तक विकसित नहीं हुआ है। वास्तव में हीगेल द्वंद्वात्मकता का ऐसा अमूर्तन करता है जिसमें सांख्य और वेदान्त, या सांख्य और बौद्ध या बौद्ध और वेदांत के अपने विशिष्ट भौतिक आधारों से काट दिया जाता है। यह हीगेल का अपना ही ‘परम’ था जिसका द्वंद्वात्मक विकास ‘दर्शन का इतिहास’ था। ऐसे में स्पिनोज़ा का दर्शन इस द्वंद्वात्मक विकास की सारी ज्योति के साथ अंतिम और पहली बार अपने पूर्ण वैभव के साथ प्रकट होती है और बुझ जाती है केवल दुबारा हीगेल के ‘परम’ के परम विकास में आने के लिए। पियरे मैशेरे ने दिखाया है कि स्पिनोज़ा के दर्शन में कुछ ऐसा था जो हीगेल को अपनी व्यवस्था के विरोध में दिखता था। ऐसे में कई बार हीगेल ने स्पिनोज़ा के दर्शन की गलत व्याख्या भी की। संभवतः यह वैसी ही स्थिति थी जैसी वेदान्तियों की सांख्य के साथ थी। ऐसे में वेदान्तियों के पास सत्य का प्रमाण श्रुति और शास्त्र थे, हीगेल के पास ‘ऐतिहासिक विकासवाद’ जिसमें हर परवर्तीकाल पिछले काल के परिरक्षण और परिष्कार के साथ अनिवार्यतः उन्नत अवस्था का सूचक था। यह विकासवाद ‘परम’ के दर्शन का परम विकास हीगेल के ‘परम’ में होना दिखाता है। दूसरी ओर शुक्ल जी का विकासवाद परम की सच्ची तत्त्व दृष्टि वेदांत में ही पूर्ण विकसित पाता है। अकारण नहीं कि यहूदी जाति शुक्ल जी के लिए भी ‘सभ्य आर्य जातियों’ से पिछड़ी थी और उनमें सच्ची तत्त्व दृष्टि का विकास नहीं हुआ था।
हीगेल का पूर्वी दर्शनों के बारे में सामान्यीकरण उन दर्शनों की विशिष्ट ऐतिहासिकता के नकार के बिना संभव नहीं था। हीगेल अपने ‘परम’ के द्वन्द्वात्मक विकास को इतिहास में खोजता है और ईसाई धर्म के उदय को इतिहास की परम शुरुआत मानता है। कह सकते हैं कि द्वंद्वात्मक चिंतन की अन्य धाराओं की घोषित वास्तविक परिणति के रूप में हीगेल का द्वंद्ववाद ‘इतिहास’ के रूप में अपना ही पूर्वनिर्धारित इतिहास खोज निकालता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘उद्देश्यपूर्ण द्वंद्वात्मकता’ का इतिहास खोज निकालता है। ‘उद्देश्यपूर्ण द्वंद्वात्मकता’ का यह इतिहास, इतिहास में प्रभुत्वशाली शक्ति संबंधों की विचारधारा के रूप में द्वंद्वात्मक दर्शनों का इतिहास है। या दूसरे शब्दों में कहें तो यह उसका उच्चतर संश्लेष और परिष्कार करती है। ऐसा करने के लिए उसे अपने अमूर्त सार्वभौम का निषेध करना पड़ता है। यह निषेध संभव होता है परम की हीगेलीय अवधारणा की पूर्वनिर्धारित संकल्पना के अनुसार। हम यह कह सकते हैं कि हीगेल ने ‘पूर्वी दर्शनों’ के सार के रूप में स्पिनोज़ा के दर्शन का जो सामान्य रूप तैयार किया है वह न केवल स्पिनोज़ा का वरन् इन तथाकथित पूर्वी दर्शनों के अपने और आपस के अंतर्विरोधों का सबसे भ्रमित रूप खड़ा करता है। मोटे अर्थों में यह हीगेल-पूर्व की अन्य ‘द्वंद्वात्मक’ विचारधाराओं का संश्लेष है महज उसके निषेध के लिए, और इस प्रकार उनकी आतंरिक भिन्नताओं और उनकी ख़ास ऐतिहासिकताओं को नज़रों से ओझल कर दिया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो इतिहास के प्रभुत्वशाली दर्शनों को दर्शनों का प्रभुत्वशाली इतिहास बना दिया गया। हीगेल लिखता है : “जैसा कि स्पीनोज़वाद में है कि अभिव्यक्ति का तरीका (mode) स्वयं में असत्य है और तत्त्व ही एक मात्र सत्य है, जैसा कि सबकुछ इसमें समाहित होना है, सारी अंतर्वस्तु का अंत में शून्य में डूब जाना है, एक शुद्ध फॉर्मल एकता में, बिना किसी अंतर्वस्तु के, उसी तरह शिव जो अभी महापूर्ण है ब्रह्मा से अभिन्न है, लेकिन ब्रह्मा स्वयं, यानि कि भिन्नता और निश्चय, अगले ही पल गायब हो जाता है, बिना परिरक्षण और परिष्कार के, और एकता कभी ठोस एकता नहीं बन पाती, ना ही वियोग संयोग बनता है। उदय और अस्त के घेरे में पड़े मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य है अचेतन में डूब जाना; यह वैसा ही जसे बौद्ध निर्वाण, निब्बं आदि।”[57] पियरे मैशेरे लिखता है कि ‘यह वैसा ही है’ असमान्य ऐतिहासिक समन्वय है। वास्तव में यह न केवल स्पिनोज़ा का प्राचीन दर्शनों से असमान्य समन्वय है, वरन् खुद इन प्राचीन दर्शनों के बीच असमान्य ऐतिहासिक समन्वय है।दर्शनों के इस हीगेलीय महासम्मिलन में दार्शनिक परम्पराओं का प्रश्न एक ऐसे भ्रांत चित्र में उलझा दिया गया कि ‘पूर्वी आत्मा’ और ‘भारतीय आत्मा’ की खोज जितना हीगेलीय चित्र से दूर जाने की कोशिश करती उतनी ही उसमें उलझती और भाववादी होती जाती थी।
‘उद्देश्यपूर्ण द्वंद्वात्मकता’ ‘परिष्कार’ और ‘परिरक्षण’ को एक नियतिवाद में बदल देती है। जो हुआ उसको पहले से ही भाग्य का प्रभाव मान उन भाग्य के कारणों को ढूंढना इतिहास हो जाता है। व्यक्त्तित्व के रूप में ईसा मसीह परम का पूर्ण रूप है और ईसाई धर्म उसका सत्य। यह उसका ऐतिहासिक चरित्र है कि वहीं से इतिहास की शुरुआत हुई। खुद स्पिनोज़ा की आलोचना करते हुए हीगेल ‘परम शुरुआत’ संबंधी स्पिनोज़ा के मतों पर तथाकथित पूर्वी दर्शन का ही प्रभाव मानता है। लेकिन पूरी हीगेलीय द्वंद्वात्मकता में शुरुआत या आरम्भ एक महत्वपूर्ण क्षण बन जाता है जिससे आरम्भ कर अंत तक की सारी प्रक्रिया क्रमशः चरणों में संपन्न होती है। असभ्य और अँधेरे में पड़ी जातियों में इतिहास की शुरुआत तब हुई जब ईसाई धर्म का उदय हुआ। यह इतिहास का उदय और अंत दोनों है लेकिन काल में निरंतर आगे की ओर गतिशील। इसलिए इन असभ्य जातियों की नियति है कि वहां इतिहास का उदय नहीं हुआ। यहूदी धर्म भी पूर्वी धर्म और दर्शनों के समान उसी इतिहासविहीन चेतना में था। यही कारण था कि हीगेल को स्पिनोज़ा का ‘परम’ जड़ और कर्ताविहीन प्रमाणित करना था। स्पिनोज़ा के यहाँ जो शुद्ध इहलौकिकता थी उसके भौतिकवादी आधारों को स्वीकार करना हीगेल के लिए मुश्किल था। स्पिनोज़ा के यहाँ ‘ईश्वर’ या ‘परम’ ‘सभी वस्तुओं का इहलौकिक कारण है, सकर्मक नहीं’। इसलिए हीगेल के यहाँ परम या प्रकृति की स्वाभाविक कारणता को जड़ और अचेतन कहा गया है। यह हीगेल के लिए विकृति थी। यह स्पिनोज़ा में अनवस्था दोष के तीन क्षणों में व्यक्त हुआ बताया गया। पहले लक्षणों/atrributes के रूप में फिर अभिव्यक्ति के तरीकों (modes) के रूप में। हीगेल का मानना था कि मनुष्य जो क्रियाएं करता है उसमें ‘परम’ क्रिया के उत्पाद के रूप में खुद से अलग हो जाता है और सार्वभौम विचार बन कर फिर परम में लौट आता है। पर मनुष्य की क्रियाएं विचार के बिना नहीं होती। परन्तु मनुष्य ये नहीं जानता कि ये विचार परम की ही व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है, जो उत्पाद के रूप में समग्रतः सभ्यता और संस्कृतियों का निर्माण करता है। इसलिए कर्ताविहीन दर्शनों में परम का विवर्त होना बताया गया है। जगत् तत्त्वदृष्टि से मिथ्या हो जाता है।
 स्पिनोज़ा के स्वकर्मक दर्शन में जो कुछ था सब ईश्वर/प्रकृति में था। मूल और प्रधान प्रकृति अव्याप्त या अनंत है और अनंत लक्षणों में खुद को कई तरीके से अभिव्यक्त करती है। हर वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न है और इनकी भिन्नता इनके सार की भिन्नता है। लक्षण सारनिरूपक हैं। सामान्यतः बुद्धि उसे दो करके सोचती है, विचार(thought) और विस्तार। मनुष्य का शरीर और बाहरी प्रकृति विस्तार है। वास्तविक मनुष्य की स्थिति इन दोनों में है। दूसरे शब्दों में मनुष्य यानी चिंतनशील देह प्रकृति की अभिव्यक्ति का वह तरीका है जिसमें सारतः दोनों लक्षण मौजूद हैं। कहने का मतलब हर एकान्तिक वस्तु की दूसरी एकान्तिक वस्तु से भिन्नता का लक्षणों की भिन्नता और सार की एकांतिकता में कोई अंतर्विरोध नहीं है। कई एकान्तिक वस्तुओं के संघट से जो एक विलक्षण प्रभाव पैदा होता है वह भी एक एकान्तिक वस्तु ही होती है क्योंकि सबकुछ ईश्वर की एकांतिकता में है। हर संघट दूसरे संघट का कारण है और दूसरा तीसरे का तीसरा चौथे का। इस प्रकार यह अनंत श्रृंखला मिल कर एक परम प्रकृति है और वह स्वयंभू है। वह परम अनंत है। कोई भी वस्तु अनंत लक्षणों से युक्त है जिसमें हर लक्षण शाश्वत और अनंत सार को अभिव्यक्त करता है। इसलिए यहाँ होना और ईश्वर में होना दोनों एक ही है। प्रस्तुति और पुनर्प्रस्तुति एक ही है। मानवीय क्रियाशीलता से अलग मानवीय चिंतन की कोई धारणा स्पिनोज़ा के यहाँ नहीं है। सोचना महज प्रकृति की सर्वव्याप्ति का लक्षण है जो सोचने वाले मष्तिष्क के रूप में अभिव्यक्त होती है। स्पिनोज़ा कहता है कि ‘दिमाग शरीर का विचार (आईडिया) है’। विचार किसी वस्तु का होता है। पर विचार और विचार की वस्तु के बीच कोई कार्य-कारण संबंध नहीं है। इस प्रकार स्पिनोज़ा ने अपने समय के यांत्रिक भौतिकवादियों की तरह दिमाग की संरचना में, उसकी यांत्रिक क्रियाओं में विचार को नहीं ढूँढा। और प्रकारांतर से शोध की इस दिशा की निर्थकता भी सिद्ध की। दूसरी ओर मानवीय क्रियाशीलता से अलग सकर्मक आत्मा के विचार की संभावना भी खत्म कर दी। लेकिन सवाल यह था कि यदि ‘दिमाग शरीर का विचार है’ तो ‘फिर दिमाग का विचार’ या ‘विचार का विचार’ क्या है?
 लक्षणों की परिभाषा देते हुए स्पिनोज़ा ने लिखा: “लक्षणों से मेरा तात्पर्य वस्तु के बारे में वह भावना है जो बुद्धि (intellectus) उसके सारनिरूपण में करती है।”[58] इस प्रकार किसी लक्षण या कई सारे लक्षणों से परम अनंत का साक्षात्कार बुद्धि करती है। जो भी है उसमें बुद्धि भी है। यह बुद्धि ईश्वर के नाम के तहत एकान्तिक स्थानीकरण है जिसके दृष्टिकोण या कार्यों के आधार पर चिंतन की अनंत दिव्यता तक विवेकपूर्ण पहुँच होती है। दूसरे शब्दों में जो भी कुछ है उसका विवेक इसी बुद्धि के कार्यों के आधार पर होता है। यद्यपि यह कहना अनुचित होगा लेकिन समझने के लिहाज से कह सकते हैं कि ‘बुद्धि’ और कुछ नहीं सांख्य का ‘पुरुष’ है। वह साक्षी भाव से वस्तुओं के सार की भावना करता है। उसकी क्रियाओं के आधार पर ही विवेक पूर्ण अनंत दिव्यता तक हमारी पहुँच संभव होती है। यह पुरुष प्रकृति का ही परिणाम है जो सबकुछ को प्रकृति या ईश्वर का नाम भी देता है। स्पिनोज़ा के दर्शन में इस बुद्धि की धारणा को लेकर एक विसंगत स्थिति है।[59] बुद्धि है जैसे अन्य वस्तुएं हैं। पर बुद्धि के दृष्टिकोण या कार्य पर जो है उसकी अनन्तता तक विवेकपूर्ण पहुँच होती है। ऐसे में बुद्धि का विवेक कैसे होगा? स्पिनोज़ा ने ईश्वर के लक्षण के रूप में विचार (thought) को बुद्धि से अलग करते हुए ‘परम विचार’ कहा है। बुद्धि सोचने के कई सारे तरीकों में से एक है। यह इच्छा, प्रेम और इसी तरह के दूसरे तरीकों से अलग है। इस प्रकार बुद्धि स्वयं विचार की अभिव्यक्ति का एक तरीका है। लक्षण के रूप में विचार सत्ता का सारनिरूपण है और बुद्धि वह है जिससे सारे निरूपण पैदा होते हैं। इस प्रकार यह बुद्धि अनंत है क्योंकि यह तत्त्व के अनंत लक्षणों की पहचान का आधार है। ऐसे में यह विचार-लक्षण की अभिव्यक्ति का तात्कालिक अनंत तरीका है। परन्तु बुद्धि के अलावा कोई और अनंत तरीका हो ऐसा उदाहरण न तो पूर्वनिर्धारित निगमन से प्राप्त हो सकता है न ही हमारे अनुभवों में शामिल है। जब किसी ने स्पिनोज़ा से उन चीजों का उदाहरण पूछा जिसे ईश्वर तत्काल पैदा करता है तो स्पिनोज़ा ने जबाव दिया था कि ‘विचार में’ इसका उदाहरण है ‘परम अनंत बुद्धि’ और ‘विस्तार में’ उदाहरण है ‘पदार्थ और गति’।[60]इसी प्रकार स्पिनोज़ा मानता था कि प्रकृति में भी सोचने की अपार क्षमता है। असीम बुद्धि में जो कुछ भी आ सकता है सब अस्तित्व में है।[61] इस अर्थ में ईश्वर के लक्षणों और उन लक्षणों की अभिव्यक्ति के तरीकों को हम असीम बुद्धि के विचार की वस्तुएं कह सकते हैं। स्पिनोज़ा के अनुसार शरीर दिमाग के सोचने का निर्धारण नहीं कर सकता और न दिमाग शरीर को गति या स्थिरता प्रदान कर सकता है। इस प्रकार दोनों में कोई कार्य-कारण संबंध  नहीं हो सकता। परन्तु बुद्धि के विचार की वस्तु चिंतन (thought) के अलावा दूसरे लक्षणों की अभिव्यक्ति के तरीके भी हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें कि आँखों के सामने घटने वाली छोटी से छोटी घटना या इस तरह की अनेक घटनाएँ अगर बुद्धि का कारण हैं, तो इसका मतलब कुछ भी नहीं निकलता। क्योंकि ऐसा होता तो पत्थरों में भी बुद्धि होती। हम कह सकते हैं कि बुद्धि का विचार हमेशा किसी वस्तु के साथ लगा होता है जो उसका कारण नहीं होती और इस प्रकार चिंतन का कोई तरीका हमेशा दूसरे तरीके के साथ लगा होता है जो या तो विस्तार में हो, विचार में हो या इनसे सर्वथा भिन्न किसी और लक्षण की अभिव्यक्ति का तरीका हो।[62]स्पिनोज़ा के अनुसार ‘एक सही विचार का अपनी वस्तु से सहमति आवश्यक है’। इस प्रकार इस साथ लगे जोड़े के बीच एक आवश्यक सहमति का संबंध  है। यह सहमति सत्य होने को लेकर है। यह सहमति कारणता का संबंध  नहीं है इसलिए आतंरिक भी नहीं है। यह बाह्य संबंध  है।
            स्पिनोज़ा के दर्शन के इस पक्ष को हेकेल आदि यांत्रिक भौतिकवादियों ने पूरी तरह उपेक्षित किया था और इसलिए सर्ववाद की एक सर्वग्रासी अवधारणा उनके पास थी। अकारण नहीं कि इसी दृष्टि से शुक्ल जी ने इसे ‘प्रकृतिवाद’ कहा था। स्पिनोज़ा के यहाँ ईश्वर के प्रति एक ‘बौद्धिक प्रेम’ में विषयता की सीमा थी। लेकिन हमने ऊपर देखा कि ‘बुद्धि’ के रूप में अनन्तता की सक्रियता और विशिष्ट-सार्वभौमिकता दोनों हीगेल के लिए महत्वपूर्ण चुनौती बने रहे। ‘सर्वात्मवाद’ के ठोस निषेध के रूप में स्पिनोज़ा का ‘सर्ववाद’ बहुत कुछ कबीर आदि संतों की विश्वदृष्टि में हमें दिखाई पड़ता है। अकारण नहीं कि शुक्ल जी के ‘भक्ति’ और ‘भक्त’ की धारणाओं के लिए कबीर भी एक ऐसी आतंरिक चुनौती थे जिसकी काली छाया से वह आजीवन ग्रसित रहे। आत्मवादी इहलौकीकरण और भौतिकवादी इहलौकीकरण का यह द्वन्द खुद मार्क्सवादी बहसों में बार बार दुहराया जाने वाला अपोरिया भी है। मशैरे की किताब ‘हीगेल ऑर स्पिनोज़ा’ इसी अपोरिया की तरफ भी इशारा करता है। कहना न होगा कि शुक्ल जी की दार्शनिक व्यवस्था एक बहुत बड़े फलक पर सिद्धांत निर्माण की कोशिश थी और वहां उनकी सीमाएं भी कम शिक्षाप्रद नहीं हैं।




[1]देखें, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ग्रंथावली, खंड-४. सं. ओमप्रकाश सिंह. प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली-२००७.खंड 4. पृष्ठ- २६१.
[2]वही.
[3]यस्स मग्गं नजानासि आगतस्स गतस्स वा
 उभो अन्ते विसम्पस्सी निरत्थं परिदेवसि  |
[4]शुक्ल जी वेदों को उद्धृत करते हैं. वही, पृष्ठ २६२.
[5]वही, पृष्ठ- २६१
[6]वही , पृष्ठ २६४.
[7]ग्रंथावली, खंड ४, पृष्ठ- २७०.
[8]वही, पृष्ठ- २८०.
[9]वही, पृष्ठ- २८०.
[10]एलन वुड्स, टेड ग्रांट ,रीज़न इन रीवोल्ट, पृष्ठ-55. आकार बुक्स, डेल्ही- २००७.
[11]विश्वप्रपंच पृष्ठ- ७९.
[12] वही. पृष्ठ- २९८.
[13] वही. ३०३.
[14] वही. ३०४.
[15] वही.
[16] वही.
[17] वही, ३१२.
[18] वही .
[19] वही
[20]वही, पृष्ठ- ३०९.
[21] वही, पृष्ठ-३०९-१०.
[22]देखें बेंजामिन , थीसिस ऑन द फिलोसोफी ऑफ़ हिस्ट्री. सिलेक्टेड राइटिंगस, वोल. ४ ; (सं) होवार्डइलेंड और माइकल डब्ल्यू. जेनिंग्स; हॉवर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस- २००६.
[24](https://www.marxists.org/archive/pannekoe/1938/lenin/ch06.htmपेनाकोक द्वारा उद्धृत)
[25] MECW, खंड ५. पृष्ठ-३
[26] वही
[28] देखें ‘प्रकृति की द्वंद्वात्मकता’; एंगेल्स , पृष्ठ- २०८. एंगेल्स द्वारा उद्धृत, ज़ोर भी एंगेल्स का ही है.
[29]वही.
[30]अंतिम कारण और प्रभावी कारण को लेकर विज्ञान में चलने वाली बहसों के सन्दर्भ में .सन १६०५ में ही बेकन ने विज्ञान के क्षेत्र में केवल ‘प्रभावी’ और ‘भौतिक कारण’ का महत्त्व स्वीकार किया था और ‘अंतिम कारण’ की व्याख्या दर्शन के लिए छोड़ दिया. परन्तु जीवविज्ञान के भीतर विकासवाद के समर्थकों ने अंतिम कारण और टेलीयोलोजी को वापस विज्ञान के केंद्र में लाया. हेकेल डार्विन पंथी था और ‘अंतिम कारण’ संबंधी बहस में शामिल भी था.
[31]वही.
[32]वही, पृष्ठ- २०८,३३४. ‘विश्वप्रपंच’ में हेकेल ने लिखा- “आपसे आप होनेवाले भौतिक विधानों के द्वारा ही हम प्राकृतिक व्यापारों के यथार्थ कारणों अर्थात् समवायिकारणों का निरूपण कर सकते हैं और यह बतला सकते हैं कि सब व्यापार द्रव्य की अचेतन और अंध प्रवृत्तियों द्वारा होते हैं. कांट ने भी एक जगह साफ़ कहा है कि ‘भूतों की इस स्वतःप्रेरित विधान की व्याख्या के बिना कोई विज्ञान विज्ञान नहीं कहा जा सकता. मनुष्य बुद्धि में व्यापारों के भौतिक हेतु निरूपित करने की अपार सामर्थ्य है.’ पर पीछे जब कांट सजीव सृष्टि के जटिल व्यापारों की ओर आया तब उसने कह दिया भौतिक हेतु पर्याप्त नहीं है, इन व्यापारों की व्याख्या के लिए हमें निमित्त कारणों का सहारा लेना पड़ता है और यह मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि ये व्यापार किसी उद्देश्य रखनेवाली विधायिनी शक्ति की प्रेरणा से होते हैं. ... किसी पदार्थ के प्राकृतिक उद्देश्य को समझने के लिए स्वयंभू भौतिक विधान को उद्दिष्ट विधान के अधीन मानना पड़ता है, कांट ने अंत में यही प्रतिपादित किया.” (पृष्ठ- १९९-२००)
[33]वही, २०३.
[34]विश्वप्रपंच, ग्रंथावली-६, पृष्ठ- २०४.
[35]वही. २०५.
[36]‘प्रकृति की द्वंद्वात्मकता’, एंगेल्स. पृष्ठ- ३०७- ०८.
“ वर्ग संघर्षों के क्रम में इतिहास की अवधारणा अपनी अंतर्वस्तु में ज़्यादा समृद्ध और गहरी है बनिस्पत इसके कि इसे अस्तित्व के संघर्ष के साप्ताहिक चरणों में सिकोड़ दिया जाये.”
[37]देखें, ‘कल्चर एंड मटेरियलिस्म’ रेमंड विलियम्स, पृष्ठ- ८८.
[38]देखें, अल्थ्युसर. फिलोसोफी एंड स्पोंटेंनियस फिलोसोफी ऑफ़ साइंटिस्ट. वर्सो, लन्दन- १९९९.
[39]विश्वप्रपंच, भूमिका. पृष्ठ- 64
[40]विश्वप्रपंच, 235
[41]एंगेल्स, प्रकृति की द्वंद्वात्मकता. पृष्ठ- २२६-२७.
[42]वही, नोट्स. पृष्ठ- ३३६.
[43]एंगेल्स हीगेल के सिलोजिस्म संबंधी आलोचनाओं का उल्लेख करते हैं. ‘तर्क का विज्ञान’ में हीगेल व्याप्तिग्रह को ‘अनुभव का न्यायवाक्य या सिलोजिस्म’ कहता है. इस प्रकार यह केवल प्रत्यक्षबोध या पर्सेप्सन या संयोगिक अस्तित्व का सिलोज़िस्म नहीं है. फिर भी
induction is still essentially a subjective syllogism. The middle terms are the individuals in their immediacy; the subjective taking together of them into the genus by means of allness is an external reflection. On account of the persistent immediacy of the individuals and their consequent externality, the universality is only completeness, or rather remains a problem. In induction, therefore, the progress intothe spurious infinite once more makes itsappearance; individuality is supposed to be posited as identical with universality, but since the individuals are no less posited as immediate, that unity remains only a perennial ought-to-be; it is a unity of likeness; those which are supposed to be identical are, at the same time, supposed not to be so. It is only when the a, b, c, d, e are carried on to infinity that they constitute the genus and give the completed experience. The conclusion of induction thus remains problematical.
(https://www.marxists.org/reference/archive/hegel/works/hl/hl687.htm#HL3_689)इस प्रकार U-I-P के रूप का सिलोज़िस्म पूरी तरह से तात्कालिकता से मुक्त नहीं होता. सविशेषता पर निर्विशेषता के साथ तादात्म्य का होना माना जाता है पर अपनी तात्कालिकता के चलते यह एकता हमेशा संशय बनाये रखती है. 
[44]देखें, इलियानोकोव, डायलेक्टिकल लॉजिक: एसेज ऑन इट्स हिस्ट्री एंड थ्योरी. (अन.) एच.कैंपवेल क्रेईघटन. पृष्ठ- २८. आकार बुक्स. डेल्ही- २००८.
[45]बेंजामिन, ‘ऑन पेर्सप्सन’. सिलेक्टेड राइटिंग्स, खंड- १. पृष्ठ- ९३.
[46]कांट के यहाँ ‘प्रज्ञा’ या ‘intution’ का सामान्य से थोड़ा भिन्न अर्थ है. यहाँ प्रज्ञा ‘देखने’ में अन्तःनिहित है. देश-काल प्रज्ञा के रूप हैं. देखें, रस्सेल,‘पश्चिमी दर्शन का इतिहास’.   
[47]बेंजामिन, वही. पृष्ठ- ९४.
[48]विश्वप्रपंच, भूमिका. पृष्ठ- ७३-७४.
[49]वही, ७५.

[50]वही, ७६.
[51]वही, ८२.
[52]देखें, लोकायत, देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय. राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली- २०१४.
[53]लोकायत, पृष्ठ- ३५१-५२.
[54]वही. पृष्ठ- ३५२.
[55]वही. पृष्ठ- ३२०.
[56] पियरे मैशेरे, हीगेल या स्पिनोज़ा. (अनु.) सुसान एम. रूडिक. पृष्ठ-१८ पर उद्धृत. यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनिसोटा, २०११.
[57]वही.
[58]देखें, अलन बाद्यु, ‘स्पिनोज़ा की बंद सत्तामीमांसा’  (थ्योरेटिकल राइटिंग्स) में उद्धृत पृष्ठ- 89. ब्लूम्सबेरी २०१२.
[59]वही. बुद्धि और विचार संबंधी स्पिनोज़ा के जो मत ऊपर हैं वे बाद्यु के हवाले से हैं. वह लिखता है:
It is thus necessary to recognize that the intellect occupies the position of a fold- to take up the central concept in Deleuze’s philosophy. Or, using my own terminology, that the intellect is an operator of torsion. It is localizable as an immanent production of God, but is also required to uphold the naming of the ‘there’ is as God. For only the singular operation of the intellect give meaning to God’s existential singularization as infinite substance.” पृष्ठ- ९०.
[60]वही. ९०.
[61] PROP. XVI. From the necessity of the divine nature must follow an infinite number of things in infinite ways-that is, all things which can fall within the sphere of infinite intellect.
 Proof.—This proposition will be clear to everyone, who remembers that from the given definition of any thing the intellect infers several properties, which really necessarily follow there from (that is, from the actual essence of the thing defined); and it infers more properties in proportion as the definition of the thing expresses more reality, that is, in proportion as the essence of the thing defined involves more reality. Now, as the divine nature has absolutely infinite attributes (by Def. vi.), of which each expresses infinite essence after its kind, it follows that from the necessity of its nature an infinite number of things (that is, everything which can fall within the sphere of an infinite intellect) must necessarily follow. Q.E.D.Corollary I.—Hence it follows, that God is the efficient cause of all that can fall within the sphere of an infinite intellect.

[62]बाद्यु इस साथ होने को जोड़े में होना कहता है.
A particular kind of relation is required to straddle the disjunction between attributes in this way, one which cannot be causality. I will call this relation coupling.” और भी “[This shows that], generally speaking, there is a union between the idea and its object, including instances of union that straddle the disjunction between attributes. It is this union, the radical singularity proper to the operations of the intellect, which I call coupling.”  वही, पृष्ठ- ९३.


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