साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार



साहित्य का इतिहास अंततोगत्वा इतिहास ही होगा,साहित्य नहीं|

-हजारीप्रसाद द्विवेदी[1]

इतिहास एक आख्यानात्मक विमर्श है जिसकी अंतर्वस्तु जितनी वस्तुतः प्राप्त है उतनी ही काल्पनिक या आविष्कृत|

-हेडेन व्हाइट[2]

पिछली सदी के आखिरी दशक में  इतिहास मात्र पर अनेक प्रश्न उठाये गए थे| दुनिया के एक कोने से इतिहास के अंत की जो घोषनाएं हुईं , उसकी प्रतिध्वनियाँ जल्द ही हर जगह  सुनाई  देने लगी| कारण था सोवियत रूस में समाजवादी व्यवस्था का का पतन| समाजवाद के अंत की घोषणाओं के साथ इतिहास के अंत की भी  घोषणा हो जाये यह लाजिम भी था| इतिहास पर यह हमला पहली बार नहीं हुआ था| इतिहास के अंत की घोषणाएँ मार्क्स से पहले भी हुई थी, मार्क्स  के समय में भी हुई और उसके बाद भी कई बार हुई| इतिहास की प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने हर संक्रमण और संकट के मौकों पर इतिहास के पराजय और हार की घोषणाएं की हैं| सन्दर्भ के रूप में मार्क्स का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि इतिहास और मार्क्सवाद के संबंधों पर ही ज्यादा विचार किया गया था| इतिहास की पराजय का जश्न दरअसल एक विचारधारा और प्रैक्सिस के रूप में मार्क्सवाद  की पराजय का जश्न था| जश्न मनाने वालों ने सोवियत समाजवाद के अंतर्विरोधों को मार्क्सवाद की असफलता के रूप में प्रचारित किया और ‘अनिर्दिष्ट भविष्य’ में साम्राजवादी हितों का रास्ता साफ़ किया| क्या ही संयोग था कि एक ओर लेनिन कि मूर्ति गिरायी जा रही थी तो दूसरी ओर कुछ ही समय बाद  अयोध्या में चार सौ साल पुरानी बाबरी मस्जिद ढाही जा रही थी| यह इतिहास पर हमला था | हमले के कई रूप थे लेकिन शायद अंतर्वस्तु एक ही थी| यह अंतर्वस्तु नवउपनिवेशवाद और वित्तीय आवारा पूंजी के तर्क की थी| आज करीब बीस वर्षों बाद फिर से दुनिया भर में साम्राज्यवाद विरोधी मुहिम तेज है| फिर से एक बार इतिहास पर बहसों का नया दौर चल रहा है| नए सिरे छोटे छोटे संघर्ष अपनी एकता के लिए प्रतिबद्ध हो रहे हैं| इतिहास फिर से पूंजीवाद के आंतरिक अंतर्विरोधों को बेनकाब कर रहा है| ऐसे में क्या साहित्य के इतिहास पर भी पुनर्विचार ज़रूरी नहीं!

साहित्य इतिहास लेखन की दो मुख्य समस्याओं की ओर  ध्यान दिलाते हुए डेविड पर्किन्स ने लिखा है कि पहली समस्या तो फॉर्म की ही है| क्या कोई ऐसा फॉर्म संभव है कि  जिसमे इस विषय के असमाधेय अंतर्विरोधों का प्रबंधन हो सके ,उसकी एक मुकम्‍मिल संरचना तैयार की जा सके और उसे बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया जा सके? और दूसरी बात ,क्यों साहित्य के विकास की व्याख्याएं असफल होने को अभिशप्त हैं?[3]दोनों समस्याएं एक लिहाज से इस समस्या से जुड़ी हैं कि किसी भी नैरेटिव फॉर्म में क्या साहित्य के क्रमिक विकास की व्याख्या की जा सकती है? इस प्रश्न के भी मूल में दो भिन्न लेकिन परस्पर सम्बंधित अवाधारणाएं बहस की मुब्तिला हैं| पहली कि इतिहास और नैरेटिव का रिश्ता क्या है, और क्या साहित्य या किसी भी कला के इतिहास में क्रमिक विकास कि अवधारणा ही काम करती है? इन दोनों प्रश्नों की पड़ताल के पहले हमें इतिहास बोध के निर्माण और उसके इतिहास पर थोड़ी चर्चा ज़रूरी लगती है| यह चर्चा इसलिए भी ज़रूरी है कि जिसे अंग्रेजी में ‘हिस्टोरिओग्राफी’ कहते हैं या जिसे आगे इस अध्याय में ‘इतिहासकारी’ कहा जाएगा,उसका स्वरुप भी हमेशा बदलता रहा है| इतिहासकारी खुद एक विचारधारात्मक कर्म है| विचारधारात्मक होने के नाते इसके निहित उद्देश्य भी कहीं न कहीं राजनीतिक महत्व रखते हैं| अगर राजनीतिक शब्द से ऐतराज़ हो तो भी इसे ठेठ मार्क्सवादी अर्थ में किसी मिथ्या चेतना की अभिव्यक्ति ही मानें| हिंदुस्तान में इतिहासकारी की शुरुआत औपनिवेशिक दौर में हुई  थी इसलिए भी इसकी आतंरिक निर्मितियां अंतर्विरोधों से भरी थीं| यह इतिहास से बेदखल लोगों की अस्मिता के निर्माण के प्रयास से जुड़ी है| इन प्रयासों कि सबसे बड़ी दुविधा तो यह थी कि जो यह पाना चाहते थे और जिसके सहारे पाना चाहते थे दोनों ही एक तरह से प्राच्यवादी निर्मितियाँ थीं| साहित्य-इतिहास लेखन की शुरुआत भी इस समस्या से मुक्त नहीं हो सकती थी भले ही शुक्ल जी के रूप में उसे एक ज़बरदस्त इतिहासकार मिला था| हाँ औपनिवेशिक ज्ञान-मीमांसा का राष्ट्रवादी उत्तर यहाँ ज्यादा प्रखर था क्योंकि साहित्य के इतिहास की कुछ अपनी विशिष्टताएं इसे समाजविज्ञान के दूसरे प्रारूपों से कुछ बेहतर सहूलियतें मुहैय्या कराती हैं| यह अकारण नहीं है कि उत्तरौपनिवेशिक आलोचना और इतिहासकारी साहित्यिक भाष्यों के सहारे अतीत की पुनर्निर्मितियों को महत्व दे रहा है| बहरहाल इस विषय में विस्तृत चर्चा इसी अध्याय में और एक तरह से आगे के अध्यायों में भी वक्त-बे-वक्त होती ही रहेगी|

एक विधा रूप में साहित्य- इतिहास को उन्नीसवीं सदी के पहले पचहत्तर वर्षों में खासी लोकप्रियता मिली थी और उस पर कोई भी सवाल नहीं उठाया गया था| ये इतिहास तीन तरह की मान्यताओं पर लिखे गए थे-साहित्यिक कृतियाँ अपने ऐतिहासिक संदर्भों  में ही बनी थी; साहित्य में परिवर्तन क्रमिक विकास (developmentally)के रूप में होता है; और यह परिवर्तन किसी विचार,मूल्य या अधिवैयक्तिक इयत्ता (suprapersonal) का प्रकट होना है|[4] विकासात्मक इतिहास इस समझदारी के तहत काम करता था कि घटनाओं  में परिवर्तन पूर्वापर होता है. हर घटना का कारण और सन्दर्भ उसके पहले की घटना है| किसी रचना को जिस ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखा जाता था उसके बारे में यह मान के चला जाता था कि वह सन्दर्भ रचना के साथ-साथ मौजूद था या ठीक उसके पहले था| मनुष्य के जीवन का रूपक इतिहासों का लोकप्रिय पैटर्न बनाता था जहाँ मनुष्य के  जन्म ,यौवन और मृत्यु की तरह किसी अधिवैक्तिक इयत्ता ,जैसे कोई विधा मसलन कविता या किसी युग कि चेतना (स्पिरिट) मसलन रोमैन्टीसिज़्म या किसी जाति, क्षेत्र अथवा राष्ट्र की चेतना का भी साहित्य में उसी तरीके से प्रतिबिम्बन होना मान लिया जाता था| दिल्थे इन अधिवैक्तिक इयत्ताओं को ‘आदर्श इकाई’ या ‘तार्किक विषय’ कहता था| राष्ट्र ,धर्म या वर्ग उसके लिए ऐसे ही तार्किक विषय थे| साहित्य के इतिहास में इन विषयों कि पड़ताल ही उनका ध्येय था| ऐसा नहीं था कि  केवल साहित्य के इतिहासकार ही ऐसा कर रहे थे| आमतौर पर पूरे इतिहासलेखन का स्वरुप यही था| इतिहासकार किसी उपन्यास के पात्रों कि तरह इन आदर्श इकाइयों ‘को ट्रीट करते थे| इस नैरेटिव की संरचना को पाल रिकर ने ‘क ,ख करता है’ के आधारभूत वाक्य विन्यास के रूप में समझाने की कोशिश की है|[5] इस तरह का साहित्येतिहास भी अन्य इतिहासों की तरह प्रयोजनवादी (teleological) हो गया था| इन इतिहासों में साहित्यिक कृतियों का अध्यन ये पता लगाने में किया जाता था कि वे किसी जाति या राष्ट्र के विकास को कैसे व्यक्त करती हैं| कौन-कौन से मूल्य या नैतिक मान्यताएं किसी समय के साहित्य में व्यक्त हुई हैं| साहित्य का विकास कैसे लगातार एक उच्चतर नैतिक मान्यता या जाति की सापेक्षिक श्रेष्ठता को ही अभिव्यक्त कर रही है, इसी को लक्ष्य कर के इतिहास लिखे गए| कलाकृति का खुद भी कोई सौन्दर्यात्मक मूल्य हो सकता है इस ओर ज़्यादा ध्यान शुरू में नहीं दिया गया| लेकिन जल्द ही कला के शाश्वत मूल्यों की खोज भी इतिहास का प्रिय विषय हो गयी और उन्नीसवीं सदी के इन्हीं वर्षों में साहित्येतिहास की दो अतिओं के भी दर्शन हुए| आर्नल्ड हाउजर ने अपने ‘कला का इतिहास दर्शन’ में बताया है कि रोमांसवाद में उत्पन्न वैयक्तिकता के प्रति हमें एक आत्मविरोधी,द्विधाग्रस्त दृष्टिकोण मिलता है ,जिसकी सबसे अच्छी अभिव्यक्ति इतिहासवादी दर्शन में होतीहै|[6]एक तरफ पहले के किसी भी युग की बनिस्बत इस पीढ़ी का कलाकार अपने व्यक्तिगत उत्पाद के अचूक और सतुलनीय होने में दृढ़ विश्वास रखता था दूसरी ओर अपने आत्मनिर्णय के बारे में अत्यधिक शंकालु भी था| इतिहासवादी दर्शन सभी ऐतिहासिक घटनाओं के अद्वितीय और आवृत्त‌िहीन चरित्र कि बात करता है और साथ में यह भी दावा करता है कि वे सब किसी अतिमानवीय और कालातीत सिद्धांत के प्रत्यक्षीकरण हैं| इस दर्शन की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हीगेल में हुई थी| इतिहासवाद पर अलग से भी कुछ चर्चा आगे की जाएगी,फिलहाल आर्नल्ड हाउजर के ही शब्दों में ,
“इतिहासवाद वास्तव में एक प्रतिक्रियावादी दर्शन है , जो मुक्त व्यक्ति के स्वेच्छाचार को क्रांति के परिणामों के लिए ज़िम्मेदार ठहरता है, लेकिन ज्ञानोदय और क्रांति के युग की दूरगामी उपलब्धि के बतौर स्थापित व्यक्तिवाद को भी पकड़े रहता है| यह प्रत्येक ऐतिहासिक घटना को किसी अतिवैयक्तिक–आदर्श, दैवी या आदिम –स्रोत से संदर्भित करने की रहस्यवादी पद्धति अख्तियार करता है, परन्तु इसीके साथ वैयक्तिकरण के तत्त्व भी जोड़ देता है जो ऐतिहासिक संरचनाओं को न केवल अनूठा बल्कि अतुलनीय भी बना देता है और निष्कर्ष निकालता है कि प्रत्येक ऐतिहासिक उपलब्धि और समानत: प्रत्येक कला शैली को उसके अपने स्वीकृत मानदंडों पर ही नापा जाना चाहिए|” [7]

आगे वह इस दृष्टिकोण के दोनों छोरों के प्रतिनिधि के बतौर एलआईस रीगल , जो अपने ‘कलात्मक अभिप्राय’ के सिद्धांत के साथ कलात्मक उपलब्धियों को पूर्णतः अद्वितीय और अतुलनीय मानता है और हाइनरिह वोल्फ्लिन, जो अपने ‘बिना नाम के कला इतिहास’ के सिद्धांत के साथ इतिहास में एक कलाकार की एजेंसी का निषेध कर देता है, को उदहारण के बतौर लेते हैं| ध्यान देने कि बात है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अपने आरम्भ के साथ ही इन दो अतियों से मुक्त था|

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में मार्क्सवाद के रूप में हमें इतिहास का एक नया दृष्टिकोण मिला जो इतिहास की हीगेलियन अंतर्वस्तु में एक रेडिकल परिवर्तन लाता है| अब तक इतिहास में परिवर्तनों को भावना और बुद्धि की द्वंद्वात्मकता के सहारे ही समझने की कोशिशें की जा रही थीं| मार्क्स ने उन परिवर्तनों के वास्तविक आधारों को मानव समाज के भीतर के उत्पादन संबंधों में ढूंढ निकाला| द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने भाववाद और रूपवाद पर गहरा आघात किया| एक तरीके से मार्क्स ने दर्शन की जगह जर्मन परंपरा के ‘विशेनशाफ्त’ या जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘साइंस’ किया जाता है ,उसको प्रतिष्ठित करने की कोशिश की थी| सरल शब्दों में कहें तो मार्क्स ने इतिहास और विचारधारा को ठोस वस्तुगत यथार्थ के रूप में समझाने की कोशिश की|

 मार्क्सवादी परंपरा में साहित्य को विचारधारा के बतौर समझा गया है| कहने का मतलब यह है की इसे आधार और अधिरचना के विवाद में लोकेट करने की कोशिश हुई है| अधिरचना या साहित्य के सम्बन्ध में कोई ठोस चिंतन मार्क्स और एंगल्स के यहाँ नहीं किया गया है| ‘राजनैतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ की भूमिका में और ‘जर्मन आइडिओलॉजी’ में इस सम्बन्ध में कुछ विचार मिलते हैं तथा साहित्य सम्बन्धी चिंतन कुछ-एक पत्रों में बिखरे पड़े हैं| इन्ही के आधार पर मार्क्स और एंगल्स के सहित्य सम्बन्धी विचारों का एक खाका हमें मिलता है| मार्क्स के विचारों के निर्माण में साहित्य की भूमिका को कई मार्क्सवादी चिंतकों ने दिखाया है| हिंदी में नामवर सिंह ने दिखाया है कि मार्क्स के विचारों के उत्स एक ओर तो जर्मन दर्शन और ब्रिटिश शास्त्रीय अर्थशास्त्र और फ्रेंच समाजविज्ञान में है दूसरी ओर ग्रीक और लैटिन साहित्य में भी है| यह अकारण नहीं है कि युवा मार्क्स ने एसकुलस के नाटकों पर काम किया था| कहना न होगा की मार्क्सवाद में साहित्य को एक लिहाज़ से गैरज़रूरी कभी नहीं माना गया है| दर्शन, क़ानून और साहित्य और कला जैसे विचारधारात्मक अवयव किसी समाज में अधिरचना का निर्माण करते हैं| ये समाज के  उत्पादन संबंधों के द्वारा बने आधार को ही प्रतिबिंबित करते हैं| प्रतिबिंबित करते हैं से ये न समझना चाहिए की वह कोई प्रतिबिम्बवाद का समर्थन कर रहा है, जैसा की साहित्य समाज का दर्पण है, कहने से भान होता है| लेकिन यह भी सच है की इस प्रतिबिम्बवाद को लेकर भी मार्क्सवादी साहित्य चिंतन में बहुत खींच-तान हुई है और इसके केंद्र में कोई और नहीं खुद मार्क्स के सहयोगी एंगल्स ही हैं| परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि एंगल्स भी ऐतिहासिक विकास में व्यक्तित्व की रचनात्मक ऊर्जा और क्रिया को असाधारण ढंग से महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करता है| अधिरचना के सापेक्षिक स्वायत्तता को ही केवल मार्क्स ने स्वीकार नहीं किया था वरन रचनात्मक क्रियाओं को मनुष्य द्वारा खुद अपने निर्माण की या मानवीय श्रम के ज़रिये मनुष्य के रूप में निर्माण प्रक्रिया की अभिव्यक्ति माना था| हालांकि इस विकास का स्वरुप, उसकी क्षमता और उसका स्तर वस्तुगत, प्राकृतिक और सामाजिक स्थितियों से निर्धारित होते हैं| साहित्य के इतिहास में विचारधारात्मक कारकों के प्रवेश का मसला और भी स्पष्ट रूप में अपनी समस्या से हमें रूबरू करता है जब हम व्यापक कला इतिहास पर चर्चा करते हैं| क्या कारण है कि एक ही युग में भिन्न-भिन्न कलाएं शैलीगत रूप से भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में होती हैं? ऐसा भी देखा गया है कि कोई शैली या प्रवृत्ति कला के एक माध्यम में दूसरी कि अपेक्षा देर तक जारी रहती है या कोई कला बाक़ी अन्य कलाओं से पिछड़ी हुई मालूम पड़ती है| कहने का मतलब यह है कि केवल युगीन विचारधारा के प्रभाव रूप में साहित्य और कलाओं के इतिहास कि व्याख्या ग़लत है| सभ्यता कि एक अवस्था में सामाजिक परिस्थितियां कभी समान नहीं होती है| वो इस हद तक कभी समरूप नहीं होती कि किसी भी विचारधारात्मक एकरूपता को हम कलाओं और साहित्य कि व्याख्या का आधार बना लें| उदाहरण के लिए जिसे हिंदी साहित्य का रीतिकाल कहा जाता है और साहित्य के दृष्टिकोण से पतनशील सामंती –दरबारी संस्कृति की अभिव्यक्ति  के रूप में व्याख्यायित होता आया है; उस वक्त को हम हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण मानते हैं!

मार्क्सवादी कला और साहित्य चिंतन ने साहित्य और अन्य रचनात्मक कार्यों का मानवीय अस्तित्व से बुनियादी सम्बन्ध दिखा कर रचनात्मकता के चारों ओर पड़ी उस रहस्यात्मक धुंध को छिन्न-भिन्न कर दिया जो इस तरह के कार्यों को किसी दैवीय या अधिभौतिक सत्ता की अभिव्यक्ति मानते थे और उसकी व्याख्या को कभी असम्भाव्य और अनैतिहासिक बताया करते थे| यह प्लेटो से लेकर हीगेल तक कि पूरी परंपरा को भी एक जवाब था और दूसरी ओर अरस्तु के अनुकरण की भी सार्थक आलोचना थी| मार्क्सवादी साहित्य सिद्धांतों ने साहित्य और रचनात्मकता के कई अव्याख्येय प्रसंगों की सार्थक पहचान की  थी| इस पहचान में उन प्रश्नों का उत्तर ढूंढना भी शामिल था मसलन मार्क्स ने यह सवाल उठाया था कि हमें प्राचीन ग्रीक कलाएं आज भी पसंद क्यों आती हैं| ये प्राचीन कलाएं तो मानव समाज की एक अविकसित अवस्था के भीतर से पैदा हुई थी,फिर भी इतनी उन्नत क्यों लगती है? इस सवाल का जो जवाब मार्क्स ने दिया था यद्यपि वह पूरी तरह सही नहीं माना जा सकता है, फिर भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है| मार्क्स ने बाल्जाक के सन्दर्भ में और लेनिन ने तोलस्त्वाय के बारे में जो समझदारी हमारे सामने रखी थी उसकी प्रासंगिकता अभी भी निःसंदेह बहुत महत्वपूर्ण है| यही नहीं आगे भी मार्क्सवादी विचारकों ने साहित्य के सम्बन्ध में जो चिंतन किया उसने लगातार रचना के नितांत व्यक्तिवादी और रूपवाद आग्रही दृष्टियों को चुनौती दी| हालाँकि इस क्रम में कई बार मार्क्सवादी धारा के भीतर समकालीन रचनाशीलता को लेकर खासा विवाद भी चलता रहा| चाहे वह पश्चिम में लुकाच और ब्रेष्ट के बीच हो या फिर हिंदी में रामविलास शर्मा और नामवरसिंह के बीच हो| पहले सन्दर्भ के केंद्र में काफ्का थे दूसरे में मुक्तिबोध| ऐसी ही बहसों से मार्क्सवादी साहित्यालोचना निरंतर विकसित होती रही है|
समकालीन रचनाशीलता की समझदारी का सवाल एक तरीके से इतिहास की समझदारी को भी चुनौती देती आयी है| एक समय नामवर सिंह ने सही ही कहा था कि इतिहास कि समस्या मूलतः आलोचना की समस्या ही है| और आलोचना हमेशा अपने समकालीन रचनाओं के साथ संवाद में ही विकसित होती है| तो आलोचना और इतिहास दोनों ही के लिए चुनौती हमेशा रचनाओं की तरफ से आती है| लेकिन एक खास दौर के बाद उन रचनाओं के आस-पास आलोचना और इतिहास एक आवरण बना लेते हैं| तब रचनाओं तक हमारी पहुँच उनकी आलोचनाओं और इतिहास के भीतर से ही हो पाती है| इसीलिए रचना का पुनर्पाठ किसी शून्य में न होकर एक प्राप्त सन्दर्भ में ही हो सकता है| साहित्य का इतिहास इसलिए एक दुहरी चुनौती है| पहले तो रचना तक पहुँचने की चुनौती फिर उस रचना के पाठ की चुनौती| फिर उसके बाद एक नैरेटिव में उसकी मुकम्मिल जगह देने की चुनौती| मार्क्सवादी कला और साहित्य चिंतन ने साहित्य के इतिहास को साहित्य के समाजशास्त्र और साहित्य की सापेक्षिक स्वायत्ता के साथ-साथ देखने की बात लगातार की है.[8] लेकिन अगर इतिहास की उस समझदारी पर ही सवाल उठाया जाने लगे जिसे मार्क्स ने व्यक्त किया था, तो प्रश्न गंभीर हो जाता है| इसलिए एक विधि के रूप में मार्क्सवाद से प्राप्त अंतर्दृष्टि का उपयोग इतिहास के किस नैरेटिव में किया जाए यह एक बड़ी समस्या बन जाती है| कहने का मतलब यह है कि इतिहास को संक्रमण के रूप में लेने वाले मार्क्सवादी नैरेटिव पर जो प्रश्न खड़े किये गए हैं उन पर विस्तार से बातचीत किये बिना हम साहित्येतिहास की समस्याओं को सही जगह लोकेट नहीं कर पाएँगे| हिंदी साहित्येतिहास की जो नयी दृष्टि ५० के दशक में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के रूप में पहचानी गयी थी ,उसमे एक नयी समस्या समकालीन चिंतन ने खड़ी कर दी है| समस्या इतिहास के व्यापक विकास के क्रमों, अर्थात आदिम साम्यवाद से दास्ययुग फिर उससे सामंतवाद फिर उससे पूंजीवाद के संक्रमण के रूप में इतिहास की teleology, को सत्य मान के चलने को एक मिथ्याचेतना करार दिया गया है| खास कर गैरपश्चिमी समाजों के इतिहास के संदर्भ में| अगर साहित्य एक सचेत मानवीय प्रयास है तो इसके पीछे काम करने वाले, उस मानवीय श्रम को सीमित और प्रभावित करने वाले सामाजिक स्वरुप की यथेष्ट जानकारी के अभाव में साहित्य की हमारी समझदारी भी सीमित और कई बार गैरज़रूरी निष्कर्षों की तरफ ले जा सकती है| जिसे हम किसी समय का सामान्य इतिहास मानते हैं साहित्य केवल उससे नहीं बनता, साहित्य में साहित्यकार का व्यक्तिगत इतिहास भी शामिल होता है| इसलिए अतीत की व्याख्याओं के सामान्य इतिहास एक तो हमारी ज्यादा दूर तक मदद नहीं करते और दूसरी ओर अगर यह सामान्य इतिहास भी पश्चिमी प्रबोधन से निकला कोई आरोपित महाख्यान हो तो समस्या और भी गंभीर हो जाती है| इसलिए एक विधि या methodology के रूप में साहित्य की द्वंद्वात्मक भौतिकवादी व्याख्या को इसके ऐतिहासिक भौतिकवाद की सामान्य स्थापनाओं से थोड़ा अलग करके क्या देखा जा सकताहै? हिन्दी साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार का एक आयाम यह भी है| यह आयाम एक ओर तो हमें पश्चिमी समाजों या खास कर योरोपीय समाजों के ऐतिहासिक विकास की अवधारणाओं से मुक्त करता है दूसरी ओर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की मूल स्थापनाओं से हमें समृद्ध भी करता है| आगे मैं दीपेश चक्रवर्ती के हवाले से इस विषय पर और बात करूँगा जिसे वह ‘यूरोप का क्षेत्रीकरण’[9] कहते हैं| साथ ही साहित्य के इतिहासकारों और साहित्यकारों के इतिहास की समझदारी पर एक चर्चा रवीन्द्रनाथ के हवाले से करने की कोशिश होगी| इन चर्चाओं के माध्यम से हमें साहित्य के इतिहास की कुछ और जटिलता का अहसास होगा| हो सकता है हिंदी साहित्येतिहास लेखन का एक आयाम यहाँ से खुले|

कहना न होगा कि उन्नीसवीं शताब्दी का समय पश्चिम में  राष्ट्र राज्यों के उदय का समय था| जाति, धर्म, प्रजाति, भाषा और साथ-साथ साहित्य के नए मानक तय हो रहे थे| सामुहिक पहचान के भिन्न आधारों की खोज हो रही थी| ज्ञान की भिन्न-भिन्न धाराओं में प्रबोधन युगीन चेतना का विकास हो रहा था| एक ओर साहित्य और संस्कृति की विशिष्टता को एक राष्ट्रीय चरित्र देने की कोशिशें की जा रही थीं दूसरी ओर वैज्ञानिक तर्कों के सहारे मानव जाति की मुक्ति की कल्पना संस्कृतियों के विज्ञानवाद को विकसित कर रही थी| यह ‘विज्ञानवाद’ सत्य को जानने का दावा करता था| और संस्कृतियों के इतिहास को भी जैविक विकास की डार्विनवादी परिकल्पना के अनुसार ढालने कि कोशिश कर रहा था| सामाजिक और वैचारिक परिवर्तनों की इस उथल पुथल के साथ ही इस पश्चिम ने दुनिया भर में अपने उपनिवेश भी बनाने शुरू किये| इन औपनिवेशिक शक्तियों के साथ एक भिन्न किस्म की विचारप्रणाली हमारे यहाँ भी आयी| उपनिवेशों के भीतर बनने वाला सामूहिक बोध उपनिवेशवाद की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप पैदा हुआ था| इस सामूहिक बोध की निर्मिति के लिए एक इतिहास बोध की भी ज़रूरत थी| उपनिवेशों के भीतर बनने वाला यह इतिहास बोध एक द्विधा का शिकार था| औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा ने भारतीय समाज की परंपरागत चेतना में एक विच्छेद पैदा किया था| वैसे यह परंपरागत विच्छेद जिसे पुरुषोत्तम अग्रवाल[10] पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की अनिवार्यता बताते हैं, कोई विरोध-रहित घटना नहीं थी| लेकिन इतिहास बोध के जिस द्वैध की चर्चा ऊपर की गयी है उसमे परम्पराबोध के विचलनों को फिलहाल न भी शामिल करें तो भी यह तय है कि इस द्वैध ने हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के आभिजात्य नेतृत्व को लगातार परिचालित किया| आभिजात्य नेतृत्व के भीतर पैदा इस द्वैध की निर्मिति भी औपनिवेशिक खांचे के भीतर ही हुई थी| इसी आभिजात्य द्वैध को निर्मल वर्मा ‘खंडित चेतना’ कहते हैं| मैं इस खंडित चेतना को आभिजात्य कह रहा हूँ क्योंकि निर्मल की ‘भारतीयता’ जिस सांस्कृतिक चिंतन का परिणाम थी उसमे भारतीय समाज की विविधता को नकार कर भारत के अतीत के उच्च-पाठों के सहारे सेल्फ को पारिभाषित किया गया था, जो कि खुद ही एक औपनिवेशिक विरासत थी| क्योंकि निर्मल भी नेहरु की तरह भारत को खोजते हुए ‘भारत के करीब पश्चिम के ज़रिये’ आये थे, इसीलिए प्रेमचंद ने किसानों के उस ‘आध्यात्मिक पतन’ को नहीं देखा जिसे निर्मल ने देख लिया! दरअसल कोई ‘आध्यात्मिक’ पतन था भी तो वह राष्ट्र के आभिजात्य नेतृत्व का था जहाँ भगत सिंह और साथियों के फांसी  दिए जाने पर केवल दुःख व्यक्त किया जा सकता था! बहरहाल आभिजात्य इतिहास बोध का यह द्वैध हिन्दुस्तान की इतिहासकारी में भी प्रगट था| यह इतिहासकारी अपने राष्ट्र को परिभाषित करने की चेतना से संपन्न था| यह अकारण नहीं कि आचार्य शुक्ल के ‘विरुद्धों के सामंजस्य’ में और आचार्य द्विवेदी के ‘समन्वय की चेतना’ में राष्ट्रवादी चेतना की अनुगूँज सुनी जा सकती है| यह सामंजस्य और समन्वय कहीं-न-कहीं आभिजात्य राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति ही है|

राष्ट्रवादी इतिहास बोध की भी अलग-अलग परिणतियाँ थीं, और यह न समझा जाये कि रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी का इतिहास बोध राष्ट्रवादी होने मात्र से एक ही था| यह तो तय ही है कि शुक्लजी ने अपने इतिहास के दूसरे संस्करण में प्रगतिशील लेखक संघ का नाम तक नहीं लिया और दूसरी ओर हजारी प्रसाद भारतीय अतीत में निम्नवर्गीय प्रसंगों के सहारे परम्पराबोध को समझने कि कोशिश में लगे थे| यह एक ऐसा दृष्टिभेद था जिसने दोनों चिंतकों के साहित्य मूल्यांकन में आधारभूत अंतर पैदा किया| जिसे राष्ट्रवादी आभिजात्य द्वैध कहा जा रहा है उससे आचार्य शुक्ल का चिंतन उबर नहीं पाया था| और न ही उत्तरौपनिवेशिक निर्मल उससे बाहर  निकल पाए| बाहर तो खैर प्रेमचंद और द्विवेदी भी नहीं थे, लेकिन बन रहे भारत से देशनिकाला प्राप्त वर्गों की आवाज़ इनके लेखन में स्वर पा रही थी| एक तरफ किसानों और दलितों की आवाज़ थी दूसरी ओर भारतीय अतीत के संश्लिष्ट चरित्र में निम्नवर्गीय चेतना का अन्वेषण था, मेलो-ठेलों के भारत की बहुरंगी और अनेकार्थ ध्वनियों को पकड़ने की कोशिश थी, और कोशिश थी बन रहे देश में उनके भी इतिहास को खोज निकालना| प्रेमचंद ने आभिजात्य द्वैध को अपनी सहज व्यंग-दृष्टि से बार-बार तार-तार किया और घोषित किया कि आने वाला ज़माना और इस महाजनी सभ्यता का भविष्य किसानों और मजदूरों के हाथों में ही है| दूसरी और द्विवेदी जी के ‘कल्प कबीर’ ने अपने विरोध के अपार साहस में वह आशा जगाई जो शास्त्रीय भारत के सपनों को चुनौती दे सके| लेकिन न तो प्रेमचंद गांधी के मोह से उबर सके और न ही द्विवेदी जी तुलसी के , और यह उनकी ऐतिहासिक सीमा थी कोई दोष नहीं|
आज जब इस आभिजात्य देश की तड़ीपार जनता अपने ‘देस’ को पाने की कोशिश में संघर्षरत है तो उसके सामने फिर से अपने अतीत को पाने कि ज़द्दोज़हद है| लेकिन यह अतीत पहले तो दो सौ सालों के औपनिवेशिक ऐन्द्रजालिक निर्मिति के भीतर विरूपित है और उस पर तथाकथित आज़ादी के बाद का साथ साल और| किसानों,दलितों ,मजदूरों, आदिवासिओं और महिलाओं का यह संघर्ष पुरानी इतिहासकारी से मुक्ति चाहता है| लेकिन मुक्ति के रास्ते इतिहास से ही निकलते हैं जो षड्यंत्रों से भरा पड़ा है| कहीं हमारी कोशिश किसी और षड़यंत्र का शिकार तो नहीं हो रही है? यही सवाल मुझे लगता है समकालीनता की सबसे बड़ी चुनौती है| हमारा वर्त्तमान साहित्य इसी चुनौती से रूबरू है| ऊपर से नव साम्राज्यवाद का तीव्र होता हमला हमारे संघर्षों को हरसूँ क़त्ल करने पर आमादा है| ऐसा लगता है ‘जो कुछ भी ठोस था उड़ कर भाप बन गया है, जो कुछ पावन था वह भ्रष्ट हो गया है’| तब फिर क्या मार्क्स के शब्दों में आखिरकार मनुष्य संजीदा नज़र से जीवन की वास्तविक परिस्थितियों को, मानव-मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर नहीं हैं? हिंदी साहित्य के भीतर क्या यह संजीदा दृष्टि है, क्या हमारी आलोचना इसे समझ पा रही है, क्या समीक्षा कोई दृष्टि विकसित कर पा रही है जो उन ठोस ‘यथार्थों’ को समझने मे मदद करे और रचना को एक रास्ता दिखा सके, क्या विमर्श के घटाटोप के कारण रचना अपने स्वाभाविक स्वरुप से कोई समझौता कर रही है, क्या विमर्श की भाषा से रचनाएँ समृद्ध हो रही है, या यह भाषा रचना को उसके सत्य तक पहुँचाने में खुद रूकावट बनती जा रही है, क्या काल से होड़ लेनेवाली रचना कालबद्ध विमर्शों से परे किसी और सत्य की ओर इशारा कर रही है ? ऐसे ही कुछ प्रश्न साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार की ज़रूरत को एक और आयाम देते हैं|

अस्मिताओं की अपनी अभिव्यक्ति की दावेदारी इस दौर का नियामक परिदृश्य गढ़ती है. ये साहित्य में पहली बार अपने प्रतिनिधित्व का प्रश्न उठाते हैं| यहाँ ‘अनुभूति की ईमानदारी’ या ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ नहीं ‘अनुभूति की दावेदारी’ का प्रश्न केंद्र में है| अनुभूति की यह दावेदारी ही साहित्य के भीतर साहित्यपन की भी कसौटी बनाती है| प्रश्न यह है कि अनुभूति की दावेदारी और उसकी साहित्य में अभिव्यक्ति क्या एक ही चीज़ हैं या दोनों के बीच का अंतर महज़ एक धोखा है? काफी पहले संतों ने अपनी अनुभूति की दावेदारी का ऐसा ही प्रश्न उठाया था| इस दावेदारी में उनका अनुभव सच ही अनभै सच हो गया था| भयरहित इस सच का सहज अनुभूति से जो रिश्ता था वह शास्त्रीय विमर्श का मुहताज नहीं था| इसने खुद एक ज्ञानमीमांसा विकसित की थी जिसे कोई चाहे तो नामवरसिंह के शब्दों में ‘अनुभवसम्मत विवेकवाद’ कह सकता है| क्या दलित और स्त्री लेखन की सहज अनुभूति ,उनका अनभै सांचा जिस साहित्य में अभिव्यक्त हो रहा है उससे प्रगट होनेवाली ज्ञान-मीमांसा दलित और स्त्री विमर्श की शास्त्रीय ज्ञानमीमांसा के साथ है ,उसे चुनौती दे रही है, उससे प्रेरणा ले रही है या सारी संभावनाओं कि सह-उपस्थिति है? इस साहित्य ने साहित्य की निर्वैयक्तिकता के दावों पर भी एक प्रश्न चिह्न लगा दिया है| यहाँ देह की उपस्थिति एक महत्वपूर्ण प्रत्यय की तरह है| देह और देह से जुड़ी पीड़ाओं को अभिव्यक्त करना एक बड़ी ज़रूरत थी जो साहित्य में पहले कभी इतना प्रासंगिक बन कर सामने नहीं आया था| स्त्री-शोषण की शुरुआत उसके देह से ही होती है| इस देह की पीड़ा को पुरुष पैदा करता है और पितृसत्ता से मुक्ति का पहला स्तर इस पुरुष उपनिवेशित स्त्री-देह से मुक्ति ही है| निर्वैयक्तिकता के दावे में व्यक्तित्व केवल माध्यम था जिसके सहारे परंपरा और समाज कला में अभिव्यक्ति पाते थे या ज्यादा से ज्यादा समाज और रचना के बीच एक ऐसी कड़ी था जो परस्पर एक दूसरे को समृद्धतर करते चलते थे|[11] लेकिन देह की यह उपस्थिति रोमैंटिक व्यक्तिवाद भी नहीं है| इन दोनों से परे देह यहाँ शक्ति की जोर-आजमाईश का प्राथमिक आधार है| इसलिए रचना में देह की उपस्थिति उस पूरे शोषण से मुक्ति की दावेदारी के बतौर है| यह एक ऐसी अनुभूति से संपन्न रचना को जन्म देती है जिससे साधारणीकरण ना हो कर एक झटका मिलता है, उस चेतना को जिसका स्व/आत्म/सेल्फ कभी इस अन्यता को अपने अहम से मुक्त देख ही नहीं पाया था| देह-मुक्ति से सम्पूर्णमुक्ति तक की यात्रा की कल्पना और उसकी अभिव्यक्ति के तरीके अभी हो सकता है एक उहापोह में हों लेकिन इतिहास का नया पाठ तो अब निहायत ही ज़रूरी हो गया है| साहित्य में अनुभूति की दावेदारी का यह प्रयास अपनी परंपरा की तलाश भी करता है| दिक्कत यह है कि परंपरा निर्माण का यह प्रयास कई बार अन्यता को इतना कठोर और जड़ बना देता है कि उसे दूसरी अस्मिताओं के साथ संवाद की ज़रूरत ही नहीं पड़ती| यह गैर-संवादी परंपरा खुद अपनी मुक्ति के रास्ते तो बंद करती ही है सम्पूर्ण मुक्ति की परिकल्पनाओं को भी विचलनों से भर देती है| इसीलिए इतिहास का कोई भी नया पाठ गैरज़रूरी और भ्रामक होने को बाध्य है यदि वह इतिहास के दूसरे मुक्तिकामी पाठों से एक संवाद न कायम कर पाता है| मसलन दलित-मुक्ति का विमर्श दलित-स्त्री की अस्मिता का निषेध करने लगता है और इस प्रकार प्रकारांतर से खुद अपनी ही मुक्ति को बाधित करता है| मुक्ति की मार्क्सवादी धारणाओं के निषेध की प्रवृति भी ऐसे ही विमर्श को जन्म देती है जो अस्मिताओं के बहुआयामी और परस्पर गतीशील स्वरुप को न पहचानते हुए एक काल्पनिक शुद्ध अस्मिता के निर्माण करती है जिसका ‘अन्य’ भी उतना ही एकांगी और खुद उस अस्मिता के अद्वितीय होने के तर्क से निर्मित होता है| अस्मिताओं के निर्माण का आधार जितना ही काल्पनिक होगा उसके भीतर शुद्धता की राजनीति उतनी ही प्रबल होगी| मसलन हमारे देश में भाषाई अस्मिता और हिंदू अस्मिता जैसी अवधारणाएं| राष्ट्रीय अस्मिताएं भी ऐसी ही किसी आदिम पहचान (primordial)की कल्पना पर निर्मित होती आयी हैं| जैसे अनादि काल से बने कुल संबंध, रक्त संबंध, भाषावाद(linguism), नस्लीयता आदि काल्पनिक आधारों को राष्ट्रीयता का नाम देना| इन कल्पनाओं ने लगातार इतिहास का एक निश्चित पाठ अपने लिए तैयार किया है| और ये  पाठ  औपनिवेशिक ज्ञान मीमांसा से नाभिनालबद्ध हैं|

यह अकारण नहीं है कि साम्प्रदायिक हिंदू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या हिंदू फसीवाद जिस इतिहास को अपने लिए उपयोग करता है उसके खिलाफ तर्क और तथ्यों पर आधारित इतिहास के दूसरे नैरेटिव कई बार बेबस और लाचार नज़र आने लगते हैं| बाबरी के ध्वंस के बाद इतिहासकारों ने जो अभियान हिंदू उन्माद कि राजनीति के खिलाफ चलाया था खुद उन इतिहासकारों कि नज़र में आज वह एक असफल अभियान साबित हुआ है| और इसका सबसे ताज़ा उदाहरण अयोध्या भूमि विवाद पर इलाहाबाद उच्च-न्यायालय का फैसला है| इस फैसले ने एक बार फिर से तथ्य और कल्पना के बीच चलने वाले पुराने विवाद को केंद्र में ला दिया है| रोमिला थापर ने बड़े आहत मन से तथ्य और उसपर इतिहासकार के दावे को एक न्यायलय से मिली चुनौती को दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए कहा था कि यह एक विषय के रूप में इतिहास पर हमला है| यह एक व्यवहार के रूप में इतिहास की असफलता है| हमें याद रखना चाहिए कि सत्ता से सम्बद्ध होकर इतिहास सामान्यबोध को उन्मादी बनाता है| और इस के लिए हमें राजनितिक प्रतिरोध की ज़रूरत होती है| लेकिन यह प्रतिरोध अकादमिक स्पेस के भीतर चलने वाले विमर्शों और सामान्य जनता से उसकी दूरी के कारण इतिहास के सामान्यबोधीकरण का रास्ता पूरा नहीं कर पाती| जिस प्रकार ग्राम्शी ने फासीवाद के उभार से लड़ते हुए ‘व्यवहार के दर्शन’ की बात की थी उसी तरह क्या हमें आज ‘व्यवहार के इतिहास’ की ज़रूरत नहीं है? और निश्चित रूप से साहित्य के भीतर व्यवहार का यह जिम्मा आलोचना के कन्धों पर ही है| और आलोचना ज़रा भी अचेत हुई नहीं कि अपने तमाम सदाशयता के बावजूद अनेकांतवादी शवसाधना के सहारे अतीत की भूल-भुल्लैया में गुम हो जाती है| आप राष्ट्रीयता का पल्ला पकड़ कर राष्ट्रीयता की राजनीति का विरोध नहीं कर सकते क्योंकि अपने प्रगतिशील लगने वाली अंतर्वस्तु के बावजूद राष्ट्रीयता का औपनिवेशिक विमर्श अपने नैरेटिव में ही हिंसा, द्वेष और अपवर्जन को बढ़ावा देने वाला है| उस नैरेटिव संरचना में ही वह स्पेस है जो अधिसंख्यकवादी प्रभुता को अपनी राजनीति के लिए चारा मुहैय्या करती है| क्या ही संयोग है कि उत्तरौपनिवेशिक निर्मल और मार्क्सवादी रामविलास अपने धुर विरोध में भी इतिहास के एक खास नैरेटिव की संरचना से परास्त होकर एक ही जगह मिलते हैं, अपने ‘आखरी अरण्य’  में ! हिंदी साहित्येतिहास पर पुनर्विचार का एक सिरा यह भी है| शुक्ल की पराजित हिंदू जाति और रामविलास की हिन्दी महाजाति के बीच!

आइये वापस हम डेविड पर्किन्स की चिंता से रूबरू होते हैं| सवाल उस नैरेटिव फॉर्म की तलाश की है जिसमे इतिहास अपना रूप ग्रहण करता है| मार्च १९८८ में नामवरसिंह ने यादवपुर विश्वविद्यालय में आयोजित ‘भारत में साहित्य की इतिहासकारी’ विषय पर हुए सेमीनार में इतिहासकारी की समस्याओं पर विचार करते हुए मुख्यतः तीन बिंदुओं की तरफ ध्यान दिलाया था| पहला है नैरेटिव का संकट (crisis of narrative)| उनके ही शब्दों में-
“मैं दो कारणों को और कहना चाहता हूँ कि क्यों एक आलोचक इतिहास नहीं लिख रहा है. मेरा ख्याल है कि यह व्यापक साहित्यिक आलोचना की समस्या है, that is loss of confidence in narrative, and it is somehow related to the novel writer. Creative literature men narrative kaa ideal form hai novel… हमारे यहाँ हिंदी में  19th century realism के style में novel लिखे जा रहें हैं. popular novel, novel form me कोई break through हुआ नहीं except one person after Premchand, and that is फणीश्वर नाथ रेणु , जिसमें sequential plotting, जो time के अनुसार होता है, उसको छोड़ कर, बल्कि Arnold Hauser की language में modern (temporality) कोई age तो जो simultaneous है एक साथ event की तरह घटती हैं इस narrative को तोड़ कर फणीश्वर नाथ रेणु ने मैला आँचल लिखा और a different kind of narrative he was able to produce ;उसके अलावा हिंदी में जितने अच्छे लेखक हैं वे गल्प लिख रहें हैं, short story writers हैं| अच्छे novel हिंदी में जिसको कहूँ कि form के level पर breakthrough हों. हमलोग यहाँ पर ज्यादातर –avant garde literary theorist and scholars might be talking about Alain Robbe-Grillet and…after that, लेकिन हिंदी में novel के बारे में लिखें तो याद रखना है कि फॉर्म केवल formal चीज़ नहीं , Lukacsian terminology में कहें it is not only form but the form of a content. जिस अर्थ में soul and Form का इस्तेमाल करते हैं| मैं कहना चाहता हूँ कि जो किस्सा या दास्तान या कथा ,आख्यान बंध जो हमारी कादम्बरी वाली थी ,we have forgotten that,  और जो नैरेटिव हमने पाया था , Victorian 19th century की उस नैरेटिव में चाहे वह प्रेमचंद लिख रहे हों या गुलशन नंदा लिखते हों ,it hardly makes any difference .in the same way, जो मैं कहना चाहता हूँ कि crisis of narrative है हिंदी में....”[12]

आगे वह बताते हैं कि हम जब तक नैरेटिव के इस संकट को दूर नहीं करते तब तक हम इतिहासकारी के संकट की समस्या को हल नहीं कर सकते| और यह प्रश्न केवल साहित्य इतिहास या उसकी इतिहासकारी का नहीं है बल्कि व्यापक जीवन का संकट है| वर्त्तमान के खो जाने का भय ,तात्कालिकता के खो जाने का भय इतना गहरे है कि नामवरसिंह के शब्दों में ‘जाने अनजाने इस मसले में हर आदमी अस्तित्ववादी है|’ मुश्किल ही है कि कोई भविष्य के बारे में सोच रहा हो| दरअसल यह यूटोपिया के खो जाने से पैदा हुआ है. “ जब तक हमें भविष्य का थोड़ा भी बोध नहीं होगा साहित्य इतिहास तो क्या कोई भी इतिहास संभव नहीं है”|[13] और आगे तीसरी बात यह कहते हैं कि यह बोध निश्चित रूप से प्रैक्सिस से जुड़ा है| हम बिना इतिहास के निर्माण में हिस्सा लिए भविष्य बोध प्राप्त नहीं कर सकते| और इसलिए इतिहास लिख भी नहीं पाएंगे|

यहाँ नामवरसिंह ने हेडन व्हाइट की कुछ स्थापनाओं को हमारे सामने रखा है| लेकिन इनमे एक बारीक अन्तर भी है| हेडन व्हाईट के अनुसार हमें अतीत को समझने का ऐसा रास्ता चाहिए जो हमें ‘क्रमभंग की शिक्षा दे सके...क्योंकि ये क्रमभंग, ये व्यवधान ही हमारी निधि हैं|’ जीवन की बेहतरी इसी मे है कि इतिहास को किसी एक अर्थ में न पढ़ा जाए (किसी एक नैरेटिव से ही वशीभूत न हो), बल्कि अनेक अर्थों के दरवाज़े खुले रहें, जो इतिहास किसी भविष्यमुखी यूटोपिया का एजेंडा ले कर चलता है वह उस ‘इतिहास के बोझ’ से लोगों को मुक्ति देता है जो किसी एक ही समापन का अनुमान करता है. .[14] हेडन व्हाइट जिसे यूटोपिया कह रहे हैं उस अर्थ में इतिहास का मार्क्सवादी पाठ भी उतना ही यूटोपिया विरोधी है जितना कि बुर्जुआ इतिहास लेखन.[15]उनके अनुसार अब तक के हर नैरेटिव इतिहास की आलोचना की जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने अतीत को बांधने( disciplining of the past) के चक्कर में उस एक चीज़ को मिटा दिया जिसे अनिवार्य रूप से बचना चाहिए था,अगर किसी राजनितिक यूटोपिया को एजेंडे में रखना था| और इस चीज़ को वह अतीत का उदात्त चरित्र (sublime nature of the past) कहते हैं| और इस उदात्‍त्त‌ा के चरित्र को बचाए रखना उन्हें इतिहास लेखन के लिए आवश्यक लगता है| ‘द पोलिटिक्स ऑफ हिस्टोरिकल इंटरप्रेटेशन’ में वह  इन चार बिंदुओं की ओर इशारा करते है: १) १८वीं सदी के अंत के पहले इतिहास के रूप में अतीत उतना अनुशासनात्मक नहीं था ; माने वह उदात्त को स्वीकार करता था;२)लेकिन १९वीं और २०वीं शताब्दी में रेडिकल(जैसे मार्क्सवादी)और उदारवादी और संरक्षणवादी विचारधाराओं ने अपने-अपने सुविधानुसार अतीत को अनुशासित किया;३)यह अनुशासनीकरण मूलतः अतीत का एस्थेटिसाइजेशन था (जो कभी कभी विज्ञान के श्रेणीबद्ध या एस्थेटिसाइज विमर्श के रूप में भी अभिव्यक्त होता था) जिसने उदात्त को ‘बुझा दिया’;४) लेकिन अपनी इस उत्तराधुनिक स्थिति ने विमर्शों के इतने सारे विकल्प खोल दिए हैं कि उनकी सहायता से हम पुराने एस्थेटिसाइज समापनों की आलोचना कर सकते हैं| इस ‘स्थिति’ ने उन सारे नैरेटिव के लिए संकट पैदा कर दिया है, जिन्होनें एक नैरेटिव मिथ और एक निश्चितवादी अनुशासनात्मक कार्यवाइयों के सहारे मुक्ति का वादा किया था| और इसने एक उदात्त के रूप में अतीत की पुनर्खोज के क्रम में क्रमभंगों और भिन्नताओं के इतिहासों की सम्भावना खोल दी है| व्हाइट का मानना है कि अब तक के सारे ऐतिहासिक आख्यान एक यूटोपिया विरोधी अंत के विचारधारात्मक औज़ार ही साबित हुए हैं| इसीलिए इस समय यह ज़रूरी हो गया है कि इतिहास की एक ऐसी पुनर्निर्मिति हो जो इसके अपने सत्य को किसी नैरेटिविस्ट तरीके से प्रस्तुत किये जाने का विरोध करते हुए  बुर्जुआ विचारधारा के खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज कर सके| असंगतिओं और  क्रमभंगों, भिन्नताओं और अन्यता के इतिहास आज ज़रूरी हैं| ये ज़रूरी हैं क्योंकि एक खास आख्यान में बंद मुक्ति के स्वप्न की जगह ये मुक्ति के अपने अपने रास्तों की बहुलता का समर्थन करते हुए अतीत के उदात्त को फिर से स्थापित करते हैं|[16] व्हाइट का मानना है कि अधीनस्थ,उत्थानशील और प्रतिरोध करने वाले सामाजिक समूहों को मार्क्सवाद सहित किसी भी विचारधारा से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल पाएगी जो वस्तुस्थिति या वस्तुगत सत्य पर केवल अपने दावों को पेश करते हैं| और ऐसे किसी भी विरोधी को केवल उनके ऐतिहासिक रिकॉर्डों के आधार पर नहीं ढोया जा सकता है क्योंकि,

“ये अतीत ,जैसा कि वह वस्तुतः था, को जानने कि कोई खिड़की नहीं हैं वरन् एक ऐसी दीवार है जिसे अनिवार्यतः तोड़ दिया जाना चाहिए ताकि ‘इतिहास के आतंक’... से सीधी मुठभेड़ की जा सके और इनके भय को छिन्न-भिन्न किया जा सके|”[17]

उदात्त को स्वीकार किये बिना किसी भी तरह का यूटोपिया संभव नहीं है. और  व्यक्ति स्वातंत्र्य, मुक्ति, और सशक्तीकरण के लिए वर्तमान की विनाशकारी शक्तियों से लड़ाई में हमें जो इतिहास चाहिए वो किसी सातत्य का नहीं वरन क्रमभंगों(discontinuities) ,टूटन(rupture), अव्यवस्थाओं(chaos) और विस्थापनों (dislocations) के इतिहासों की ज़रूरत है| इस प्रकार व्हाइट की दो मूल बातें हैं-  पहली यह कि इतिहास प्रधानत: एक आख्यानात्मक विमर्श है, जिसकी अंतर्वस्तु जितनी वस्तुतः प्राप्त है उतनी ही काल्पनिक या आविष्कृत ,जो उदात्त के सकारात्मक स्वीकार और असातत्य की विवेचना दोनों में अक्षम है| दूसरी बात है कि इतिहास या इतिहासकारी को कैसा होना चाहिए| यह क्रमभंग इतिहासों की ऐसी धारा होनी चाहिए जिसकी अंतर्वस्तु वस्तुतः जितनी प्राप्त हो उतनी ही काल्पनिक या आविष्कृत ,लेकिन जो उदात्त को एक महत्वपूर्ण कल्पना के रूप में स्वीकार करे जिसके सहारे एक ज्यादा उदार और बहुआयामी मुक्ति की ओर हम अग्रसर हो सकें|

नामवर सिंह आख्यान के संकट की तरफ इशारा करते हुए दरअसल उसी उत्तर-आधुनिक संकट की बात कर रहे थे जहाँ प्रबोधन युगीन मुक्ति के सारे महाख्यान अपनी पुरानी आभा खो चुके हैं| नामवरसिंह आख्यान के इस संकट को वृहत्तर रचनात्मकता का संकट बताते हैं| यह संकट दरअसल आख्यान में विश्वास न होने के कारण आया है और मुख्य रूप से उपन्यास लेखन से जुड़ा है| एक ओर तो आख्यान में विश्वास की कमी को वह यूटोपिया के खो जाने से जोड़ रहे हैं दूसरी ओर साहित्य में आख्यान के रूप में उपन्यासों की संरचना को जड़ बता कर रूप के स्तर पर किसी परिवर्तन के न होने की समस्या को उससे जोड़ रहे हैं| उनका मानना है कि हमने उपन्यास का वही रूप लिया जो १९वीं सदी के विक्टोरियन नोवल का था| इस कारण हमने अपनी कादम्बरी वाली शैली भुला दी| इस शैली की ओर इशारा कर आख्यान के संकट से उबरने का एक रास्ता वह देते हैं| कथा किस्सा और दास्तान वाली यह कादम्बरी शैली ठीक कार्य कारण संबंधों वाली न होती थी| इसमे वक्त एक सीधी रेखा में न चलता था| ये कहीं खतम न होने वाले कथा-बंध हुआ करते थे,बीच बीच में रूपकों का निर्वहन होता था, कई सामानांतर कथाएँ साथ-साथ चलती थीं, कथा में कल्पना का विशेष आधार था और सुनने गुनने वालों के लिए असमंजस कि कहानी खतम भी हुई लेकिन उनके ‘फिर क्या हुआ’ का संतोषजनक उत्तर न मिला| दरअसल अतीत के उदात्त अनिर्णय का बोध ऐसे ही किसी आख्यान संरचना वाले इतिहास में हो सकता है| व्हाइट जिस उदात्त की स्वीकारोक्ति इतिहास की पूर्वशर्त बताते हैं नामवर उसे कादंबरी शैली में व्यक्त होता देख रहे थे| दूसरी ओर उन्हें भी इतिहास को असातत्य में देखने की ज़रूरत लग रही थी| उसी भाषण में उन्होंने आगे इतिहास लेखन की प्रश्नोत्तरी शैली की सम्भावना रखी और कॉलिंगवुड के हवाले से कहा कि ‘हमें उस स्थिति की, उस विशेष परिस्थिति की ,जिसमे वो प्रश्न कौन से थे जिनके रेस्पोंस में एक खास रचना रची गयी, की खोज करनी चाहिए| रचना के भीतर से उन सवालों को पुनर्निर्मित करने की कोशिश होनी चाहिए जिसके रेस्पोंस में रामचरितमानस रचा गया’| कोई भी विशेष परिस्थिति असीम संभावनाओं से भरी होती है|

“कोई ऐतिहासिक क्षण संभावनाओं से भरा होता है, और कोई टेक्स्ट –बहुत सारे टेक्स्ट –so many text are produced-in that particular situation as response and तब हमें समझ में आएगा कि १६वीं सदी के अंत में और १७वीं सदी के आरम्भ में दो situations बहुत text भक्ति के produce क्यों किये ...अगर हम इस तरह से देखें ,then history becomes the history of questions and answers , and in this way we shall be able to reconstruct a narrative which is actually full of so many breaks.”[18]

और इस तरह पुराने इतिहास नैरेटिव के सातत्य की जगह साहित्य इतिहास को अंतरालों में देखने की सलाह देते हैं|  ठीक यही बात व्हाइट भी कह रहे थे| लेकिन जिस बारीक अंतर की बात मैं कह रहा था वह है यूटोपिया संबंधी दोनों के चिंतन का अंतर| नामवर सिंह के लिए मार्क्सवाद उस तरीके से यूटोपिया विरोधी नहीं है जिस तरह से व्हाइट के लिए वह है| यह बारीक अंतर इस बात में भी है कि जहाँ व्हाइट सामाजिक समूहों या बेहतर रूप से कहें तो अस्मिताओं के संघर्ष के लिए मार्क्सवादी इतिहास नैरेटिव से कोई सहायता की उम्मीद नहीं रखते और प्रकांतर से किसी संवाद की गुंजाइश को नकार देते हैं वहीं नामवर इसे स्वीकार करते मालूम नहीं पड़ते और इसका उत्तर प्रैक्सिस के ज़रिये पाने को कहते हैं| आज बीस साल बाद दोनों विचारकों की बातों का विश्लेषण करने पर साफ़ मालूम पड़ता है कि गैरसंवादी इतिहासों को सीधे-सीधे स्वीकार नहीं किया जा रहा है| संघर्ष की एकता की बात आज प्रैक्सिस के ज़रिये साबित होती जा रही है|  भिन्नता या भेद पर अतिशय जोर देने के कारण व्हाइट ऐसे रेडिकल भविष्य की यूटोपिया रचने की कोशिश करते हैं जिसमे अपने–अपने मुक्ति के अलग अलग दावों और अपने-अपने अलग-अलग सत्यों को एक ऐसी अन्यता में रचा जाता है जो खुद मुक्ति विरोधी हो जाता है| इसीलिए ‘मुक्ति है तो सबके साथ है’ ऐसा मानना नामवर सिंह नहीं छोड़ते| आज भेदों की अतिशयता को नकार कर अभेद के आधारों की तलाश फिर से शुरू हो गयी है| इसीलिए ‘भेद में अभेद’ ढूँढने वाली इतिहास दृष्टि फिर एक बार प्रमुख हो गयी है| भेद में अभेद ढूँढने वाली ऐसी ही इतिहास दृष्टि की प्रस्तावना दीपेश चक्रवर्ती ने अपनी किताब ‘प्रोविन्शियलाइजिंग यूरोप’ में की है | इस किताब में उन्होनें दिखाने की कोशिश की है कि उत्तर-औपनिवेशिक इतिहास-लेखन के भीतर पश्चिमी प्रबोधन के मूल्यों के नकार ने जो अतिवादी दृष्टि अपनाई है वह ठीक नहीं है| हम प्राच्यवाद का उत्तर पूर्ववाद गढ़ कर नहीं दे सकते| और इस प्रकार प्रबोधन के मूल्यों के विरोध में हम उन सब मानवतावादी मूल्यों को भी नकार देते हैं जो भले ही किसी समय पश्चिम में या यूरोप में सामने आया था लेकिन उस पर अब सम्पूर्ण मानवजाति का अधिकार है| ‘यूरोप का क्षेत्रीकरण’ कोई सांस्कृतिक सापेक्षितावाद या पूर्वजों की खोज वाली अद्वितीय देशी इतिहास लिखने की कोशिश नहीं है| और न ही यह सीधे-सीधे आधुनिकता को नकार देने की कोशिश है जो राजनितिक रूप से आत्मघाती है|[19]  उन्हीं के शब्दों में :
“मैं एक ऐसे इतिहास को चाहता हूँ जो अपने उन्हीं आख्यान रूपों की संरचना में उनकी ही शोषणकारी रणनीतियों और कार्यों को दिखा सके, जिसने नागरिकता के आख्यानों के साथ सांठ-गांठ कर आधुनिक राज्य के भीतर ही मानवीय एकात्मकता(human solidarity) की सारी संभावनाओं को समाहित कर लिया है| इस निराशा की राजनीति को एक ऐसा इतिहास चाहिए जो अपने पढ़ने वालों के सामने उन कारणों को खोल दे जिसने इस दुर्दशा को अनिवार्य रूप से अपरिहार्य बना दिया है| ..इस यूरोप के क्षेत्रीकरण का प्रयास आधुनिक को अपरिहार्य कलहों से युक्त देखना है| यह उस बारे में लिखना है जहाँ नागरिकता के आख्यान को विशेषाधिकार दिया गया और उसे शर्तिया माना गया तथा उन सारे मानवीय संबंधों के आख्यान जो अपने स्वप्निल अतीत और भविष्य से जीवनशक्ति पाते थे और जो अपनी सामुहिकता, नागरिकता के कर्मकांडों और “आधुनिकता” के पैदा किये गए “परम्पराओं” के दु:स्वप्न से तय नहीं करते थे,को बाहर रखा गया|”[20]

इस बाहर रखने के पीछे एक ‘इतिहासवाद’ काम करता है जो सामान्य रूप से यह नहीं दिखाता कि आधुनिकता या पूँजीवाद वैश्विक हैं बल्कि यह दिखाता है कि धीरे धीरे वो किसी समय वैश्विक हो जाएँगे पहले-पहल “यूरोप” में पैदा हो कर बाकी दुनिया में फ़ैल जाएँगे| यह “पहले यूरोप, फिर अन्य जगह” वाली वैश्विक ऐतिहासिक-समय की धारणा इतिहासवादी(historicist) थी| इसी ऐतिहासिक काल बोध के तहत विभिन्न गैर-पश्चिमी राष्ट्रीयताओं ने आगे चल कर उसी आख्यान के स्थानीय संस्करण पैदा किये| बस “यूरोप” को हटा कर किसी स्थानीय केंद्र को रख दिया गया| दीपेश कहते हैं कि यह इतिहासवाद  ही था जिसने मार्क्स को भी यह कहने पर मजबूर किया था कि “ औद्योगिक रूप से विकसित देश पिछड़े देशों को उनके अपने भविष्य की ही छवि दिखाते हैं|”[21] इसी इतिहासवादी धारणा की आलोचना करते हुए वह कहते हैं कि पूंजीवादी आधुनिकता को अब आगे केवल ऐतिहासिक संक्रमण(transition) की समाजशास्त्रीय समस्या के रूप में देखने की बजाय उसे रूपांतरण(translation) की समस्या के रूप में भी देखा जाए|[22] रूपांतरण के रूप में आधुनिकता को देखने का मतलब है गैर पश्चिमी समाज में जो तथाकथित आधुनिक-पूर्व प्रवृत्तियाँ हैं उनके और पूंजीवादी इतिहास के आख्यान के बीच बनने वाले संश्लिष्ट चरित्र को देखना| एक स्तर पर यह यूरोपीय आधुनिकता को पूर्ण और अवश्यम्भावी मानने को अस्वीकार करते हुए भी उसके प्रभावों का निषेध नहीं करता और दूसरी ओर समाज के ‘गैर-आधुनिक’ मूल्यों को भी पिछड़ा या समय के किसी और बिंदु पर देखने की बजाय अभी और वर्तमान मान कर उसकी व्याख्या करता है| यह ‘अभी’ या ‘वर्तमान’ को इतिहास के प्रतीक्षालय(waiting room of history)[23] से वापस लाने की कोशिश है भारतीय इतिहास को यूरोपीय आधुनिकता के प्रतीक्षालय के रूप में देखना दरअसल समय की इतिहासवादी धारणा का ही फल है| यह इतिहास को बेंजामिन के शब्दों में कहें तो ‘सेकुलर समांगी और खाली समय’(secular, empty and homogenous time) के रूप में देखना है| जबकि बेंजामिन की नज़र में “इतिहास एक ऐसी संरचना का विषय है जो किसी  समांगी ,खाली समय में नहीं बल्कि ‘अभी’ की उपस्थिति से भरे समय में ही है”[24]| साहित्य का इतिहास ऐसे ही वर्त्तमान से भरे समय को पकड़ने की कोशिश है| इस कोशिश में  साहित्य का इतिहास जिस नैरेटिव से अपना सन्दर्भ प्राप्त करने की कोशिश करता है वह सन्दर्भ जिसे दीपेश इतिहास-१ और इतिहास -२[25] कहते हैं, उनकी संश्लिष्ट प्रक्रिया को समझे बिना अधूरा है|

इतिहास-१ और इतिहास-२ की अवधारणा मार्क्स के पूंजी सम्बन्धी आलोचना से ही निकली है| यह अवधारणा गहरे रूप से उत्पादन की पूँजीवादी पद्धति और आधुनिक यूरोपीय साम्राज्यवाद को समझने के लिए प्रबोधन-कालीन अमूर्त्त मनुष्य की धारणा और इतिहास के विचार का उपयोग करती है| साम्राज्यवाद विरोधी किसी भी विचार के लए मार्क्स की इन अवधारणाओं का निषेध असंभव है. इसलिए दीपेश कहते हैं कि इन सिद्धांतों को फिर से याद करना एक तरह से उत्तर-औपनिवेशिक समझदारी और प्रबोधन के बाद की तार्किकता,मानवतावाद, और इतिहासवाद की बौद्धिक परंपरा के बीच के रिश्तों पर भी पुनर्विचार है.|[26]पूंजीवादी विकास की धारणा यह है कि इतिहासों के बीच के भेद समय के साथ खत्म हो जाएँगे और एक लंबी दौड़ में पूंजी की विजय होगी| दूसरी ओर असमान विकास की व्याख्याएं कहती हैं कि ये भेद यद्यपि पूरी तरह खतम नहीं हो सकते लेकिन इनमे एक समझौता हो जाएगा और यह पूंजी की संरचना में ही होगा| तीसरी ओर कोई पूंजी को ही इन सारे भेदों के उत्पादन और पुनरुत्पादन का जिम्मेवार करार दे सकता है| और तीनों व्याख्याएं इतिहासवादी हैं| इसीलिए ऐतिहासिक भेदों और पूंजी के तर्क से उनके संबंधों को इस इतिहासवाद से अलग करने की कोशिश में दीपेश मार्क्स की अमूर्त्त श्रम और पूंजी तथा इतिहास के रिश्तों के बारे में जो स्थापनाएं हैं ,उनका उपयोग करते हैं| ये दोनों ही स्थापनाएं पूंजी की उनकी आलोचना से जुड़ी हैं| मार्क्स की पूंजी सम्बंधित बहसों के केंद्र में है जींस या कमोडिटी और इस जींस सम्बंधित धारणा के केंद्र में है भेद का प्रश्न| जिंसों के विनिमय में हम ऐसी चीज़ का विनिमय करते हैं जो अपने इतिहासों , भौतिक गुणों, और उपयोग मूल्य में भिन्नता रखते हैं| जिंसों के रूप में भेद का निषेध नहीं होता बल्कि उन्हें थोड़ी देर के लिए स्थगित कर दिया जाता है ताकि हम एकदम अलग अलग चीजों का भी विनिमय कर लें| जैसे बिस्तर और घर का| लेकिन यह होता कैसे है? मार्क्स का आधारभूत प्रश्न यही है| अरस्तु से इसी सवाल पर उनकी बहस होती है| अरस्तु ने कहा था कि बिना विनिमय के कोई समुदाय नहीं होता और समुदाय है की भिन्न भिन्न और गैर सामान मनुष्यों से ही बनता है| इसीलिए एक समतुल्यताकारी माप होना चाहिए| और पैसे के रूप में एक प्रथा या नियम कि कल्पना होती है| अरस्तु कहते हैं कि बिस्तर और घर में कुछ भी समान नहीं होता वो तो हम अपनी सुविधा से एक मुद्रा को मान लेते है और समुदाय की इच्छा शक्ति जब तक उसे स्वीकार करती है वह विनिमय का मापक बना रहता है| इस प्रथा को हम कभी भी बदल सकते हैं| यह मुद्रा हमें बताती है कि ‘कितने जूतों के बराबर एक घर होगा’| यह एक अनिश्चित और काल्पनिक पैमाना है और दरअसल दो भिन्न वस्तुओं के बीच कोई वास्तविक बिचौलिया  नहीं हो सकता| इस भेद को पाटने वाला कोई बिचौलिया नहीं हो सकता ऐसा मार्क्स नहीं मानते और कहते हैं कि एक बिचौलिया है और वास्तविक है| यह है मानव श्रम| यही अमूर्त्त श्रम है जिसे मार्क्स “मूल्य की अभिव्यक्ति का रहस्य” कहते हैं| मार्क्स की पूंजी संबंधी आलोचना वहीं से शुरू होती है जहाँ वह अपनी जिंदगी की शुरुआत ही करती है ,यानि श्रम का अमूर्तन| और यह श्रम है कि हमेशा ही जीवित श्रम के रूप में उपस्थित होता है| और इस जिंदा होने में ही यह श्रम पूंजीवादी अमूर्त्तन का प्रतिरोधी हो जाता है| और इस प्रकार पूँजीवाद एक आतंरिक अंतर्विरोध का शिकार हो जाता है| क्योंकि पूंजीवाद को अपने विकास के लिए मृत श्रम की ज़रूरत होती है| और इसलिए वह निरंतर तकनीक का विकास करता है और इस प्रकार जीवित श्रम की इस ज़रूरत को न्यूनतम करता जाता है| इसी से वह परिस्थिति पैदा होती है जहाँ श्रम की मुक्ति संभव होती है| और यहीं आकर पूँजी का भी विलोप संभव हो पाता है| यहाँ मार्क्स पूँजी के भीतर के अपने ही अंतर्विरोध से उसके विलोपन और पूंजी के परे एक भविष्य को देखते हैं| पूंजीवादी पद्धति में निहित इस अमूर्त्त श्रम के सहारे ही वह पूंजी की मूलगामी आलोचना प्रस्तुत करते हैं| लेकिन इस पूरी आलोचना में वह ऐतिहासिक भेद स्थगित रहता है| क्योंकि खुद मार्क्स के शब्दों में यह वास्तविक पूंजी की आलोचना है| मतलब यह ‘capital as such’ की आलोचना है|

 ग्रुन्द्रीस में मार्क्स ने पूंजी के अतीत को अस्ति(being) और भवति (becoming) के अंतर के रूप में व्याख्यायित किया है| ‘अस्ति’ का मतलब पूंजी के संरचनात्मक तर्क से है, अर्थात जब पूंजी पूर्णतः अपना स्वरुप प्राप्त कर लेती है| यह पूंजी का ‘being-for-itself’ है| यही हेगेलीय शब्दावली में ‘capital as such’ या वास्तविक पूंजी है| ‘भवति’ उस ऐतिहासिक प्रक्रिया को बताता है जिसमे और जिसके द्वारा पूंजी के ‘अस्ति’ की तार्किक पूर्वसंभावना प्रकट होती है| ये तार्किक पूर्वसंभावनाएं केवल समयसारणी में कोई पहले घटित घटना नहीं है बल्कि वह अतीत है जिसे पूंजी खुद अपने सिंहावलोकन में प्रस्तुत करती है| जैसे जब तक भूमि या उत्पादन के औजारों से श्रमिक को अलग नहीं किया जाएगा तब तक पूंजी को कोई श्रमिक भी नहीं मिलेगा| जब तक यह अतीत चलता रहेगा मजदूर और पूंजीपति, पूंजी के ‘अस्ति’ के हिस्से नहीं होंगे| और इस अतीत का पूर्वानुमान बिना पूंजी के तर्क को आत्मस्थ किये नहीं हो सकता है| इसलिए इस ऐतिहासिक ज्ञान को जानने के लिए पूंजी की संरचना को भी समझाना ज़रूरी है| मार्क्स इस इतिहास को अपने ‘थ्योरी ऑफ सरप्लस वैल्यू’ में एक नाम देते हैं: पूंजी का पूर्ववर्ती जिसे उसने खुद ही आरोपित किया है| यहाँ आज़ाद श्रम पूंजीवादी उत्पादन का कारण और परिणाम दोनों है|[27] यह पूंजी से जुड़ा सार्वभौम और अनिवार्य इतिहास है| यही उत्पादन की पूंजीवादी पद्धति तक संक्रमण के सभी आख्यानों की नींव बनाता है| इसे ही दीपेश इतिहास-१ कहते हैं[28]

मार्क्स इस इतिहास-१ के विरोध में एक और अतीत को सामने रखते हैं जिसे इतिहास-२ कहा जा सकता है| यह भी पूंजी के पूर्ववर्ती की तरह ही आता है, जिसे पूंजी अपने “पूर्ववर्ती की तरह ही पाती है”, लेकिन “उस पूर्ववर्ती की तरह नहीं जिसे पूंजी ने खुद ही पैदा किया है, या जो उसके ही जीवन चक्र का एक रूप हो”|[29]और इस प्रकार मार्क्स यह स्वीकार करते हैं कि पैसे और जींस का सम्बन्ध इतिहास में ऐसा भी रहा है जो अनिवार्य रूप से पूंजी को पैदा नहीं भी करता है| इन सारी बातों को सार रूप में दीपेश ने ऐसे रखा है:
“...इतिहास-२ की धारणा हमें मानव संबंधों के कुछ ज्यादा प्रभावशाली आख्यानों की तरफ ले जाती है जहां जीवन रूपों, चाहे वो आपस में जितने भी खुले हों, का किसी अमूर्त्त श्रम रूपी तीसरे कारक के आधार पर विनिमय संभव नही है| इतिहास-१ के प्रारूप में पूंजीवाद तक संक्रमण या रूपांतरण किसी तीसरी समतुल्यताकारी माप के सहारे सामान्य विनिमय को संभव बनाता है| लेकिन इतिहास-२ के रजिस्टर पर ऐसे संक्रमण या रूपांतरण को चिह्नित करना रूपांतरण को दो कोटियों के बीच किसी तीसरी कोटि के बगैर सौदे के रूप में देखना है| किसी सामान्य विनिमय के बदले रूपांतरण यहाँ बार्टर के रूप में होता है| हमें रूपान्तरण के दोनों तरीकों के बारे में साथ-साथ सोचने की ज़रूरत है क्योंकि दोनों मिल कर ही विविधतापूर्ण और परस्पर विरोधी इतिहासों के आर-पार पूंजी के वैश्वीकरण की परिस्थितियां पैदा करती हैं| लेकिन पूंजी के इस वैश्वीकरण(globalization of capital) का मतलब पूंजी का सार्वभौमिक(capital’s universalization) होना नहीं है| ...पूंजी का खुद को अपने तार्किक रूप में होना इन विभिन्न इतिहास-२ से हमेशा स्थगित या बाधित भी होता रहता है और इस प्रकार हमेशा इतिहास-१ को कुछ कुछ बदलता भी रहता है| यहीं से ऐतिहासिक भेदों की पहचान होनी चाहिए|”[30]

मानव के इन ज्यादा प्रभावशाली आख्यानों की खोज साहित्य की ओर ले जाती है| इसीलिए अब साहित्य खुद इतिहास के आख्यान को बनाने में पहले के किसी भी वक्त से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है. इस किताब की विशेष चर्चा इसलिए भी ज़रूरी लगी क्योंकि पुरुषोत्तम अग्रवाल की ‘अकथ कहानी प्रेम की’ को कुछ लोगों ने ‘यूरोप’ को अपने ढंग से प्रोविन्सियलाइज करने वाली बताया है[31]| इस प्रकार यह हिंदी साहित्य इतिहास-लेखन की एक नयी दृष्टि भी है|

आख्यान के जिस संकट की बात चल रही थी, वह पहले-पहल आख्यान के भीतर संकट के बतौर सामने आता है| ‘आख्यान में संकट’ ने ही आगे चल कर ‘आख्यान का संकट’ पैदा किया| बड़े आख्यान में संकट ने छोटे छोटे आख्यानों को जन्म दिया| आख्यान का यह संकट जितना अपनी दुविधा और अंतर्विरोधों का परिणाम है उतना ही छोटे-छोटे आख्यानों के दबाव से भी पैदा हुआ है| आख्यान के भीतर पैदा संकट ने जिन छोटे-छोटे आख्यानों को अपरिहार्य बना दिया था उन छोटे-छोटे आख्यानों ने अपने को साहित्य के भीतर ‘आत्मकथाओं’ के रूप में अभिव्यक्त किया है| यह अकारण नहीं है कि दलित और स्त्री लेखन में आत्मकथाओं की इतनी रचनाएँ हो रही हैं| तो क्या आत्मकथाओं के रूप में एक ऐसी नैरेटिव संरचना हमारे पास प्रैक्सिस के कारण नहीं मिल रही है जो आख्यान के पुराने रूपों के भीतर ही एक नयी संभावना जगाती है? अपने आधारभूत रूप में ये रचनाएँ भी पुराने आख्यानों की संरचना में ही रची बसी हैं| लेकिन इन रचनाओं ने आत्मकथाओं के रूप में उस सामान्य नैरेटिव संरचना में आत्म-बोध की केन्द्रीयता स्थापित की है, जिसने १९वीं सदी के फार्मल रीयलिज्म के आधारभूत सत्ता विमर्श[32]को नयी चेतना से भर दिया है| तब क्या फिर इतिहास के नैरेटिव के रूप में इस पर विचार नहीं किया जा सकता है? नैरेटिव के भीतर ही नयी अभिव्यक्ति और प्रकारांतर से इतिहास की नयी व्याख्या का रास्ता तो यह खोलता ही है, इसमे कोई शक नहीं है| व्हाइट के ही तर्ज़ पर कहें तो इस ‘रूप की अंतर्वस्तु’ में ही वह संभावना है जो एक नए इतिहास लेखन का रास्ता खोलता है| ये आत्मकथाएँ किसी सामाजिक समूह या अस्मिता (जैसे दलित,स्त्री या आदिवासी) की अभिव्यक्तियाँ हैं, इसलिए इतिहास के नैरेटिव के भीतर या कहें कि परंपरागत नैरेटिव में उन विचलनों के ज़रिये अपनी इतिहासकारी का निर्माण कर सकते हैं जिसे प्रभुत्वशाली नैरेटिव अपनी क्रमबद्धता और वृहत परम्परा में या तो महत्व नहीं देता या उसे अपने में विनियोजित(एप्रोप्रिएट) कर उसके भेदों को समाप्त कर देता है| इसलिए आत्मकथात्मक इतिहास की संभावना अतीत के विचलनों और अंतरालों के बीच से ही अपनी परंपरा खोजने की कोशिश होगी| ये आत्मकथात्मक इतिहास किसी रचना की उस महत्ता को भी ज्यादा महत्व देंगे जो परंपरागत नैरेटिव में ‘फिट इन’ होने के कारण अपनी तात्कालिकता खो देता है; क्योंकि ‘आत्मकथाएँ’ अपने साथ, अपने वर्त्तमान के साथ ही अतीत को भी लिए चलती है| ये उस नैरेटिव का निर्माण करती हैं जहाँ इतिहास की कोई घटना हमसे दूर नहीं मालूम पड़ती बल्कि ठीक हमारे भीतर अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाती हैं| यह अनजाने ही इतिहास के भीतर ‘आत्म’ का प्रक्षेप करती हैं और इस प्रकार इतिहास में ‘नित्य वर्त्तमान’(ever present now) के निरूपण की समस्या का हल देती हैं| एक प्रकार से यह नैरेटिव, परंपरा और इतिहास की सीमा रेखा पर अवस्थित होता है| इस प्रकार का इतिहास लेखन विचलनों और कैटास्ट्रोफ को तो लक्षित करेगा ही साथ ही पुराने नैरेटिव के भीतर उन स्पेसों की तलाश भी होगी जहाँ वह नयी व्याख्या की मांग करता है| यहाँ इतिहास बनाना और जगाना दोनों होगा| लेकिन क्या इस नैरेटिव में उन अभेदों की जगह होगी ,क्या उनका ध्यान रखा जा सकेगा जो साहित्य मात्र को हम सब की विरासत बना देता है? क्या आत्मकथाओं के भीतर ही ‘अन्य’ के साथ संवाद संभव हो पायेगा? क्या ‘दलित साहित्य की आत्मकथा’ या ‘स्त्री साहित्य की आत्मकथा’ जैसे रूपों में एक नयी इतिहासकारी संभव है? क्या यह हिंदी साहित्येतिहास लेखन पर पुनर्विचार का एक आयाम हो सकता है?

 हिन्दी साहित्य के इतिहास में हज़ार इस्वी की आस-पास जो चेतना ‘स्वभावतः’ ही लोक की ओर झुकने लगी थी, प्रेमाख्यानों की रचनाएँ हो रही थीं, प्रेमा पुमर्थो महान् की घोषनाएं हो रही थीं, भक्ति काव्य के मूल में प्रेम की अंतर्ध्वनियाँ ही प्रधान थीं,आधुनिक काल में उपन्यास और राष्ट्र के केंद्र में स्त्री ही थी| छायावाद की कल्पना स्त्री के बिना असंभव है,सरोज स्मृति और कामायनी या राम की शक्ति पूजा से लेकर अभी तक के हिन्दी साहित्य ने जहाँ भी क्लैसिकी ऊँचाई पाई है हर जगह क्या अपनी सीमाओं के बावजूद स्त्री पक्ष का दबाव नहीं दिखता| साहित्य में प्रेम की प्रमुखता समाज में प्रेम के अधिशेष(सरप्लस ऑफ लव) उत्पादन में रत स्त्रिओं के हस्तक्षेप के बिना क्या संभव है? लोक के उस दबाव में स्त्री चेतना का महत्व अनायास ही नहीं है| क्या ‘कथा के मार्मिक प्रसंगों’ की पहचान में कोई स्त्री दबाव नहीं ! मुख्य धारा के इतिहासों से संवाद का एक रास्ता इस ओर से भी बनता है| और तो और १९ वीं सदी के आखरी दशकों में खडी- बोली के आंदोलन ने ब्रज और तथाकथित उर्दू के खिलाफ जो हमला बोला उसने इस भाषा को ‘मरदाना’ बनाने की कोशिश की जो स्वाभविक रूप से ‘हिंदी भाषा’ की स्त्री को इससे बाहर किया जाना था,वरना यह तो स्वभावतः ही फेमनीन भाषा थी| क्या ही अजीब है कि पहले प्राकृत और स्त्रियों को साथ साथ देखा जाता था लेकिन १९वीं सदी के उपरोक्त आंदोलन ने जो इतिहास बनाया उसके चलते ‘हिंदी’ और ‘मर्दों’ को केवल साथ साथ देखा गया| यह अपनी ही परंपरा का निषेध था|

प्रो. तुलसीराम की किताब ‘मुर्दहिया’ के लोकार्पण पर नामवर सिंह ने कहा था कि इसे दलित आत्मकथा के नए रूप की शुरुआत मनानी चाहिए और वह इसे ‘आत्मकथा’ के बदले एक सर्जनात्मक कृति मानते हैं ,इसे कथाकृति बताते हैं ,उपन्यास की तरह पढ़ने की सलाह देते हैं. आखिर क्या कारण है कि नामवर सिंह आत्मकथा के इस विशेष नैरेटिव फॉर्म को पुराने नैरेटिव फॉर्म से कमतर बता रहे हैं? क्यों दलित लेखकों को इसी तरह के प्रयास किये जाने की सलाह देते हैं? क्या इसके पीछे दलित आत्मकथाओं में पुनरावृति की ऊब और टाइप्ड घटनाओं की प्रस्तुति से अलग एक ज्यादा सर्जनात्मक लेखन को प्रोत्साहन देने की ज़रूरत शामिल है? लेकिन क्या इस ज़रूरत के पोलिमिक्स के चक्कर में वो आत्मकथाओं की अंतर्वस्तु में शामिल अनुभूति की दावेदारी को ही विस्थापित(डिसलोकेट)  नहीं कर रहे हैं? इस रूप की विशिष्ट अंतर्वस्तु को पुराने आख्यान की अंतर्वस्तु से अलग करने कि बजाय वो पुराने आख्यान में ही इसे भी शामिल कर लेना चाहते है| ऐसा शायद नैरेटिव के भीतर से संवाद कायम करने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन यह कोशिश उस विशिष्ट रूप को नकार कर नहीं हो सकती| आत्मकथा के रूप में आख्यान में संकट का जो एक हल हमें मिला था उसकी उपेक्षा कर नामवर सिंह खुद अपनी ही स्थापनाओं की सार्थकता को खारिज करते प्रतीत होते हैं| संतों ने अपनी अपार सर्जनात्मकता को भी ‘आतम खबर’ कहा था| इस ‘आतम खबर’ को नकार कर हम उनके साहित्य का मूल्यांकन नहीं कर सकते| ठीक उसी तरह स्त्री और दलित आत्मकथाओं की अंतर्वस्तु को नकार कर सृजनात्मकता की अपील नहीं कर सकते| आखिर यह आत्मकथा के रूपविशेष की ही अंतर्वस्तु थी जो नामवर जी को राहुल सांकृत्यायन की ‘जीवन यात्रा’ में न दिखी और न ही प्रेमचंद के वर्णनों में| क्या यह केवल सर्जनात्मकता थी या ‘आत्मकथा’ भी थी जो ‘मुर्दहिया’ को कई मामलों में सांकृत्यायन और प्रेमचंद से भी ऊपर रखने को विवश करती है!

कोई भी खास सामाजिक समूह जिन्हें अपनी आवाज़ उठानी होती है उन्हें नयी भाषा,नए ग्रन्थ,नया पाठ और साहित्य की नयी परिभाषा गढनी पड़ती है| और वह सामाजिक समूह इन सब के होने के इतिहास को जब लिखता है तो दरअसल वह अपना ही इतिहास लिख रहा होता है| शेल्डन पोलक ने पूरे  दक्षिण एशिया के साहित्येतिहास लेखन को अब तक प्रत्यक्षवादी या विधेयवादी ही पाया है.[33]उन्होंने ध्यान दिलाया है कि दक्षिण एशिया में साहित्य इतिहास की विधा जिस तरह की रही है और अब तक है , उसमे बहुत सारे मुद्दों को एक नियम की तरह बाहर  ही रखा गया है| मसलन किस प्रकार साहित्यिक भाषाओं  का सृजन हुआ, उनके इतिहास किस प्रकार नैरेट हुए, और दोनों की संगति सामाजिक और राजनितिक परिस्थितिओं से कैसी रही है| विधेयवादी इतिहास अपने ही पूर्वानुमानों और शर्तों से नावाकिफ रहा है| उन्होंने उस चुनौती की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि:
“चुनौती यह है कि साहित्य इतिहास को दुबारा कैसे सोचा जाए| जहाँ उन प्रश्नों से वह  अपने को बाहर  निकाल सके  जो यूरोपीय साहित्येतिहास के औपनिवेशिक,विधेयावादी या राष्ट्रवादी प्रतिमानों ने उस पर थोप दिए हैं(रूपवादी और थीमेटिक साहित्येतिहासों को छोड़ भी दें तो)| खासकर क्यों और कैसे साहित्यिक भाषाओं का उदय हुआ, किस तरह से कॉस्मोपोलिटन और वर्नाकुलर पहचानों ने एक दूसरे को प्रभावित किया और इस प्रक्रिया में कैसे उनमे बदलाव आया, तथा भारतीय उपमहाद्वीप के साहित्य और उनके इतिहास पर सोचने का मतलब क्या है या अब तक कैसे सोचा गया है.” [34]

इस पूरे महाद्वीप में शुरू से ही अंतरक्षेत्रीय साहित्यिक भाषाओं की उपस्थिति रही है और उनका अभिव्यक्ति के स्थानीय रूपों से लगातार एक गतिशील सम्बन्ध रहा है| यह एक तथ्य है कि संस्कृत, प्राकृत और कुछ हद तक अपभ्रंश एक समय तक जिस तरह अपनी सर्वोच्चता बनाये थे उन्हें देशी भाषाओं ने एक मज़बूत चुनौती पेश की| इन नयी साहित्यिक भाषाओं में कुछ ने तो बागी विचारधाराओं का वहाँ भी किया था| आमने सामने की इस चुनौती ने कई बार समझौते किये और सापेक्षिक सर्वोच्चता को मोल भाव कर स्थिर किया| इस संश्लिष्ट प्रक्रिया के पीछे काम करने वाले संस्कृति और सत्ता के संबंधों पर कम ही ध्यान दिया गया है| नयी देशी भाषाओं की साहित्य में उपस्थिति उन भाषाओं को बोलने वाले  लोगों की सजग इच्छा थी| और इस इच्छा के पीछे काम करने वाली उन शक्तियों को पहचानना ज़रूरी है| इन भाषाओं में बनने वाली साहित्यिक संस्कृतिओं ने ‘साहित्य’ को कैसे परिभाषित किया,किन परिस्थितिओं में किसी बहुभाषी समाज ने साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए एक खास भाषा का चयन किया, श्रोताओं और दर्शकों की पहचान को बनाने और उनकी संख्या को बढ़ाने के लिए कोई सांस्कृतिक रणनीति अपनायी गयी तो उसके पीछे के उद्देश्य क्या थे? ये सारे प्रश्न हमें साहित्य इतिहास पर पुनर्विचार के लिए प्रस्तुत करते हैं| इनकी व्याख्याएं हिंदी में ज़्यादातर धार्मिक या साम्प्रदायिक या फिर जातीय निर्माण कि प्रक्रिया से जोड़ कर हुई है| और ये सभी व्याख्याएं असंतोषजनक हैं और यूरोपीय आधुनिकता के प्रतिमानों से तय हुए हैं| दूसरे अध्याय में मैं आदिकाल और भाषा के प्रश्नों पर विचार करते हुए पोलक के निष्कर्षों पर बात करूँगा| सांस्कृतिक परिवर्तन और सांस्कृतिक पहचान से सम्बंधित वर्तमान सैद्धांतिकी पर भी एक बात चीत उसी अध्याय में होगी| पोलक अपने उद्देश्यों को साफ़ करते हुए कहते हैं कि:

“क्षेत्राधारित या राष्ट्रीय या प्रांतीय संस्कृतियों के पूर्व-प्राप्त विचारों से शुरू करने कि बजाय हम यह जानना चाहते हैं कि ये सीमाएं कैसे लगातार बदलती रही थीं| पहले से साहित्य की परिभाषा तय करने कि बजाय हम जानना चाहते हैं कि साहित्य को क्या समझा जाता रहा है और स्थानीय निर्णयों में समय के अनुसार क्या परिवर्तन हुए हैं| मौखिक को लिखित से अलग करने के बदले, या यूरोप से प्रिंट के आने के बाद सभी जगह एक ही तरह कि प्रक्रियाओं के शुरू होने के यांत्रिक अनुमान के बदले हम जानना चाहते हैं कि मौखिक,पांडुलिपियों और छपाई संस्कृतियों के कई बार सामानांतर उपस्थिति का साहित्य से क्या रिश्ता रहता आया है| हम जानना चाहते हैं कि दक्षिण एशिया के लोग खुद अपने साहित्य के अतीत के बारे में क्या सोचते हैं ,उनका कालबोध उन्हें कैसे स्वीकार करता है; हम ये जानना चाहते हैं कि उन्होंने अपना कैनन खुद कैसे निर्धारित किया था, और किन मानकों ,सौन्दर्यबोधक मूल्यों अथवा पाठक के रूप में अपनी कौन सी आकांक्षाओं को इस कैनन में शामिल किये आए हैं , न कि पहले से मान लें कि ये कैनन औपनिवेशिक निर्मितियां ही हैं| हम साहित्यिक आलोचना लिखना नहीं चाहते बल्कि इतिहास लिखना चाहते हैं कि भिन्न साहित्यिक संस्कृतियों में साहित्य की आलोचनाएँ कैसी–कैसी हुई आयीं हैं; ये जानने के लिए कि कैसे और किन मानकों के तहत परम्पराओं ने खुद व्याख्याएं ,मूल्यांकन और निर्णय किये हैं, न कि हम लगातार केवल अपनी ही मान्यताओं ,व्याख्याओं और निर्णयों को उनपर थोपते रहें.”[35]

पोलक ने ध्यान दिलाया है कि यूरोप के विपरीत दक्षिण एशिया में देशी भाषाओं और साहित्यों के उदय ने कभी अपवर्जन की नीति नहीं अपनायी जैसा कि यूरोप में हुआ| यूरोप में देशी भाषाओं ने आपस में जिस प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया उसकी एक परिणति राष्ट्र-राज्यों के रूप में हुई| जबकि दक्षिण एशिया कि नयी देशी भाषाओं ने कभी द्वेष और अपवर्जन के तहत काम ही नहीं किया और इस प्रकार राष्ट्रीय अस्मिता के निर्माण का यूरोप जैसा प्रयास यहाँ नहीं हुआ| और इस प्रकार सांस्कृतिक और राजनीतिक सिद्धांत जो यूरोपीय राष्ट्र राज्यों के लिए प्रयुक्त हुए हैं ,जब सभी गैर यूरोपीय समाजों पर आजमाए जाते हैं तो उस समाज के पूरे इतिहास को ही विद्रूपित कर देते हैं| तब उस समाज के भीतर भाषा और पहचान तथा पहचान और राजनीति संबंधी चिंतन एक गलत रास्ता अख्तियार कर लेती है[36]| रामविलास शर्मा ने यूरोपीय देशी भाषाओं के उदय और राष्ट्र राज्य तक उसके विकास को बार-बार सामने रख कर हिंदी जाति संबंधी अपनी धारणा को पुष्ट करने की कोशिश की है| और इस प्रकार वही गलती करते रहे जिसकी ओर पोलक इशारा कर रहे हैं| पोलक ने ध्यान दिलाया है कि वर्नाकुलर के उदय के साथ ही साथ कुछ आगे पीछे समूचे यूरेशिया में आरंभिक आधुनिकताओं की शुरुआत भी हुई थी| और इस प्रकार रामविलास जी की कुछ मान्यताओं को एक भिन्न पैराडाइम में आरंभिक आधुनिकताओं के सिद्धांतकारों  ने फिर से बहस में ला दिया है| कवि कबीर की खोज के बहाने पुरुषोत्तम अग्रवाल ने जो इतिहास दृष्टि सामने रखी है वहां उत्तरौपनिवेशिक इतिहास दृष्टियों का एक कोलाज दिखाई देता है, जहाँ साहित्यिक-संस्कृति का इतिहास, साहित्य के इतिहास को प्रभावित करता है और साहित्य का इतिहास संस्कृति के इतिहास में नया आयाम जोड़ता है और साथ-साथ औपनिवेशिक आधुनिकता के कैनन से हिंदी साहित्य के भक्ति काल को मुक्त करने का दावा भी है.

साहित्य इतिहास में संदर्भीकरण की समस्या बड़ी महवपूर्ण है| किसी टेक्स्ट का कॉन्टेक्स्ट कैसे समझा जाए यह इतिहास की बड़ी समस्या रही है| आमतौर पर किसी साहित्यिक रचना के काल का पूरा सामाजिक इतिहास लिख देने से माना जाता है हमने सन्दर्भ का पता लगा लिया है| रचना के भीतर उस सामजिक इतिहास की विशेषताएँ खोज निकालने में साहित्य-इतिहास अपना साहित्यिक मूल्यांकन का कार्यभार संपन्न मानता है| इसीलिए आम तौर पर साहित्य इतिहास सामजिक इतिहास ही मालूम देने लगता है| अगर इस तरह हम कॉन्टेक्स्ट से चलते हैं तो साहित्यिक रचनाओं की महत्ता और अन्य रचनाओं  से उसकी भिन्नता की व्याख्या असंभव हो जाती है| आमतौर पर ये माना जाता है कि कोई रचनाकार अपने आसपास के सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक आदि परिस्थितिओं तथा पहले के साहित्य की विरासत के बीच ही चूँकि रचना करता है इसीलिए इन सब का एक सामान्य परिचय रचना के निर्माण और उसकी महत्ता को साहित्य इतिहास में स्थापित कर देंगे|[37] किसी रचना के सन्दर्भ की व्याख्याएं इतिहास के किसी विशि‍ष्‍ट मॉडल के आधार पर होती हैं| उसके बाद भी टेक्स्ट और कॉन्टेक्स्ट के बीच  मध्यस्थता करने वाले सिद्धांतों के सामने यह प्रश्‍न अनुत्तरित ही रह जाता है कि किस रस्ते, किस प्रक्रिया , या घटनाओं की  किस श्रृंखला के द्वारा कॉन्टेक्स्ट, टेक्स्ट पर अपना प्रभाव छोड़ता है| और अंततः रचना को किसी सामाजिक या राजनितिक तथ्य के सामने रख कर उसकी व्याख्या कर दी जाती है, और बताया जाता है कि ये तथ्य ही रचना के कारक हैं| और इसके पीछे यह मान्यता काम करती है कि “हम सामान्य संभावनाओं से विशिष्ट वास्तविकताओं को समझ सकते हैं.”[38] कुछ ऐसी ही समस्या के बारे में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी एक लेख लिखा था.

उस लेख का नाम था ‘साहित्ये ऐतिहासिकता’| इसका हिन्दी अनुवाद अमृत राय ने किया है ‘साहित्य में ऐतिहासिकता’[39]और अंग्रेजी अनुवाद रंजीत गुहा ने किया है ‘Historicality in literature’[40]. निबंध की शुरुआत में ही ऐसा लगता है मानो रवीन्द्रनाथ इतिहासकारों से थोड़े नाराज़ हैं|
 “हमलोग इतिहास के द्वारा पूरी तरह परिचालित होते हैं, यह बात मैंने बार-बार सुनी है और बार-बार भीतर-ही-भीतर खूब जोर से सर हिलाया है| इस तर्क का समाधान मेरे हृदय में ही है, जहाँ पर मैं और कुछ नहीं केवल कवि हूँ. वहाँ पर मैं सृष्टिकर्ता हूँ, अकेला हूँ , मुक्त हूँ| बाहर की अधिकतर घटनाओं के जाल में बंधा हुआ नहीं हूँ| ऐतिहासिक पंडित जब मुझे मेरे उस काव्य-सृष्टि के केंद्र से घसीट कर बाहर ले आता है तो मुझे वह चीज़ असह्‍य  हो जाती है”[41].
इसके बाद वह कवि जीवन की आरंभिक सूचना देते हुए अपने बचपन के किसी एक दिन की तीन घटनाओं का ज़िक्र करते हैं| पहली घटना है सर्दी की उस सुबह में नारियल के कांपते हुए पत्तों पर सूरज की रोशनी में ओस की झिलमिलाती बूंदों को देखने के लिए सुबह उठना| दूसरी घटना है शाम के साढ़े चार बजे स्कूल से लौटते ही अपने तितल्ले मकान के ऊपर घिर आये घने नीले बादलों को देखना| और तीसरी घटना है जब वह एक धोबी  के घर से आये गधे को चरते हुए देखते हैं और जिसकी पीठ को एक गधी बड़े प्यार से चाटती रही थी| हर घटना के वर्णन के बाद रवीन्द्रनाथ लिखते हैं की यह उनका अपना अद्वितीय अनुभव था. ‘इसके पीछे इतिहास का कोई खेल नहीं था’. वह कहते हैं की “कवि जो है सो यही”| इसे वह उस दिन का इतिहास कहते हैं| इसे हम ऐतिहासिकता के बड़े सन्दर्भ में समझने की कोशिश कर सकते हैं|  लेकिन इन घटनाओं से उनके  कवि रूप में विकास के इतिहास से क्या सम्बन्ध है? इस प्रश्न में यह पूर्वकल्पना शामिल है कि किसी भी विकास का आरंभ तब तक नहीं हो सकता जब तक की कोई ऐसी आरंभिक घटना न पहचान ली जाये जो वस्तुतः घटित हुई थी| सामान्य बोध में वस्तुनिष्ठ यथार्थ की जो धारणा है वह ऐसे प्रश्नों के पीछे काम करती है| यहाँ यथार्थ या वस्तुगत और संभाव्य एक साथ उपस्थित होता है| जबकि रवीन्द्रनाथ के इन अनुभवों में एक संभाव्य कवि के अनुभव है| और ये घटनायें उनके कवि के रूप में विकास के इतिहास से सम्बंधित हैं| लेकिन इन घटनाओं में ऐसा कुछ नहीं है जिसके सहारे उनका कवि होना साबित होता है| एक तरह से ये संभाव्य कवि का प्राक्-इतिहास है| और इस इतिहास में उस कवि-इतिहासकार का कवि बनने की संभावना की  पहचान मात्र है| यहाँ कोई शुरुआत नहीं पहचानी जा सकती है| वो आरंभिक घटनाएँ जड़ नहीं हैं| इनका स्वयं में एक जीवन है- जिसकी गति किसी ओर इंगित है-लेकिन किस ओर यह अभी पता नहीं| ऐसी प्रवृति है जो कहाँ ले जाएगी ज्ञात नहीं| दरअसल रवीन्द्रनाथ संभावना को ‘वस्तुगत’ की जगह रख कर और अपने कवि- जीवन के आरंभिक क्षणों को एक झीनी संभावना के रूप में प्रस्तुत कर ऐतिहासिकता को सामान्य इतिहासकारी की सीमाओं से बाहर ले जा रहे हैं| इस प्रकार की ऐतिहासिकता भी तथ्यों कि मांग करती है| लेकिन ये तथ्य “किसी जड़ पत्थर की तरह उपस्थित रहने वाले तथ्य से सत्तामूलक रूप से पृथक होंगे”[42]. ऐसे तथ्यों की तथ्यता(factuality) को हाइडेगर ‘वस्तु-बद्धता’/’तथता’(facticity) कहता है.[43]

रवीन्द्रनाथ इस होने की ‘तथता’ को ही अपनी आरंभिक सूचना में व्यक्त कर रहे हैं| यह प्रस्तावना कुछ-कुछ उसी तरह की है जैसे नाटक में पर्दा उठने और अभिनेताओं के आने के बीच में होती है| वह बचपन के इन अनुभवों को उन संकेत चिह्नों की तरह लेते हैं जो कवि को कवि होने की आत्म पहचान की ओर ले जाता है. “इसमे किसी इतिहास का सांचा नहीं है”| लेकिन इस देखने में ही “कवि जो है सो है”| वह कहते हैं “उस दिन की बात आज भी मेरे मन में है, लेकिन उस दिन के इतिहास में मुझको छोड़ कर और किसी दूसरे व्यक्ति ने उन बादलों को उन आँखों से नहीं देखा और पुलकित नही हुआ| यहीं पर दिखाई दिया अकेला रवीन्द्रनाथ”| इस तरह इतिहासकरी में केवल सामान्य इतिहास को ही शामिल करने से उस विशिष्ट इतिहास का निषेध हो जाता है जो कि रवीन्द्रनाथ का सर्जक मन अपनी उपस्थिति में प्राप्त करता है| “अपने सृष्टि-क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ अकेला है, कोई इतिहास उसको साधारण के साथ नहीं बांधता| इतिहास जहां पे साधारण था वहां पर वह ब्रिटिश सब्जेक्ट था, पर रवीन्द्रनाथ न था| वहाँ पर राष्ट्रीय परिवर्तन की चित्र-विचित्र लीला चल रही थी लेकिन नारियल के पत्तों पर जो रोशनी झिलमिला रही थी वह ब्रिटिश गवर्नमेंट की लाई हुई चीज़ न थी... जो सृष्टिकर्ता है उसके लिए सृष्टि का उपकरण जुटाता है, थोड़ा बहुत इतिहास , थोडा बहुत उसका सामाजिक परिवेश; लेकिन यह उपकरण उसको बनाता नहीं|”

इसलिए यहाँ रवीन्द्रनाथ एक तो सामान्य इतिहासकारी को समय के उस नैरेटिव को भी समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो होने की तथतामें गतिशील है, और फिर सामान्य इतिहास को सृजन के विशिष्ट रूप का नियामक मानने की गलती पर इतिहासकारों से खिन्न भी हैं| वह लिखते हैं
बात यह है कि सृष्टिकर्ता अपनी रचनाशीलता में अकेला काम करता है| वह विश्वकर्मा के ही सामान अपने को देकर रचना करता है| उस दिन कवि ने जो ग्रामचित्र देखे निसंदेह उनमें राष्ट्रीय इतिहास का आघात-प्रतिघात था| लेकिन उसकी सृष्टि में मानव-जीवन के उस सुख-दुःख का इतिहास प्रतिबिंबित हुआ था जो सारे इतिहास का अतिक्रमण करके बराबर चला आ रहा है| कृषि-क्षेत्र में, गावं के रीति-रिवाजों में, अपने दैनंदिन सुख-दुःख को लिए दिए- कभी मुग़ल राज्य में , कभी अंग्रेजी राज में- उसकी अति सरल मानवता की अभिव्यक्ति बराबर चली आ रही है- वही प्रतिबिंबित हुई थी गल्प-गुच्छ में,कोई सामंत-तंत्र नहीं, कोई राष्ट्रतंत्र नहीं| आजकल के समालोचक जिस विस्तीर्ण इतिहास के बीच अबाध संचरण करते हैं उसका कमसे कम बारह आना तो मैं जानता ही नही| शायद मुझे इसीलिए मुझे और भी ज्यादा चिढ़ होती है| और मेरा मन कहता है, ‘चूल्हे में जाए तुम्हारा इतिहास’|”


साहित्य के इतिहास पर रवीन्द्रनाथ की इस टिपण्णी से क्या हम साहित्य-इतिहास लेखन पर पुनर्विचार का कोई सूत्र नहीं पाते!



[1] हजारी प्रसाद द्विवेदी. ‘साहित्य का इतिहास’, ग्रंथावली खंड-१०, संपादक-मुकुंद द्विवेदी. पृष्ठ-१०७.राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली:२००७.

[2] हेडन व्हाइट,’द पोलिटिक्स ऑफ हिस्टोरिकल इंटरप्रेटेशन: डिसिप्लिन एंड डी-सब्लिमेशन’, द कंटेंट ऑफ द फॉर्म में, पृष्ठ-८१. बाल्टीमोर ,जान होपकिंस यूनिवर्सिटी प्रेस ,१९८७.


[3] देखें डेविड पर्किन्स,इज लिटररी हिस्टरी पासिबल,भूमिका. द जॅान हापकिंस यूनिवर्सिटी प्रेस ,बाल्टीमोर एंड लन्दन:१९९२
[4] वही , पृष्ठ -२ और ३
[5] वही.पृष्ठ-३
[6] आर्नल्ड हाउजर, कला का इतिहास दर्शन, अनु. गोपाल प्रधान;पृष्ठ -११३-११४;ग्रन्थ शिल्पी-दिल्ली ,२००१. 
[7] वही,११४
[8] देखें, मकस राफाएल, “मार्क्सवादी कला-सिद्धांत”; कार्ल मार्क्स: कला और साहित्य चिंतन; सम्पादक- नामवर सिंह, अनुवादक- गोरख पाण्डेय; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली:२००३.
[9] देखें,दीपेश चक्रबर्ती. प्रोविन्सियलाइजिंग यूरोप’; प्रिंसटन युनिवेर्सिटी प्रेस,न्यू जरसी :२०००
[10] देखें, पुरुषोत्तम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय. भूमिका; राजकमल प्रकाशन, दिल्ली:२००९
[11] देखें, नामवर सिंह. “समाज, साहित्य, और लेखक का व्यक्तित्व”; इतिहास और आलोचना, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली:२००६.
[12] नामवरसिंह,’हिंदी साहित्य इतिहास लेखन’. लिटरेरी हिस्टोरिओग्राफी इन इंडिया, वॉल. १; सं. अमिय देव ; पृष्ठ -५४-५५;डी एस ए कम्परेटिव लिटरेचर ,जादवपुर यूनिवर्सिटी , कलकत्ता:१९९२
[13] वही, पृष्ठ-५६
[14] हेडन व्हाइट,’द बर्डेन ऑफ हिस्टरी’, ट्रोपिकस ऑफ डिस्कोर्स में,पृष्ठ-२७-५०,बाल्टीमोर ,जान होपकिंस यूनिवर्सिटी प्रेस ,१९७८.
[15] हेडन व्हाइट,’द पोलिटिक्स ऑफ हिस्टोरिकल इंटरप्रेटेशन: डिसिप्लिन एंड डी-सब्लिमेशन’, द कंटेंट ऑफ द फॉर्म में, पृष्ठ- ५८-८२. बाल्टीमोर ,जान होपकिंस यूनिवर्सिटी प्रेस ,१९८७.
[16] हेडन व्हाइट,’द पोलिटिक्स ऑफ हिस्टोरिकल इंटरप्रेटेशन: डिसिप्लिन एंड डी-सब्लिमेशन’, द कंटेंट ऑफ द फॉर्म में, पृष्ठ-८१-८२. बाल्टीमोर ,जान होपकिंस यूनिवर्सिटी प्रेस ,१९८७.
[17] वही
[18] नामवरसिंह,”हिंदी साहित्य इतिहास लेखन”. लिटरेरी हिस्टोरिओग्राफी इन इंडिया, वॉल. १; सं. अमिय देव ; पृष्ठ -५७;डी एस ए कम्परेटिव लिटरेचर ,जादवपुर यूनिवर्सिटी , कलकत्ता:१९९२.
[19] दीपेश चक्रबर्ती. प्रोविन्सियलाइजिंग यूरोप’; पृष्ठ-४५,प्रिंसटन युनिवेर्सिटी प्रेस,न्यू जरसी :२०००.
[20] वही, पृष्ठ-४५-४६.
[21] वही,पृष्ठ-७
[22] वही, पृष्ठ-१७
[23] वही, पृष्ठ-८-९
[24] वही, पृष्ठ -२३ और पृष्ठ-२६५
[25] देखें “टू हिस्टरिज ऑफ कैपिटल”, प्रोविन्सियलाइजिंग यूरोप’; प्रिंसटन युनिवेर्सिटी प्रेस,न्यू जरसी :२०००
[26] वही, पृष्ठ-४८.
[27] वही, पृष्ठ-६३.
[28] वही
[29] वही
[30] वही,पृष्ठ-७८
[31] देखें, पुरुषोत्तम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय.पृष्ठ- viii. राजकमल प्रकाशन, दिल्ली:२००९.
[32] नामवर सिंह ने ध्यान दिलाया है की १९वीं सदी के यूरोप में उपन्यास या नोवेल का उदय फार्मल रियलिज्म के साथ जुड़ा है| नारीवादी लोगों के हवाले से यह भी कहा कि उपन्यास की परिकल्पना के मूल में ही सत्ता को चुनौती देने का आधार था| उपन्यास की परिभाषा में ही लिंग भेद या जेंडर डिफरेंस रहा है | देखें, नामवर सिंह .’भारतीय उपन्यास और प्रेमचंद’,प्रेमचंद और भारतीय समाज में; सं. आशीष त्रिपाठी ; पृष्ठ -५७-५८.|राजकमल प्रकाशन, दिल्ली:२०१०.
[33] शेल्डन पोलक, लिटरेरी हिस्टरी, रीजन, एंड नेशन इन साऊथ एशिया:इनटरोडक्टरी नोट;सोशल साइंटिस्ट,वाल.२३,नंब.१०-१२, ऑक्टू –दिसंबर-१९९५;पृष्ठ-१.
[34] वही, पृष्ठ-२
[35] शेल्डन पोलक.इनट्रोडक्सन इन लिटरेरी कल्चर्स इन हिस्टरी: रीकंस्ट्रकसन फ्रॉम साऊथ एशिया, एड.- शेल्डन पोलक: पृष्ठ-१५;  ओ.उ.प., दिल्ली:२००४.
[36] शेल्डन पोलक. द लैंगुएज़ ऑफ द गोड्स इन द वर्ल्ड ऑफ द मेन:संस्कृत कल्चर, एंड पॉवर इन प्रिमाडर्न इंडिया ; पृष्ठ-२९-३०. यूनिवर्सिटी ऑफ कलिफोर्निया प्रेस, लन्दन :२००६.
[37] रेने वेलक, “द फॅाल ऑफ लिटरेरी हिस्टरी”, द अटैक ओंन लिटरेचर एंड अदर एसेस. पृष्ठ-७५-७६;यूनिवर्सिटी ऑफ नोर्थ करोलिना प्रेस, चैपल हिल:१९८२.
[38] आर.एस.क्रेन, क्रिटिकल एंड हिस्टोरिकल प्रिंसिपलस ऑफ लिटररी हिस्टरी. पृष्ठ-५३;यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो प्रेस;शिकागो:१९७२. 
[39] देखें, रवीन्द्रनाथ, रवीन्द्रनाथ के निबंध, भाग-२, अनुवादक- अमृत राय,पृष्ठ-३७८. साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली:१९९५.
[40] देखें, रंजीत गुहा.हिस्टरी एट द लिमिट ऑफ वर्ल्ड हिस्टरी. पृष्ठ-९५, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, कोलंबिया:२००२.
[41] देखें, रवीन्द्रनाथ, रवीन्द्रनाथ के निबंध, भाग-२, अनुवादक- अमृत राय,पृष्ठ-३७८. साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली:१९९५
[42] देखें, रंजीत गुहा.हिस्टरी एट द लिमिट ऑफ वर्ल्ड हिस्टरी.पृष्ठ-७९, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, कोलंबिया:२००२.
[43] वही
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