“हमलोग आज मार्क्स की आधारभूत
स्थापनाओं या स्वीकृतियों तक खुद को रोक नहीं सकते. ठीक उसी तरह जैसे कोई गंभीर
भौतिकवेत्ता न्युटोनिक होकर रुक नहीं सकता. आपस में कई अन्य भिन्नताओं के बीच इस
भिन्नता के साथ भी कि समाजशास्त्र के खेमे को अपना आइन्स्टीन सामने आने तक कई
पीढ़ियों से गुजरने की ज़रुरत है. जब तक मार्क्स के कार्यों की सम्पूर्ण ऐतिहासिक
अभिव्यक्ति नहीं हो जाती तब तक यह चित्र उभर नहीं सकता”. मार्क्स के विचारों के
साथ-साथ उनसे प्रभावित पूरे कालखंड से गुजरने के बाद रुडोल्फ श्लेसिंगेर इसी
निष्कर्ष पर पहुँचते हैं. कुछ आरंभिक टिप्पणियों या निर्माणाधीन संकल्पनाओं
को और गहरा करने एवं सत्यापित करते चलने के उद्देश्य से इस निष्कर्ष को नोट करना
महत्वपूर्ण है.
आगे बढ़ने से पहले यह प्रस्तावना:
एक प्रोजेक्ट जो कुछ मौलिक मार्क्सी स्थापनाओं या स्वीकृतियों की समकालीन
प्रासंगिकता के विमर्श को अपने में शामिल करना चाहता है उसे मार्क्स सेउनके
समय में नहीं बल्किहमारे अपने समय में भिड़ना होगा. आज के पूँजीवाद
के आधार पर पूँजी को आंकना होगा. इसी तरीके से एकबारगी और सबके लिए हम उस
खोखली और टुटपुंजिया मान्यता को स्पष्ट कर सकते हैं जिसका दावा है कि मार्क्स के
कार्य ‘छोटे स्तर के माल उत्पादक’ समाज का उत्पाद और उसकी व्याख्या है.
मार्क्स की एक मौलिक स्थापना इस
प्रकार है: पूँजीवाद के सामाजिक आधार में इसकी अन्तर्निहित ऐतिहासिक प्रक्रिया
हमेशा ही अमूर्तन की एक तार्किक कार्यवाही प्रत्यक्ष करती है जो अपनी आकस्मिकता
में तत्काल कल्पित होने वाले अनिश्चित और अनौपचारिक तत्त्वों की वस्तु को उघाड़ कर
सामने रख देती है, केवल इसीलिए ताकि उन पक्षों को खोजा जा सके और उसे बढ़ा चढ़ा कर
पेश किया जा सके जो इसे ऐतिहासिक रूप से निर्धारित यथार्थ का एक विशिष्ट उत्पाद
बनाती है और बनती है तथा अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के लिए इसे सही साबित करती है.
पूंजीवादी विकास की प्रक्रिया अपने
भीतर अपने इतिहास को सरलीकृत करने का कार्य भी करती चलती है जो इसकी
‘प्रकृति’ को हमेशा शुद्धतर रूपों में प्रकट करती है, सारे अनावश्यक
अंतर्विरोध की कांट-छाँट करते हुए गहरे और मौलिक अंतर्विरोधों को उभारती चलती है,
जो एक ही साथ इसे प्रकट भी करती है और इसकी भर्त्सना भी करती है. इस अर्थ में
पूंजीवादी विकास स्वयं पूंजीवाद का अपना सत्य है: वास्तव में केवल पूंजीवादी विकास ही पूंजीवाद
की गोपनीयता का पर्दाफाश कर सकता है. यही गोपनीयता जब बुर्जुआ दृष्टिकोण से
अभिव्यक्त होती है तो अपनी-अपनी पहुँच में सबके लिए पूँजीवाद का चरम भ्रम
बन जाती है. या दूसरे शब्दों में, पूंजीवाद इसी चरम सत्य को धारण करने में सक्षम
है और जो इसके अनिश्चित स्थैर्य के लिए विचारधारात्मक हथियार बन जाती है. यही
गोपनीयता जब मज़दूर वर्ग के दृष्टिकोण से अभिव्यक्त होती है तो वह अपने इतिहास
के पूर्व परिणामों के आलोक में इसकी व्याख्या करती हुई पूंजीवाद की सच्ची प्रकृति
के महानतम वैज्ञानिक बोध में कायांतरित हो जाती है. यह पूंजीवाद के चरम अंतर्विरोध
की खोज द्वारा और उस खोज के परिणामस्वरूप अपने ही विनाश के सैद्धांतिक हथियार में
बदल जाती है. अगर यह सच है तो मानना होगा कि सबसे आगे बढ़े पूंजीवाद के सामाजिक
आधार पर ही पूँजी और मज़दूर वर्ग के बीच निर्णायक लड़ाई होती है और तब यह भी सच है
कि उसी धरातल पर/इलाक़े में हमें मज़दूरों के सिद्धांत और बुर्जुआ विचारधारा के वर्ग संघर्ष को
अभिव्यक्त करना चाहिए.
मार्क्स की दूसरी मौलिक स्थापना इस
प्रकार है: यह सबसे आगे बढ़ा हुआ बिंदु है जो सबसे अल्प विकसित की व्याख्या करता है
न कि इसके उलट. यह पूंजी है जो भूमि के किराए की व्याख्या करती है न कि भूमि का
किराया पूँजी की. किसी ख़ास चिंतन का सत्यापन उस सामाजिक भूमि के आधार पर नहीं किया
जा सकता जो उसे ऊपर-ऊपर से पैदा करता जान पड़ता है बल्कि उस आधार पर किया जा सकता
है जो उसे पार कर चुका है, क्योंकि वास्तव में यह बाद वाला ही है जिसने उसे पैदा
किया था. इस तरह से मार्क्स ने हीगेल को अर्द्ध-सामन्ती जर्मन स्थितियों से मुठभेड़
में नहीं बल्कि यूरप के सबसे विकसित पूंजीवाद से मुठभेड़ के लिए सामने रखा और ठीक
उसी समय रिकार्डो को अपने समय की समस्याओं के तात्कालिक उत्तर देने तक ही रोक
लिया. इसलिए आज का मार्क्स अपनी पुरानी दार्शनिक अन्तरात्माओं से ही ‘विवाद का
निपटारा’ करता नहीं रह सकता; इसके बदले उसे समकालीन पूंजीवाद के आधुनिक यथार्थ के
साथ एक सक्रिय मुठभेड़ के अन्दर ही ‘ढाला’ जा सकता है, केवल उसकी समझ और उसके
विध्वंस के लिए. क्योंकि यही वह सत्यापन का क्षण भी है जिसे मज़दूर वर्ग का अन्वेषण
(वर्किंग क्लास इन्क्वायरी) हमारे जिम्मे करता है और जो इसकी ज़रूरत भी है. यह महज
संयोग नहीं कि जहाँ आज का बुर्जुआ चिंतन १८४४ की दार्शनिक पांडुलिपियों की
कुछ दुर्भाग्यपूर्ण पंक्तियों से मोहाविष्ट ‘मानव सार के अलगाव’ का अस्तित्ववादी
रोमांस निर्मित कर रहा है वहीं मज़दूर वर्ग का चिंतन वर्तमान के विध्वंस और उस पर
विजय के लिए आवश्यक क्रांतिकारी संघर्ष के रूप में वर्तमान की वैज्ञानिक व्याख्या
के एक शास्त्रीय मॉडल के लिए पूँजी की ओर लौट रहा है.
अपनी किताब के एक मार्मिक पन्ने पर
बड़ी साहस के साथ मिशाड ने एक विचार व्यक्त किया है और जो मेरी नज़र में भ्रमित
सनसनी की अवस्था में न भी हो तो भी बहुप्रचलित तो है ही: ‘कुछ मामलों में मार्क्स
की विचारधारात्मक स्थितियों से पहले की स्थितियों का प्रकटीकरण’. क्या ऐसा कहने
में वह सही है? हम किन अर्थों में ऐसा कह सकते हैं? इन सवालों के जबाव से कुछ
अँधेरे कोने शायद रौशन हो सकते हैं.
एक विश्वसनीय क्रांतिकारी चिंतन की
तरह मार्क्स का चिंतन भी जो है उसके विनाश की ओर प्रवृत्त होता है, केवल अनागत और
अनुपस्थित के निर्माण के लिए. आपस में भिन्न लेकिन सहज रूप से एकीभूत दो हिस्सों का अस्तित्व है जो इस चिंतन को रूप
देता है. इसमें एक है: “जो कुछ है उसकी निर्मम आलोचना”, यह मार्क्स के यहाँ
बुर्जुआ चिंतन की रहस्यात्मक प्रक्रिया की खोज और उसके बाद पूंजीवादी विचारधाराओं
के सैद्धांतिक विरहस्यीकरण में अभिव्यक्त हुई है. दूसरा है: “वर्तमान की सकारात्मक
व्याख्या”. यह वैज्ञानिक बोध के उच्चतम स्तर पर जाकर गतिशील वर्तमान का भावी
विकल्प पैदा करती है. एक है बुर्जुआ विचारधाराओं की आलोचना और दूसरा है पूंजीवाद
की वैज्ञानिक व्याख्या. कालक्रम में और तार्किक रूप से पृथक इन दो क्षणों को
मार्क्स की रचनाओं में पकड़ा जा सकता है: हीगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना
से पूँजी तक. इसका यह कतई मतलब नहीं कि इस प्रक्रिया को इन्हीं हिस्सों और
इसी अनुक्रम में दुहराया जाए. स्वयं मार्क्स ने जब शास्त्रीय अर्थशास्त्र को
संबोधित किया तो उसी का अनुसरण किया और इस क्रम में उन्हें कुछ सामान्य अमूर्तनों
को खोजने की दिशा मिली. लेकिन ऐसा करते वक़्त भी मार्क्स बखूबी जानते थे कि इस
रास्ते को दुहराना नहीं है, बल्कि इसके उलट अब सामान्य अमूर्तनों से शुरू करना
ज़रूरी था- श्रम का विभाजन, पैसा, मूल्य- ताकि फिर से एक बार “जीवंत एकता” तक तक
पंहुच सकें- जनसाधारण, राष्ट्र, राज्य, विश्वबाजार. उसी तरह जब मार्क्स का कार्य
एक बारपूँजी तक पहुँच गया तो आज उसे अपने लिए प्रस्थान बिंदु की तरह लेना
हमारी ज़रूरत है. एक बार अगर पूँजीवाद के विश्लेषण तक पहुँच जाएँ तो फिर वहीं से नई
शुरुआत करनी होगी. कुछ निर्धारक अमूर्तनों के इर्द-गिर्द अन्वेषण ही हमारा
प्रस्थान बिंदु होना चाहिए ताकि हम एक नई “जीवंत एकता” तक पहुँच सकें. मसलन-
उजरती-श्रम, पूँजी के जैविक संयोजन में बदलाव, अल्पतंत्री पूँजीवाद के तहत मूल्य
आदि से शुरू कर जनता, लोकतंत्र, नव-पूंजीवादी राजनीतिक राज्य, अंतर्राष्ट्रीय
वर्गसंघर्ष आदि की “जीवंत एकता” तक पहुँचा जा सके. यह महज संयोग नहीं कि लेनिन ने
भी यही रास्ता अपनाया था: रूस में पूँजीवाद का विकास से राज्य और क्रान्ति तक. और यह भी महज
संयोग नहीं कि तमाम बुर्जुआ विचारधाराओं के साथ-साथ मज़दूर वर्ग की सुधारवादी
विचारधाराएँ इससे ठीक उलट रास्ता लेती हैं.
पर यह सबकुछ भी अपर्याप्त है. केवल
आज के पूँजीवाद के विश्लेषण के विशिष्ट चरित्र को आत्मसात करना काफी नहीं है. इसके
साथ-साथ हमें विचारधारा की मौजूदा विशिष्टता को भी आत्मसात करना होगा. और इसके लिए
हमें एक सुचिंतित मान्यता से आरम्भ करना होगा. ऐसी मान्यता जो मार्क्स के विज्ञान
के सकारात्मक चरित्र को व्यक्त करने वाले दबावों या अतिरेकों में से एक है और नए
चिंतन तथा व्यावहारिक संघर्षो में सक्रिय हस्तक्षेप के लिए एक उत्तेजक की भूमिका
अदा करती है. यह मान्यता है: कोई विचारधारा हमेशा बुर्जुआ है क्योंकि यह
हमेशा ही पूंजीवादी आधार पर/इलाके में चलने वाले वर्ग संघर्ष का भ्रमित/रहस्यमय
प्रतिबिम्बन करती है.
मार्क्सवाद को आमतौर पर मज़दूर
आन्दोलनों की “विचारधारा” के रूप में ग्रहण किया जाता है. परन्तु यह अपने प्रस्थान
से ही एक आधारभूत भूल के सिवा कुछ भी नहीं, क्योंकि “मार्क्सवाद का जन्म” स्वयं
तमाम बुर्जुआ विचारधाराओं की विध्वंसक आलोचना के द्वारा मूलतः सारी विचारधाराओं का विध्वंस था. यह मान्यता कि केवल
बुर्जुआ समाज के आधार पर ही विचारधारात्मक रहस्यीकरण की प्रक्रिया संभव होती है, बुर्जुआ समाज
के बारे में और उसके ऊपर लगातार बना रहने वाला एक बुर्जुआ दृष्टिकोण है. जिनलोगों
ने भी पूँजी के आरंभिक पृष्ठों पर अपनी नज़र दौड़ायी है वे जानते हैं कि यह
प्रक्रिया शुद्ध चिंतन की कोई प्रक्रिया नहीं है जिसे बुर्जुआजी सचेत रूप से चुनती
है ताकि उत्पीड़न के तथ्य को छिपाया जा सके, बल्कि इसके बदले यह स्वयं
उत्पीड़न की वास्तविक और वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया का निष्कर्ष है. दूसरे शब्दों में,
यह स्वयं प्रक्रिया का निष्कर्ष है और अपने सभी चरणों में पूंजीवाद के विकास की
कार्यप्रणाली है.
यही कारण है कि मज़दूर वर्ग को किसी
“विचारधारा” की कोई ज़रुरत नहीं. एक वर्ग के रूप में अर्थात वैश्विक पूँजी
की व्यवस्था की चरम विरोधी यथार्थ की तरह, एक क्रांतिकारी वर्ग संगठन के रूप में, अपने अस्तित्व के समय से ही इसकी
उपस्थिति उस विकास की कार्यप्रणाली से खुद को नहीं जोड़ती बल्कि उसे उसके चंगुल से
मुक्त करती है और उसका विरोधी बना देती है. जैसे-जैसे पूंजीवादी विकास आगे बढ़ता है
वैसे-वैसे मज़दूर वर्ग पूँजीवाद से अपने रिश्ते में और ज़्यादा स्वायत्त हो
सकता है; जैसे-जैसे व्यवस्था खुद को और ज़्यादा “परिपूर्ण” करती है वैसे-वैसे मज़दूर
वर्ग स्वयं को व्यवस्था के उच्चतम अंतर्विरोध में बदल सकता है- उस बिंदु तक
जहाँ उसका ज़िन्दा रहना असंभव हो जाए और ऐन उसी वक़्त क्रांतिकारी विच्छेद को संभव
करे जिससे इस पूंजीवादी व्यवस्था का विलोप और विनाश हो सके.
मार्क्स मज़दूर आन्दोलन की
विचारधारा नहीं है, यह एक क्रांतिकारी सिद्धांत है. एक सिद्धांत जिसका जन्म किसी
समय बुर्जुआ विचारधारा की आलोचना में हुआ था और जिसे रोजाना उसी आलोचना से ज़िंदा
रहना है. अर्थात् इसे निरंतर “जो कुछ है उसकी निर्मम आलोचना” बना रहना होगा. एक
सिद्धांत जो खुद को पूंजीवाद के वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा बनाता है और उस
विश्लेषण के हर क्षण द्वारा जिसे पोषित होना चाहिए और ज़रुरत के हिसाब से कुछ ख़ास
मौकों पर खुद को इस तरह पहचानना चाहिए ताकि वह अपनी खोयी हुई ज़मीन पा सके और उन
खड्डों और दूरियों को पाटा जा सके जो वस्तुओं के विकास तथा अन्वेषण के स्थगन और
इसके हथियारों/साधनों/औजारों के बीच बन गयीं हैं. एक सिद्धांत जो केवल मज़दूर वर्ग
के क्रांतिकारी व्यवहार के फलन की तरह जीवित रहता है, जो इसे संघर्ष के लिए हथियार
प्रदान करता है, इसके ज्ञान हेतु औज़ार विकसित करता है, इसके कार्यकलाप की वस्तु को
कांट-छाँट कर अलग करता है और उसे परिवर्धित करता है. मार्क्स बुर्जुआ समाज के
प्रति मज़दूर का दृष्टिकोण है और रहा आया है.
अगर मार्क्स का चिंतन मज़दूर वर्ग
का क्रांतिकारी सिद्धांत है, अगर मार्क्स सर्वहारा का विज्ञान है, तब फिर यह कैसे संभव है कि कम से कम मार्क्सवाद
का एक हिस्सा लोकप्रियतावादी विचारधारा में बदल गया? एक ऐसे शस्त्रागार में बदल
गया जो वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया में तमाम संभव समझौतों को सही साबित करने वाले
घृणित हथियार मुहैय्या करता है? यहाँ इतिहासकार का कार्यभार महत्वपूर्ण हो जाता
है. इसी बीच यह भी स्वयं-सिद्ध है कि अगर विचारधारा पूंजीवादी विकास की
कार्यप्रणाली का ऐतिहासिक रूप से निर्धारित एक हिस्सा है और उसकी एक विशिष्ट
व्यंजना है, तब मज़दूर वर्ग की विचारधारा के निर्माण के लिए इस “विचारधारात्मक”
आयाम को स्वीकार करने का इतना ही अर्थ हो सकता है कि मज़दूर वर्ग का आन्दोलन स्वयं
कुछ हद तक पूंजीवादी विकास की निष्क्रिय व्यंजना बन गया है, स्वयं व्यवस्था में
समाहित होने की पीड़ा से यह गुज़रा है, एक ऐसी प्रक्रिया से यह गुज़रा है जिसकी अनेक
अवस्थाएं और अनेक स्तर हैं या यूँ कहें कि उसी सुधारवादी व्यवहार के भिन्न
भिन्न रूप हैं जो आज प्रत्यक्षतः
दिखाई दे रहे हैं और प्रकट रूप से मज़दूर वर्ग की संकल्पना में ही शामिल हो गए हैं.
अगर सामान्यतः विचारधारा हमेशा बुर्जुआ विचारधारा है तो मज़दूर वर्ग की विचारधारा
हमेशा ही सुधारवादी है. यही वह रहस्यात्मक तरीका है जिसके द्वारा
इसका क्रांतिकारी प्रकार्य अभिव्यक्त होता है और ठीक उसी समय उसे उलट भी देता है.
अगर यह बात सही है तो आज हमें
विरहस्यीकरण का आरम्भ निश्चय ही स्वयं मार्क्सवाद से करना होगा, इसे स्वयं ऐसी
प्रक्रिया के रूप में समझना होगा जो मार्क्सवाद को विचारधारा से मुक्त करे.
मेरा मतलब यहाँ मार्क्सवाद से है न कि मार्क्स के कार्यों से जिनके बारे में कई
तरह के विमर्श ज़रूरी हैं. स्वभावतः यह मार्क्स के कार्यों की आतंरिक आलोचना का
कार्य है, जहाँ यह अपनी महती दिशाओं को अलगाती और चुनती चलती है. हमारे लिए
मूल्यवान और ध्यान देने वाली दिशाएँ वे हैं जहाँ वैज्ञानिक सामान्यीकरण अपने
उच्चतम धरातल पर संभव हुआ है और इसी वजह से वहां पूंजीवाद का विश्लेषण अत्यंत
प्रभावशाली ढंग से व्यवस्था की गतिशील समझदारी को सामने रखता है- पूँजीवाद को
निरंतर सुधारती और आतंरिक स्तर पर क्रांतिमान करने वाली ठोस प्रवृत्तियों को
व्यक्तिबद्ध करते हुए और उस पर अपना निर्णय सुनाते हुए. दूसरी ओर अलगाने और छांटने
वाली दिशाएँ वे हैं जहाँ उस स्तर पर वैज्ञानिक सामान्यीकरण संभव नहीं हुआ है और
जिसके चलते पूंजीवादी विकास की एक विशष्ट अवस्था मात्र की सापेक्षिक विशेषताओं का
तात्कालिक सामान्यीकरण ही हो सका है और जो अंतिम रूप से केवल पूंजीवाद के किसी
सामान्य चरित्र को ही पकड़ने में सक्षम हुआ है. यह आतंरिक आलोचना एक ख़ास अर्थ में
मार्क्स की आत्मालोचना का प्रतिनिधित्व करती है और उस कार्य से भिन्न है जहाँ कुछ मार्क्सवादी
सिद्धांतों का विरहस्यीकरण किया जाता है.
यह अंतिम बिंदु मार्क्स के कार्यों के बदले मार्क्सवाद के कुछ हिस्सों से अपना सम्बन्ध रखता है.
आजकल हम भोंड़े मार्क्सवाद
के विषय में व्यंग्य और भर्त्सना के साथ पेश आते हैं और जिसे हमने स्वयं मार्क्स
से सीखा है. शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में मार्क्स के निर्णय और
उनका रवैय्या हर कोई जानता है जिसे वह स्वयं भोंड़ा अर्थशास्त्र कहते थे.
शास्त्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र का महत्व इसमें है कि उसने संपत्ति के विविध रूपों
को उनकी आतंरिक एकता में संकीर्ण करने का प्रयास किया और इस तरह एक दूसरे से
स्वतंत्र सह-अस्तित्व वाली उनकी छवि से उन्हें महरूम कर दिया. शास्त्रीय
अर्थशास्त्र प्रपंचों की बहुरुपात्मकता से मुक्त कर तथ्यों के बीच आतंरिक सम्बन्ध
को समझना चाहता है और ऐसा करते हुए वह रहस्यीकरण की विशिष्ट प्रक्रिया के तहत ही
काम करता है. पर यह भी सही है कि शास्त्रीय अर्थशास्त्र सामाजिक चरमविरोधों के
वास्तविक विकास के साथ कदमताल कर सकता है और इस प्रकार पूंजीवादी विकास में
अन्तर्निहित वर्ग संघर्ष के वस्तुनिष्ठ धरातल के साथ-साथ चल सकता है. फिर भी
राजनीतिक अर्थशास्त्र के अन्दर या उसके विकास की एक विशिष्ट अवस्था में एक ऐसे
तत्त्व का आविर्भाव होता है जो इसके भीतर ‘प्रपंच के सरल पुनुरुत्पादन’ को इसके
सरल प्रतिनिधि के रूप में पेश करता है. यही वह भोंड़ा तत्त्व है जिसे किसी
समय बाकियों से अलग कर सामान्यतः पूरे अर्थशास्त्र का विशिष्ट प्रतिनिधि बना दिया जाता है. जैसे-जैसे वास्तविक
अंतर्विरोध बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे चिंतन के धरातल पर इसका पुनुरुत्पादन और
ज़्यादा संश्लिष्ट और कठिन होता जाता है, उसका वैज्ञानिक विश्लेषण और भी कठिन और
धीमा हो जाता है और वह भोंड़ा तत्त्व हमेशा की तरह एक स्वायत्त और वैकल्पिक तत्त्व
के रूप में अपने कार्यों का और ज़्यादा विरोध करता है, “तब तक जब तक कि उसकी
अभिव्यक्ति अकादमिक रूप से समन्वयकारी संकलन और चरित्रहीन शास्त्रीयता में नहीं हो
जाती”. भोंड़ा अर्थशास्त्र ज़्यादा से ज़्यादा क्षमाप्रार्थी होता जाता है और
वास्तविक अंतर्विरोधों को अभिव्यक्त करने वाले सारे अंतर्विरोधी विचारों का
“शब्दाडम्बर के द्वारा सफाया चाहता है”. आज जब हम मार्क्स के इन पन्नों को पढ़ते हैं और भौंडे अर्थशास्त्र के बारे में
सोचते हैं तो लगता है कि सब कुछ तो कहा जा चुका है.
इसी तरह एक अनिवार्य बिंदु और है
जिसे जोड़ा जाना आवश्यक है. अगर यह सही है कि रहस्यीकरण आज मार्क्सवाद की जड़ों तक
घुस गया है और अगर यह भी सही है कि इस भौंडेपन की प्रक्रिया का नेतृत्व करने वाले
कारण वस्तुनिष्ठ रहे चले आये हैं तब हमारा सबसे ज़रूरी कार्यभार यह है कि इन
वस्तुनिष्ठ कारणों की पहचान की जाय. केवल इन कारणों को जानने के लिए नहीं बल्कि
उनसे लड़ने के लिए. इस बारे में स्पष्ट होना आवश्यक है. यह केवल सैद्धांतिक स्तर पर
चलने वाला संघर्ष नहीं है. यह शुद्ध मार्क्सवादियों के नव-मतवाद द्वारा भौंडे
मार्क्सवादियों की पुरानी अकादमी का विरोध मात्र नहीं है. स्वयं सैद्धांतिक
कार्यभार को वर्ग संघर्ष के एक क्षण के रूप में धारण करते हुए हमें संघर्ष को
अनिवार्यतः वास्तविक धरातल पर ले जाना होगा. एक बार इस ज़रुरत से सहमत होने पर या
कहें मार्क्सवाद के मार्क्सी शुद्धिकरण से सहमत होने पर; अंतर्राष्ट्रीय
प्रपंचों की समस्स्त संश्लिष्टता के लिए उपयुक्त पूँजीवाद के विश्लेषण का वह
वैज्ञानिक स्तर एकबारगी पुनः प्राप्त कर कर लेने पर; एक बार फिर मार्क्स के
विचारों की वैज्ञानिक एकता पाने और उसके सत्यापित हो जाने पर, वह एकता जो
अर्थशास्त्र और समाजविज्ञान की तथा राजनीतिक सिद्धांत और वास्तविक व्यावहारिक
संघर्ष की जैविक एकता में अभिव्यक्त होती है- यहाँ से,इस बिंदु से पुनः
आरम्भ करना आवश्यक है, या कहें कि इस बिंदु से छलांग भरनी है. इस प्रक्रिया को दिशानिर्देश देने वाली
यथार्थ शक्तियों को खोजते हुए, उन वास्तविक स्थितियों की तलाश करते हुए जिन्होंने
आवश्यक रूप से इन्हें पैदा किया है, उन भौतिक कारणों का पता लगाते हुए जो एक बार
फिर स्वयं सिद्धांत को एक भौतिक शक्ति में बदल देगा.
अपने पहले के किसी भी दौर से
ज्यादा आज इस लेनिनवादी स्थापना का सत्य अपने पूर्ण वैभव के साथ उपस्थित है कि
बिना किसी क्रांतिकारी सिद्धांत के कोई क्रांतिकारी आन्दोलन
अस्तित्व नहीं रखता. रोज़-रोज़ की अंधी कार्यनीतियों से परे जब क्रांति के रणनीतिक
परिप्रेक्ष्य को देखने और समझने की सभी ज़रूरतों की अभिव्यक्ति हमें आवश्यक
लगती है तब हम समझ सकते हैं कि आज सिद्धांत की ज़रुरत कितनी महती है. उस सिद्धांत की जो पूंजीवादी
व्यवस्था के चरमविरोध के पूरे धनुष को पकड़ता और समझता है तथा उसे एक निर्णायक
बिंदु पर दो भागों में खंडित कर देता है जिससे वह उनकी शक्तियों को विभाजित रखने
में कामयाब होता है, उतना ही जितना कि सिद्धांत उनको एक रखने और समांगी बनाने में
सहायक हो सकता है. और इसी बीच ठीक इसका उल्टा भी आज से पहले इतना सही कभी नहीं था
कि बिना क्रांतिकारी संघर्ष के कोई क्रांतिकारी सिद्धांत संभव नहीं. इसलिए यह
आवश्यक है कि सिद्धांतकार पूँजीवाद के भीतर ज़िंदा रहने वाली सच्ची प्रतिरोधी
शक्तियों के पुनरान्वेषण और पुनर्संगठन पर अपना ध्यान केन्द्रित करे; उसे एक बार
फिर अपने अस्तित्व के प्रति चेतस होना होगा और इस अस्तित्व में वस्तुनिष्ठ रूप से
अभिव्यक्त क्रांतिकारी उदाहरण को भौतिक संगठन का रूप देने में अपना योगदान देना
होगा. आखिरकार मार्क्सवाद के विरहस्यीकरण की प्रक्रिया मज़दूर शक्ति के बिना संभव
नहीं. इसलिए मज़दूर शक्ति अर्थात् मज़दूर वर्ग का स्वायत्त संगठन ही विरहस्यीकारण की
वास्तविक प्रक्रिया है क्योंकि यही क्रान्ति का भौतिक आधार है.
इस माने में आज के मार्क्स की
वाग्मिता की प्रधान वस्तु अपने वर्तमान भौंडे मार्क्सवाद के रूप में भी भोंड़ा
अर्थशास्त्र नहीं हो सकती. अपनी पूर्वमान्यता और निष्कर्ष दोनों में ही इस
भौंडे मार्क्सवाद के पास मज़दूर आन्दोलन की एक भोंड़ी राजनीति है और इसी राजनीति के खिलाफ संघर्ष आवश्यक है. इसके
लिए आवश्यक है कि संघर्ष के रास्तों का सही चुनाव किया जाय और समकालीन मार्क्सवाद
इसमें चूक नहीं चाहता. इसके बावजूद कि कई बार इसकी गलत व्याख्या हुई है, यह एक
स्वाभाविक रीति है कि मज़दूर आन्दोलन की आतंरिक आलोचनाहमेशा वर्ग-शत्रु के
खिलाफ बाह्य संघर्ष में अभिव्यक्त होनी चाहिए. इसलिए मार्क्सवाद की आतंरिक आलोचना सबसे
पहले बुर्जुआ चिंतन के खिलाफ संघर्ष
में अभिव्यक्त होनी चाहिए. इस तरह आज सारी नव-पूंजीवादी विचारधाराओं की
विध्वंसक आलोचना ही वह आवश्यक प्रस्थान बिंदु होना चाहिए जिससे शुरू कर मज़दूर वर्ग
की सुधारवादी विचारधाराओं समेत सारी विचारधाओं की आलोचना तक पुनः पंहुचा जा सके.
यह भी हमने देखा कि आज पूँजीवाद के विश्लेषण को एक ख़ास अर्थ में विचारधारा
की आलोचना से पहले होना होगा क्योंकि उस आलोचना का आधार इसी विश्लेषण
को होना चाहिए. हम कह सकते हैं कि वर्तमान का सकारात्मक विश्लेषण अर्थात्
व्यावहारिक संघर्षों से हासिल महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टियों का सूत्रीकरण और उन भौतिक
शक्तियों का पुनरान्वेषण और पुनर्संगठन जिन्हें इन संघर्षों को आगे ले जाना
है- उसे आवश्यक रूप से पहले होना चाहिए और इस प्रकार तमाम विचारधारात्मक और राजनीतिक रहस्यीकरण के नकारात्मक विध्वंस का आधार होना
चाहिए.
निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं
कि आज की विचारधारात्मक स्थिति
संभवतः मार्क्सवाद के पहले की है लेकिन इस महत्वपूर्ण अंतर के साथ कि सैद्धांतिक स्थिति लेनिनवाद के पहले की है. कहने का अर्थ
यह कि आज आरम्भ करने का मतलब मार्क्स के पहले या लेनिन के बाद के
रास्ते को नापना नहीं है. शायद आज का रास्ता, और मैं इसे सोच-समझ कर भड़काऊ तरीके
से कह रहा हूँ कि एक बार फिर मार्क्स से लेनिन तक की छलांग पूरा करने का
है. समकालीन पूंजीवाद के विश्लेषण से शुरू कर आधुनिक पूंजीवाद के आधार पर सर्वहारा
क्रान्ति के सिद्धांत का निरूपण. मज़दूर क्रान्ति- अपने सम्पूर्ण साधनों को अपनी
सेवा में लगाते हुए- एक बार फिर ठोस तरीके से मज़दूर आन्दोलन का न्यूनतम
कार्यक्रम हो सके. एक बार पहले जब मज़दूर वर्ग ने लेनिन के सहारे मार्क्स का
पुनरान्वेषण किया तो उसका परिणाम हुआ अक्टूबर क्रान्ति. और जब यह खुद को दुहराता
है तो दुनिया में पूंजीवाद के लिए, मार्क्स के शब्दों में कहें तो, मृत्यु का
शंखनाद होता है.
(जनवरी, १९६२)
गुइओ जैकिन्तो द्वारा किये गए पुर्तगाली और इतालवी से अंग्रेजी अनुवाद के
सहारे किया गया हिंदी अनुवादOperismo in English
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